वेदसंज्ञा विचार | Ved Saṃjñā Vicāra


लेखक - यशपाल आर्य

वेद संज्ञा किनकी है? उत्तर है मंत्र संहिताओं का। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या केवल शाकल आदि चार संहिताओं का जिन्हें मूल वेद माना जाता है उन्हीं का नाम वेद है या उससे अतिरिक्त जो शाखाएं हैं उनके वे भी मंत्र वेद हैं जो चार संहिताओं में नहीं प्राप्त होते? यह बहुत गंभीर विषय है, जिस पर विचार करना आवश्यक है। हम आप्त पुरुषों के मतानुसार इस विषय का विवेचन करेंगे। आप्त पुरुष के वचन को प्रमाण क्यों माना जाए, इसका उत्तर भगवान् वात्स्यायन ने बहुत अच्छे शब्दों में दिया है-

एतेन त्रिविधेनातप्रामाण्येन परिगृहीतोऽनुष्ठीयमानोऽर्थस्य साधको भवति, एवमाप्तोपदेशः प्रमाणम्। एवमाप्ताः प्रमाणम्।

[न्याय दर्शन २/१/६९ महर्षि वात्स्यायन भाष्य]

इस प्रकार वास्तविक विषय का ज्ञान, प्राणियों पर दया तथा सत्य विषय के प्रसिद्ध करने की इच्छा इन तीन प्रकार से आप्तपुरुषों के प्रमाण होने से संसार के साधारण प्राणियों ने आप्तों के उपदेश के अनुसार स्वीकार कर, वैसा ही आचरण करने से उनके सम्पूर्ण संसार के कार्य सिद्ध होते हैं, इस प्रकार आप्तों का उपदेश प्रमाण होता है। और आप्त भी प्रमाण होता है अर्थात् आप्त का जीवन भी प्रमाण होता है। सर्वप्रथम हम परम आप्त अर्थात् परमात्मा का वचन देखते हैं। वेद जो कि ईश्वरीय ज्ञान है, उसमें आदि सृष्टि में ऋषियों के द्वारा वेद को ग्रहण करने का बहुत सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रसंग का यह मंत्र विशेष द्रष्टव्य है-

सक्तु॑मिव॒ तित॑उना पु॒नन्तो॒ यत्र॒ धीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मक्र॑त।

अत्रा॒ सखा॑यः स॒ख्यानि॑ जानते भ॒द्रैषां॑ ल॒क्ष्मीर्निहि॒ताधि॑ वा॒चि॥

ऋग्वेद १०.७१.२

यहां ऋषियों द्वारा वेद मंत्रों को ग्रहण करने को चालनी से सत्तू छानने के सदृश कहा है। यहां संकेत मिलता है कि जैसे चालनी से सत्तू छाना जाता है तो अधिकांश भाग नीचे आ जाता है और कुछ भाग चालनी में ही रुका रहता है अर्थात् नीचे नहीं आ पाता, इसी तरह ऋषियों को जो मंत्र मनुष्य के लिए ज्ञान की दृष्टि से आवश्यक प्रतीत होते हैं उन्हें ग्रहण कर लेते हैं, व अन्यों को नहीं करते। इसमें शाखाओं में प्राप्त होने वाले अतिरिक्त मंत्र व अंतरिक्षस्थ अस्पष्ट वाक् भी विद्यमान होते हैं।

अब इस बात को विस्तार से समझने हेतु ऋषियों के प्रमाणों को देखते हैं। पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक द्वारा संपादित ऋषि दयानंद सरस्वती के पत्र और विज्ञापन के प्रथम भाग में पूर्ण संख्या 285 का विज्ञापन पत्र द्रष्टव्य है, जो संवत् 1935 (1879 ce) में प्रकाशित हुआ था।


यहां महर्षि लिखते हैं ‘....नीचे लिखे वेद मंत्रों के प्रमाण देख लीजिए।’ ऐसा कह कर वे छः मंत्र उद्धृत करते हैं, जिसमें से प्रथम पांच मंत्र ऋग्वेद के हैं किंतु 6वाँ मंत्र तैत्तिरीय आरण्यक का है। अब पूर्वपक्ष यहां कह सकता है कि अनेकत्र ऋषि वेद का प्रमाण कह कर प्रथम तो वेद मंत्र उद्धृत करते हैं तत्पश्चात् आर्ष ग्रंथों के वचन भी वेदानुकूल होने से उद्धृत कर देते हैं, ऐसा ही यहां भी किया होगा। दुर्जनतोषन्याय से यदि ऐसा मान लें तो यहां ऋषि के बातों में दोष उपस्थित हो जाते हैं। यहां तैत्तिरीय आरण्यक का वचन उद्धृत करने के पश्चात् ऋषि लिखते हैं- ‘इन मंत्रों के अर्थ’ ऐसा लिख कर ऊपर दिए सभी 6 मंत्रों का अर्थ उद्धृत करते हैं। जब सभी 6 मंत्रों का अर्थ कर लेते हैं तत्पश्चात् ऋषि लिखते हैं  ‘...ऊपर लिखी व्यवस्था पर आत्मा में ध्यान देकर देखो कि परमेश्वर ने वेद द्वारा हम सब मनुष्यों को सुखी होने के लिये कैसा सत्योपदेश किया है...।’ जरा विचार करें यदि तैत्तिरीय आरण्यक के मंत्र को ऋषि का उद्धृत करने का अभिप्राय वेदानुकूल होने से उद्धृत करना होता तो ऋषि मंत्रों के अर्थ जैसे वचन लिख कर इसका अर्थ क्यों करते? तथा सभी मंत्रों का भाष्य लिखकर अंत में भी यह लिखना कि वेदों द्वारा परमेश्वर ने हमें वेदों द्वारा सत्योपदेश दिया है जैसे वचन क्यों लिखा? अगर पूर्वपक्ष का मत सत्य होता तो ऋषि को पहले ऋग्वेद के सभी 5 मंत्रों को लिखकर फिर ‘इन मंत्रों के अर्थ’ ऐसा लिख कर भाष्य कर देना चाहिए था तत्पश्चात् तैत्तिरीय आरण्यक का वचन लिखना चाहिए था। लेकिन ऋषि ने ऐसा नहीं किया। अब रह गई बात ऋषि ने इसी प्रकार के कथन अन्यत्र सूत्र ग्रंथों आदि के लिए भी कहा है तो क्या उन सूत्रों को भी वेद मान लिया जाए? नहीं, क्योंकि वहां ऋषि ‘इन मंत्रों के अर्थ’ लिख कर सूत्रों का अर्थ नहीं करते, प्रमाण उद्धृत कर के सीधे अर्थ कर देते हैं, बिना ऐसे शब्द लिखे।

