रवीन्द्राचार्य जी का वेदसंज्ञाविचार विषयक भ्रमोच्छेदन | Ravindracharya's bhramocchedana on vedasaṃjñāvicāra


लेखक - यशपाल आर्य

हमने वेदसंज्ञा विचार नाम से एक लेख लिखा जिसके विरुद्ध श्री रवीन्द्राचार्य जी ने वीडियो बनाया व परोपकारी पत्रिका के जुलाई 2023 के प्रथम अङ्क में लेख लिखा। दोनों में एक ही तर्क हैं। इनके तर्क व प्रमाणों के परीक्षणार्थ और सत्य के निर्णय हेतु हम इनके आक्षेपों का उत्तर देने हेतु यह लेख लिख रहे हैं।

हमारे वेदसंज्ञा विचार नामक लेख पढ़ने हेतु इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

https://aryaresearcher.blogspot.com/2023/04/veda-samjna-vicara.html


श्री रवीन्द्राचार्य जी लिखते हैं कि मैंने (श्री रवीन्द्राचार्य) कमेंट सेक्शन में शास्त्रार्थ हेतु आमंत्रित किया किंतु उत्तर नहीं आया।

उत्तर - आप इस गौण विषय को लेख में स्थान देंगे हमें ऐसी आशा नहीं थी। अस्तु! हमें व्यर्थ में इसपर विवाद करके लेख का कलेवर नहीं बढ़ाना है, इस आक्षेप का उत्तर हम अत्यंत संक्षेप रूप से देते हैं। आपने अपना परिचय नहीं दिया, ऐसे ही कोई भी आकर शास्त्रार्थ हेतु कहे तो क्या हम खाली बैठे हैं जो हर एक से शास्त्रार्थ करें? हां, जो विद्वान् हों उनसे अवश्य प्रीतिपूर्वक वाद कर सकते हैं। यदि आपको वाद करना ही था तो टेलीग्राम पर आकर चर्चा कर लेते। आप यहां लेख देखते ही कमेंट में आ गए। जरा बताएं महर्षि दयानन्द व वेद पर आज ऑनलाइन इतना प्रहार हो रहा है वहां आप शास्त्रार्थ की चुनौती नहीं देने गए, ऐसा क्यों?


आगे आप आक्षेप लगाते हुए लिखते हैं-

सक्तुमिव तितउना... (ऋ. १०.७१.२) का लेखक ने मनगढ़ंत अर्थ किया है, महर्षि पतञ्जलि ने सही अर्थ किया है। आगे आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि छालनी में ऊपर कचरा बच जाता है, उसकी तुलना हमने मंत्रों से की है।

उत्तर - हमने भगवान् पतञ्जलि के अर्थ का विरोध कहां किया है? जरा बताएं! एक मंत्र के एक से अधिक अर्थ होते हैं क्या आपको ज्ञात नहीं है? मेरा अर्थ कैसे मनगढ़ंत है आपने बताया नहीं, बिना प्रमाण के स्वयं ही निर्णय ले लिया। आचार्यवर आपके गुरु परंपरा के आचार्य स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने इसका क्या अर्थ किया है वह भी आप देख लेते तो हम पर ऐसा दोषारोपण न करते। तीन मंत्रों (१०.७१.१-३) पर स्वामी ब्रह्ममुनि जी का अर्थ देखें-

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः।

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः।।१।।

सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।

अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि।।२।।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते।।३।।

पदार्थ -

(बृहस्पते) हे वेदवाणी के स्वामी परमात्मन् ! (वाचः-अग्रं प्रथमम्) वाणी के श्रेष्ठरूप सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले (नामधेयं यत्-दधानाः प्रैरत) पदार्थमात्र के नामव्यवहार के प्रदर्शक वेद को धारण करते हुए परमर्षि प्रेरित करते हैं, जनाते हैं (यत्) यतः (एषाम्) इन परम ऋषियों का (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठ कार्य (अरिप्रम्-आसीत्) पापरहित-निष्पाप है (प्रेणा-एषां गुहा निहितम्) तेरी प्रेरणा से इन परमर्षियों के हृदय में प्रकट होता है।।१।।

(सक्तुम्-इव) सक्तु को (तितउना पुनन्तः) छालनी से शोधते हुए के समान (धीराः-मनसा) बुद्धिमान् या ध्यानशील मनसे (यत्र वाचम्-अक्रत) जहाँ वाणी को प्रकट करते हैं (अत्र) वहाँ वाग्विषय में (सखायः) वाग्विज्ञान के साथ समान ख्यान-आनुभविक ज्ञान को प्राप्त होते हैं (सख्यानि) यथार्थ ताद्भाव्य को अनुभव करते हैं (एषाम्-अधिवाचि) इन परम ऋषियों की वाणी में (भद्रा लक्ष्मीः-निहिता) कल्याणकारी अन्यों से लक्षणीय ज्ञान-सम्पत्ति निहित होती है।।२।।

(वाचः) मन्त्रवाणियाँ (यज्ञेन) अध्यात्मयज्ञ के द्वारा-ध्यान से (पदवीयम्) पदों द्वारा ज्ञानक्रम को (आयन्) प्राप्त होती हैं (ताम्-ऋषिषु) उस वाणी को मन्त्रों में (प्रविष्टाम्-अन्वविन्दन्) प्रविष्ट हुई को प्राप्त करते हैं (ताम्-आभृत्य) उस वाणी को भली प्रकार धारण करके (पुरुत्रा व्यदधुः) बहुत देशों में प्रचारित करते हैं (तां सप्त रेभाः) उस वाणी को सात छन्द विषयों को लक्ष्य करके (अभि सं नवन्ते) स्तुति करते हैं, वर्णित करते हैं।।३।।

भावार्थ

वेद का स्वामी परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों के पवित्र अन्तःकरण में वेद का प्रकाश करता है, जो पदार्थमात्र के गुण स्वरूप को बताता है, उसे वे ऋषि दूसरों को जनाते हैं।।१।।

परम ऋषि महानुभाव वाग्विषय को भली-भाँति शोधकर अपने अन्दर धारण करते हैं। वाणी के यथार्थ ज्ञान के साथ उनकी तन्मयता हो जाती है। ज्ञानसम्पत्ति की वे रक्षा करते हैं।।२।।

वेदवाणी एक-एक पद के साथ अर्थ को रखती हुई सात छन्दों में-मन्त्रों में ज्ञानयज्ञ तथा अध्यात्मयज्ञ से प्रकाशित होती है। जिसका भिन्न-भिन्न देशों में ऋषियों द्वारा प्रचार हो जाता है।।३।।

अब बताइए महोदय! स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने क्या अर्थ किया है? यदि आप यह कहें कि दूसरे मंत्र की स्वतंत्र व्याख्या न लेकर आप आगे पीछे के मंत्र दिखा कर छल कर रहे हैं, ब्रह्ममुनि जी ने भाष्य में उस मंत्र का स्वतंत्र अर्थ किया है। तो उत्तर है आचार्य महोदय, यह छल नहीं प्रत्युत अपने मिथ्या मत को बचाने हेतु आप छल कर रहे हैं। भगवान् यास्क के मतानुसार प्रकरण को देखकर ही वेदार्थ करना चाहिए, द्रष्टव्य नि. १३/१२। रवीन्द्राचार्य जी के अनुसार हमने शाखाओं आदि के मंत्रों का हमने कचरे से तुलना की है। वस्तुतः यहां वे जाति का प्रयोग कर रहे हैं। उदाहरण और साध्य में जितनी समानता दिखाई जाए उससे न तो न्यून व न तो अधिक समानता लेनी चाहिए प्रत्युत उतनी ही लेनी चाहिए। हमने कचरे से कब तुलना किया? हां, छाननी में शेष बचा भाग अनाज का ही होता है, उसे कचरा किसने बोल दिया आपसे? उसका अन्य उपयोग कर लिया जाता है। आपके इस गलती को समझाने हेतु एक दृष्टांत देते हैं-

“द्वा सुपर्णा...” मंत्र में ईश्वर, जीव और प्रकृति को समझाने हेतु दो पक्षियों तथा वृक्ष का उदाहरण दिया गया है। पक्षी एकदेशी शरीरधारी होता है तो क्या आपका ईश्वर भी एकदेशी शरीरधारी है? नहीं, यहां आप कहेंगे जितनी तुल्यता दिखानी हो उतना ही लेना चाहिए न्यून वा अधिक नहीं। तो आप हमारे पक्ष का अनुचित खंडन हेतु अधिक समानता दिखा कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?


