कौन कहता है रामायण में मांसाहार है?
आपने देखा होगा कि कुछ लोग रामायण में मांसाहार का दोष लगाते हैं और यह कहते हैं कि आर्य लोग मांस भक्षण करते थे, भगवान् राम तो मांसाहारी थे। आज हम इस लेख में इसी मत की समीक्षा करेंगे और जानेंगे कि ऐसे आरोप लगाने वाले लोगों को संस्कृत व रामायण का ज्ञान कितना है।
प्रथम आक्षेप-
जब भगवान् राम वनगमन की सूचना कौशल्या जी को दे रहे होते हैं तो वे कौशल्या जी से इस प्रकार कहते हैं-
वा. रा. अयो. का.स. २० |
समीक्षा - यहां संस्कृत में आमिषम् शब्द आया है, जिसका गलत अर्थ कर के रामायण में मांसाहार मान लिया गया है। वस्तुतः आमिषम् का अर्थ मांस भी होता है किंतु मन को प्रिय लगने वाले आदि अर्थ भी होते हैं। देखें आप्टे कोश-
बिना प्रसंग को देखे मांसाहार का अर्थ मानना रामायण के साथ आपकी मनमानी मात्र है। जब भगवान् राम को देवर्षि नारद जी ने बालकांड प्रथम सर्ग में धर्मज्ञ कहा है तो भगवान् राम मांस भक्षण कैसे कर सकते हैं? क्योंकि भगवान् मनु जी कहते हैं-
वर्जयेन्मधु मांसं च
(मनु० ६/१४)
अर्थात् मधु (शराब) और मांस वर्जित है।
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसं उत्पद्यते क्व चित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
मनु० ५/४८
प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हत्या करना सुखदायक नहीं है इस कारण मांस नहीं खाना चाहिए ।
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।
मनु० ५/४९
मांस के उत्पन्न होने की रीति तथा प्राणियों की हत्या तथा पीड़ा को देखकर सब मांस के भक्षण से बचे रहें।
अब जो यह कहें कि मनुस्मृति में मांस भक्षण के समर्थन में भी श्लोक मिलते हैं, तो थोड़ा संक्षेप में इसकी भी समीक्षा कर देते हैं। मनु जी मनुस्मृति में लिखते हैं-
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः।।
(मनु० १२/९५)
जो वेदविरोधी स्मृतियें और जो भी कोई कुत्सित पुरुषों के बनाए हुए ग्रन्थ हैं, वे सब निष्फल हैं। क्योंकि वे इस लोक और परलोक में असत्यान्धकार स्वरूप हैं, जिससे ये संसार को दुःखसागर में डुबाने वाले हैं।
अतः अब हम वेद का प्रमाण उद्धृत करते हैं, तथा यह जानने का प्रयास करते हैं कि वेदों के अनुसार शाकाहार सही है वा मांसाहार। तथा भगवान् मनु ऋषि व आप्त पुरुष होने से वेद विरुद्ध बातें नहीं लिखेंगे अतः जो बात वेद विरुद्ध होगी वह बाद में धूर्तों ने मिलाया है। देखें वेदों के कुछ प्रमाण-
यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम। तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.1.16.4)
अर्थात् तू यदि हमारी गाय, घोड़ा वा मनुष्य को मारेगा, तो हम तुझे सीसे से बेध देंगे।
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्पदः।। (अथर्व.11.2.1)
अर्थात् हमारे मनुष्यों और पशुओं को नष्ट मत कर।
अन्यत्र वेद में देखें-
इमं मा हिंसीद्र्विपाद पशुम्। (यजु.13.47)
अर्थात् इस दो खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुम्। (यजु.13.48)
अर्थात् इस एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
यजमानस्य पशुन् पाहि। (यजु.1.1)
यजमान के पशुओं की रक्षा कर।
