रामायण में अश्लीलता की समीक्षा


लेखक - यशपाल आर्य

अक्सर आपने कुछ कथित बुद्धिजीवी लोगों को यह आक्षेप लगाते सुना होगा कि रामायण में अनेक अश्लील बातें लिखी हुई हैं। इन्हीं प्रसंगों को लेकर वे लोग रामायण का बहुत उपहास करते हैं। इन प्रसंगों पर रामभक्त मौन हो जाते हैं वा शर्म से उनका मस्तक झुक जाता है। हमारी दृष्टि में किसी विद्वान ने इन आक्षेपों का प्रमाण सहित खंडन नहीं किया है, एतदर्थ इस लेख में हम इन आक्षेपों का खंडन करेंगे। इस लेख को पढ़ने के बाद कोई भी विधर्मी रामायण पर अश्लीलता का आक्षेप नहीं लगा सकता, अतः लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।


प्रथम आक्षेप-

रामायण अरण्यकाण्ड के 46वें सर्ग में माता सीता के लिए गलत शब्दों का प्रयोग किया गया है। वहां सीता जी के स्तनों आदि की बात की गई है, देखें प्रमाण-


अरण्य काण्ड सर्ग ४६

महर्षि वाल्मीकि को इन सबका कैसे पता चल गया?

उत्तर - जरा वह प्रकरण देखें यहां रावण सन्यासी वेश में आ कर ऐसा बोल रहा है। वहां रावण सन्यासी रूप में आया है, अभी तक उसने अपने वास्तविक स्वरूप को देवी सीता जी के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया और सन्यासी वेश में ही सीता जी से ऐसा बोल रहा है। यदि रावण को ऐसी बातें शुरू में ही बोलनी होती तो वह सन्यासी का वेश क्यों धारण करता? अब विचारिए अगर सीता जी के समक्ष सन्यासी वेश में रावण ऐसी बात कहता तो अवश्य ही सीता जी उसको भिक्षा नहीं देतीं और न ही सम्मान से उसे बैठने को कहतीं क्योंकि यह शब्द सुन कर ही वह समझ जातीं कि यह कोई सन्यासी नहीं अपितु कोई दुष्टात्मा है क्योंकि धर्म बाहरी दिखावे से लक्षित नहीं होता, इसीलिए भगवान् मनु कहते हैं-

न लिङ्गं धर्मकारणम्।

मनु० ६/६६

अर्थात् दिखावे के लिए दंड, कमण्डलु आदि धारण करना धर्म का लक्षण नहीं है।

किंतु

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।

मनु० २/१२

इसका अर्थ महर्षि दयानन्द जी करते हुए लिखते हैं-

वेद, स्मृति, सत्पुरूषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरूद्ध प्रियाचरण ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है। 

निश्चय ही रावण भी ऐसी गलती कदापि न करता कि जिससे उसकी नीति के असफल होने की संभावना होती तथा देवी सीता जी को पहले यह पता चलता कि यह सन्यासी नहीं किन्तु सन्यासी के वेश में दुष्टात्मा है। इससे साफ साफ पता चलता है कि ये श्लोक मिलावटी हैं।


अब द्वितीय आक्षेप देखते हैं-

जब राम जी मारीच का वध कर के आते हैं तो खोजने पर जब उन्हें सीता जी नहीं मिलती हैं तो वे वृक्ष व पशुओं से सीता जी के विषय में पूछते हैं तो वहां बिल्व व ताल के फलों की तुलना सीता जी के स्तनों से करते हैं इसके साथ ही हाथी के सूंड की तुलना सीता जी के उरू से करते हैं। इसे अश्लीलता न कहा जाए तो और क्या कहें?