आगे वे कहते हैं कि ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन का हमने (यशपाल आर्य ने) जो प्रमाण दिया है वहां दण्डिन्याय का प्रयोग है इसके पीछे उन्होंने हेतु यह दिया है कि स्वामी जी आरण्यक आदि को वेद नहीं मानते थे तथा आपके अनुसार आर्य्याभिविनय में भी ऋषि ने दण्डिन्याय से ही बोला है। दण्डिन्याय को समझाने हेतु विषय में उन्होंने निघण्टु का प्रमाण भी दिया है।

उत्तर - यहां आपने हेत्वाभास का प्रयोग किया है। महर्षि ने आरण्यकों को वेद नहीं माना है यह तो हम भी स्वीकार करते हैं। लेकिन हमारा पक्ष है कि महर्षि ने उनमें आए मंत्रों को अपौरुषेय माना है, जबकि आपका इसके विपरित मत है। आपको प्रथम यह सिद्ध करना चाहिए कि महर्षि का मत इसके विरुद्ध था तब तो यह हेतु बन सकता था लेकिन आप तो बिना सिद्ध किए ही यह हेतु दे दिए। जहां आपका मत न चले दण्डिन्याय का प्रयोग कर देंगे? क्या आपके मतानुसार पूर्वाग्रह से युक्त होकर सोचना ही सत्य का निर्णय करना है? ऐसा प्रतीत होता है दण्डि न्याय न होकर आपके असत्य मत को प्रचारित करने का साधन हो गया है। आपने लेख में अन्य हेतु दिया है, उनका यथास्थान खण्डन करने से आपके दण्डिन्याय वाले तर्क का भी खंडन हो जायेगा।

निघण्टु के प्रमाण को बिना समझे आपने कुछ भी लिख दिया। आपके कमेंट में डॉ. श्री सुद्युम्न जी आचार्य ने आपकी इस भूल को बताया लेकिन फिर भी आपने उन्हें कुछ रिप्लाई नहीं दिया। आप दूसरों पर दोषारोपण करते हैं किंतु स्वयं उत्तर नहीं देते। आचार्य सुद्युम्न जी लिखते हैं-

आप निघण्टु के जमत् को क्रियावाचक नहीं मानना चाहते। चकमानः को कान्तिकर्मा क्रियावाचक नहीं मानना चाहते। इसे सुबन्त होने से नाम या संज्ञा कहना चाहते हैं। आचार्य प्रवर, आपको याद दिलाऊं कि सुबन्त शब्द भी क्रियावाचक हो सकते हैं। भावप्रत्ययान्त पाकः, पाठः आदि शब्द सुबन्त होकर भी 'सिद्ध भाव' कहे जाते हैं। जमत्, चकमानः जैसे शब्द लट् के स्थान पर शतृ शानच् होकर बनते हैं। इन्हें क्रियावाचक + विशेषण माना जाता है। इंग्लिश में इन्हें participle कहते हैं, जिसे पूर्वोक्त परिभाषा के समतुल्य कहा जाता है।


आगे आप लिखते हैं-

“स्वामी दयानन्द जी ईशावास्य उपनिषद् को वेद मानते हैं और ईशावास्य उपनिषद् वास्तव में यजुर्वेद की काण्व संहिता का ४० वां अध्याय है। यह सत्य है कि वर्तमान में परम्परा से काण्व संहिता के ४० वें अध्याय को ईशावास्योपनिषद् मानते हैं।

आगे आप कहते हैं कि दक्षिण भारत में काण्व संहिता संहिता प्रसिद्ध थी अतः सायण ने उसका भाष्य किया, शंकराचार्य जी ने भी काण्व के ४०वें पर भाष्य किया किन्तु स्वामी दयानन्द के वचन से प्रतीत होता है कि यजुर्वेद (वाजसनेय माध्यन्दिन संहिता) का ४०वाँ अध्याय ही ईशावास्योपनिषद् है। इसका हेतु देते हुए श्री रवीन्द्राचार्य जी आगे लिखते हैं-

“स्वामी जी यदि काण्व संहिता को भी यजुर्वेद मानते तो यजुर्वेद की माध्यन्दिन संहिता की व्याख्या पूरा करके ‘...यजुर्वेदभाष्ये चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः समाप्तः। समाप्तश्चायं ग्रन्थ इति।' ऐसा क्यों लिखते? अर्थात् वे यजुर्वेद की माध्यन्दिन संहिता के ४० वें अध्याय की व्याख्या पूर्ण करके यजुर्वेद को समाप्त मानते हैं अर्थात् व्याख्या पूर्ण करके यजुर्वेद को समाप्त मानते हैं अर्थात् इससे आगे कोई यजुर्वेद नहीं है, ऐसा मानते हैं। अन्यथा वे ग्रन्थ को समाप्त नहीं मानते। उन्होंने कभी भी काण्व संहिता की व्याख्या करने अथवा पठन-पाठन व्यवस्था में जोड़ने का प्रयास नहीं किया। इसी से स्पष्ट है कि वे काण्व संहिता को वेद नहीं मानते।

उत्तर - आप शुक्ल यजुर्वेद की सम्प्रति उपलब्ध दोनों शाखाओं के ४०वें अध्याय को ईशावास्योपनिषद् रूप में स्वीकार कर रहे हैं। अथवा आपका यह भी पक्ष हो सकता है कि शुक्ल यजुर्वेद की अनुपलब्ध शाखाओं के भी ४०वें अध्याय को ईशावास्योपनिषद् नाम से जाना जाता था। दुर्जनतोष न्याय इस मत को मानकर हम प्रश्न करते हैं कि ऋषि ने माध्यन्दिन के अतिरिक्त अन्यों का निषेध कहां किया है। जो आप कहें कि विधान नहीं तो निषेध ही समझना चाहिए; तो उत्तर है यहां यह हेतु देना उचित नहीं है। यह हेतु वहां दिया जा सकता है जहां एक का स्पष्ट विधान हो लेकिन यहां तो ऐसा नहीं है। जैसे कोई राजा अपने सेवकों को बोले कि उत्तर दिशा में जाओ तो अन्य दिशाओं का निषेध स्वतः हो गया किन्तु यदि बहुत से विद्यार्थियों को कोई बोले कि कॉलेज जाओ तो यहां किसी कॉलेज का निषेध प्राप्त नहीं होता जिसको जिस कॉलेज में इच्छा हो एडमिशन ले सकते हैं। अतः आपका यह हेतु खण्डित है।

किसी के भी वाक्य का अर्थ प्रकरण देख कर ही करना चाहिए, यदि आप प्रकरण देखते तो ऐसे अर्थ का अनर्थ करने से बच जाते। ईशोपनिषद् के नाम से सर्वत्र काण्व संहिता का ४०वां अध्याय ही प्रसिद्ध है। यदि महर्षि का अभिप्राय माध्यन्दिन संहिता के ४०वें अध्याय से होता तो वे अवश्य लिखते, क्योंकि यह ऋषि वाक्य राजा शिवप्रसाद जी के उत्तर में है। यदि आपका मत माना जाए तो ऋषि पर असत्य भाषण का दोष आता है क्योंकि राजा को यह ज्ञात नहीं था कि यहां ईशावास्योपनिषद् का तात्पर्य काण्व संहिता का न होकर माध्यन्दिन संहिता के ४०वें है। अतः ऋषि के बात की बात भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली होने से भगवान् व्यास के मत में सत्य नहीं हो सकती द्रष्टव्य यो. द. व्या. भा. २.३०। अतः आपके मत स्वीकार करने पर ऋषि की बात मिथ्या की कोटि में आती है। क्या आचार्यवर आपको यह शोभा देता है कि अपने मत की सिद्धि हेतु आप ऋषि पर ही दोष लगा दे रहे हैं? आप यह मानते हैं कि ऋषि की मान्यता के अनुसार माध्यन्दिन संहिता का ४०वां अध्याय ही ईशावास्योपनिषद् है। जरा इस मत की पुष्टि हेतु माध्यन्दिन संहिता के ४०वें अध्याय को ईशावास्योपनिषद् मानने की परंपरा लेकर आएं। आपके अनुसार काण्व संहिता वा उसके ब्राह्मण की प्रसिद्धि दक्षिण भारत में थी, उत्तर में माध्यन्दिन की थी। जहां जिस शाखा की प्रसिद्धि थी वहां उसके अभीष्ट भाग उपनिषद् माने जाने लगे ऐसा आपका कहना है। काण्व शतपथ के अन्तर्गत बृहदारण्यकोपनिषद् आता है। माध्यन्दिन शतपथ के अभीष्ट भाग को किसने बृहदारण्यकोपनिषद् मानकर व्याख्या की है, इसका भी प्रमाण लेकर आएं।

आगे आचार्य महोदय के लिखने का भाव है कि ऋषि ने माध्यन्दिन संहिता के समाप्ति पर यह लिखा है कि यह ग्रंथ समाप्त हो गया, जो अन्य शाखाओं को वा उनमें उपस्थित मंत्रों को ऋषि वेद मानते तो ऐसा क्यों लिखते? आचार्य महोदय का यह हेतु भी इनके मत की पुष्टि नहीं करता। जैसे कोई ११वीं का विद्यार्थी कहे कि मेरी गणित पूरी समाप्त हो गई। अब क्या आप यह अर्थ लेंगे कि वह गणितज्ञ बन गया, अगली कक्षाओं की गणित उसने नहीं पढ़ा लेकिन बोल रहा है कि मेरी गणित समाप्त हो गई, अब क्या आप १२वीं की गणित को गणित नहीं मानेंगे? जैसे यहां मेरी गणित समाप्त हो गई का तात्पर्य यह नहीं है कि अब उसे गणित में कुछ पढ़ना शेष नहीं, अपितु यह है कि ११वीं की गणित समाप्त हो गई। वैसे ही यहां ग्रंथ के समाप्त होने का तात्पर्य यह है कि माध्यन्दिन संहिता समाप्त हो गई।