आप कहेंगे यह बात यजमान वा किसी मनुष्य विशेष के पालतू पशुओं की हो रही है, न कि हर प्राणी की।
इस भ्रम के निवारणार्थ अन्य प्रमाण-
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। (यजु.36.18)
अर्थात् मैं सब प्राणियों को मित्र की भांति देखता हूँ।
मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः। (यजु.12.32)
इस शरीर से प्राणियों को मत मार।
मा स्रेधत। (ऋ.7.32.9) अर्थात् हिंसा मत करो।
इन प्रमाणों में वेद ने सर्वत्र अहिंसा का प्रतिपादन किया है, किंतु मांस बिना हिंसा के प्राप्त नहीं होता अतः मांसाहार करना वेद विरुद्ध है।
इस प्रकार रामायण में आमिषम् का अर्थ सुस्वादु भोजन से है, न कि मांसाहार से।
अब हम अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने हेतु रामायण के संस्करणों से भी प्रमाण देना उचित समझते हैं। किंतु इसके लिए सर्वप्रथम हम गीता प्रेस के इस प्रसंग के कुछ पूर्व से कुछ बाद तक के श्लोक देना उचित समझते हैं। देखें वाल्मीकि रामायण गीताप्रेस सर्ग 20-
हम सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर संस्करण का प्रमाण देते हैं। अयोध्या काण्ड सर्ग 20 में देखें-
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
मधुमूलफलैर्जीवन्हित्वा मुनिवदामिषम्।।29।।
अब यही पाठ पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में यह थोड़ी भिन्नता से इस प्रकार आया है-
सोऽहं वत्स्यामि वर्षाणि वने देवि चतुर्दश।
स्वादूनि हित्वा भोज्यानि फलमूल कृताशनः।।
(पश्चिमोत्तर में यह श्लोक संख्या 20 के उत्तरार्ध और श्लोक संख्या 21 के पूर्वार्ध के रूप में विद्यमान है जबकि बंगाल संस्करण में श्लोक संख्या 21 के रूप में विद्यमान है।)
यहां तो भगवान् राम ने स्पष्ट कहा है कि मैं 14 वर्षों तक घोर निर्जन वन में निवास करते हुए सुस्वादु भोजन को त्याग कर फल मूल का भोजन करूंगा। अतः इन संस्करणों की तुलना से स्पष्ट होता है कि आमिषम् का अर्थ सुस्वादु भोजन से ही है न कि मांसाहार से। इससे भगवान् राम का अयोध्या में मांसाहार करना मानने वाले मूर्ख सिद्ध होते हैं।
द्वितीय आक्षेप
अयोध्या काण्ड सर्ग 24 में भगवान् राम अपनी माता से कहते हैं कि मधु (शराब) मांस त्याग कर महाराज दशरथ की सेवा करना। इसके भी अनुवादक द्वारकाप्रसाद शर्मा हैं। अर्थात् यहां भी अर्थापत्ति से सिद्ध होता है कि कौशल्या जी पहले मांसाहार करती थीं।
समीक्षा - यहां आपने नियताहारा शब्द का गलत अर्थ कर के मांस भक्षण का आक्षेप करना आपकी अज्ञानता मात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। समाज में एक प्रसिद्ध उक्ति है कि सावन के अंधे को हरा हरा ही दिखाई देता है, यही स्थिति आपकी भी हो चुकी है। जहां कुछ भी दिखे, जबरदस्ती मांसाहार वाला ही अर्थ कर देते हैं। नियताहारा शब्द नियत और आहारा शब्द के संधि से बना है। नियत के कई अर्थ होते हैं किंतु प्रकरण अनुकूल यहां संयमित अर्थ लेना उचित है अतः “नियता नियताहारा भर्तृशुश्रूषणे रता” का अर्थ इस प्रकार होगा-
सावधान होकर संयम से आहार कर के आप पति की सेवा में लगी रहें।
बताइए जरा इसमें मांस वाला अर्थ आपको कहां दिख गया? अतः बुद्धिमान पाठकगण ऐसे अर्थ के अनर्थ करने वाले अनुवादकों को कदापि प्रमाण न मानें तथा अपनी बुद्धि का प्रयोग कर के सत्य का ग्रहण किया करें।