इस विषय में आर्याभिविनय भी द्रष्टव्य है-






महर्षि आर्याभिविनय के उपक्रमणिका विचार में लिखते हैं-

वेदस्य मूलमन्त्राणां व्याख्यानं लोकभाषया।

क्रियते सुखबोधाय ब्रह्मज्ञानाय सम्प्रति॥५॥

इसका हिंदी अर्थ लिखते हैं-

इस ग्रन्थ में केवल चार वेदों के और ब्राह्मणग्रन्थों के मूलमन्त्रों का प्राकृतभाषा में व्याख्यान किया है, जिससे सब लोगों को सुख से बोध हो और ब्रह्म का ज्ञान यथार्थ हो।।

विचार करें, संस्कृत श्लोक में तो ऋषि लिख रहे हैं कि सम्प्रति ब्रह्मज्ञान के सुबोध हेतु वेद के मूल मंत्रों का लोक भाषा में व्याख्यान करेंगे। लेकिन हिंदी में ब्राह्मण ग्रंथों के मंत्र भी जोड़ दिया। क्या यहां हिंदी व संस्कृत में विरोध हो गया? उत्तर है नहीं, यहां ब्राह्मण अर्थ से यही अभिप्राय व्यक्त होता है कि ऋषि ने ब्राह्मण ग्रंथों में आए मंत्र को उद्धृत कर के ऋषि ने भाष्य किया है जिसे ऋषि ने वेद का मंत्र माना है, यदि ऐसा न होता तो ब्राह्मण ग्रंथों में आए मंत्रों के साथ मूल शब्द क्यों लगाते? अब द्वितीय प्रकाश में ऋषि तैत्तिरीय आरण्यक का मंत्र उद्धृत करते हैं अर्थात् ऋषि तैत्तिरीय आरण्यक के उस मंत्र को भी वेद मानते थे।

भ्रमोच्छेदन में महर्षि ईशोपनिषद् को वेद कहते हैं। यजुर्वेद का 40वाँ अध्याय होने से इसे स्वतः प्रमाण मानते हैं, जरा बताइए ईशोपनिषद् माध्यन्दिन संहिता का 40वाँ अध्याय है वा काण्व संहिता का?


आपके जानकारी के लिए बता दें कि ईशोपनिषद् काण्व संहिता का ४०वां अध्याय है, न कि माध्यन्दिन संहिता का तथा माध्यन्दिन संहिता को मूल माना जाता है। यदि महर्षि का ऐसा मानना होता कि चार संहिताओं को छोड़ कर अन्य शाखाओं में आए अधिक मंत्र ईश्वरीय नहीं हैं तो ईशोपनिषद् को ऋषि ईश्वरीय क्यों कहते? अब क्रमशः ईशोपनिषद् तथा माध्यन्दिन संहिता व काण्व संहिता के ४०वें अध्याय को उद्धृत हैं, विद्वान् जन स्वयं समझ सकते हैं कि ईशोपनिषद् माध्यन्दिन शाखा का है या काण्व शाखा का-


ईशोपनिषद्


यजुर्वेदीय माध्यन्दिन संहिता अध्याय ४०


यजुर्वेदीय काण्व संहिता अध्याय ४०

ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के वेदसंज्ञा विचार में महर्षि लिखते हैं- 

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदसंज्ञाविचार)

यहां महर्षि ने वैदिक वाङ्मय को मुख्य रूप से दो भागों में बांट दिया। एक मंत्र संहिता (वेद) और दूसरा ब्राह्मण भाग। आरण्यक और उपनिषद् को ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर्भाव माना जाता है इसलिए महर्षि को उसपर अलग से विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। मंत्र संहिताओं का नाम वेद है और ब्राह्मण का नहीं। यहां महर्षि ने स्पष्ट लिख रखा है कि मंत्र संहिताओं का नाम वेद है अर्थात् जो मंत्र हैं वे वेद हैं। ऋषि ने केवल चार संहिताओं को ही वेद नहीं माना अपितु ब्राह्मण आदि में जो मंत्र हैं उन्हें भी वेद स्वीकार किया है। क्योंकि यहां ऋषि ने संपूर्ण वैदिक वाङ्मय को मुख्य रूप से दो भागों में बांट दिया है। ब्राह्मण ग्रंथों के वेद न होने में महर्षि का दिया हुआ यह हेतु भी द्रष्टव्य है-


ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदसंज्ञाविचार)

यहां ऋषि के अनुसार जिनकी प्रतीक धर के व्याख्या की जाए वे वेद और जिनमें प्रतीक धर के व्याख्यान किया जाए वे वेद नहीं प्रत्युत् उनके व्याख्यान हैं, ऋषि मुनि प्रणीत हैं। अब हम ऐतरेय ब्राह्मण के प्रथम पञ्चिका के चतुर्थ अध्याय के द्वितीय खण्ड को देखते हैं, यहां अनेक ऐसी ऋचाओं की प्रतीक धर के व्याख्या है, जो चार संहिताओं में नहीं मिलते। यहां भी यही सिद्ध होता है कि चार संहिताओं के अतिरिक्त अन्य शाखा ग्रंथों में जो मंत्र हैं वे भी ईश्वरीय हैं।
ऐ. ब्रा. अ. ४, खं. २, कं. १-३

प्रथम कंडिका में ‘ब्रह्म जाज्ञानं...’ का प्रतीक धर के व्याख्यान किया गया है, यह मंत्र हमें यजुर्वेद (१३.३) में प्राप्त होता है। किन्तु द्वितीय व तृतीय कंडिका में जिन मंत्रों का प्रतीक धर के व्याख्यान किया गया है, वे चार मूल संहिताओं में नहीं मिलते। किन्तु ये मंत्र आश्वलायन श्रौत सूत्र में प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