ऋषि लगभग ३ सहस्र ग्रंथों को प्रमाण मानते थे-

क्योंकि मैं अपने निश्चय और परीक्षा के अनुसार ऋग्वेद से लेके पूर्व मीमांसा पर्य्यन्त अनुमान से तीन हजार ग्रन्थों के लगभग मानता हूँ।

(भ्रान्ति निवारण)

ऋषि ने उस समय उपलब्ध ग्रंथों में से जिनको उन्होंने पढ़ा उनमें से प्रमाणिक ग्रंथों की संख्या उन्होंने लगभग में लिख दिया अन्यथा आप तो जिन्हें ऋषि ने पठन पाठन विधि में नहीं लिखा उन्हें व्यर्थ ग्रंथ समझ कर उपेक्षा ही कर रहे हैं। यह कूपमण्डूकता का लक्षण है।


श्री रवीन्द्राचार्य जी आगे लिखते हैं-

श्री यशपाल आर्य इससे आगे ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेद संज्ञा विचार प्रकरण की व्याख्या करते हुए लिखते हैं ‘...मन्त्र संहिताओं का नाम है अर्थात् जो मन्त्र हैं वे वेद हैं...।’ यह समझ में नहीं आ रहा कि वे किस को धोखा देना चाहते हैं? जब ऋषि मन्त्र संहिताओं का नाम वेद कह रहे हैं तो आप केवल मन्त्र को वेद कैसे कह सकते हैं? क्या संहिता शब्द वहाँ व्यर्थ है? इस प्रकार ऋषि के वाक्य में से अपने मतलब के शब्द लेकर पक्ष सिद्ध करने का प्रयास करेंगे तो हो सकता है ज्यादा ध्यान ना देने वाले कुछ भोले लोग उसको स्वीकार कर लें किन्तु विद्वानों के समक्ष इस प्रकार का प्रयत्न व्यर्थ होगा। इस पर और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है।

उत्तर - वाह आचार्यवर! लोगों को भ्रमित करना तो कोई आपसे सीखे। संहिता शब्द का प्रयोग ऋषि ने किया और हमने नहीं किया इसपर आपका खंडन अत्यन्त हास्यास्पद है। संहिता शब्द संचय, संकलन वा संग्रह का वाचक है। मंत्र संहिता का अर्थ होगा मंत्रों का संग्रह। जैसे कोई कहे कि अक्षरों के समूह से छंद का निर्माण होता है और दूसरा व्यक्ति कहे कि अक्षरों के से छंद का निर्माण होता है क्या दूसरा वाक्य पहले वाक्य के अर्थ से भिन्न अर्थ प्रदर्शित करता है? नहीं। क्या आप इतनी छोटी सी बात न समझ सके या पाठकों को धोखा देने हेतु ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं?

आपने यह तो स्वीकार कर लिया कि मंत्र संहिता की वेद संज्ञा है। ऋग्वेदीय शाङ्खायन शाखा में केवल मंत्र ही हैं और इसपर शाङ्खायनशाखीया ऋग्वेदसंहिता लिखा है। इसी प्रकार आश्वलायन संहिता भी केवल मंत्र युक्त है और इसपर भी आश्वलायनशाखीया ऋग्वेदसंहिता लिखा होता है और प्रत्येक अष्टक व मण्डल के अंत में इसे आश्वलायन संहिता शब्द से ही कहा गया है। आपके दिए हेतु से यह भी वेद सिद्ध होता है लेकिन आप अपने इसे वेद नहीं मानते, क्या आचार्यवर यह आपका दुराग्रह मात्र नहीं है?


आगे रवीन्द्राचार्य महोदय लिखते हैं-

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के इसी प्रकरण में ऋषि का निम्नलिखित वाक्य है-

‘... इषे त्वोर्जे त्वेति इत्यादीनि मन्त्रप्रतीकानि धृत्वा ब्राह्मणेषु वेदानां व्याख्यानकरणात्।’

बहुत सरल संस्कृत भाषा है। स्वामी जी लिखते हैं कि ग्रन्थों में 'इषे त्वा' इत्यादि मन्त्र के प्रतीक को लेकर वेद की व्याख्या की जाती है। किन्तु लेखकवर ने इसका भी अनर्थ कर दिया। वे इस सरल वाक्य का अनुवाद इस प्रकार करते हैं ‘...यहाँ ऋषि के अनुसार जिनकी धर के व्याख्या की जाए वे वेद और जिनमें प्रतीक धर के व्याख्यान किया जाए वे वेद नहीं प्रत्युत् उनके व्याख्यान हैं...’ इस प्रकार लेखक श्री यशपाल आर्य ऋषि के वाक्य का अनर्थ करते हुए अपना पक्ष सिद्ध करना चाहते हैं।

आगे श्री यशपाल आर्य ने अपने लेख में वेद मंत्रों के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति की लम्बी चर्चा की है और उसकी पुष्टि में अनेक प्रमाण भी देने का प्रयास किया। इस पर आगे अलग ही एक लेख लिखा जाएगा। किन्तु इस प्रकरण के अन्त में निष्कर्ष के रूप में वे लिखते हैं-

‘..इस सृष्टि में जिस पदार्थ के निर्माण में व समृद्धि होने में जिन मन्त्रों का योगदान होता है उन-उन मन्त्रों को उस पदार्थ के मानचित्र में यथास्थान पढ़ा जाता है। अर्थात् जो यज्ञ में मन्त्र पढ़ने का ऋषियों ने विधान किया है वे मन्त्र इस ब्रह्माण्ड में पूर्व से ही विद्यमान हैं। इस हेतु से भी शाखाओं में आए अतिरिक्त मन्त्र जिनका ब्राह्मण आदि में विनियोग है ईश्वरीय सिद्ध होते हैं।’ यह हेतु श्री यशपाल आर्य के अपने मनगढन्त सिद्धान्त पर आश्रित होने से नहीं हो सकता।

उत्तर - हमने ऋषि के वाक्य से निष्कर्ष निकाला है और आप इसे अनुवाद का नाम देकर छल कर रहे हैं। छल करने को ही आप वाद का नाम देकर लोगों को भ्रमित करना आपको सही लगता है? ऋषि के वाक्य से हमने यह अभिप्राय निकाला इसको अत्यल्प विस्तार से समझाते हैं - ‘ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ के माध्यम से सृष्टि को समझाया गया है। विभिन्न छंदों से सृष्टि का निर्माण हुआ है। अतः यज्ञ में वही छंद बोले जाते हैं जिनका सृष्टि निर्माण में उपयोग हुआ हो।’

यज्ञ सृष्टि का मानचित्र है, इसको समझाने हेतु हमने पण्डित श्री युधिष्ठिर जी मीमांसक का वचन उद्धृत किया था, लेकिन आप उसे भी नहीं समझ सके। पण्डित जी ने अपने मन से यह नहीं लिखा, अपितु निरुक्तकार भगवान् यास्क के आधार पर लिखा है। आगे हमने ऋषियों का प्रमाण देते हुए अति संक्षेप से यह लिखा है कि मंत्रों की सृष्टि निर्माण में भूमिका होती है। घोर आश्चर्य की बात है आप उसे समझ न सके, उल्टा इसे हमारी मनगढ़ंत कल्पना बोल बैठे। अस्तु! समझेंगे कहां से? ऋषियों के कथन को समझने हेतु प्रतिभा चाहिए, हठ दुराग्रह से मुक्त होकर परमात्मा पर विश्वास रखकर तर्क और ऊहा के बल पर अनुसंधान करना होता है। दुर्भाग्य से आपमें वे लक्षण दिखाई नहीं देते। आप मंत्रों से सृष्टि बनने के ऊपर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि हम इसपर अलग से लेख लिखेंगे। वाह आचार्यवर! यह विषय आपके सिर के ऊपर से निकल गया तो आप बाद में खंडन करने का बहाना बना कर बिना हमारे मत का उत्तर दिए हमारी कल्पना कह कर आगे बढ़ गए। बात प्रमाण से रखी जाती है लेकिन आप तो अपने वाक्य को ही शब्द प्रमाण समझ कर प्रस्तुत कर दिए। चलिए कोई बात नहीं। कम से कम आप पण्डित श्री भगवद्दत्त जी कृत वैदिक वाङ्मय का इतिहास प्रथम भाग ही पढ़ लेते तो यूं कुतर्क न करते। पण्डित जी लिखते हैं-

