पुत्रेष्टि और श्रीरामादि के जन्म का रहस्य

लेखक - यशपाल आर्य

कुछ लोग आक्षेप लगाते हैं कि पुत्रेष्टि से पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है, यदि नहीं हो सकता तो दशरथ जी को पुत्रेष्टि से पुत्र कैसे प्राप्त हुआ? आज हम इसी पर विचार करेंगे।


दशरथ जी के राज्य में कोई दुखी नहीं था सब खुशहाल थे, किन्तु उन्हें इस बात की बहुत चिन्ता थी कि मेरा कोई पुत्र नहीं है। उसके लिए उन्होंने यज्ञ करवाने का निश्चय किया। उसके लिए उन्होंने सुमंत्र के बताए अनुसार ऋष्यश्रृंग को चुना। इस विषय में रामायण के प्रमाण देखें-

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आगे सुमंत्र के कहने पर महाराज दशरथ ऋष्यश्रृंग को ले आते हैं।

गंभीरता व तर्क के साथ अध्ययन करने वाले पाठक को यहां एक थोड़ी अटपटी सी लगती है कि पुत्र प्राप्ति के लिए वाजिमेध यज्ञ कैसे किया जा सकता है, दोनों यज्ञों में कोई अंगोपाङ्ग संबंध नहीं है और दोनों यज्ञ स्वतंत्र हैं। पुत्रेष्टि यज्ञ पुत्र प्राप्ति के लिए तो वही अश्वमेध यज्ञ राष्ट्र को एकीकृत करने हेतु किया जाता है। वस्तुतः यहां वाजिमेध शब्द है, और इसके अर्थ को समझा नहीं गया, जिसके कारण बीच में अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग का प्रक्षेपण कर दिया गया और यह मिलावट प्राचीन होने से सभी संस्करणों में प्राप्त होती है। यहां अश्वमेध यज्ञ में घोड़े के साथ सोने की कथा आदि सब वेदों के अर्थों को गलत समझ कर लोगों ने मिलाया है। यहां हम पुत्रेष्टि यज्ञ पर विचार कर रहे हैं तथापि अत्यन्त आवश्यक होने से संक्षेप से हम अश्वमेध यज्ञ के उस प्रसंग पर विचार करते हैं। वस्तुतः महिधर ने यह अर्थ वेद और ब्राह्मण ग्रंथों को न समझ कर कर दिया। महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उस अर्थ ऋषियों के विरुद्ध सिद्ध करते हुए और दोनों मंत्रों के सत्यार्थ का प्रकाश करते हुए उन दोनों मंत्रों का ऋषियों के अनुकूल भाष्य करते हुए लिखते हैं-


अब हम वाजिमेध का सही अर्थ जानेंगे, इसके लिए आर्ष प्रमाण उद्धृत करते हैं-

रेतो वाजिनम्। (तै. ब्रा. १|६|३|१०)

मेधः = यज्ञनाम् (निघ. ३/१७)

रेत का अर्थ वीर्य होता है। यहां प्रसंगानुकूल रेत शब्द का अर्थ होगा पुत्रोत्पत्ति के लिए आवश्यक वीर्यादि। यज्ञ शब्द यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वादि गण ७२८) धातु से बना है। अतः यहां प्रसंग अनुकूल वाजिमेध का अर्थ होगा कि किसी रोग कारण पुत्र न प्राप्त होने पर औषधियों को उचित मात्रा में मिला कर विर्यादि में जो दोष हैं उनकी चिकित्सा करना।

आगे सुमंत्र के कहने पर महाराज दशरथ ऋष्यशृंग को पुत्रेष्टि हेतु ले आते हैं। वहां राजमहल में ऋष्यश्रृंग व उनकी पत्नी शान्ता कुछ काल तक रहते हैं।

आगे राजा दशरथ उचित समय आने पर उनसे यज्ञ करने का निवेदन करते हैं, देखें गीता प्रेस सर्ग 12-

तत्पश्चात उचित समय आने पर वे यज्ञ हेतु निवेदन करते हैं।



 
गीता प्रेस का श्लोक 3 का उत्तरार्द्ध व श्लोक 4 का पूर्वार्द्ध मिलावट है, वाजिमेध का गलत अर्थ समझ कर इस श्लोक की कल्पना कर के किसी ने मिलावट किया है, अतः यह प्रामाणिक नहीं।

