क्या शांता भगवान राम की बहन थीं?
लेखक - यशपाल आर्य
कुछ लोगों को ऐसी भ्रान्ति है कि शांता महाराज दशरथ की पुत्री थीं, फिर उन्होंने रोमपाद को दे दिया। आज हम इस कथा की सच्चाई जानने का प्रयास करेंगे।
तो आइए विषय को प्रारंभ करते हैं -
जब महाराज दशरथ पुत्र प्राप्त करने के लिए यज्ञ का विचार करते हैं उस समय सुमंत्र उन्हें ऋष्यशृंग की कथा सुनाते हैं। तत्पश्चात महाराज दशरथ उनके पास जाते हैं। इस प्रसंग में शांता के विषय में आता है।
सर्वप्रथम राजा दशरथ व सुमंत्र का इस विषय से संबंधित संवाद देखें-
अब पश्चिमोत्तर संस्करण से देखें-
ऐसे ही विभिन्न संस्कारणों में यह कथा थोड़े पाठभेद के साथ आई है किन्तु सबका भाव एक सा है। अब हम इसकी संक्षिप्त समीक्षा करते हैं -
१. बालकांड के नवम सर्ग के प्रथम श्लोक में सुमंत्र यह कथा सुनाने जाते हैं और कहते हैं कि इस कथा का वर्णन पुराण में भी है। इससे सिद्ध होता है कि यह कथा मध्य काल में पुराणों के रचने के बाद मिलाई गई है। क्योंकि पुराणों को गंभीरता से पढ़ने पर पता चलता है कि ऐसी बातें कोई ऋषि नहीं लिख सकता। पुराणों के लेखक व्यास जी माने जाते हैं, यद्यपि यह बात भिन्न है कि व्यास जी ने नहीं लिखा, जब व्यास जी का काल रामायण से बाद का है तो रामायण काल में पुराण क्योंकर उपस्थित हो सकते हैं?
२. आगे वे सुनाते हैं कि सनत्कुमार ने ऋषियों को ऋष्यशृंग के जन्म की कथा सुनाई, रोमपाद की पुत्री शांता का ऋष्यशृंग से विवाह होने और रोमपाद के पास दशरथ का जा कर ऋष्यशृंग को अयोध्या लाने के लिए प्रार्थना करने की बात बताते हैं इस कथा में भविष्यकाल के शब्दों का प्रयोग हुआ है तथा यहां स्पष्ट है कि सनत्कुमार ने भविष्य की बातें सुनाई, जबकि मनुष्य या किसी जीव का भविष्य नहीं बताया जा सकता क्योंकि वह चेतन होने से कर्म अपने इच्छा अनुसार करता है, अर्थात् स्वतंत्र होता है, इसलिए मनुष्य का भविष्य जानना संभव नहीं है। महर्षि पाणिनी कहते हैं-
स्वतन्त्रः कर्ता। (अष्टाध्यायी १/४/५४)
इसका भाव यह है कि कर्ता स्वतंत्र है, अब जो स्वतंत्र है उसके विषय में ठीक ठीक यह निश्चय नहीं किया जा सकता कि वह भविष्य में क्या क्या करेगा।
३. ऋष्यशृंग के चरित्र को कलंकित करने का भी प्रयास किया है, जबकि कोई व्यक्ति ऋषि चित्त की वृत्तियों को निरोध करने के पश्चात ही बनता है। ऋषि वही बन सकता है जो योगी हो अर्थात् समाधिस्थ हो तथा समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए यमादि अंगों का पालन करना अनिवार्य है और यम का एक भाग ब्रह्मचर्य है। किन्तु यहां तो उसके विरुद्ध दिखाया गया है।
४. धर्म का उल्लंघन होने से राजा रोमपाद के राज्य में सूखा पड़ने लगा तथा ऋष्यशृंग के राज्य में आने के कारण मात्र से बारिश शुरू हो गई, जो कि असंभव है।