अरण्य काण्ड सर्ग ६०

समीक्षा - क्या कभी आपने वृक्षों को मानुषी भाषा बोलते देखा है? कदापि नहीं। इससे सिद्ध होता है कि यह सर्ग ही मिलावट है। क्योंकि ईश्वर का ज्ञान पूर्ण होने से जो सृष्टि में जैसा नियम आज है वैसा ही नियम पहले भी था। अब कुछ लोग ऐसा कहेंगे कि आप तो ऐसे ही अपने मन से कुछ भी बोल दे रहे हैं। क्या आपके पास कोई ऐसा प्रमाण है जिसके आधार पर इसे मिलावट कह रहे हैं? अतः हम ऐसे लोगों के लिए वाल्मीकि रामायण के बंगाल संस्करण का प्रमाण देते हैं।

अरण्य काण्ड सर्ग ६६ (बंगाल संस्करण)

अरण्य काण्ड सर्ग ६७ (बंगाल संस्करण)
अरण्य काण्ड सर्ग 59 (गीता प्रेस)

अरण्य काण्ड सर्ग 61 (गीता प्रेस)

बंगाल संस्करण के सर्ग 66 के अंतिम श्लोकों को देखें व सर्ग 67 के शुरू के श्लोकों को देखें। अब गीताप्रेस के सर्ग 59 के अंतिम श्लोकों को देखिए व सर्ग 61 के शुरू के श्लोकों को देखिए समान बात थोड़े पाठभेद के साथ आई है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि गीताप्रेस का सर्ग 60 पूरा मिलावट है, जो बाद में किसी अल्पबुद्धि मनुष्य द्वारा मिलाया गया है।


अब तृतीय आक्षेप देखते हैं-

अरण्यकाण्ड के सर्ग 62 में भगवान् राम सीता जी को खोजते हुए कहते हैं कि मैं तुम्हारी जांघों को देख रहा हूं। क्या ऐसी बातें कहना सभ्य मनुष्य की पहचान है?

समीक्षा- जब सीता जी का हरण हो चुका था, तो सीता जी उन्हें कैसे दिखतीं? बिना देखे श्रीराम जी ऐसा वचन कदापि न बोलते कि मैं तुम्हें वा तुम्हारी जांघों को देख रहा हूं, क्योंकि इससे भगवान् राम पर मिथ्या भाषण का दोष लगता है। जबकि भगवान् राम कभी भी मिथ्या भाषण नहीं करते थे। इसका संस्करणों से निवारण हम अगले आक्षेप की समीक्षा में करेंगे।


अब चतुर्थ आक्षेप देखें-

अरण्य काण्ड सर्ग 63 के श्लोक 8 में भगवान् राम कहते हैं कि "मेरी प्रिया के वे दोनों गोल गोल स्तन, जो सदा लाल चंदन से चर्चित होने योग्य थे, निश्चय ही रक्त की कीच में सन गए होंगे।" इससे पता चलता है राम सामान्य मनुष्यों की वासना में फंसे रहते थे, जो ऐसा न होता तो ऐसे शब्द कदापि न कहते।

समीक्षा- भगवान् राम एक महा योगी पुरुष थे, वे इतने उच्च कोटि के योगी थे कि उन्हें वासना छू भी नहीं सकती थी। उनके लिए देवर्षि नारद जी ने समाधिमान शब्द का प्रयोग किया है, जो योगेश्वर शब्द का ही पर्याय है। जो विषय वासनाओं में फंसा रहेगा, उसके लिए ऐसे शब्द का कदापि प्रयोग नहीं होगा। अब हम अपनी बात की पुष्टि संस्करण से भी करते हैं।

अरण्य काण्ड सर्ग 61

अरण्य काण्ड सर्ग 64


अरण्य काण्ड सर्ग ६८ (बंगाल संस्करण)

बंगाल संस्करण के सर्ग 68 में देखिए, यहां गीताप्रेस के 61 के अंतिम श्लोक अर्थात् श्लोक 31 बंगाल संस्करण में श्लोक संख्या 24 में देख सकते हैं, इससे पूर्व के श्लोक भी आप यहां देख सकते हैं। किंतु इसके बाद 29वें श्लोक में गीताप्रेस के 64वें सर्ग का प्रथम श्लोक की अंतिम आधी लाइन व द्वितीय श्लोक की शुरू की आधी लाइन है। फिर इसके बाद गीता प्रेस व बंगाल संस्करण के श्लोकों में समानता है वा कहीं थोड़ा पाठभेद है। गीताप्रेस में जो भगवान् राम द्वारा नदी को पुकारने की बात आई है, वह सत्य नहीं है क्योंकि जड़ नदी कभी उत्तर नहीं दे सकती तथा ये श्लोक बंगाल संस्करण में भी नहीं हैं अतः तर्क के साथ साथ इसका संस्करण से भी खण्डन होता है तथा बंगाल संस्करण का श्लोक 25 से 28 तक गीता प्रेस में नहीं मिलता।