आ. श्रौ. सू. ४.६.३

यहां दोनों दोनों मंत्रों को क्रमशः लाल व नीले रंग से underline किया गया है।

ब्राह्मण आदि ग्रंथों में विनियोग हुए मंत्रों के ईश्वरीय होने का एक अन्य कारण यह भी है कि ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्यतः विभिन्न यज्ञों का वर्णन है और ऋषियों ने जिन यज्ञों का विधान किया है वे इस सृष्टि के मानचित्र हैं। जैसे हम किसी देश वा प्रदेश के मानचित्र को देख कर उसके विषय में समझ सकते हैं वैसे ही यज्ञों का मुख्य उद्देश सृष्टि को समझाना था। यज्ञ सृष्टि का मानचित्र कैसे है इसपर अधिक विवेचन लेख को विस्तार देना मात्र है। पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक श्रौत यज्ञ मीमांसा में लिखते हैं-
द्रव्ययज्ञों की कल्पना का प्रयोजन
सृष्टि के प्रारम्भ में सत्त्वगुणविशिष्ट योगज-शक्ति सम्पन्न परावरज्ञ ऋषि लोग अपनी दिव्य मानसिक शक्ति से इस चराचर जगत् के परमाणु से लेकर परम महत् तत्त्व पर्यन्त समस्त पदार्थों का हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष कर लेते थे । उनके लिये कोई भी पदार्थ अप्रत्यक्ष नहीं था। उत्तरोत्तर सत्वगुण की न्यूनता, एवं रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि के कारण काम क्रोध लोभ और मोह आदि उत्पन्न हुए। उनके वशीभूत होकर मानवी प्रजा ने सुखविशेष की इच्छा से प्राजापत्य शाश्वत नियमों का उल्लंघन करके कृत्रिम जीवनयापन करना प्रारम्भ किया। ज्यों-ज्यों आवश्यकताएं बढ़ती गई, त्यों-त्यों जीवनयापन के साधनों में भी कृत्रिमता बढ़ने लगी। इसके साथ ही साथ मानव की मानसिक दिव्य शक्तियों का भी ह्रास होने लगा। उनके ह्रास के कारण सूक्ष्म दूरस्थ और व्यवहित पदार्थ अजेय बन गये। अतः ब्रह्माण्ड और पिण्ड (=अध्यात्म=शरीर ) की रचना कैसी है, यह जानना सर्वसाधारण के लिये जटिल समस्या बन गई। इस कारण आधिभौतिक आधिदैविक तथा आध्यात्मिक प्रक्रियानुसारी वेदार्थ भी दुरूह हो गया। ऐसे काल में तात्कालिक साक्षात्कृतधर्मा परावरज्ञ ऋषियों ने ब्रह्माण्ड तथा प्रध्यात्म की रचना का ज्ञान कराने, और आधिदैविक तथा श्राध्यात्मिक प्राचीन वेदार्थ को सुरक्षित करने-कराने के लिये यज्ञ- रूपी रूपकों की कल्पना की। यज्ञ का मूल प्रयोजन दैवत और अध्यात्म का ज्ञान कराना ही है, इस बात की ओर आचार्य यास्क ने निरुक्त १/१९ में संकेत किया है- याज्ञदैवते पुष्पफले, देवताध्यात्मे वा।
यास्क के मतानुसार यज्ञ और देवता का ज्ञान क्रमशः पुष्प और फलस्थानीय है, अर्थात् जैसे पुष्प फल की निष्पत्ति में कारण होता है, वैसे ही याज्ञिक प्रक्रिया का ज्ञान दैवत (=ब्रह्माण्ड ) के ज्ञान में कारण होता है। जब दैवतज्ञान हो जाता है, तब वह दैवतज्ञान याज्ञिकप्रक्रिया की दृष्टि से फलस्थानीय होता हुआ भी अध्यात्मज्ञान की दृष्टि से पुष्पस्थानीय होता है, अर्थात् अध्यात्म-ज्ञान में दैवतज्ञान कारण बनता है। इसी दृष्टि से ब्राह्मणग्रन्थों में याज्ञिक प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए अनेक स्थानों में 'इत्यधियज्ञम्' कहकर 'अथाधिदैवतम् श्रयाध्यात्मम्' के निर्देश द्वारा तीनों की परस्पर समानता दर्शाई है। अनुश्रुति के अनुसार मीमांसाशास्त्र के भी तीन विभाग हैं। प्रारम्भिक भाग कर्ममीमांसा कहाता है, मध्य भाग देवतमीमांसा, और अन्त्य भाग ब्रह्ममीमांसा'। इससे भी यही ध्वनित होता है कि यज्ञ देवता और अध्यात्म का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।
उपर्युक्त निर्देशों से यह सुव्यक्त हो जाता है कि यज्ञ की कल्पना ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सूक्ष्म रचना का बोध कराने के लिये ही की गई है। यज्ञकर्म में थोड़ा-सा भी हेर-फेर होने पर, यहां तक कि पात्रों के यथास्थान न रखने पर भी कर्म के दुष्ट होने अर्थात् यथावत् फलदायक न होने की कल्पना की गई है। इसे आप सुगमता से इस प्रकार समझ सकते हैं कि पृथिवी वा आकाशस्थ पदार्थों की स्थिति समझाने के लिये जो भूगोल और खगोल के मानचित्र बनाये जाते हैं, उनमें यदि प्रमादवश नामाङ्कन में थोड़ी-सी भी भूल हो जावे, तो वे मानचित्र बेकार हो जाते हैं। क्योंकि उन अशुद्ध नामाङ्कनवाले मानचित्रों से भूगोल और खगोल के तत्तत् नामवाले स्थानों की यथावत् स्थिति का बोध नहीं हो सकता। अर्थात् वे जिस प्रयोजन के लिये बनाये गये, उस प्रयोजन के साधक होना तो दूर रहा, उलटा अज्ञान वर्धक होते हैं। इस दृष्टि से ही यज्ञीय प्रत्येक कर्म को यथाशास्त्र करने का याज्ञिकों का आग्रह है। उत्तरकाल में कार्यकर्ताओं के विशेष प्रबुद्ध न होने पर अदृष्ट उत्पन्न न होने अथवा पाप लगने की विभीषिका प्रचलित कर दी गई, जिससे कार्य- कर्त्ता सावधान होकर कर्म करें।
इस प्रकार भूगोल -खगोल के मानचित्रों के समान श्रौतयज्ञ श्राधिदैविक जगत् एवं अध्यात्म जगत् के जानने के साधनमात्र हैं, स्वयं साध्य नहीं हैं।
द्रव्ययज्ञों की कल्पना का आधार
विराट् पुरुष (=ब्रह्म) ने अपने सखा शारीर पुरुष (=जीव) के शरीर की रचना में अपने ही विराट् शरीर (=ब्रह्माण्ड ) की रचना का पूरा-पूरा अनुकरण किया है, अर्थात् यह मानव शरीर इस ब्रह्माण्ड की ही एक लघु प्रतिकृति है। अत एव आयुर्वेद की चरकसंहिता के पुरुषविचय नामक अध्याय ( शारीर० अ० २५) पुरुषोऽयं लोकसम्मितः ऐसा निर्देश करके पुरुष और लोक की विस्तार से तुलना दर्शाई है। परावरज्ञ ऋषियों ने अपनी दिव्य योगजशक्ति से ब्रह्माण्ड और पिण्ड के रचना-साम्य का अनुभव करके उसी के आधार पर दोनों के प्रतिनिधिरूप यज्ञों की कल्पना की। अत एव ब्राह्मणग्रन्थों में बहुधा उक्त इत्यधिदैवतम् प्रथाधिदेवतम् अथाध्यात्मम् कहकर एक-दूसरे का तुलनात्मक व्याख्यान करना उपपन्न होता है। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिस प्रकार भूमण्डल और नक्षत्रमण्डल के विभिन्न अवयवों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने के लिये उनके मानचित्रों की; तथा प्राचीन काल की किसी परोक्ष घटना का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने के लिये नाटक की कल्पना की जाती है, ठीक उसी प्रकार ब्रह्माण्ड और पिण्ड की रचना का ज्ञान कराने के लिये यज्ञों की कल्पना की गई। प्रर्थात् यज्ञों की कल्पना भी भूगोल आदि के मानचित्रों के समान सत्य वैज्ञानिक आधार पर ही हुई है। अत एव जिस प्रकार नगर जिला प्रान्त देश और महादेश आदि के क्रम से भूगोल का क्रमिक ज्ञान कराने के लिये विभिन्न छोटे-बड़े प्रदेशों के मानचित्र तैयार किये जाते हैं, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड और पिण्ड की स्थूल वा सूक्ष्म रचना का क्रमशः ज्ञान कराने के लिये अग्निहोत्र दर्शपौर्णमास और चातुर्मास्य आदि विभिन्न छोटे-मोटे यज्ञों की कल्पना की गई। इसी कल्पना के कारण यज्ञों का एक नाम कल्प भी है— कल्पनात् कल्पः। अतएव यज्ञों के व्याख्यान करनेवाले सूत्रग्रन्थ कल्पसूत्र कहाते हैं।
(श्रौत यज्ञ मीमांसा - पण्डित युधिष्ठिर जी मीमांसक)
वेद मंत्र सृष्टि निर्माण में अपनी भूमिका निभाते हैं। इस विषय में हम कुछ प्रमाण देते हैं-
  • भूरित्यृग्भ्योक्षरत् सो ऽयं ( पृथिवी ) लोको ऽभवत्। ष० १/५
  • अयं (भू-) लोक ऋग्वेदः।। ष० १/५
  • (प्रजापतिः) यजुर्भ्योऽधि विष्णुम् (असृजत )।। तै० २/३/२/४॥
  • अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम्।। गो० पू० २/२४
  • सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्। तै० ३/१२/९ /१
  • (प्रजापतिः) स्वरित्येव सामवेदस्य रसमादत्त। सो ऽसौ द्यौरभवत्। तस्य यो रसः प्राणदत् स आदित्यो ऽभवद्रसस्य रसः। जै० उ० १/१/५
  • स्वरिति सामभ्यो ऽक्षरत् स्वः स्वर्गलोको ऽभवत् । ष० १/५
  • साम वा असौ (द्यु-)लोकः। ऋगयम् (भूलोकः)। तां० ४/३/५