सूत द्वारा ऋष्यशृंग की कथा सुनाने के मिलावटी होने के उपरोक्त मुख्य कारण हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे ऊपर अनेक आक्रमण हुए तथा विदेशियों ने हम पर शासन भी किया, वे लोग हमारे ऋषि मुनियों को बदनाम करने के लिए हमारे ग्रंथों में मिलावटें किए हैं। अतः मिलावट त्याग कर मूल बातो का ही अध्ययन करना चाहिए।
अब हम देखते हैं कि शांता किसकी पुत्री थी, जब महाराज दशरथ राजा रोमपाद के यहां जाते हैं तो आदर सत्कार पा कर वे 7-8 दिनों तक रुकते हैं,
वाल्मीकि रामायण बालकांड सर्ग ११ |
तत्पश्चात राजा दशरथ राजा रोमपाद से कहते हैं - "शान्ता तव सुता राजन् सह भर्त्रा विशांपते।" अब यदि विचार करें शांता राजा दशरथ की पुत्री होती तो दशरथ जी इस प्रकार कहते - “शान्ता मम् सुता राजन् सह भर्त्रा विशांपते।” किन्तु ऐसा नहीं कहा। क्या दशरथ जी को यह पता ही नहीं था कि शांता मेरी पुत्री है किंतु सुमंत्र को यह पता था? और इतना ही नहीं सुमंत्र के बताने के बाद भी दशरथ जी ने मम् सुता शब्द का प्रयोग नहीं किया। अब कुछ लोग कह सकते हैं कि दत्तक पुत्र वा पुत्री के लिए भी सुत वा सुता शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। हम उनकी भी भ्रान्ति निवारण कर देते हैं -
इसके लिए हम संस्कृत हिन्दी कोष (लेखक - वामन शिवराम आप्टे) का प्रमाण देते हैं।
यहां देखिए, सु धातु में क्त प्रत्यय लगने से सुत शब्द बनता है जिसका जन्म दिया, पैदा किया गया आदि अर्थ हैं, सुत शब्द में टाप् प्रत्यय लगने से स्त्रीलिंग में सुता शब्द बनता है। अतः दत्तक पुत्री को सुता कहना व्याकरण के अनुसार सही नहीं है।
अतः जहां कहीं भी शांता को दशरथ जी की पुत्री कहा है वह मिलावट है तथा देवी शांता राजा रोमपाद की ही पुत्री थीं। उनका नाम कुछ संस्करणों में रोमपाद तो कुछ में लोमपाद कहा है।
कथा का भाग मूल
जब दशरथ जी पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ की इच्छा करते हैं तब
एतच्छ्रुत्वा रहः सूतो राजानमिदमब्रवीत्।।१।।
ऋश्यशृङ्गस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति ।।१९।।
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ९)
स त्वं पुरुषशार्दूल समानय सुसत्कृतम्।
स्वयमेव महाराज गत्वा सबलवाहनः॥१२॥
सुमन्त्रस्य वचः श्रुत्वा हृष्टो दशरथोऽभवत्।
अनुमान्य वसिष्ठं च सूतवाक्यं निशाम्य च॥१३॥
सान्तःपुरः सहामात्यः प्रययौ यत्र स द्विजः।
वनानि सरितश्चैव व्यतिक्रम्य शनैः शनैः॥१४॥
अभिचक्राम तं देशं यत्र वै मुनिपुङ्गवः।
आसाद्य तं द्विजश्रेष्ठं रोमपादसमीपगम्॥१५॥
ऋषिपुत्रं ददर्शाथो दीप्यमानमिवानलम्।