अब इसे संस्करणों से भी देखें, किंतु उसके पहले विषय को समझने हेतु आप पहले इस श्लोक व इसके आस पास के श्लोकों को भी देखें। एतदर्थ अन्य संस्करणों में देखने से पूर्व, विषय को समझने हेतु हम सर्वप्रथम गीता प्रेस का प्रमाण देते हैं-
अब पश्चिमोत्तर संस्करण (अयोध्या काण्ड सर्ग 27) में इस प्रसंग के श्लोकों को देखें-
अब बंगाल संस्करण (अयोध्या काण्ड सर्ग 24) में देखें-ऊपर आप देख सकते हैं, विभिन्न संस्करणों में यहां के श्लोक थोड़े पाठभेद के साथ आए हैं, किंतु भाव सबका एक सा है।
पूर्वपक्षी द्वारा जिस श्लोक पर आक्षेप लगाया गया था, वह श्लोक इस प्रकार है-
नियता नियताहारा भर्तृशुश्रूषणे रता।।३०।।
अब यहां पश्चिमोत्तर व बंगाल पाठ में यह श्लोक थोड़ी भिन्नता के साथ इस प्रकार है -
तस्मात् सदैव भर्तुस्त्वं शुश्रूषानिरता गृहे॥१५॥
जबकि critical edition में यह श्लोक नहीं आया है।
दक्षिणात्य पाठ में आए नियताहारा शब्द का भ्रांति निवारण हमने कर दिया, आप अन्य संस्करणों से भी देख सकते हैं। यहां विभिन्न संस्करणों से भी पूर्वपक्ष की बात सत्य सिद्ध नहीं होती।
तृतीय आक्षेप-
वाल्मीकि रामायण अयोध्या काण्ड सर्ग 55 के श्लोक 33 में ऐसा लिखा है कि राम और लक्ष्मण ने अनेक मृगों को खाया। देखें द्वारकाप्रसाद शर्मा का अनुवाद-
समीक्षा - भगवान् राम ने 20वें सर्ग में कहा है कि मैं वनवास काल में सुस्वादु भोजन को त्याग कर केवल फल मूल का सेवन करूंगा (देखने हेतु प्रथम आक्षेप का खंडन देखें)। जो भगवान् राम स्वयं के लिए कहते हैं- “रामो द्विर्नाभिभाषते” (गीता प्रेस अयोध्याकांड सर्ग 18, श्लोक 30, critical edition में भी यही पाठ है) तथा पश्चिमोत्तर पाठ में यहां “रामो ऽसत्यं न भाषते” पाठ है। वे अपने वचन को कैसे तोड़ सकते हैं? अतः यहां साफ पता चलता है कि यह आक्षेप भी निर्मूल तथा मिलावट है।
चतुर्थ आक्षेप-
वाल्मीकि रामायण के 56वें सर्ग में श्लोक 22 से 35 तक पशुबलि भरी पड़ी है। यहां हम द्वारकाप्रसाद शर्मा का अनुवाद दे रहे हैं, देखें-
समीक्षा - इसमें बहुदेवतावाद है, किंतु वेद में तो स्पष्ट कहा है
इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमा॑हु॒रथो॑ दि॒व्यः स सु॑प॒र्णो ग॒रुत्मा॑न्।एकं॒ सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्त्य॒ग्निं य॒मं मा॑त॒रिश्वा॑नमाहुः॥
निरुक्त अध्याय ७, खण्ड १८ |
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता ।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ।।
(बाल काण्ड प्रथम सर्ग श्लोक 14)
अब यहां अयोध्या काण्ड सर्ग 56 का श्लोक 31 देखें, यहां विष्णु और रूद्र दो अलग अलग देवों को बलि देने की बात आई है। यहां बहुदेवतावाद होने से यह प्रसंग संदेहास्पद लगता है। अब यहां बलि देने की भी बात आई है, किंतु वेदों में जीवों के ऊपर हिंसा करने वाले को दंड देने को कहा है अतः सिद्ध है कि वेदों में पशु बलि आदि नहीं है।
यहां देखिए, इस प्रमाण से स्पष्ट पता चलता है कि पशुबलि आदि वेदों में नहीं है किन्तु यह धूर्तों ने चलाया है-
इज्यायशश्रुतिकृतैयों मार्गैरबुधोऽधमः।