यहां पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है कि वेद मंत्र पदार्थ हैं, जिनसे इस स्थूल संसार बना है। यहां हमारा विषय भिन्न है इसलिए इसपर अधिक नहीं लिखेंगे, जो विस्तार से जानना चाहें तो आचार्य अग्निव्रत जी की वेद विज्ञान आलोक की कक्षाएं देख सकते हैं अथवा वेद विज्ञान आलोक ग्रन्थ पढ़ सकते हैं।  

यज्ञ सृष्टि का मानचित्र हैं और वेद मंत्रों से यह संसार बना हुआ है। सृष्टि में सब कोई मंत्र उत्पन्न होता है तो उससे संबंधित पदार्थ उत्पन्न होता है वा यदि उत्पन्न है तो समृद्ध होता है। इस सृष्टि में जिस पदार्थ के निर्माण में वा समृद्ध होने में जिन मंत्रों का योगदान होता है, उन उन मंत्रों को उस पदार्थ के यज्ञ रूपी मानचित्र में यथास्थान पढ़ा जाता है। अर्थात् जो यज्ञ में मंत्र पढ़ने का ऋषियों ने विधान किया है वे मंत्र इस ब्रह्मांड में पूर्व से ही विद्यमान हैं। इस हेतु से भी शाखाओं में आए अतिरिक्त मंत्र, जिनका ब्राह्मण आदि में विनियोग है ईश्वरीय सिद्ध होते हैं।

इसीलिए भगवान् याज्ञवल्क्य लिखते हैं-

श. ब्रा. १.४.१.३५

यहां महर्षि कहते हैं यज्ञ में ऋचा का मानुषी पाठ नहीं पढ़ना चाहिए प्रत्युत् ईश्वरीय पाठ पढ़ना चाहिए। ऋषियों की बातों में परस्पर विरोध नहीं होता और यज्ञ में चार संहिताओं से भिन्न शाखा के मंत्र भी पढ़े जाते हैं। हमने ऊपर जो ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण दिया उसे भी इस प्रसंग में देख सकते हैं। अतः महर्षि याज्ञवल्क्य की दृष्टि में शाखा के अतिरिक्त मंत्र भी अपौरुषेय हैं।


सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास में ऋषि चारों वेदों के प्रथम मंत्र के विषय में संकेत करते हैं वहां ऋषि ने अथर्ववेद का प्रथम मंत्र ‘ये त्रिषप्ताः परियन्ति०’ को माना है। यह मंत्र शौनक शाखा का प्रथम मंत्र है।


गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग १/२९ में चारों वेद संहिताओं के प्रथम मंत्र का प्रतीक धर के इस प्रकार लिखा है-


यहां तीन वेदों के प्रथम मंत्र तो वही हैं जो मूल संहिताओं के हैं, किन्तु अथर्ववेद का प्रथम मंत्र ‘शन्नो देवी०’ बताया गया है। शाकल आदि केवल चार संहिताओं को ही मूल वेद मानने वाले विद्वान् जन बताएं क्या आर्य समाज में जो मूल शाखा मानी जाती है उस शौनक संहिता में प्रथम मंत्र यही है या ‘ये त्रिषप्ताः परियन्ति०’ है? सम्प्रति उपलब्ध शाखाओं में ‘शन्नो देवी०’ पैप्पलाद शाखा का प्रथम मंत्र है। गोपथकार ऋषि ने भी शाखा को ईश्वरीय ज्ञान बोलकर शाखाओं के मंत्र को आपके मत में तो बहुत बड़ा अपराध कर दिया होगा? अब कोई यह शंका करे कि शौनकीय संहिता के मंत्रों को पैप्पलाद संहिता में केवल आगे पीछे कर दिया गया होगा, सब मंत्र बिना किसी पाठभेद के विद्यमान होंगे। ऐसा मानने पर यह स्पष्ट होता है कि पूर्वपक्ष ने शाखा आदि पर अध्ययन नहीं किया है, जो किया होता तो इस प्रकार के कुतर्क न करते। यहां हम अधिक प्रमाण देकर लेख को ज्यादा विस्तार देना आवश्यक नहीं समझते, किंतु एक प्रमाण देते हैं जिससे विद्वान् जन समझ जाएं। गो. ब्रा. पू. १/३९ देखें-


