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जन्माष्टमी की तिथि निर्धारण

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द्वापरयुग के अन्तिम चरण में जन्म लेने वाले योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के समुज्ज्वल जीवन-चरित का गुणगान भगवान् वेदव्यास जी ने महाभारत में किया है। विजय तो जैसे उनकी वशवर्तिनी रही हो, योगविद्या में साक्षात् योगेश्वर, जीवन्मुक्त होते भी सत्कर्मों में लगे रहने वाले ताकि यह सम्पूर्ण विश्व उनका अनुकरण करके धर्म पथ पर चलता रहे। हम सभी जानते हैं कि ऐसे दिव्य गुणों से सदैव सुशोभित होने वाले भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि को हुआ था, किन्तु एक विद्वान् [किसी का नाम लेना उचित नहीं समझता] की पोस्ट अग्रसारित रूप में प्राप्त हुई, उसमें उन्होंने दावा किया था कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की वास्तविक तिथि भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि न होकर श्रावण मास की अष्टमी तिथि है। उनका मत है कि भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन जन्माष्टमी मनाना अशास्त्रीय है। अपने पक्ष के समर्थन में उन्होंने विष्णु पुराण का एक श्लोक भी प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया था जो इस प्रकार है- प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि। उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि॥ (वि. पु. ५/१/७८) अतः उनके मतानुसार ...

सामवेदीय छन्दोग शाखा के पुरातात्त्विक प्रमाण

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(पुरातात्त्विक प्रमाण हमारे मित्रों ने खोजा है इस कार्य हेतु उनका आभार) भगवान् पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की एक सहस्र (1000) शाखाएँ थीं - सहस्रवर्त्मा सामवेद (महाभाष्य पस्पशाह्निक)। प्रपंचहृदय से ज्ञात होता है कि उस काल तक वेदों की अनेक शाखाएं नष्ट हो गई थीं तथा सामवेद की तलवकार आदि 12 शाखाएँ ही शेष बची थीं।  तत्र सामवेदः सहस्रधा....... तत्रावशिष्टाः सामबाह्वृचयोर्द्वादश द्वादश........तत्र सामवेदस्य तलवकारच्छन्दोगशाट्यायनराणायनिदुर्वासस(?) भागुरिगौस्तलवकारालिसावर्ण्यगार्ग्यवार्षगण्यौपमन्यवशाखाः। (प्रपंचहृदय - वेदप्रकरणं) यहाँ सामवेद के छन्दोग नामक शाखा विशेष का उल्लेख है। आइए हम इसी शाखा के कुछ पुरातात्त्विक प्रमाण देखते हैं। मथुरा से 102 ई. का एक यूपस्तंभ प्राप्त होता है जिसमें सामवेदीय छन्दोग शाखा के अध्येता रुद्रिल पुत्र द्रोणिल नामक ब्राह्मण का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार वाराणसी के राजघाट में 3rd-4th century CE की दो मुहरें प्राप्त हुई हैं उनमें भी इस शाखा की ऐतिहासिकता की सिद्धि होती है। आशा करते हैं कि आपको यह जानकारी अवश्य पसंद आई होगी। इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विर...

रवीन्द्राचार्य जी का वेदसंज्ञाविचार विषयक भ्रमोच्छेदन | Ravindracharya's bhramocchedana on vedasaṃjñāvicāra

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हमने वेदसंज्ञा विचार नाम से एक लेख लिखा जिसके विरुद्ध श्री रवीन्द्राचार्य जी ने वीडियो बनाया व परोपकारी पत्रिका के जुलाई 2023 के प्रथम अङ्क में लेख लिखा। दोनों में एक ही तर्क हैं। इनके तर्क व प्रमाणों के परीक्षणार्थ और सत्य के निर्णय हेतु हम इनके आक्षेपों का उत्तर देने हेतु यह लेख लिख रहे हैं। हमारे वेदसंज्ञा विचार नामक लेख पढ़ने हेतु इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं- https://aryaresearcher.blogspot.com/2023/04/veda-samjna-vicara.html श्री रवीन्द्राचार्य जी लिखते हैं कि मैंने (श्री रवीन्द्राचार्य) कमेंट सेक्शन में शास्त्रार्थ हेतु आमंत्रित किया किंतु उत्तर नहीं आया। उत्तर - आप इस गौण विषय को लेख में स्थान देंगे हमें ऐसी आशा नहीं थी। अस्तु! हमें व्यर्थ में इसपर विवाद करके लेख का कलेवर नहीं बढ़ाना है, इस आक्षेप का उत्तर हम अत्यंत संक्षेप रूप से देते हैं। आपने अपना परिचय नहीं दिया, ऐसे ही कोई भी आकर शास्त्रार्थ हेतु कहे तो क्या हम खाली बैठे हैं जो हर एक से शास्त्रार्थ करें? हां, जो विद्वान् हों उनसे अवश्य प्रीतिपूर्वक वाद कर सकते हैं। यदि आपको वाद करना ही था तो टेलीग्राम पर आकर चर्चा कर...