दैवी यज्ञ-

सृष्टि बन रही थी। आकाश में दैवी यज्ञ हो रहे थे। ये यज्ञ विचित्र थे। इन्हीं का प्रतिरूप पृथिवी पर किये जाने वाले मानुषी यज्ञ हैं। इन यज्ञों में मन्त्र उच्चारित हो रहे थे। ये मन्त्र दैवी वाक् थे। ये मन्त्रों और ब्राह्मणों में लिखा है-

(क) यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः। ऋ० १/१६४/५०॥

(ख) प्रजापतिर्वा एक आसीत्। सोऽकामयत। यज्ञो भूत्वा प्रजाः सृजेय इति। मैं० सं० १/९/३/३

अर्थात्- प्रजापति (=विराट्रूप स्वयम्भू ब्रह्म) एक था। उसने कामना की, यज्ञरूप होकर प्रजाएं उत्पन्न करूं।

(ग) असौ आदित्यः इन्द्रः। रश्मयः क्रीडयः। मै० सं० १/१०/१६

(घ) असौ आदित्यः श्रुवो, द्यौर्जुहूः। अन्तरिक्षम् उपभृत्। पृथिवी ध्रुवा। मै० सं० ४/१/१२

(ङ) असो वै चन्द्र: पशुस्तं देवाः पौर्णमास्यामालभन्ते। श० ब्रा० ६/२/२/१७

(च) इयं वा अग्निहोत्रस्य वेदिः।। मै० सं० १/८/७

(छ) इन्द्रं जनयामेति। तेषां पृथिवी होता आसीत्‌। द्यौः अध्वर्युः। त्वष्टा अग्नीत्‌। मित्र उपवक्ता।। का० सं० १/८/७

(ज) पुरुषो वै यज्ञः...तस्य इयमेव जुहूः...। श० ब्रा० १।२।३

(झ) स वा एष संवत्सर एव यत् सौत्रामणीः...। श० ब्रा० १२/८/२/३६

(ञ) तदु होवाच वारुणिः, द्यौर्वा अग्निहोत्री। तस्या आदित्य एव वत्सः। जै० ब्रा० १/६०

अर्थात् इन यज्ञों में इन्द्र आदि देव, पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यो आदि लोक, ग्रह तथा नक्षत्र पितर और ऋषि सब भाग ले रहे थे। यह वेद की अपरिमिता महिमा है, जिसमें विज्ञान का समुद्र भरा है। वर्तमान साइंस इस विद्या के समीप भी नहीं पहुंच पाया।

बलि रहित यज्ञ- ब्राह्मण ग्रन्थों में कभी अग्नि, कभी पृथ्वी, कभी चन्द्र और कभी ग्रह आदि को पशु कहा है। आकाशस्थ यज्ञों में ये पशु वेदियों के समीप रहते थे। इनका वध नहीं हुआ। यज्ञ करने वाले देव अपने साथी देवों की बलि कैसे देते। इसलिए कृतयुग में पृथ्वी पर जो यज्ञ मनुष्यों द्वारा हुए, उनमें कहीं बलि नहीं दी गई। महाभारत, चरक संहिता और वायुपुराण में ऐसा लिखा है। उत्तर काल में पिष्ट-पशु का विधान हुआ। इन यज्ञों में पशु वध सर्वथा नवीन कल्पना है।

यज्ञों में मन्त्र पाठ - इन यज्ञों में ऋषि और देवता दिव्य वाणी में मन्त्र पाठ करते थे। पंच-भूतों, देवों और आकाशी ऋषियों में लोक निर्माण समय की विचित्र गतियों से जो ध्वनियां उठतीं और जो दैवी-गान होते थे, वे ही ये वेद-मन्त्र हैं। इनका आदि प्रेरक भगवान् परमपुरुष है, जिसकी सत्ता से अग्नि तपता है, वायु बहता है, सूर्य प्रकाश देता है । वह परब्रह्म इस सारी कला का प्रेरक है। इसलिए मन्त्र मनुष्य - निर्मित नहीं हैं। ये अपौरुषेय हैं। देवों और ऋषियों द्वारा ही आकाश में पहले सामगान हुए। पार्थिव ऋषियों को इन्हीं ध्वनियों का तदनु ज्ञान हुआ। ये

ध्वनियां उनमें ईश्वर कृपा से प्रविष्ट हुईं। मन्त्र कहता है-

यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्युषिषु प्रविष्टाम्। ऋ० १०/७१।३।।

अर्थात्-यज्ञ के द्वारा वाक् की समर्थता को प्राप्त हुए। उस वाक् को उन्होंने (देवों के) पश्चात् प्राप्त किया, ऋषियों में प्रविष्ट हुई को। स्पष्ट है कि पार्थिव ऋषियों में इस प्रविष्ट हुई वाणी को पश्चात् प्राप्त किया गया। पहले यह आकाशी ऋषियों में थी। ये आकाशी ऋषि मन्त्रों में पूर्व ऋषि कहे गए हैं। इनकी तुलना में पार्थिव ऋषि नूतन ऋषि थे। दैवी यज्ञ में जो मन्त्र पहले उच्चरित हुए, वे पुरातन और पूर्व मन्त्र थे। पश्चात् गायी गई स्तुतियां नयी थीं।

मन्त्रों अथवा वाक् की उत्पत्ति का यह अधिदैवत पक्ष अन्यत्र भी पाया जाता है। ऋग्वेद का प्रसिद्ध मन्त्र है-

तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। यजुस्तस्माद् अजायत।१०/१०/९॥

अर्थात् उस (दैवी) यज्ञ से जो सर्वहुत था, ऋचाएं साम उत्पन्न हुए, यजुः उससे उत्पन्न हुआ।

प्रविष्ट वाणी बाहर निकली - पृथ्वी पर यह ज्ञान, ऋषियों में, ईश्वर कृपा से प्रविष्ट हुआ। तब ज्ञान के प्रेम में निमग्न उन ऋषियों के हृदय गुहा से यह व्यक्त दैवी वाक् में बाहर निकला। यथा-प्रेणा तवेषां निहितं गुहाविः। ऋ० १०/७१/१

छन्द उत्पत्ति - ब्राह्मण ग्रन्थों में यह तत्व भी बड़ा स्पष्ट है। इस महती विद्या से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण वैदिक छन्द सबसे पूर्ण आकाश में उत्पन्न हुए थे। संभव है भविष्य में आर्य विद्वान् इस तत्व को परीक्षण द्वारा सिद्ध कर सकें। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए आगम के विद्वान् भतृहरि ने अपने वाक्यपदीय के आगम-काण्ड में किसी लुप्त ऋक् शाखा का एक मन्त्र पढ़ा है-

इन्द्राच्छन्दः प्रथमं प्रास्यदन्नं तस्मादिमे नामरूपे विषूची।

नाम प्राणाच्छन्दसो रूपमुत्पन्नमेकं छन्दो बहुधा चाकशीति॥

अर्थात् इन्द्र से, प्रथम छन्द निकला। अन्यत्र लिखा है, वृत्र वध के समय इन्द्र महानाम्नी ऋचाओं की तरंगें उत्पन्न कर रहा था। मरुत् उसके सहायक थे।

(वैदिक वाङ्मय का इतिहास प्रथम भाग - वेद वाक् तथा संस्कृत भाषा)


आगे आप लिखते हैं-

आगे वे शतपथ ब्राह्मण के निम्न वाक्य प्रस्तुत करते हैं-

‘तदु हैकेऽन्वाहुः। होता यो विश्ववेदसऽइति ... तदु तथा न ब्रूयात् मानुषं ह ते यज्ञे कुर्वन्ति...।’

अर्थात् किसी आचार्य का मत है कि ‘होतारं विश्ववेदसं’ की जगह 'होता यो विश्ववेदस' ऐसा पढ़ें। यह इसलिए है कि स्वयं को 'अरं' ना कहना पड़े (उनके मत में स्वयं को 'अरं' कहना अशुभसूचक है)। महर्षि याज्ञवल्क्य इसका निराकरण करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार मन्त्र में परिवर्तन करके बोलना अनुचित है, क्योंकि वह मन्त्र मानुष हो जाता है और यज्ञ में जो भी मानुष है वहाँ हानि करने वाला होता है। यहाँ महर्षि याज्ञवल्क्य ने मानुष मन्त्रों की बात कही है। ये मानुष मन्त्र चार मूल संहिताओं को छोड़कर अन्य सहिताओं में हो सकते हैं इससे तो हमारा पक्ष ही सिद्ध होता है कि चार मूल संहिताओं के मन्त्र ही ईश्वरकृत हैं, अन्य संहिताओं के मानुष मन्त्र ईश्वरकृत हैं।

उत्तर - हमने इस प्रमाण को अपने पक्ष की सिद्धि हेतु प्रस्तुत किया है। इससे तो उल्टा आपका पक्ष खण्डित होता है। यहां पर बोला है कि यज्ञ में मानुषी मंत्र नहीं पढ़ने चाहिए, इससे सिद्ध होता है कि यज्ञ में पढ़े गए मंत्र ईश्वरीय होते हैं। विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक ऐसे मंत्र यज्ञ में पढ़े जाते हैं जो केवल शाखा में विद्यमान होते हैं, इससे वे मंत्र ईश्वरीय सिद्ध होते हैं। इसको हमने इतने साफ शब्दों में लिखा था फिर भी आप अपने दुराग्रह के वश में होकर इसे न देख सके तो किसका दोष है? आप कम से कम संस्कार विधि ही देख लेते। ऋषि ने अनेक ऐसे मंत्र दिया है जो चार संहिताओं में प्राप्त नहीं होते। बताइए आचार्यवर, क्या ऋषि यज्ञ में हीनता चाहते थे जो उन्होंने ऐसे मंत्रों का विधान किया या उन्होंने शतपथ के प्रमाण को देखा नहीं था?