यहां ‘आपो गर्भं०’ की प्रतीक धर के व्याख्या है, यह मंत्र पैप्पलाद संहिता (४/१/८) में प्राप्त होता है। और महर्षि के अनुसार जिसका प्रतीक धर के व्याख्यान हो वह ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् वेद मंत्र होता है। यहां पैप्पलाद संहिता में आया मंत्र भी ईश्वरीय सिद्ध हो जाता है।

यह मंत्र चार मूल संहिताओं में नहीं प्राप्त होता, किंतु अथर्ववेद के शौनकीय संहिता (४/२/८) में यह मंत्र पाठभेद के साथ विद्यमान है। किन्तु यहां तो पैप्पलाद संहिता के मंत्र का प्रतीक धर के व्याख्यान है न कि शौनकीय संहिता के।

ऐसा ही कथन महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने भी किया है। वे महाभाष्य के आदि में वैदिक और लौकिक शब्दों का उदाहरण देते हैं। लौकिक शब्दों हेतु वे गो, अश्वादि शब्दों का उदाहरण देते हैं और वैदिक शब्दों हेतु चारों संहिताओं के प्रथम मंत्र का प्रतीक रख देते हैं।

महाभाष्य १.१.१

तीन वेद के मंत्र तो आर्य समाज में मूल माने जाने वाली संहिताओं के भी प्रथम मंत्र हैं किंतु अथर्ववेद का प्रथम मंत्र महाभाष्यकार ने भी ‘शन्नो देवी०’ लिखा है, जो कि पैप्पलाद शाखा का प्रथम मंत्र है। अब कोई कहे कि यहां प्रथम मंत्र ही उद्धृत किया जाए ऐसा आवश्यक नहीं है, तीन वेदों का प्रथम मंत्र उद्धृत किया किंतु अर्थर्ववेद का प्रथम मंत्र नहीं रखा। ऐसी आशंका करना निर्मूल है, ऋषि वेद संज्ञा विचार में लिखते हैं-

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदसंज्ञाविचार)

यहां ऋषि ने ‘शन्नो देवी०’ को अथर्ववेद का प्रथम मंत्र कहा है तो वहीं सत्यार्थ प्रकाश में ‘ये त्रिषप्ताः परियन्ति०’ को कहा है। तो क्या ऋषि ने किसी एक ग्रंथ में गलती कर दिया? नहीं, यहां शाखा भेद के कारण ऐसा हुआ है। अर्थात् पैप्पलाद व शौनक दोनों शाखा में आए मंत्रों को ऋषि ने वेद स्वीकार किया है।

तेन प्रोक्तम्।। (अ० ४/३/१०१) के भाष्य में काठक, कलाप आदि शाखाओं के मंत्रों के लिए भगवान् पतञ्जलि लिखते हैं-

भाव यह है कि वेद तथा शाखाओं में उपलब्ध मंत्र बनाए नहीं जाते, वे नित्य हैं।


चार संहिताओं से भिन्न मंत्रों के ऋषि

महर्षि ऐतरेय महिदास जी भी शाखा मंत्रों को ऋषियों द्वारा देखा जाना ही स्वीकार करते हैं, न कि ऋषियों की रचना मानते हैं।


ऐ. ब्रा. अ. १७ खं. ४ कं. १४,१५

यहां महर्षि ‘विश्वस्य देवी०’ ऋचा को उद्धृत करते हैं और लिखते हैं ‘एतां बृहस्पतिर्द्विपदामपश्यन्न’। बताइए महोदय! यह किस वेद का मंत्र है? जब यह चार संहिताओं में नहीं मिलता तो महिदास जी ने इसका दर्शन करना क्यों लिखा? आपके मतानुसार तो ऋषि शाखाओं में आए अतिरिक्त मंत्र के कर्ता हैं, लेकिन भगवान् महिदास जी ने तो ऋषियों को इन मंत्रों का द्रष्टा स्वीकार किया है न कि कर्ता।

पण्डित भगवद्दत्त जी इसपर लिखते हैं-

वैदिक वाङ्मय का इतिहास (भाग १) अपौरुषेय ऋग्वेद Pg. १४२

ऋषि दयानन्द के अनुसार मंत्र तो ईश्वरीय हैं, उनके ऊपर लिखे ऋषि मंत्र कर्ता न होकर मंत्र द्रष्टा थे। वे लिखते हैं-

जिस-जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिसके पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था, किया और दूसरों को पढ़ाया भी, इसलिये अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा लिखाया आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावे, उनको मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ७)

अन्य ऋषि भी वेद मंत्रों को ऋषियों द्वारा दर्शन करना मानते हैं न कि ऋषियों की रचना मानते हैं। अर्थात् मंत्रों के ऊपर लिखे ऋषि उनके द्रष्टा मात्र होते हैं, मंत्र तो ईश्वरीय हैं। अब हम कुछ ऐसे मंत्र प्रस्तुत करते हैं जिनके ऊपर ऋषि लिखे हुए हैं लेकिन वे चार संहिताओं में नहीं मिलते। इस विषय में हम आश्वलायन संहिता से कुछ मंत्र उद्धृत करते हैं और संहिता में उनके जो ऋषि बताए गए हैं, उन्हें भी लिख देते हैं-

सूक्तान्ते तृणान्यग्नावरण्ये वोदकेऽपि वा।

यत्स्तृणैरध्ययनं तदधीतं भवति ध्रुवम्॥

(ऋग्वेदीय आश्वलायन संहिता मं. ५, सू. ४९, मं. ६)

इस सूक्त में ६ मंत्र हैं और सभी ६ मंत्रों का ऋषि प्रतिप्रभ आत्रेयः लिखा है, किन्तु ब्रैकेट में ५वें व ६वें ऋचा का ऋषि तृणपाणिः‌ लिखा है, इससे यह ज्ञात होता है कि प्रतिप्रभ आत्रेय व तृणपाणि दोनो ही इसके ऋषि हैं। यह मंत्र शाकल आदि चार संहिताओं में नहीं मिलता।

इसी प्रकार-

स्वस्त्ययनं तार्क्ष्यमरिष्टनेमिं महद्भूतं वाय॒सं दे॒वतानाम्।

असु॒रघ्नमिन्द्रसखं समत्सु बृ॒हद्यशो॒ नावमिवा रुहेम॥

अंहोमुचमाङ्गरसं गयं च स्वस्त्यात्रेयं मनसा च तार्क्ष्यम्।

प्रयतपाणिः शरणं प्र पद्ये स्वस्ति संबाधेष्वभयं नो अस्तु॥

(ऋग्वेदीय आश्वलायन संहिता मं. ५, सू. ५१, मं. १६,१७)

इन दोनों मंत्रों का ऋषि स्वस्त्यात्रेय है और ये मंत्र भी चार संहिताओं में नहीं प्राप्त होते।