ततो राजा यथायोग्यं पूजां चक्रे विशेषतः॥१६॥
सखित्वात् तस्य वै राज्ञः प्रहृष्टेनान्तरात्मना।
रोमपादेन चाख्यातमृषिपुत्राय धीमते॥१७॥
सख्यं सम्बन्धकं चैव तदा तं प्रत्यपूजयत्।
एवं सुसत्कृतस्तेन सहोषित्वा नरर्षभः॥ १८॥
सप्ताष्टदिवसान् राजा राजानमिदमब्रवीत्।
शान्ता तव सुता राजन् सह भर्त्रा विशाम्पते॥१९॥
मदीयं नगरं यातु कार्यं हि महदुद्यतम्।
तथेति राजा संश्रुत्य गमनं तस्य धीमतः॥२०॥
उवाच वचनं विप्रं गच्छ त्वं सह भार्यया।
ऋषिपुत्रः प्रतिश्रुत्य तथेत्याह नृपं तदा॥२१॥
स नृपेणाभ्यनुज्ञातः प्रययौ सह भार्यया।
तावन्योन्याञ्जलिं कृत्वा स्नेहात्संश्लिष्य चोरसा॥२२॥
ननन्दतुर्दशरथो रोमपादश्च वीर्यवान्।
ततः सुहृदमापृच्छय प्रस्थितो रघुनन्दनः॥२३॥
पौरेषु प्रेषयामास दूतान् वै शीघ्रगामिनः।
क्रियतां नगरं सर्व क्षिप्रमेव स्वलंकृतम्॥२४॥
धूपितं सिक्तसम्मृष्टं पताकाभिरलंकृतम्।
ततः प्रहृष्टाः पौरास्ते श्रुत्वा राजानमागतम्॥२५॥
तथा चक्रुश्च तत् सर्व राज्ञा यत् प्रेषितं तदा।
ततः स्वलंकृतं राजा नगरं प्रविवेश ह॥२६॥
शङ्खदुन्दुभिनिर्ह्रादैः पुरस्कृत्वा द्विजर्षभम्।
ततः प्रमुदिताः सर्वे दृष्ट्वा वै नागरा द्विजम्॥२७॥
प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन्द्रेणेन्द्रकर्मणा।
यथा दिवि सुरेन्द्रेण सहस्राक्षेण काश्यपम्॥२८॥
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ११)
अर्थ-
ऐसा सुनकर सुमन्त्रने राजासे एकान्त में कहा - ऋष्यशृङ्ग आपके जामाता लगेंगे, वे ही आपके लिये पुत्रोंको सुलभ करानेवाले यज्ञकर्मका सम्पादन करेंगे। वस्तुतः ऋष्यशृङ्ग रोमपाद वा लोमपाद के जामाता थे और वे महाराज दशरथ के मित्र थे और यहां इस दृष्टि से ऋष्यशृङ्ग को दशरथ का जामाता कहा है। पुरुषसिंह महाराज! आप स्वयं ही सेना और सवारियोंके साथ अङ्गदेशमें जाकर मुनिकुमार ऋष्यशृङ्ग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइए। सुमन्त्रका वचन सुनकर राजा दशरथको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मुनिवर वसिष्ठजीको भी सुमन्त्रकी बातें सुनायीं और उनकी आज्ञा लेकर रनिवासकी रानियों तथा मन्त्रियों के साथ अङ्गदेशके लिये प्रस्थान किया, जहाँ विप्रवर ऋष्यशृङ्ग निवास करते थे। मार्ग में अनेकानेक वनों और नदियोंको पार करके वे धीरे-धीरे उस देशमें जा पहुँचे, जहाँ मुनिवर ऋष्यशृङ्ग विराजमान थे। वहाँ पहुँचनेपर उन्हें द्विजश्रेष्ठ ऋष्यशृङ्ग रोमपादके पास ही बैठे दिखायी दिये। वे ऋषिकुमार प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। तदनन्तर राजा रोमपादने मित्रताके नाते अत्यन्त प्रसन्न हृदयसे महाराज दशरथका शास्त्रोक्त विधिके अनुसार विशेष रूपसे पूजन किया और बुद्धिमान् ऋषिकुमार ऋष्यशृङ्गको राजा दशरथके