आगे आचार्य महोदय लिखते हैं-

गोपथ ब्राह्मण में यह जो कहा गया है कि अथर्ववेद का अध्ययन 'शन्नो देवी' मन्त्र से आरम्भ होता है इससे स्पष्ट है कि गोपथ ब्राह्मण पैप्पलाद शाखा का है। इसी कारण से अपनी शाखा सम्बन्धित संहिता के अध्ययन सम्बन्धी बात गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में कही गयी है। इससे हम कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। महाभाष्य में चार मन्त्र प्रस्तुत किए गए हैं। महाभाष्यकार ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की थी कि ये सब मन्त्र चारों संहिताओं के आरम्भिक मन्त्र हैं। यह तो हमारी ही कल्पना है कि चारों मन्त्र चारों संहिताओं के आरम्भिक मन्त्र हैं। अतः दोष हमारी कल्पना में है । स्वामी दयानन्द ने जो यह कहा है कि चारों मन्त्र वेदों के आरम्भिक मन्त्र हैं, तो इसको भी हमें दण्डिन्याय के अनुसार समझना चाहिए। ( दण्डिन्याय के विषय में हम पहले ही बता चुके हैं)। यहाँ अधिकांश मन्त्र अर्थात् तीन मन्त्र तीन वेदों के आरंभिक मन्त्र हैं। क्योंकि स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश में यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अथर्ववेद का आरम्भ 'ये त्रिषप्ताः' से होता है, अतः यहाँ 'शन्नो देवी' मन्त्र अथर्ववेद का आरम्भिक मन्त्र नहीं हो सकता।

उत्तर - गोपथ ब्राह्मण को आपने पैप्पलाद शाखा का मानकर जो समाधान देने का प्रयास किया है वह आपके पक्ष को सिद्ध नहीं करता अपितु हमारे ही पक्ष की पुष्टि कर रहा है। गोपथ ब्राह्मण में वेद के रूप में पैप्पलाद शाखा का प्रथम मंत्र उद्धृत है। क्या आपको इतना भी नहीं समझ आ रहा कि इससे यह सिद्ध होता कि गोपथ ब्राह्मण के अनुसार पैप्पलाद संहिता वेद है?

महाभाष्य पर आपने जो कुतर्क दिया है उससे आपकी कुशाग्र बुद्धि पर तनिक भी संदेह नहीं रह जाता। आप यदि सामान्य तर्क परीक्षण का भी अध्ययन किए होते तो ऐसे उत्कृष्ट कुतर्क न करते। जब तीन वेद के प्रथम मंत्र हैं तो अथर्ववेद का प्रथम मंत्र क्यों नहीं है? यहां हम परम्परा के विद्वानों का प्रमाण न देकर आर्य विद्वानों के ही प्रमाण से आपका भ्रमोच्छेदन करते हैं। पण्डित युधिष्ठिर जी ने भी शन्नो देवी० को पैप्प्लाद संहिता का ही प्रथम मंत्र माना है, उनका महाभाष्य उठा कर देख लीजिए। गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित कैय्यट व नागेश कृत व्याख्या महाभाष्य उठा कर देख लीजिए, वहां भी मूल महाभाष्य में इसे पैप्पलाद संहिता का प्रथम मंत्र लिखा गया है। व्याकरण परंपरा विद्वान् तो मानते ही हैं, हमें उनके प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। भूल किसकी है हमारी या आपकी स्वयं विचार करें।

पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी कृत महाभाष्य व्याख्या में देखें-



गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित महाभाष्य में देखें-

वाह! आचार्यवर सम्भवतः आपने यही सीखा है कि जब कुछ न बने और अपना असत्य पक्ष पराजित होने लगे तो दण्डिन्याय नामक अंतिम अस्त्र का प्रयोग करना है। आपके मतानुसार अपने असत्य पक्ष के ग्रहण करने और अन्यों के सत्य पक्ष को भी छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। जहां दण्डिन्याय का प्रयोग करना चाहिए वहां नहीं करेंगे लेकिन सत्य को दबाने हेतु जरूर करेंगे। ऋषि के कथन पर दण्डिन्याय का प्रयोग करना अनुचित है। क्योंकि सर्वत्र यह पैप्पलाद संहिता के प्रथम मंत्र के रूप में इसे स्वीकार किया गया है और ऋषि ने इसे वेद का प्रथम मंत्र कहकर इसी का समर्थन किया है और यह भी सिद्ध हो जाता है कि पैप्पलाद संहिता भी वेद है। आप कहते हैं ऋषि ये त्रिषप्ताः परियन्ति० अथर्ववेद का प्रथम मंत्र मानने हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ऋषि अन्यों को अथर्ववेद का प्रथम मंत्र नहीं मान सकते। हम पूर्व में अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध कर चुके हैं ऋषि दयानन्द व अन्य ऋषियों के अनुसार शाखाओं के मंत्र भी वेद हैं। आपने जो आक्षेप लगाया है उनका उत्तर इस लेख को आद्योपान्त पढ़ कर प्राप्त कर सकते हैं। हमारी बात को एक उदाहरण से समझिए - जैसे अध्यापक ९वीं कक्षा में कहे कि गणित का पहला अध्याय Number Systems है। और वही अध्यापक ११वीं में कहे कि गणित का प्रथम अध्याय Sets है तो क्या आप पहले कथन को देखकर दूसरे को नकार देंगे? नहीं क्योंकि दोनों ही कथन सत्य हैं एक ९वीं के लिए तो दूसरा ११वीं के लिए। ऐसे ही ऋषि के दोनों कथन सत्य हैं शाखा भेद होने से।


आचार्य महोदय आगे लिखते हैं-

‘तेन प्रोक्तम्' सूत्र के महाभाष्य के वाक्यों का जो श्री यशपाल आर्य ने अर्थ किया है वास्तव में वे वाक्य पूर्वपक्ष के हैं । यह अत्यन्त हास्यास्पद है कि वे पूर्वपक्ष के वाक्य को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करके अपना पक्ष सिद्ध करना चाहते हैं । उससे आगे सिद्धान्ती कहता है कि वेद में कहा गया अर्थ नित्य है किन्तु वहाँ वर्णानुपूर्वी तो अनित्य है । अर्थात् ये सब शाखाएं ऋषियों के द्वारा बनाई गई हैं। वेद के अर्थ के अनुसार ही बनाई गई हैं, किन्तु शब्दावली ऋषियों की होने से अनित्य हैं।

उत्तर - वाह आचार्यवर! उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। आपने कैय्यट और नागेश की व्याख्या भी देखा होता तो यूं आप कुतर्क न करते। हमारे पक्ष को आक्षेप निवारक माना गया है। और जो आप आनुपूर्वी को अनित्य बता रहे हैं उसकी व्याख्या तो देख लेते कि आनुपूर्वी अनित्य होने का क्या अर्थ है। सिद्धान्त रूप में कैय्यट ने भाष्य में क्या लिखा है उसे बिना देखे ही आपने खण्डन कर दिया। क्या आर्ष ग्रंथों को पढ़ कर यही छल करना सीखा है आपने? कैय्यट व नागेश की व्याख्या -





आगे आचार्यवर लिखते हैं-

आगे श्री यशपाल आर्य का कथन है कि ऋषि केवल वेद मंत्रों का ही दर्शन करते हैं, किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है, वे अन्य शास्त्रों का भी दर्शन करते हैं। विद्या के जो चार विभाग हैं उसमें अन्तिम विभाग साक्षात्कार है अर्थात् है और सभी शास्त्र विद्या के अंदर आते हैं केवल वेद नहीं, अतः श्री यशपाल आर्य की यह प्रस्तुति भी उनके पक्ष की सिद्धि में किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं है।