ऋग्वेद के शाङ्खायन शाखा के मण्डल १ सूक्त १९१ के ये मंत्र द्रष्टव्य हैं, इनके ऋषि ‘अगस्त्यो मैत्रावरुणिः’ बताया गया है-

मा बिभेर्न मरिष्यसि परि त्वा पामि सर्वतः।

घनेन हन्मि वृश्चिकमहिं दण्डेनागतम्।।१७।।

आदित्यरथवेगेन विष्णुबाहुबलेन च।

गरुडपक्षपातेन भूमिं गच्छ महाविषः।।१८।।

गरुडस्य जातमात्रस्य त्रयो लोकाः प्रकम्पिता।

प्रकम्पिता मही सर्वा सशैलवनकानना।।१९।।

गर्गनं नष्टचन्द्रार्कं ज्योतिषं न प्र काशते।

देवता भयभीताश्च मारुतो नष्टचेतनः।।२०।।

ऐसे अनेक मंत्र हैं, जो चार संहिताओं में प्राप्त नहीं होते किन्तु ऋषियों ने उनका दर्शन किया है अर्थात् ईश्वरीय हैं। अतः वे भी वेद ही हैं, जिन्हें विद्वान् जन स्वयं देख सकते हैं।


अतिरिक्त मंत्रों के देवता

हमने ऊपर ऊपर जिन शाखा मंत्रों को देखा, उनके साथ लिखे ऋषि पर हमने संक्षेप से विचार किया। अब हम उनके देवता के ऊपर विचार करते हैं।

ऋग्वेदीय आश्वलायन संहिता मण्डल ५, सूक्त ४९, मंत्र ६ का देवता विश्वेदेवाः‌ है।

ऋग्वेदीय आश्वलायन संहिता मण्डल ५, सूक्त ५१, मंत्र १६,१७ का देवता विश्वेदेवाः‌ है।

ऋग्वेदीय शाङ्खायन शाखा के मण्डल १ सूक्त १९१, मंत्र १७-२० का देवता अप्तृणसूर्याः (विषघ्नोपनिषद्) बताया गया है।

मंत्रों के देवता कैसे निर्धारित होते हैं, इस विषय में भगवान् यास्क निरुक्त के दैवत काण्ड में लिखते हैं-

यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छन्त्स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति।।

निरु० अ० ७ खं० १

यत्कामः = जिस कामना वाला ऋषि [ = ईश्वर वा दिव्य ] ऋषि यस्याम् देवतायाम् = जिस देवता में आर्थपत्यम् = अर्थ = पदार्थ का बल, कर्म इच्छन्=चाहते हुए स्तुतिम् = स्तुति को प्रयुङ्क्ते = प्रयुक्त करता है, उसी देवता वाला वह मन्त्र होता है।

[भाष्यकार - पण्डित भगवद्दत्त जी]

यहां पण्डित भगवद्दत्त जी ने अंतरिक्षस्थ व द्युलोकस्थ पदार्थों को दिव्य ऋषि कहा है, जिसे उन्होंने आगे स्पष्ट किया है। इसी खण्ड की व्याख्या में पंडित जी लिखते हैं कि इन अंतरिक्षस्थ वा द्युलोकस्थ ऋषियों से मंत्र उत्पन्न हुए। पण्डित जी लिखते हैं कि इन अंतरिक्षस्थ व द्युलोकस्थ ऋषियों से ही मंत्रों के देवता नियत होते हैं। अर्थात् मंत्रों पर लिखे देवता सृष्टि में मंत्रों का प्रभाव दर्शाते हैं। अब जिन मंत्रों का देवता हैं, वे ईश्वरीय ही होने चाहिए अन्यथा निरुक्त में देवता के विषय में बताए लक्षण घटित नहीं होंगे। मंत्रों के साथ देवता लिखे होने से शाखाओं के अतिरिक्त मंत्र भी वेद सिद्ध होते हैं।


चार संहिताओं से अतिरिक्त मंत्रों को निगम कहना

महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखते हैं-

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - वेदविषयविचार

अब हम निरुक्त से कुछ प्रमाण देते हैं जहां भगवान् यास्क ने ऐसे वचन को निगम कहा है जो चार संहिताओं में प्राप्त नहीं होते-

निरुक्त ३.५


निरुक्त ३.२१

निरुक्त ४.१७

निरुक्त ४.२१

ऐसे और भी प्रमाण हैं, जिसे विद्वान् जन स्वयं देख सकते हैं। अब कोई यहां निगम का अर्थ बदलने का प्रयास करे तो यह उसके हठ, दुराग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है क्योंकि ऋषि दयानन्द ने पहले ही बता रखा है कि निरुक्त में जिन्हें निगम कहा है, वे वेद मंत्र ही हैं।


पूर्वपक्ष - महर्षि दयानन्द का यह वचन द्रष्टव्य है-

प्रश्न- वेदों की कितनी शाखा हैं?

उत्तर - एक हजार एक सौ सत्ताईस।

प्रश्न- शाखा क्या कहाती हैं?

उत्तर- व्याख्यान को 'शाखा' कहते हैं।

प्रश्न - संसार में विद्वान् लोग वेद के अवयवभूत विभाग को शाखा मानते हैं?

उत्तर - तनिक-सा विचार करो तो ठीक, क्योंकि जितनी शाखा हैं वे आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और मन्त्रसंहिता परमेश्वर के नाम से प्रख्यात हैं। जैसे चारों वेदों को परमेश्वरकृत मानते हैं, वैसे आश्वलायनी आदि शाखाओं को उस-उस ऋषिकृत मानते हैं और सब शाखाओं में मन्त्रों की प्रतीक धर के व्याख्या करते हैं । जैसे तैत्तिरीय शाखा में 'इषे त्वोर्जे त्वा' इति, इत्यादि प्रतीकें धर के व्याख्यान किया है और वेदसंहिताओं में किसी की प्रतीक नहीं धरी । इसलिये परमेश्वरकृत चारों वेद मूल-वृक्ष और आश्वलायनादि सब शाखा ऋषि- मुनिकृत हैं, परमेश्वरकृत नहीं। इसकी विशेष व्याख्या देखना चाहै, वह 'ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका' में देख लेवें।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ७)

यहां महर्षि ने शाखाओं को ऋषियों रचना बोल दिया, अर्थात् उनमें उपस्थित अतिरिक्त मंत्र ऋषियों की रचना हैं। किन्तु आप उन अतिरिक्त मंत्रों को ईश्वरीय मान रहे हैं। अब आपको प्रमाण माना जाए या ऋषि दयानंद को?