साथ अपनी मित्रताकी बात बतायी। उसपर उन्होंने भी राजाका सम्मान किया। इस प्रकार भलीभाँति आदर-सत्कार पाकर नरश्रेष्ठ राजा दशरथ रोमपादके साथ वहाँ सात-आठ दिनोंतक रहे । इसके बाद वे अङ्गराजसे बोले - “प्रजापालक नरेश ! तुम्हारी पुत्री शान्ता अपने पति के साथ मेरे नगर में पदार्पण करे; क्योंकि वहाँ एक महान् आवश्यक कार्य उपस्थित हुआ है”। राजा रोमपादने 'बहुत अच्छा' कहकर उन बुद्धिमान् महर्षिका जाना स्वीकार कर लिया और ऋष्यशृङ्गसे कहा— 'विप्रवर ! आप शान्ताके साथ महाराज दशरथके यहाँ जाइये ।' राजाकी आज्ञा पाकर उन ऋषिपुत्रने 'तथास्तु' कहकर राजा दशरथको अपने चलनेकी स्वीकृति दे दी। राजा रोमपादकी अनुमति ले ऋष्यशृङ्गने पत्नीके साथ वहाँसे प्रस्थान किया । उस समय शक्तिशाली राजा रोमपाद और दशरथने एक-दूसरेको हाथ जोड़कर स्नेहपूर्वक छातीसे लगाया तथा अभिनन्दन किया । फिर मित्रसे विदा ले रघुकुलनन्दन दशरथ वहाँसे प्रस्थित हुए। उन्होंने पुरवासियोंके पास अपने शीघ्रगामी दूत भेजे और कहलाया कि समस्त नगरको शीघ्र ही सुसज्जित किया जाय सर्वत्र धूपकी सुगन्ध फैले । नगरकी सड़कों को झाड़ बुहारकर उनपर पानीका छिड़काव कर दिया जाय तथा सारा नगर ध्वजा-पताकाओंसे अलंकृत हो। राजाका आगमन सुनकर पुरवासी बड़े प्रसन्न हुए। महाराजने उनके लिये जो संदेश भेजा था, उसका उन्होंने उस समय पूर्णरूपसे पालन किया। सत्कार किया, जैसे देवताओंने स्वर्ग में सहस्राक्ष इन्द्रके साथ प्रवेश करते हुए कश्यपनन्दन का समादर किया था।
यहां पर इन्द्र को सहस्त्राक्ष कहा गया है, कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि इसका तात्पर्य यह है कि इन्द्र को एक सहस्त्र नेत्र थे, जबकि यह बात तर्क व सृष्टि विरुद्ध है। देवराज इन्द्र के सहस्त्र नेत्र होने का वास्तविक अर्थ हमें आचार्य चाणक्य जी के अर्थशास्त्र में प्राप्त होता है। आचार्य चाणक्य अर्थशास्त्र प्रथम अधिकरण, अध्याय 15 , प्रकरण 11 के सूत्र 60, 61 और 62 में लिखते हैं-
गीता प्रेस का पाठ सब जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है अतः हमने यहां उस पाठ के आधार पर ही मूल श्लोक निकाला है, विद्वतगण इसी प्रकार अन्य पाठों के मूल भाग को भी समझ लेवें।
इसी के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं। अगर आपको कुछ नई जानकारी मिली हो तो इसे शेयर अवश्य करें ताकि अधिक से अधिक लोगों तक सत्य पहुंच सके।
संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- वाल्मीकि रामायण (विभिन्न संस्करण)
- अर्थशास्त्र
- अष्टाध्याई
- संस्कृत हिन्दी कोष (लेखक - वामन शिवराम आप्टे जी)
बहुत सुंदर प्रस्तुति।।🙏🏻🙏🏻🙏🏻👍🏻👍🏻
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