उत्तर - वाह अचार्यवर! आप कुतर्क द्वारा अन्य पक्ष का खण्डन कैसे करें इसपर पूरा ग्रंथ लिख सकते हैं। यहां मंत्रों के द्रष्टा की बात हमने कहा और आप इसे विद्या के द्रष्टा पर घटाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रसंग देखकर ही अर्थ करना चाहिए। आप जैसे बुद्धि वाले सेवक किसी राजा के हों तो सैन्धव मांगने पर गमनकाल में नमक और भोजनकाल में घोड़ा लेकर जायेंगे। जब वहां मंत्र द्रष्टा हैं तो आप जबरदस्ती विद्या के दर्शन का कुतर्क कैसे कर सकते हैं? मंत्रों के साथ उल्लिखित ऋषि को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में क्या बोला है इसे हम अपने लेख में लिख ही चुके हैं अतः यहां दोहराना आवश्यक नहीं समझते। यहां ऋषि दयानन्द का एक और प्रमाण देते हैं-

यतो वेदानामीश्वरोक्त्यनन्तरं येन येनर्षिणा यस्य यस्य मन्त्रस्यार्थो यथावद्विदितस्तस्मात्तस्य तस्योपरि तत्तदृषेर्नामोल्लेखनं कृतमस्ति। कुतः ? तैरीश्वरध्यानानुग्रहाभ्यां महता प्रत्यनेन मन्त्रार्थस्य प्रकाशितत्वात्, तत्कृतमहोपकारस्मरणार्थं तन्नामलेखनं प्रतिमन्त्रस्योपरि कर्तुं योग्यमस्त्यतः।

(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - प्रश्नोत्तरविषयः)

यदि अब भी मंत्रों को देखने पर आप यह कुतर्क करते हैं कि ऋषि तो वहां विद्या के द्रष्टा हैं तो आपको महर्षि ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।

वही ऋषि जब शाकलादि चार संहिताओं के ऊपर लिखे होते हैं तो आप बोलते हैं कि यह ऋषि मंत्र द्रष्टा है और मंत्र ईश्वरीय हैं किन्तु वही ऋषि शाखाओं में आए अतिरिक्त मंत्रों का द्रष्टा हो जाए तो वहां ऋषि विद्या का द्रष्टा हो गया, वाह आचार्य महोदय ऐसे तर्क आप कहां से लाते हैं? जैसे ऋग्वेदीय शाकल संहिता के ५वें मण्डल के ४९वें सूक्त में ५ मंत्र हैं और सबका ऋषि प्रतिप्रभ आत्रेय है किन्तु आश्वलायन संहिता के इस सूक्त में ६ मंत्र हैं और सभी मंत्रों का ऋषि भी प्रतिप्रभ आत्रेय ही है और ५वें तथा ६वें मंत्र का ऋषि तृणपाणि भी है। यहां भी मंत्रों के ऊपर ऋषि लिखे हैं किंतु घोर आश्चर्य है कि आप ५ मंत्रों को तो ईश्वरीय मानते हैं और ६वें को मनुष्यों की रचना बोल देते हैं। कम से कम ऋषि दयानंद और अन्य ऋषियों के कथन तो देख लेते एक बार तब कुछ कहते तो उचित होता लेकिन आप बिना कुछ पढ़े ही कुतर्क करके सामने वाले का खंडन करने का प्रयास करते हैं।

हमने मंत्रों के ऊपर उल्लिखित देवता पर भी लिखा था लेकिन आचार्य महोदय उसका खंडन किए बिना ही आगे बढ़ गए। अस्तु! संभव है कि आचार्य महोदय देवता के गंभीर विषय को न समझ सके हों।


आगे आचार्य रवीन्द्र जी लिखते हैं-

आगे श्री यशपाल आर्य ने स्वामी दयानन्द जी का मत प्रस्तुत करते हुए बताया कि वेद, मन्त्र, निगम, श्रुति ये सब पर्याय शब्द हैं। सत्य है कि स्वामी जी ने इन सबको पर्यायवाची माना है। किन्तु इन शब्दों के और कोई अर्थ नहीं हो सकते, ऐसा स्वामी जी ने नहीं कहा। वस्तुतः ये शब्द अन्य अर्थों में भी देखे जाते हैं। जैसे कौटिल्य अर्थशास्त्र, मनुस्मृति आदि राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्रों में मन्त्र शब्द 'गुप्त योजना' के लिए प्रयोग किया जाता है। श्रुति शब्द का 'श्रवण' मात्र अर्थ में बहुधा प्रयोग होता है। वाचस्पत्यम् कोष में निगम शब्द के १० अर्थ दिए हुए हैं । निरुक्तकार निगम शब्द का प्रयोग वेद के अर्थ में भी करते हैं तथा ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अर्थ में भी करते हैं। इसलिए शब्दों को इस प्रकार बांधकर अपना पक्ष सिद्ध नहीं करना चाहिए।

चार मूल संहिताओं के अतिरिक्त अन्य संहिताओं में आए वाक्यों के लिए ऋषियों ने मन्त्र निगम आदि शब्दों का प्रयोग किया है, क्योंकि वे वाक्य भी मन्त्र की तरह ही होते हैं, मन्त्रों में थोड़े से परिवर्तन करके बनाए गए होते हैं। ऋषियों के इस गौण कथन मात्र से वे वाक्य ईश्वरीय मन्त्र नहीं हो सकते हैं।

जिस प्रकार पत्नी शब्द यज्ञ के संयोग में ही प्रयोग करने का विधान है, किन्तु लोक में 'वृषलस्य पत्नी' अर्थात् किसी दुष्ट व्यक्ति की पत्नी, ऐसा प्रयोग देखा जाता है, अर्थात् ऐसे व्यक्ति की पत्नी जिसका यज्ञ से कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा प्रयोग देखा जाता है, तो हमें गौण प्रयोग को भी स्वीकार करना चाहिए।

उत्तर - प्रथम तो आपने यहां हेतु दिया नहीं कि निरुक्त में ब्राह्मण आदि के वचन भी निगम नाम से कहे जायेंगे और बिना हेतु दिए ही उदाहरण दे रहे हैं जो कि दोष है। जो यह कहें कि पूर्व में हमने हेतु दिया तो पूर्व के सारे हेतुओं का खण्डन होने से यहां भी आपका खण्डन हो गया।

यहां आप यह कुतर्क कर रहे हैं कि निगम के अनेक अर्थ होते हैं अतः सर्वत्र वेद ही ग्रहण नहीं होगा। क्या उत्तम तर्क दिया है आपने, आपने दिव्य तर्क को देखकर बड़े बड़े न्याय दर्शन के पण्डित नतमस्तक हो जायेंगे। यह तर्क करने से पूर्व कम से कम एक बार मेरा दिया प्रमाण तो पढ़ लेते। ऋषि लिखते हैं कि निरुक्त में जिसे इत्यपि निगमो भवति कहा है सो वेद है।

ऋषि के मूल कथन तो देख लीजिए-

एवं श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः इति मनुस्मृतौ।

निगमो भवति इति निरुक्ते।

श्रुतिर्वेदो मन्त्रश्च निगमो वेदो मन्त्रश्चेति पर्यायौ स्तः। श्रूयन्ते वा सकला विद्या यया सा श्रुतिर्वेदो मन्त्राश्च श्रुतयः। तथा निगच्छन्ति नितरां जानन्ति प्राप्नुवन्ति वा सर्वा विद्या यस्मिन् स निगमो वेदो मन्त्रश्चेति।

[ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - वेदविषयविचार]

किन्तु यहां भी आपको जबरदस्ती कुतर्क करना है। ऋषि का वाक्य पूर्णतः स्पष्ट होने से आपका कुतर्क मान्य नहीं हो सकता। चलिए कोई बात नहीं एक और प्रमाण देते हैं। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में ऋषि पुरुष शब्द पर निरुक्त का वचन उद्धृत करते हैं-

पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा । पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभि-

यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किंचित्।

वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरिषेण सर्वम्॥ इत्यपि निगमो निगमो भवति॥

निरु० अ० २। खं० ३॥

[निरुक्त और तैत्तिरीय आरण्यक में पुरिषेण के स्थान पर पुरुषेण पाठ प्राप्त होता है, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में संभवतः typing mistake है]

अब इसकी व्याख्या करते हुए ऋषि लिखते हैं-

(यस्मात्परं०) यस्मात् पूर्णात्परमेश्वरात्पुरुषाख्यात्परं प्रकृष्टमुत्तमं किंचिदपि वस्तु नास्त्येव पूर्वं वा (नापरमस्ति) यस्मादपरमर्वाचीनं, तत्तुल्यमुत्तमं वा किंचिदपि वस्तु नास्त्येव। तथा यस्मादणीयः सूक्ष्मं, ज्यायः स्थूलं महद्वा किंचिदपि द्रव्यं न भूतं न भवति, नैव च भविष्यतीत्यवधेयम्। य स्तब्धो निष्कम्पः सर्वस्यास्थिरतां कुर्वन्सन् स्थिरोऽस्ति। क इव? ( वृक्ष इव ) यथा वृक्षः शाखापत्रपुष्पफलादिकं धारयन् तिष्ठति, तथैव पृथिवीसूर्यादिकं सर्वं जगद्धारयन्परमेश्वरोऽभि- व्याप्य स्थितोऽस्तीति। यश्चैकोऽद्वितीयोऽस्ति, नास्य कश्चित्सजातीयो वा द्वितीय ईश्वरोऽस्तीति तेन पुरिषेण परमात्मना यत इदं सर्वं जगत् पूर्णं कृतमस्ति, तस्मात्पुरुषः परमेश्वर एवोच्यते इत्ययं मन्त्रो निगमो निगमनं परं प्रमाणं भवतीति वेदितव्यम्।

[ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - सृष्टिविद्याविषय]

यहां ऋषि ने यस्मात्परं० को वेद बोल दिया जरा बताएंगे ये किस वेद का मंत्र है? आपको बता दें कि यह तैत्तिरीय आरण्यक [१०/१०/३] का मंत्र है।

 

आगे आचार्य महोदय कहते हैं-

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी शाखा को ऋषि - प्रोक्त मानते हैं यह बात श्री यशपाल आर्य ने स्वीकार की है। और इस पक्ष में तीन दोष रखते हुए श्री यशपाल आर्य स्वामी दयानन्द जी के मत का खण्डन करने का प्रयास करते हैं।

उत्तर - हमने अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि महर्षि शाखाओं के मंत्रों को ईश्वरीय ही मानते थे। जबकि आप कह रहे हैं कि हमने यह स्वीकार किया है कि ऋषि शाखाओं को ऋषियों की रचना स्वीकार करते थे। कितना झूठ बोलेंगे आचार्यवर? हमने यह कहा कि ऋषि के वाक्य का जैसा रूढ़ अर्थ सभी लेते हैं उसके अनुसार मंत्रात्मक शाखाएं भी मनुष्य कृत हैं, उस पक्ष पर हमने आक्षेप उठाया है न कि ऋषि पर। जरा एक बार पुनः लेख देख लेवें। किन्तु उस प्रसंग में ऋषि ने ब्राह्मणादि व्याख्यान ग्रंथों को ही व्याख्यान होने से शाखा शब्द से ग्रहण किया है न कि मंत्र संहिताओं को।


आगे आचार्य महोदय लिखते हैं-

श्री यशपाल आर्य का बताया प्रथम दोष- एक ओर स्वामी जी ने सभी शाखाओं को ऋषि-प्रोक्त माना है और दूसरी ओर परम्परा से इन शाखाओं से अतिरिक्त और हमें उपलब्ध नहीं होती । अर्थात् कोई ईश्वरीय वाणी हमें परम्परा से उपलब्ध नहीं होती। यह प्रथम वाक्य बिलकुल सत्य है । किन्तु स्वामी जी ने आज भी ईश्वरीय वाणी उपलब्ध मानी है और शाकल आदि ४ संहिताओं को ईश्वरीय स्वीकार किया है। महाभाष्यकर ने भी 'तेन प्रोक्तम् ' सूत्र में सभी शाखाओं में वर्णानुपूर्वी को अनित्य स्वीकार करते हुए भी 'मतौ छ: सूक्तसाम्नोः' सूत्र में आम्नाय में वर्णानुपूर्वी आदि को नित्य माना है।

आम्नायशब्दानामान्यभाव्यं स्वरवर्णानुपूर्वीदेशकालनियतत्वात्।

(महाभाष्य ५-२-५९)

तात्पर्य है कि लौकिक शब्दों से आम्नाय शब्द भिन्न हैं। उस में दो हेतु बताये हैं। पहला स्वर और वर्ण की आनुपूर्वी के नित्य होने से, दूसरा आम्नाय में वर्णित देश और काल के नित्य होने से। अर्थात् महाभाष्यकार ऋषिप्रोक्त शाखाओं को अनित्य मानते हुए भी उनसे पृथक् वेद को स्वीकार करते हैं। इसीलिए स्वामी दयानन्द जी का पक्ष महाभाष्यकार के पक्ष के अनुकूल होने से पूर्णरूप से प्रामाणिक एवं सही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वामी जी के मत में शाकल आदि ऋषियों ने मूल ईश्वरोक्त वेद को बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के आगे बढ़ाया है। इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अब यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि स्वामी दयानन्द जी को कैसे ज्ञात हुआ कि शाकल आदि संहिताएं ही मूल वेद हैं?

इसका उत्तर देना वास्तव में बहुत कठिन है। ऋषि लोग अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं और हमारी दृष्टि उनकी से स्थूल होती है। स्वामी दयानन्द जी ने इस विषय में कोई भी प्रमाण अथवा हेतु प्रस्तुत नहीं किया है । अत: इस निर्णय के विषय में उनका आधार हमें अज्ञात ही है। किन्तु यजुर्वेद के विषय में कुछ प्रमाण आपके सामने अवश्य रखना चाहूंगा। सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण के ऊपर प्रस्तुत प्रकरण को मैं पुनः स्मरण दिलाना चाहूंगा। वहाँ मानुष मन्त्रों का निषेध किया है। अर्थात् माध्यन्दिन संहिता पूर्णरूप से ईश्वरीय यजुर्वेद है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया।

इसके अतिरिक्त माध्यन्दिन संहिता के ९ वें अध्याय के ४०वें मन्त्र का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं जोकि राज्याभिषेक के विषय में विनियुक्त है।

... एष वोमी राजा.... (यजुर्वेद ९-४०)

यहाँ राजा के लिए केवल सर्वनाम शब्द का प्रयोग है, इससे इस मन्त्र को हम किसी भी देश के राजा के लिए प्रयोग कर सकते हैं, किंतु यजुर्वेद की अन्य संहिताएं जो आज उपलब्ध हैं, उनमें देश आदि का भी वर्णन मन्त्र में मिलता है जो नीचे प्रस्तुत है।

एष वः कुरवो राजौष पञ्चाला राजा (काण्व संहिता ११-२१)

एष वो भरता राजा (तैत्तरीय संहिता १ - ८ - १०)

एष वो जनते राजा (मैत्रायणी संहिता २-६-९)

एयं वो जनते राजा (काठक संहिता १५ - ६)

अर्थात् ये मन्त्र उन-उन देशों में ही प्रयोग किए जा सकते हैं। यह इसलिए था कि जिन शाखाओं में वे मन्त्र हैं वे शाखाएं संभवत: उन उन में अधिक प्रचलित थीं। अनित्य देश के नाम का संयोग होने से ये सब शाखाएं ईश्वरोक्त नहीं हो सकती हैं। केवल माध्यन्दिन शाखा ही ईश्वरोक्त हो सकती है। इसी प्रकार अन्य वेदों के विषय में भी कुछ कारण होंगे जिनके आधार पर स्वामी दयानन्द जी ने इन चार संहिताओं को ही ईश्वरोक्त वेद के रूप में स्वीकार किया था।

इसके अतिरिक्त मैं यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि महाभाष्यकार तेन प्रोक्तम् सूत्र में ऋषि-प्रोक्त सभी संहिताओं को अनित्य मानते हैं । किंतु मीमांसाकार ऋषि- प्रोक्त संहिताओं को नित्य मानते हैं। यहां संगति इसी प्रकार हो सकती है कि कुछ ऋषि - प्रोक्त संहिताएं अनित्य हैं और कुछ नित्य हैं। इससे भी स्वामी दयानन्द जी का पक्ष सिद्ध होता है और कोई दोष नहीं होता।

श्री यशपाल आर्य के दूसरे दोष के विषय में मैं पहले ही बता चुका हूँ कि वेद के मूल अर्थ को ना बदलते हुए ऋषियों ने संहिताओं को बनाया है। इसीलिए स्वामी दयानन्द सरस्वती उनको ईश्वरोक्त नहीं मानते हैं। अर्थात् वे मानते हैं कि शब्दावली ऋषियों ने बनायी है। इसमें यह भी हो सकता है कि मन्त्रों में कुछ परिवर्तन करते हुए बनायी हो अथवा नए मन्त्र भी बनाये हों किन्तु ईश्वरोक्त वेद में वर्णित विषय से अलग और कोई विषय उन्होंने प्रस्तुत नहीं किया, इसलिए यह भी कोई दोष नहीं है। श्री यशपाल आर्य के तीसरे दोष का भी मैंने ऊपर अपनी प्रस्तुति में समाधान कर दिया है, अतः यह भी दोष नहीं रहा।