सिद्धान्ती - यदि दुर्जनतोषन्याय से आपके मतानुसार यह स्वीकार कर लिया जाए कि शाखाओं के मंत्र ऋषियों ने रचे तो उसपर निम्न दोष आयेंगे-

१. ऋषि ने यहां कहा कि मंत्र संहिताएं परमेश्वर के नाम से प्रख्यात हैं और शाखाएं ऋषियों के नाम से। किन्तु जो मंत्र संहिताएं मूल मानी जाती हैं वे भी शाकल आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। अर्थात् जो मूल वेद माने जाते हैं वे ऋषियों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। अतः अनेकांतिक हेत्वाभास होने से ११२७ शाखाओं के मंत्रों के मानुषी कहने और चार संहिताओं को ईश्वरीय कहने के पीछे यह हेतु नहीं हो सकता।

२. ऋषि ने यहां आश्वलायन शाखा का नाम लिया है। हमने आश्वलायन संहिता को देखा है, उसमें केवल मंत्र ही हैं और २१२ मंत्र ऐसे हैं जो शाकल शाखा जिसे मूल ऋग्वेद माना जाता है, में नहीं प्राप्त होते। सभी मंत्रों के अपने ऋषि भी लिखे हैं, अब बताइए महोदय! ऋषि मंत्र कर्ता होता है या द्रष्टा? 

३. पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकार किया गया अर्थ मानने पर ऋषि के अन्य ग्रंथों तथा अन्य ऋषियों के कथन से विरोध आएगा, जिसे हम ऊपर दे चुके हैं।

ऋषि के कथन का यथार्थ अर्थ और पूर्वपक्ष का मत स्वीकार करने पर उठने वाले आक्षेप का निवारण-

यहां ऋषि ने स्वयं ही शाखा की परिभाषा बता दी है। ऋषि लिखते हैं व्याख्यान ग्रन्थ को शाखा कहते हैं। अर्थात् यहां ऋषि ने ब्राह्मणादि ग्रंथों को शाखा माना है, न कि मंत्र संहिताओं को और उन्हीं शाखाओं को ऋषियों ने रचा। ब्राह्मण आदि को भी ऋषि शाखा मानते थे, इसका एक प्रमाण देते हैं-


(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - वेदोक्तधर्मविषय)

महाभाष्यकार ने ११३१ शाखा स्वीकार किया है तो वहीं ऋषि ने ११२७। इसपर पूर्वपक्ष कहता है ऋषि ने ऋषि ने उनमें से ४ संहिताओं को मूल मान लिया शेष को शाखा। लेकिन ऐसा मानने पर यह दोष उपस्थित होता है कि कृष्ण यजुर्वेद की शाखा को छोड़ कर अन्य शाखाओं में केवल मंत्र ही हैं, कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में मंत्र और ब्राह्मण दोनों हैं। जिनमें केवल मंत्र हैं, उनमें उपस्थित मंत्र मनुष्य की रचना नहीं हो हो सकते। किसी शाखा (संहिता) से संबंधित ब्राह्मण, आरण्यक, कल्प को भी शाखा कहा जाता है। जिस-जिस शाखा से संबंधित जो-जो ब्राह्मणादि ग्रन्थ हैं, उसे ही उस शाखा से ही ऋषि ने यहां उस शाखा नाम से कथन किया है। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि ४ शाखाओं को ऋषि ने इसमें क्यों नहीं जोड़ा? उत्तर है ऋषि के पास जो ग्रंथ था, संभव है कि ऋषि को यहां पाठभेद प्राप्त हुआ हो अथवा ऋषि को कोई अन्य विभाग अभिप्रेत रहा जिसके अनुसार ११२७ शाखाएं ही होती हैं, यह विचारणीय है। इस विषय में कुछ संकेत भी प्राप्त होते हैं, ऋग्वेद की शाङ्खायन शाखा के भूमिका का यह भाग द्रष्टव्य है-

चतुर्धा व्यभजत् ताँश्च चतुर्विंशतिधा पुनरितिरूपेण ब्रह्मसूत्रस्य १.१.१८ माध्वभाष्येऽणुभाष्येच अस्य वेदस्य चतुर्विंशतिशाखानामुल्लेखो विद्यते। भर्तृहरिः स्ववाक्यपदीये ‘एकविंशतिधा बाह्वृच्यं। पञ्चदशधा इत्येके’ एवं कथयति।

अन्यत्रापि बहुषु ग्रन्थेषु अस्य वेदस्य शाखासंख्याविषये उल्लेखः प्राप्यन्ते।

शौनकाचार्यस्तु चरणव्यूहग्रन्थेऽस्य वेदस्य नामग्रहणपूर्वकं पञ्चविधशाखानामुल्लेखं करोति–

एतेषां शाखाः पञ्चविधा भवन्ति।

आश्वलायनी शाङ्खायनी शाकला बाष्कला माण्डूकायनाश्च। १.७;८

इसके पूर्व महाभाष्य व दुर्गाचार्य कृत निरुक्त वृत्ति आदि का प्रमाण देकर ऋग्वेद की २१ शाखा होने का प्रमाण दिया गया। किंतु यहां यह विचारणीय है कि माध्वाचार्य ने २४ शाखा जो माना है, क्या वह पाठभेद से माना है? भर्तृहरि ने ऋग्वेद की २१ शाखा बता कर, फिर अन्य मत प्रस्तुत किया है कि कुछ १५ शाखा मानते हैं वह कोई अन्य विभाग प्रतीत होता है इसी प्रकार चरणव्यूह में भी अन्य विभाग है। इसी प्रकार संभव है कि ऋषि ने किसी अन्य प्रकार से विभाग के अनुसार ११२७ माना हो या पाठभेद से ११२७ पाठ प्राप्त हुआ हो। जो ऋषि ने तैत्तिरीय शाखा में इषे त्वोर्जे त्वा का प्रतीक धर के व्याख्यान माना है, पंडित युधिष्ठिर जी के टिप्पणी के अनुसार इसका प्रतीक धर के व्याख्यान तैत्तिरीय शाखा में नहीं प्राप्त होता। और यदि प्राप्त भी हो जाए तो भी कोई हमारे पक्ष में कोई दोष नहीं आता क्योंकि तैत्तिरीय शाखा कृष्ण यजुर्वेद की शाखा है और उसमें ब्राह्मण भी मिश्रित है।

मंत्र संहिताओं के साथ ऋषियों के नाम जुड़ने का कारण-

मंत्र संहिताओं के साथ जो ऋषियों के नाम जुड़े हैं वे प्रवचन करने के कारण जुड़े हैं न कि उन ऋषियों ने उन शाखाओं में उपस्थित मंत्रों का निर्माण किया। इस विषय में मीमांसा के ये दो सूत्र द्रष्टव्य हैं-

वेदाँश्चैके सन्निकर्ष पुरुषाख्याः।।१.१.२७।। [पूर्वपक्ष का प्रश्न]

अर्थात् कुछ लोग वेद को निकट काल का अर्थात् नवीन कहते हैं क्योंकि वे पुरुष विशेष के नाम से कहे जाते हैं, जैसे शाकल शाखा, आश्वलायन शाखा आदि। पूर्वपक्ष यहां आक्षेप करता है कि जिस ऋषि के साथ संहिता को जोड़ा जाता है उसने उस संहिता की रचना की।