अब पश्चिमोत्तर संस्करण भी देखें-


अरण्य काण्ड सर्ग ६९ (पश्चिमोत्तर संस्करण)

पश्चिमोत्तर संस्करण के सर्ग 69 के श्लोक 20 में गीताप्रेस के 61वें सर्ग का अंतिम श्लोक थोड़े पाठभेद के साथ आया है, व इसके पूर्व के श्लोक भी आप देख सकते हैं तथा पश्चिमोत्तर संस्करण का श्लोक 25 देखें, यह गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण के सर्ग 64 के प्रथम श्लोक का अंतिम आधा भाग और द्वितीय श्लोक का शुरू का आधा भाग है। आगे के श्लोकों में समानता है वा कहीं कहीं पाठभेद भी है। किंतु श्लोक 21 से 24 तक गीताप्रेस में नहीं आया है।

इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण के critical edition में देखें-

अरण्य काण्ड सर्ग ५९ (critical edition)

अरण्य काण्ड सर्ग ५९,६० (Critical edition)

अरण्य काण्ड सर्ग ६० (Critical edition)

यहां critical edition का सर्ग 59 समाप्त होता है और सर्ग 60 शुरू होता है। Critical edition के सर्ग 59 के अंतिम श्लोकों को देखें, अब गीता प्रेस के सर्ग 61 के अंतिम श्लोकों को देखें, दोनों के श्लोक समान हैं व इसके पूर्व के श्लोक भी समान हैं वा कहीं कहीं थोड़े पाठभेद भी हो सकते हैं। Critical edition में 29 श्लोक हैं और गीता प्रेस में 32 यानी इस सर्ग में critical edition के अनुसार 3 श्लोक मिलावट हैं। अब critical edition के सर्ग 60 के प्रारंभिक श्लोकों को देखें तथा गीता प्रेस के सर्ग 64 के श्लोकों को देखें, इससे सिद्ध होता है कि जो गीताप्रेस का 64वां सर्ग critical edition में 60वें सर्ग के रूप में विद्यमान है, कहीं थोड़ा पाठभेद भी हो सकता है। Critical edition ने भी गीताप्रेस के सर्ग 63 व 64 को प्रामाणिक नहीं माना है, इससे सिद्ध होता है कि यह सर्ग अधिकांश पांडुलिपियों में नहीं आया है।

इसी प्रकार Muneo Tokunaga द्वारा अनुवादित रामायण के आधार पर Prof. John Smith ने रामायण का संशोधित डिजिटल संस्करण बनाया, उसमें भी ये श्लोक प्राप्त नहीं होते।

पहले ये श्लोक अंग्रेजी में देखें, जिसे हमने titus.uni-frankfurt.de से उद्धृत किया है-




सर्ग 59


सर्ग 60

अब हम इन श्लोकों को देवनागरी लिपि में देते हैं, जो हमें sanskritdocuments.org से प्राप्त हुआ है-


सर्ग 60

इस प्रकार यहां प्रमाणों से सिद्ध होता है कि गीताप्रेस का 62 व 63 सर्ग ही पूरा का पूरा मिलावट है। इससे यह प्रमाणित हो गया कि तृतीय व चतुर्थ दोनों ही आक्षेपों के श्लोक मूल नहीं हैं।


पञ्चम आक्षेप-

कुछ लोग आक्षेप लगाते हैं कि लक्ष्मण जी ने अयोमुखी के नाम, कान और स्तन काट डाले। क्या किसी महिला के साथ ऐसा बर्ताव करना सही है? यह आक्षेप पेरियार ने भी लगाया है।

अरण्य काण्ड सर्ग ६९ (गीता प्रेस)