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आगे अश्वमेध यज्ञ का वर्णन है जो बाद में मिलाया गया है। क्योंकि इन दोनों यज्ञों का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, अपितु दोनों स्वतन्त्र यज्ञ हैं। प्रतीत होता है यहां पूर्व में आए वाजिमेध शब्द के प्रयोग से कुछ लोगों ने अश्वमेध यज्ञ समझ कर यह कल्पना कर ली और उसके आधार पर श्लोक बना कर यहां डाल दिया। अश्वमेध को भी यथार्थ स्वरूप में नहीं मिलाया अपितु उसमें भी वेद के मनमाने अर्थों के आधार पर मिलावट हुई। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राजा दशरथ के मत में पुत्र न उत्पन्न होने के पीछे उनके किसी गलत कार्य के फल कारण था, उसके निवारणार्थ उन्होंने अश्वमेध किया। यह भी उचित नहीं है क्योंकि प्रत्येक किए कर्म का फल अवश्य मिलता है किन्तु हां, असावधानी से कोई पाप हो जाए तो उसके फल को प्रायश्चित आदि द्वारा कम किया जा सकता है। यदि ऐसा माना जाए कि असावधानी से किए कर्म के निवारणार्थ अश्वमेध किया तो भी सत्य नहीं क्योंकि अश्वमेध का मुख्य प्रयोजन राष्ट्र को एकत्रित करना है। जो कहें कि गौण रूप से असावधानी पूर्वक किए पाप नष्ट हो सकते हैं तो उनके मत में वह पुत्रेष्टि से भी हो जाना चाहिए। इस प्रसंग पर गंभीरता से विचारने से यही विदित होता है कि वाजिमेध का अर्थ न समझ कर किसी ने अश्वमेध की कथा को मिलावट कर दिया।
इसके बाद आगे पुत्रेष्टि यज्ञ का आरंभ होता है। इस विषय में सर्वप्रथम गीता प्रेस का पाठ देखें।
बालकांड सर्ग 14 देखें
यहां जो बॉक्स में है उसके स्थान पर तब शब्द होना चाहिए, क्योंकि हमने ऊपर ही अश्वमेध की समीक्षा कर दिया है।

अब देखें बालकाण्ड सर्ग 15-


आगे सर्ग 16 में देखें-
(बालकांड सर्ग 16, श्लोक 11 पूर्वार्द्ध)

(श्लोक 16 का पूर्वार्द्ध)

यहां उद्धृत श्लोकों (11, 14, 15 व 16) का अर्थ इस प्रकार से है-
थोड़ी देर के पश्चात् महाराज दशरथ के आहवनीय अग्निकुण्ड से अतुल, प्रभायुक्त, स्वर्ण से निर्मित और चाँदी के पात्र से ढके दिव्य पायस (संस्कृत में पायस शब्द है, पयस् कहते हैं दूध को, दूध से बने पदार्थ पायस शब्द से ग्राहीत होते हैं, वस्तुतः यहां पायस का अर्थ ऐसी औषधि से है जिसका मुख्य अवयव दूध हो लेकिन टीकाकारों ने इसे न समझ कर खीर का अर्थ ग्रहण कर लिया) पूर्ण पात्र को प्यारी पत्नी के समान दोनों हाथों में लिये हुए ऋष्यशृङ्ग ने महाराज दशरथ की ओर देखकर कहा-
यहां हमने जिसे लाल रंग के बॉक्स में रखा है, वह श्लोक मिलावट है। यही नियम इस लेख में आगे के लिए भी समझ लेवें।

अब पश्चिमोत्तर संस्करण से देखें-
बालकाण्ड सर्ग 10 देखें-



आगे सर्ग 11 में देखें
(बालकंड सर्ग ११, श्लोक ९, पूर्वार्द्ध)



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अब सर्ग 15 से देखें
श्लोक ३ पूर्वार्द्ध