हन्याजन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः ॥ ४३ ॥
(महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115 श्लोक 43)
जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गोंके नामपर प्राणियोंकी हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है॥
महाभारत से और प्रमाण भी देखें
भगवान् श्रीराम ऐसा वेद विरुद्ध कार्य कैसे कर सकते हैं अर्थात् वेदज्ञ भगवान् राम ऐसा वेद विरुद्ध कार्य कभी नहीं कर सकते।
इसके साथ ही भगवान् राम को देवर्षि नारद जी कहते हैं
प्रजापतिसमश्श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः ।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ।।
(वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग श्लोक 13)
यहां भगवान् राम को “रक्षिता जीवलोकस्य” कहा है यानी सभी जीवों के रक्षा करने वाले इसके साथ ही “धर्मस्य परिरक्षिता” और “प्रजापतिसमश्श्रीमान् धाता” शब्द से भी सिद्ध होता है कि राम जी जीवों की हिंसा नहीं करते थे अपितु बहुत बड़े अहिंसक थे। राक्षसों को दंड देना हिंसा नहीं अपितु अहिंसा ही होता है क्योंकि वे लोग अकारण मनुष्यों व अन्य प्राणियों को कष्ट देते रहते थे।
इन सब पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रसंग ही बाद में धूर्तों ने मिलाया है।
पञ्चम आक्षेप -
अयोध्याकांड सर्ग 52 के श्लोक 102 में भी आया है कि भगवान् राम ने मांस खाया, इसपर क्या कहेंगे?
समीक्षा - आप मेध्य शब्द का गलत अर्थ कर के आक्षेप लगाने चले आए। आप्टे कोश को ही देख लेवें, वहां मेध्य सर्वप्रथम मेध्य के धातु व प्रत्यय बताते हैं तत्पश्चात् मेध्य की व्युत्पत्ति करते हुए लिखते हैं “मेधा हितम् यत् वा” इसका भाव है कि जिससे (मेधा) बुद्धि का हित हो अर्थात् बुद्धि तीक्ष्ण हो। जो कि फलमूल ही है, यही अर्थ यहां ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि राम कभी असत्य भाषण नहीं करते थे, और वन गमन की सूचना माता कौशल्या को देते समय ही भगवान राम उनसे कहते हैं कि मैं वन में केवल फल मूल का भोजन करूंगा, जिसको ऊपर सिद्ध किया गया है। तो आपका यह आक्षेप भी मिथ्या है क्योंकि ऐसा अर्थ लेने से इनमें परस्पर संगति नहीं लग रही है जबकि जो हमने अर्थ किया उसमें ऐसा दोष नहीं आता।
अब रही बात चार प्रकार के महामृग (शेर) के मारने की, तो उसका भी निवारण कर देते हैं। हमने पिछले लेख “भगवान् राम के शिकारी होने की समीक्षा” में यह सिद्ध किया था कि भगवान् राम कभी शिकार नहीं खेलते थे, तथा यहां भगवान् राम वत्स्यदेश में आ पहुंचे थे, तो वहां रहने वाले लोगों के रक्षार्थ लोगों के निवास स्थान पर घूम रहे सिंहों को मारा, न कि शिकार के उद्देश्य से। तभी उस प्रसंग की इस प्रसंग से संगति लगती है अन्यथा यदि आपकी बात मानी जाए तो आपके पक्ष में इन दोनों प्रसंगों में संगति ही नहीं लगती अतः जो हमने उत्तर दिया यही ग्राह्य है।अनुवादक - द्वारका प्रसाद शर्मा |
अब इसको देवनागरी लिपि में देखें जिसे हमने sanskritdocuments.org से उद्धृत किया है -
बहुत सुंदर 🕉🕉
ReplyDeleteओउम् सादर नमस्ते जी
ReplyDeleteआपके लेख बहुत सहायक हैं , कृपया ऐसे ही कार्य करते रहें
इससे शंका समाधान भी हो जाता है