समीक्षा - यह कथा अनेक संस्करणों में नहीं आई है। बंगाल संस्करण में 74वें सर्ग में कबंध की कथा आई है, इससे पूर्व के सर्ग में जटायु का अन्तिम संस्कार होता है। इस 74वें सर्ग में कबंध की कथा आ गई है किन्तु वहां कहीं भी अयोमुखी की कथा नहीं आई है।


अरण्य काण्ड सर्ग 74 (बंगाल संस्करण)

इसी प्रकार पश्चिमोत्तर संस्करण में 76वें सर्ग में यह प्रकरण है किन्तु वहां भी अयोमुखी की कथा नहीं आई है।


Critical edition 65वें सर्ग में यह चल रहा है किन्तु वहां भी अयोमुखी का नामोनिशान नहीं है।


इसी प्रकार Prof. John Smith द्वारा संशोधित डिजिटल संस्करण में भी इसका नाामोनिशान नहीं है।

पहले ये श्लोक अंग्रेजी में देखें, जिसे हमने titus.uni-frankfurt.de से उद्धृत किया है-




सर्ग 65

अब हम इन श्लोकों को देवनागरी लिपि में देते हैं, जिसे हमने sanskritdocuments.org से उद्धृत किया है-


षष्ठम् आक्षेप-

आप हनुमान जी को ब्रह्मचारी मानते हैं, किन्तु उन्होंने सीता जी के लिए कैसे अश्लील शब्दों का प्रयोग किया है, देखें प्रमाण-

पूर्णचन्द्राननां सुभ्रूं चारुवृत्तपयोधराम्॥२८॥

कुर्वतीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः।

देवी सीता का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर था। उनकी भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। दोनों स्तन मनोहर और गोलाकार थे। वे अपनी अङ्गकान्तिसे सम्पूर्ण दिशाओंका अन्धकार दूर किये देती थीं॥

तां नीलकण्ठीं बिम्बोष्ठीं सुमध्यां सुप्रतिष्ठिताम्॥२९॥

उनके केश काले-काले और ओष्ठ बिम्बफलके समान लाल थे। कटिभाग बहुत ही सुन्दर था। सारे अङ्ग सुडौल और सुगठित थे॥

(वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सर्ग १५, गीता प्रेस)

समीक्षा - लगता है कि रामायण में अश्लीलता दिखाने के चक्कर में आपने अपने बुद्धि का प्रयोग बंद कर दिया क्योंकि अगर जरा सी भी बुद्धि का प्रयोग करते तो इस प्रकार के संशय मन में ना आते और आपको स्पष्ट हो जाता कि ये श्लोक मिलावट हैं। चलिए कोई बात नहीं, आपने बुद्धि का प्रयोग किया नहीं हम ही आपको समझा देते हैं। इसी सुंदरकाण्ड में जब हनुमान जी सीता जी की खोज रावण के राजमहल में करते हैं तो वे रावण की स्त्रियों को सोई हुई अवस्था में देख लेते हैं, जिससे उन्हें धर्मलोप का भय उत्पन्न हो जाता है। देखें प्रमाण-

निरीक्षमाणश्च ततस्ताः स्त्रियः स महाकपिः।

जगाम महतीं शङ्कां धर्मसाध्वसशङ्कितः॥३७॥

परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम्।

इदं खलु ममात्यर्थे धर्मलोपं करिष्यति॥३८॥

न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी।

अयं चात्र मया दृष्टः परदारपरिग्रहः॥३९॥

(गीता प्रेस वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग ११)

उन सोती हुई स्त्रियोंको देखते-देखते महाकपि हनुमान् धर्मके भयसे शङ्कित हो उठे। उनके हृदय में बड़ा भारी संदेह उपस्थित हो गया। वे सोचने लगे कि इस तरह गाढ़ निद्रामें सोयी हुई परायी स्त्रियोंको देखना अच्छा नहीं है। यह तो मेरे धर्मका अत्यन्त विनाश कर डालेगा। मेरी दृष्टि अबतक कभी परायी स्त्रियोंपर नहीं पड़ी थी। यहीं आने पर मुझे परायी स्त्रियोंका अपहरण करनेवाले के इस पापी रावण का भी दर्शन हुआ है।