अब critical edition में देखें-
बालकाण्ड सर्ग 13 में देखें

अब सर्ग 14 में देखें



अब सर्ग 15 देखें
श्लोक 9, पूर्वार्द्ध




यहां इस प्रसंग में जो दिव्य पुरुष का अग्नि से प्रगट होने की बात है वह सृष्टि विरुद्ध होने से मिलावट है। इसी प्रकार देवों द्वारा भगवान् विष्णु जी की प्रार्थना और उनका दशरथ के पुत्र रूप में जन्म लेकर रावण वध का आश्वासन देने की बात भी मिलावट है। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है, और यजुर्वेद ४०.८ में स्पष्ट रूप से कहा है कि ईश्वर शरीर धारण नहीं करता, नस नाड़ी के बंधन से रहित है। भगवान् वाल्मीकि ने देवर्षि नारद जी से नर अर्थात् मनुष्य के विषय में पूछा और उन्होंने मनुष्य के विषय ही में बताया। तो यहां वाल्मीकि जी उन्हें परमात्मा कैसे कह सकते हैं? वाल्मीकि जी ने देवर्षि नारद जी से नर के विषय में ही पूछा और उन्होंने सर्वगुण संपन्न नर के विषय में बताते हुए भगवान् राम का नाम लिया था। जब वाल्मीकि जी सदाचार आदि सब गुणों से युक्त पुरुष के विषय में नारद को से पूछते हैं तो वे कहते हैं -
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि में।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम्॥
(बालकाण्ड प्रथम सर्ग श्लोक 5, गीता प्रेस)
अब आगे नारद जी भी नर के विषय में ही कहते हैं, इसका भी प्रमाण देखें-
बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः॥
(बालकाण्ड प्रथम सर्ग श्लोक ७, गीता प्रेस)
ये श्लोक अन्य संस्करणों में भी थोड़े  इसी प्रकार वा थोड़े पाठभेद से मिलते हैं। सबमें उन्हें मनुष्य ही कहा है।

कुछ लोग पुत्रेष्टि पर प्रश्न उठाते रहते हैं कि बिना पुरुष स्त्री के संयोग से पायस खाने से मात्र किसी को पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है? इसका उत्तर है कि शरीर में किसी विकृति से पुत्र उत्पन्न नहीं होता तो उसे पुत्रेष्टि द्वारा दूर किया जाता है। तत्पश्चात बच्चे का जन्म स्त्री पुरुष के संयोग से ही होता है। जो लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि पुत्रेष्टि में बिना पुरुष स्त्री के संयोग से पुत्र उत्पन्न होने की अवैज्ञानिक बात है वे लोग पुत्रेष्टि के विषय में कुछ भी नहीं जानते। चलिए कोई बात नहीं, हम ऐसे लोगों के भ्रान्ति निवारण हेतु भी प्रमाण दे देते हैं। न्याय दर्शन में पूर्वपक्ष के ओर से शंका उठाते हैं कि पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर भी पुत्र न उत्पन्न होने आदि कारण से वेद में मिथ्या वचन का दोष है। इन शंकाओं का उत्तर सिद्धान्त पक्ष की ओर से दिया जाता है। इसमें पुत्रेष्टि के प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि गोतम और उसके व्याख्या में महर्षि वात्स्यायन जी लिखते हैं-


यहां भाष्य में महर्षि वात्स्यायन ने स्पष्ट लिखा है “इष्ट्या पितरौ संयुज्यमानौ पुत्रं जनयत इति । इष्टिः करणं साधनम् पितरौ कर्तारौ, संयोगः कर्म त्रयाणां गुणयोगात् पुत्रजन्म।” इससे पूर्वपक्ष के लगाए आक्षेप का खंडन हो जाता है।

सभी बुद्धिमान जन निष्पक्ष होकर इस लेख विचार अवश्य करें। ईश्वर आप सभी को सत्य को ग्रहण और असत्य को त्यागने का सामर्थ्य प्रदान करें, इसी कामना के साथ लेख को यहीं विराम देता हूं।
।।ओ३म् शम्।।


संदर्भित एवं सहायक ग्रन्थ-
  • वाल्मीकि रामायण (विभिन्न संस्करण)
  • ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (महर्षि दयानन्द जी सरस्वती)
  • वाल्मीकि रामायण (स्वामी जगदीश्वरानंद जी सरस्वती)
  • न्याय दर्शन वात्स्यायन भाष्य सहित (आचार्य ढुण्ढिराज शास्त्री)
  • निरुक्त
  • ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
  • तैत्तिरीय ब्राह्मण
  • संस्कृत धातु कोष (पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक)


Comments

  1. Very nice research brother keep it up we always support you 👍

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