इसका उत्तर देते हुए महर्षि जैमिनी लिखते हैं

आख्या प्रवचनात्।।१.१.३०।। [सिद्धान्ती का उत्तर]

अर्थात् शाकल, आश्वलायन आदि संज्ञा उन-उन ऋषियों के द्वारा प्रवचन=अध्यापन करने से हुई हैं, न कि उन ऋषियों ने निर्माण किया है।

अब यहां यह शंका किया जाए कि यहां ‘आख्या प्रवचनात्’ सूत्र केवल शाकल आदि चार संहिताओं के विषय में ही माना जाए और उनसे भिन्न मंत्र संहिताओं वा जो अतिरिक्त मंत्र अन्य संहिताओं में प्राप्त होते हैं, उनके लिए न माना जाए तो ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि ऊपर अनेक प्रमाणों से हमने अतिरिक्त मंत्रों को भी ईश्वरीय सिद्ध किया है।

पूर्वपक्ष के मत पर हमने जो प्रथम आक्षेप उठाया वह आक्षेप शाखा का अर्थ ब्राह्मणादि व्याख्यान ग्रंथों को मानने पर नहीं घटित होता किन्तु अन्य मंत्र संहिता पर घटाने पर अवश्य घटित होता है अतः यहां शाखा का अर्थ व्याख्यान ग्रन्थ ही लेना उचित है।


पूर्वपक्ष - ऋषियों ने मंत्रों के अर्थ समझाने हेतु मंत्रों में पाठभेद कर के शाखा ग्रंथों का निर्माण किया। अतः शाखाओं के मंत्र ईश्वरीय नहीं हो सकते।

सिद्धांती - ऐसा कहना उचित नहीं है, हमने ऊपर अनेक प्रमाण से यह सिद्ध कर दिया है कि शाखाओं के मंत्र भी अपौरुषेय हैं। रही बात पाठभेद की तो उसके लिए मूल संहिता माने जाने वाले ही ग्रंथों से एक प्रमाण उद्धृत करते हैं।

ऋग्वेद का मंत्र है-

विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुत द्याम्।

मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु॥

(ऋ. १०/८१/६)

यह मंत्र यजुर्वेद में इस प्रकार आया है-

विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयँयजस्व पृथिवीमुत द्याम्।

मुह्यन्त्वन्येऽअभितो सपत्नाऽइहास्माकम्मघवा सूरिरस्तु॥

(यजु. १७/२२)

यह मंत्र ऋग्वेद और यजुर्वेद में पूरा सामान है केवल थोड़ा सा पाठभेद है। अब बताइए महानुभाव! ऋग्वेद के मंत्र का व्याख्यान यजुर्वेद में है वा यजुर्वेद के मंत्र को पाठभेद कर के किसी ऋषि द्वारा ऋग्वेद में व्याख्यात है? जैसे ये दोनों मंत्र में थोड़ा पाठभेद होते हुए भी ये मंत्र ईश्वरीय हैं, वैसे ही शाखाओं में आए मंत्र भी ईश्वरीय हैं।

हमने इस लेख में ऋषियों के प्रमाण देकर यह स्पष्ट कर दिया कि शाखाओं में आए अतिरिक्त मंत्र भी ईश्वरीय हैं, लेकिन अब भी यदि किसी को मानुषी रचना मानना है तो मानता रहे, लेकिन इस मत को अपने नाम से चलाएं, ऋषियों के नाम से न चलाएं। पुनरपि परमात्मा से प्रार्थना है कि सभी को सद्बुद्धि दें, जिससे सब सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकें। 

।।सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।।


संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ

  • ऋग्वेद संहिता (प्रकाशक - परोपकारिणी सभा)
  • यजुर्वेद संहिता (प्रकाशक - परोपकारिणी सभा)
  • काण्व संहिता
  • आश्वलायन संहिता
  • शाङ्खायन संहिता
  • ऋग्वेदीयम् ऐतरेय ब्राह्मणम् (व्याख्याकार - उमेश प्रसाद सिंह)
  • शतपथ ब्राह्मण
  • निरुक्त
  • निरुक्त शास्त्रम् (पण्डित भगवद्दत्त जी)
  • न्याय दर्शन वात्स्यायन भाष्य सहित
  • ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका
  • सत्यार्थ प्रकाश
  • ऋषि दयानंद सरस्वती का पत्र व्यवहार और विज्ञापन भाग १ : चतुर्थ संस्करण (सं० २०५०, आश्विन, पूर्णिमा अक्टूबर सन् १९९३)
  • आर्याभिविनय
  • भ्रमोच्छेदन 
  • आश्वलायनश्रौतसूत्रम्
  • गोपथ ब्राह्मण
  • पैप्पलाद संहिता
  • महाभाष्य
  • वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १ (अपौरुषेय वेद तथा शाखा)
  • वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग ३ (ब्राह्मण तथा आरण्यक ग्रन्थ)

Comments

  1. आपकी प्रस्तुति व निष्कर्ष में मैं सहमत नहीं हूं। क्या आप चर्चा शास्त्रार्थ के लिए तैयार हैं? यदि हैं तो अपने पक्ष की प्रस्तुति पूर्वक आपके पक्ष का निराकरण करना चाहूंगा।

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  2. भ्राता, आपका लेख पढ़ा। बहुत अच्छा लगा, आर्यसमाज में ऐसे ही स्वतन्त्र लेखन व भाषण होते रहना चाहिए। कल सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम समुल्लास फिर से पढ़ा था। अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र को लेकर शङ्का हुई यतः महर्षि दयानन्द ने पहले समुल्लास के अन्त में स्पष्ट रूप से चारों वेदों के प्रथम मन्त्रों के प्रारम्भिक भागों को उद्धृत किया है, वहीं आपने अथर्ववेद का प्रथम मन्त्र और ही माना है और फिर उसके कुछ प्रमाण दिए हैं। कृपया विचारें एवं समाधान प्रस्तुत करें।

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    1. नमस्ते जी
      हमने जो गोपथ ब्राह्मण, व्याकरण महाभाष्य व महर्षि दयानन्द कृत ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका से प्रमाण दिया है कि ‘शन्नो देवी०’ अथर्ववेद का प्रथम मंत्र है, वह अथर्ववेद की पैप्पलाद संहिता का प्रथम है। जबकि सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ऋषि ने जो ‘ये त्रिषप्ताः परियन्ति०’ को अथर्ववेद का प्रथम मंत्र कहा है वह अथर्ववेद के शौनक संहिता का प्रथम मंत्र है।

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    2. अच्छा अब स्पष्ट हुआ। बहुत बहुत धन्यवाद

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