जब उन्हें इस प्रकार की शंका हो जाती है तो वे स्वयं ही इस शंका का निवारण करते हैं-

तस्य प्रादुरभूच्चिन्ता पुनरन्या मनस्विनः।

निश्चितैकान्तचित्तस्य कार्यनिश्चयदर्शिनी॥ ४०॥

कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः।

न तु मे मनसा किंचिद् वैकृत्यमुपपद्यते॥४१॥

मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने ।

शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम्॥४२॥

(वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड सर्ग ११)

अर्थात् तदनन्तर मनस्वी हनुमान् जी के मनमें एक-दूसरी विचार-धारा उत्पन्न हुई। उनका चित्त अपने लक्ष्य में सुस्थिर था; अतः यह नयी विचारधारा उन्हें अपने कर्तव्यका ही निश्चय करानेवाली थी।

वे सोचने लगे कि इसमें संदेह नहीं कि रावणकी स्त्रियाँ निःशङ्क सो रही थीं और उसी अवस्थामें मैंने उन सबको अच्छी तरह देखा है, तथापि मेरे मनमें कोई विकार नहीं उत्पन्न हुआ है। सम्पूर्ण इन्द्रियों को शुभ और अशुभ अवस्थाओं में लगने की प्रेरणा देने में मन ही कारण है; किंतु मेरा वह मन पूर्णतः स्थिर है।

अर्थात् हनुमान जी के कहने का भाव यह है कि मैंने सभी स्त्रियों को सोई हुई अवस्था में अवश्य देखा है किन्तु उनको मैंने पूज्य भाव से देखा है और उन्हें देखने से मेरे मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ।

पश्चिमोत्तर संस्करण में देखें-



बंगाल संस्करण में देखें-



Critical Edition में देखें-

सर्ग 9

अब जरा विचार करें कि हनुमान जी ने रावण के राजमहल में अनेकों स्त्रियों को सोई हुई अवस्था में देख कर भी उनके प्रति जरा सा भी विकार भाव नहीं उत्पन्न हुआ क्या वे देवी सीता जी के लिए ऐसे अश्लील शब्दों का प्रयोग करेंगे? इसके नहीं, ऐसा कदापि नहीं कर सकते। इसके साथ ही हनुमान जी भगवती सीता जी को माता मानते थे, क्या कोई अपने माता के लिए इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करता है? कदापि नहीं। हनुमान् जी ब्रह्मचारी थे, ब्रह्मचारी को अष्टमैथुन से पृथक रहना होता है। इनमें दो यह भी है कि ब्रह्मचारी को विषयों की कथा करने से तथा सुनने भी दूर रहना चाहिए। तो हनुमान जी सीता जी के लिए मन में ऐसे विचार कैसे ला सकते हैं? अर्थात् कदापि नहीं ला सकते। इससे साफ साफ पता चलता है कि इस श्लोक को बाद में किसी अल्पबुद्धि विधर्मी ने मिलाया है। उसने चालाकी से इसे जोड़ने का प्रयास तो किया किन्तु जैसे चोर कितनी ही चालाकी से क्यों न चोरी करे, बुद्धिमान जन उसे पकड़ ही लेते हैं वैसे ही यहां भी दुष्ट ने बहुत चतुराई से मिलाने का प्रयास किया किन्तु वाल्मीकि जी द्वारा लिखी गई बात के विरुद्ध होने से साफ हो गया कि यह किसी अल्पबुद्धि ने मिलाया है।


सप्तम् आक्षेप-

पेरियार लिखता है कि हनुमान ने सीता से वार्तालाप करते समय निर्लज्जता तथा असभ्यता पूर्ण शब्दों का प्रयोग किया था, यहां तक कि उसने मनुष्य-लिंग के विषय में भी सीता से बातचीत की थी जो उसे स्त्रियों के समक्ष नहीं करनी चाहिये थी।

सुन्दर काण्ड सर्ग 35 (गीता प्रेस)