उत्तर - संहिताओं की आनुपूर्वी को अनित्य कहना पूर्वपक्ष का वचन है, यह हम में लिख चुके हैं। भगवान् पतञ्जलि तो सभी मंत्रों की आनुपूर्वी नित्य मानते हैं। अतः आपने जो प्रथम हेतु दिया सो खंडित है। आपको तो यह भी नहीं मालूम है कि मूल वेद कौन से माने जाएं लेकिन फिर भी अंध परंपरा चल रही है, प्रमाण से अनुसंधान नहीं करना है आपको। आप जो शतपथ के प्रमाण से हमारा खंडन करने का यत्न कर रहे हैं, उससे भी हमारा ही पक्ष सिद्ध होता है, यह भी हम लिख ही चुके हैं। शतपथ के उस प्रमाण से आप यजुर्वेद को मौलिक और शाखाओं को मानुषी सिद्ध करना चाहते हैं यह भी हेतु खण्डित है आपका क्योंकि होतारं विश्ववेदसम्० ऋग्वेद का मंत्र (१/४४/७) है न कि यजुर्वेद का। यदि आप कहें कि चलो यजुर्वेद तो न सही किन्तु शाकल संहिता तो ऋग्वेद सिद्ध ही हो जाता है। प्रथम तो इस प्रकार प्रतिज्ञा बदलना प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान है। अब यदि इसके आधार पर आप शाकल संहिता को ईश्वरीय बोलने का प्रयत्न कर रहे हैं तो यही पाठ ऋग्वेद की उपलब्ध सभी शाखाओं में प्राप्त होता है। अतः अनेकान्तिक होने से आपका हेतु व्यर्थ है।

आगे आप पाठभेद और स्थान विशेषादि नामों को दिखा कर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि शाखाएं मनुष्यकृत हैं। मंत्रों में स्वल्प भेद का हम उत्तर हमने वेदसंज्ञा विचार में पूर्व ही दे दिया है वहीं देख लीजिए। अब रही बात लौकिक स्थान विशेष की तो जो भ्रम लोगों को आर्य समाज में मूल मानी जाने वाली संहिताओं में होता है वही भ्रान्ति आपको शाखाओं को लेकर हो रही है।

ऋग्वेद में एक मंत्र है-

एकाचेतत्सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात्। रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय।।

(ऋ. ७/९५/२)

वेदों के कुछ तथाकथित विद्वान् वेदों में दशराज्ञ युद्ध दिखाते हैं, आप तो वेदों में भी इतिहास स्वीकार करने लगेंगे।

यदि ऋषि दयानंद का डर न होता तो संभवतः आप भी यहां इतिहास ही मानते।

हमने अपने लेख में प्रमाण दिया था जहां ऋ. १०/८१/६ व यजु. १७/२२ में स्वल्प भेद है। ऋग्वेद में जनासः है तो वहीं यजुर्वेद में सपत्ना पाठ है अब आपको शीघ्राति शीघ्र इनमें से मूल पाठ को खोज कर समाज का उपकार करना चाहिए और ऋषि की रचना को वेद से बाहर निकाल देना चाहिए। हो सकता है एक मंत्र का पाठभेद करके किसी ऋषि ने दूसरे मंत्र की रचना की हो या कोई मूल मंत्र रहा हो जिसके ये दोनों पाठभेद करके बनाए गए हों।

हमारे द्वारा बताए दूसरे दोष पर आपने जो भी लिखा उनका भी खंडन हमने कर दिया है अतः आप लोगों के पक्ष पर अभी भी प्रश्न वही है। और आश्वलायन शाखा पर हमने जो उत्तर दिया उसपर तो आप मौन हो गए।


आगे आप लिखते हैं-

आगे श्री यशपाल आर्य ने 'आख्या प्रवचनात्' मीमांसा सूत्र की व्याख्या करते हुए प्रवचन शब्द का 'अध्यापन' अर्थ किया है। यह बात शाकल आदि चार संहिताओं के विषय में बिलकुल ठीक है । किन्तु 'तेन प्रोक्तम्' सूत्र से जब हम प्रत्यय लाते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रवक्ता केवल अध्यापन ही करता हो। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी आचार्य पाणिनि के द्वारा प्रोक्त है। तो पाणिनि जी ने अष्टाध्यायी का अध्यापन मात्र नहीं किया, उसको बनाया भी है, किन्तु आपिशलि आदि पूर्व आचार्यों की परम्परा के अनुसार। प्रोक्त शब्द का अर्थ हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं।

उत्तर - तेन प्रोक्तम् सूत्र का उत्तर महाभाष्यकार ने दे रखा है, कैय्यट और नागेश की टीका का हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं; अतः पुनः दोहराना उचित नहीं समझते। आपने बोला कि आख्या प्रवचनात् सूत्र शाखाओं पर नहीं लग सकता यह भी असिद्ध है क्योंकि हमने आपके इस पक्ष में दिए सारे हेतुओं का खंडन कर दिया है। अतः मीमांसा का सूत्र सारे मंत्रात्मक शाखाओं पर घटता है।


आगे आप लिखते हैं-

कभी यह संशय न रह जाए कि एक वेद की विभिन्न शाखाओं में विषय एक हो अथवा अलग-अलग ? इस विषय में मीमांसा शास्त्र का एक प्रकरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। महर्षि जैमिनी जी विभिन्न शाखाओं में वर्णित कर्म अलग- अलग हैं, ऐसा पूर्वपक्ष निम्न सूत्र से स्थापित करते हैं-

नामरूपधर्मविशेषपुनरुक्तिनिन्दाऽशक्तिसमाप्तिवचन- प्रायश्चित्तान्यार्थदर्शनाच्छाखान्तरेषु कर्मभेदः स्यात्।। मीमांसा २-४-८

इस प्रकार नाम रूप आदि भेद होने से विभिन्न शाखाओं में वर्णित कर्म अलग-अलग हैं ऐसा पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके निम्न सूत्र सहित २४ सूत्रों के द्वारा उत्तर देते कि विभिन्न शाखाओं में वर्णित कर्म अलग-अलग नहीं हैं।

एकं वा संयोगरूपचोदनाऽभिधानत्वात्॥

मीमांसा २-४-९

कर्म के विधान के मूल प्रयोजन एक होने से किसी भी शाखा के अनुसार अग्निहोत्र आदि कर्म करने से फल समान रूप से ही मिलेगा, अलग नहीं।

इससे स्पष्ट है कि एक वेद की विभिन्न शाखाओं में अलग-अलग विषय नहीं हैं। किंतु वे ही विषय अलग- अलग तरीके से बताए गए हैं।

ऐसा कहकर आचार्य महोदय मंत्रात्मक शाखाओं को वेद मानने पर पुनरुक्ति दोष सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

उत्तर - यहां पुनरुक्ति दोष नहीं किन्तु किंतु यह सप्रयोजन है। प्रजोजन यह है कि विभिन्न संहिताओं में उपस्थित मंत्रों का उनके ब्राह्मण ग्रंथों में विनियोग करके सृष्टि की व्याख्या की जाती है। एक ही पदार्थ के दो विभिन्न रूपों को समझाने हेतु अनेक संहिताओं में एक ही मंत्र अनेक बार आते हैं। इसे एक उदाहरण से समझिए। जैसे एटम होता है और उसमें उपस्थित प्रोटॉन, न्यूट्रॉन व इलेक्ट्रॉन की संख्या में अंतर होने से वह दूसरे एटम से भिन्न हो जाता है। अब कोई व्यक्ति अनेक पदार्थों के एटम की विवेचना करे और उनमें इलेक्ट्रॉन आदि की भी विवेचना करे। दो क्रमागत एटम के शेल में इलेक्ट्रॉन का विन्यास काफी हद तक समान होता है और उस व्यक्ति द्वारा निकाले गए दोनों एटम्स के इलेक्ट्रॉनिक काॅन्फीग्रेशन में अत्यल्प भिन्नता होगी क्या इसे आप पुनरुक्ति दोष बोल देंगे? नहीं, यह सप्रयोजन है पुनरुक्ति दोष नहीं। अगर ऐसे ही पुनरुक्ति दोष मानना है तो स्वयं वेदों में अनेक मंत्र एक से अधिक बार आए हैं क्या उन्हें आप पुनरुक्ति का नाम देंगे?

यहां इसका शतपथ से तुलना करने पर यह प्रमाणित होता है कि शाखाओं के मंत्र ईश्वरीय हैं क्योंकि विभिन्न शाखाओं वाले यज्ञ में अपने शाखा का पढ़ते हैं। लेकिन भगवान् याज्ञवल्क्य के अनुसार मानुषी मंत्र यज्ञ में में पढ़ना चाहिए। हम जानते हैं कि ऋषियों में अविरोध होता है अतः महर्षि जैमिनी शतपथ के कथन को कैसे नकार सकते हैं? अतः यहां भी हमारा पक्ष ही सिद्ध हो रहा है।


आपके सारे आक्षेपों का हमने उत्तर दे दिया है, सत्य को ग्रहण करना या न करना व्यक्ति का स्वयं पर निर्भर करता है। यदि आप फिर भी इसी तरह से जलेबी बनाने वाला लेख लिखेंगे तो हम आपके उत्तर नहीं देंगे। किन्तु हां, अगर प्रमाण और सुतर्क के आधार पर उत्तर दे सकते हैं तो अवश्य दीजिए उसका उत्तर देंगे। परमात्मा से प्रार्थना है कि सभी को सत्य की ओर अग्रसर करे, इसी कामना के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं....

।।ओ३म् शम्।।

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