समीक्षा - कदाचित पेरियार ने रामायण को पढ़ा नहीं और कहीं से अनुवाद उठा कर लिख मारा। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण में भी हनुमान जी ने इन सबका वर्णन नहीं किया है किंतु अनुवादकों ने दिया है, मूल में कहीं भी नहीं है, तो हनुमान जी पर दोष लगाना निरर्थक है। मूल श्लोक देखें-

यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः।

धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः॥१४॥

विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवः शुभाननः।

गूढजत्रुः सुताम्राक्षो रामो नाम जनैः श्रुत ॥१५॥

दुन्दुभिस्वननिर्घोषः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्।

समश्च सुविभकाङ्गो वर्ण श्यामं समाश्रितः॥१६॥

त्रिस्थिरस्त्रिप्रलम्बश्च त्रिसमस्त्रिषु चोन्नतः।

त्रिताम्म्रस्त्रिषु च स्निग्धो गम्भीरत्रिषु नित्यशः॥१७॥

त्रिवलीमांस्त्र्यवनतश्चतुर्व्यङ्गस्त्रिशीर्षवान्।

चतुष्कलश्चतुर्लेखश्चतुष्किष्कुश्चतुःसमः॥१८॥

चतुर्दशसमद्वन्द्वश्चतुर्दश्चतुर्गतिः।

महोष्ठहनुनासश्च पञ्चस्निग्धोऽष्टवंशवान्॥१९॥

दशपद्मो दशवृद्दत्त्रिभिर्व्याप्तो द्विशुक्लवान्।

षडुन्नतो नवतनुस्त्रिभिर्व्याप्नोति राघवः॥२०॥

सत्यधर्मरतः श्रीमान् संग्रहानुग्रहे रतः।

देशकालविभागज्ञः सर्वलोकप्रियंवदः॥२१॥

(वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड सर्ग 35 गीता प्रेस)

पश्चिमोत्तर संस्करण में देखें-


सर्ग 29


बंगाल संस्करण में इस प्रकार कहा है-

सर्ग 32

Critical Edition में देखें-

सर्ग 33


अष्टम् आक्षेप-
जब इंद्रजीत राम और लक्ष्मण को शरबंध से बांध देता है तो रावण के कहने पर त्रिजटा आदि सीता जी को पुष्पक विमान से युद्ध क्षेत्र में सीता जी को श्री राम और लक्ष्मण को दिखाने के लिए लाती हैं। भगवान् राम और लक्ष्मण को देख कर सीता जी विलाप करती हैं इसी प्रसंग में वे अपने स्तनों आदि की चर्चा करती हैं। (युद्ध काण्ड सर्ग ४८)

समीक्षा - वहां इसी सर्ग के श्लोक दो के भाष्य में गीता प्रेस ने इन सब लक्षणों को सामुद्रिक शास्त्र का लक्षण माना है तथा गोविंदराज ने भी रामायण के संस्कृत टीका में यही माना है-
इसके साथ ही जो लक्षण बताया गया है उससे भी साफ साफ पता चलता है कि ये फलित ज्योतिष के ग्रंथों से लिया गया है। अब हम प्रमाण प्रमाण से यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या आर्य लोग फलित ज्योतिष को मानते थे वा नहीं?

महाभारत शान्तिपर्व में फलित ज्योतिष का खंडन किया है।
शान्तिपर्व अध्याय 139

भगवान् शिव जी ने भी फलित का खंडन किया है। लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें - महान् वेदज्ञ भगवान् महादेव शिव जी का फलित ज्योतिष पर मत

इससे सिद्ध होता है कि आर्य लोग फलित ज्योतिष नहीं मानते थे। सीता जी के विवाह के लिए धनुष रखी गई थी और यह घोषणा की गई थी कि जो इसपर प्रत्यंचा चढ़ा देगा वह सीता जी से विवाह करेगा, यहां तो जन्मपत्री मिलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी प्रकार महर्षि वसिष्ठ व महर्षि विश्वामित्र के कहने पर जनक जी की द्वितीय पुत्री उर्मिला तथा उनके भाई कुशध्वज की पुत्री मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति की शादी क्रमशः लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न से हुई। यहां भी जन्मपत्री देखने का कोई विधान नहीं मिलता। इससे स्पष्ट होता है कि आर्य लोग फलित को प्रमाण नहीं मानते थे। इस प्रकार सिद्ध होता है कि फलित ज्योतिष लोगों को ठगने मात्र के लिए है, आर्य लोग इसे नहीं मानते थे।

जब फलित ज्योतिष को आर्य लोग मानते ही नहीं थे, तो सीता जी यह कैसे कहती कि विद्वान लोग ने मुझे इन लक्षण देख कर शुभ गुणों से संपन्न कहा? यानी साफ साफ पता चलता है कि यह भी मिलावट है। यह मिलावट इसीलिए हुई ताकि फलित को सही तथा प्राचीन सिद्ध कर के लोगों को ठगा जा सके। क्योंकि पहले राम और लक्ष्मण जी को शरबंध द्वारा इंद्रजीत ने बांध दिया जाता है आगे गरुड़ जी उन्हें स्वस्थ कर देते हैं। तथा बीच में सीता जी को त्रिजटा आदि युद्ध क्षेत्र में विमान के द्वारा राम और लक्ष्मण को दिखाने के लिए ले जाती हैं। अब फलित ज्योतिष वाले ने सोचा कि आगे तो राम जी का स्वस्थ ही होना है अतः सीता जी के विलाप वाले प्रसंग में हम फलित वाला मिलावट कर देते हैं जिससे लोग फलित को प्राचीन मानेंगे तथा उन्हें यह लगेगा कि भगवान् राम और लक्ष्मण का स्वस्थ होना फलित के अनुसार शुभ लक्षणों का ही फल है। इससे लोग फलित के जाल में फसेंगे। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि जब यह मिलावट की गई उस समय लोग फलित को गलत ही मानते थे, उसे सही तथा प्राचीन सिद्ध करने के लिए यह मिलावट की गई।
अब कुछ लोग ऐसा पूछ सकते हैं कि क्या प्रमाण है कि वैदिक धर्म के ग्रन्थों में कोई अश्लीलता नहीं हो सकती? इसका उत्तर यह है कि वैदिक धर्म ब्रह्मचर्य की शिक्षा देता है तो अश्लील कथाएं क्यों कहेगा? अरे अश्लीता लिखना तो छोड़िए, भगवान् शिव के मत में तो एकांत स्थान पर भी कामासक्त पराई स्त्री के प्रति अन्याय करने का भाव मन में नहीं लाना चाहिए। देखिए प्रमाण -
यह श्लोक महाभारत अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय 144 (गीता प्रेस) का है। हमने आचार्य अग्निव्रत जी द्वारा भगवान् शिव पर दिए प्रवचनों को संकलित  किया है तथा हमारे द्वारा आचार्य जी के उपदेशों का वह संकलन भगवान् शिव की दृष्टि में धर्म नाम की पुस्तक के रूप में उपलब्ध है, वहीं से हमने यह प्रमाण उद्धृत किया है।

महर्षि दयानन्द द्वारा पूना में दिए १५ प्रवचनों का संकलन उपदेश मंजरी के रूप में किया गया है। उपदेश मंजरी के द्वादश उपदेश में कहा है-

इससे तो पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि रामायणादि आर्ष ग्रंथों में अश्लील बातें नहीं हो सकतीं।
इसी प्रकार रामायण आदि में अश्लीलता के जो भी आक्षेप लगाए जाते हैं वे सब बाद में मिलाए गए हैं जो तर्क व प्रमाण से सिद्ध किए जा सकते हैं। ऐसे ही जो आक्षेप भविष्य में लगाए जायेंगे, उनका भी इसी प्रकार निवारण हो सकता है, ऐसा बुद्धिमान जन समझ लेवें। अगर आपको जानकारी अच्छी लगी हो तो इसे शेयर अवश्य करें।


संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ-
१. वाल्मीकि रामायण
२. मनुस्मृति
३. सत्यार्थ प्रकाश
४. उपदेश मंजरी
५. भगवान् शिव की दृष्टि में धर्म
६. काम शास्त्र



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