वाल्मीकि रामायण के विभिन्न संस्करण | Different Recensions of Vālmīki Rāmāyaṇa

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पश्चिमी संस्करण (बॉम्बे संस्करण) व दाक्षिणात्य संस्करण (कुम्भकोणम् संस्करण) निर्णय सागर प्रेस (१८८८) और गुजराती प्रिंटिंग प्रेस (१९१२-१९२०) से पश्चिमी संस्करण प्रकाशित हुआ है। यह रामायण का सर्वत्र प्रचलित पाठ है अतः इसे Vulgate edition नाम से जाना जाता है। रामायण के अधिकांश प्रकाशक इसी पाठ को प्रकाशित करते हैं। बॉम्बे व कुम्भकोणम् संस्करण में सर्गों की संख्या लगभग समान है और लगभग २२३ छंदों का अंतर है। बॉम्बे व कुम्भकोणम् संस्करणों में लगभग समान पाठ होने से सामान्यतः यह माना जाता है कि पश्चिमी क्षेत्र का कोई स्वतंत्र पाठ नहीं है। किन्तु ऐसा नहीं है, पश्चिमी भारत की पांडुलिपियों में पश्चिमोत्तर व दाक्षिणात्य दोनों संस्करणों की विशेषताओं और कुछ विशिष्टताओं को प्रदर्शित करते हैं। यह अप्राकृतिक नहीं है, क्योंकि देवनागरी लिपि सर्वव्यापी होने के कारण लगभग सभी संस्करणों का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है। गीता प्रेस बॉम्बे संस्करण प्रकाशित करता है। किन्तु हमारे पास उपलब्ध गीता प्रेस के छियालीसवें पुनर्मुद्रण (संवत् २०७१) में इसे दाक्षिणात्य पाठ माना गया है, वस्तुतः पश्चिमी पाठ और दाक्षिणात्य पा...

मनोज मुंतशिर के हनुमान् जी पर दिए गए विवादित वक्तव्य की समीक्षा | Scrutiny of Manoj Muntashir's controversial statement on Hanumān ji

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मनोज मुंतशिर जी एक बहुत विवादित वक्तव्य सामने आया जिसमें वे कह रहे हैं कि हनुमान् जी दार्शनिक बातें नहीं करते थे, वे भगवान् नहीं थे। हनुमान् जी के विषय में जो विवादित वक्तव्य दिया उससे शायद ही कोई वैदिक धर्मी सहमत होगा। हम प्रमाण के साथ आदरणीय मनोज जी के भ्रम का प्रीतिपूर्वक निवारण करना चाहेंगे। ऋष्यमूक पर्वत पर जब भगवान् श्रीराम को देखकर सुग्रीव जी को यह भ्रम हो जाता है कि कहीं ये वाली के भेजे तो नहीं न हैं तब हनुमान् जी सत्यता जानने हेतु जाते हैं और दोनों में वार्तालाप होती है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते हैं- नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।२८।। नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्। बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।२९।। न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।३०।। अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्यथम्। उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्।।३१।। संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्। उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीम्।।३२।। अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया। कस्य नाराध्...

वैदिक संध्या : द्विकालीय या त्रिकालीय? | vaidika saṃdhyā : dvikālīya yā trikālīya?

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आर्ष मतानुसार प्रतिदिन संध्या दो बार करनी चाहिए या तीन बार, इस विषय में विवाद चलता रहा है। इस विषय में सत्य पक्ष समझने हेतु हम आर्ष प्रमाण देखते हैं, ऋषियों के साक्षात्कृतधर्मा होने उनके प्रमाण स्वीकार करना चाहिए। सर्वप्रथम हम यजुर्वेदीय संध्या में संध्या का अर्थ देखते हैं- यहां लिखा है कि प्रातः और सायं के संध्या के काल में ही संध्या करनी चाहिए। इस पांडुलिपि पर हमने विस्तृत लेख लिखा है, पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 👉 वैदिक पूजा पद्धति (यजुर्वेदीय संध्या की दुर्लभ पांडुलिपि पर आधारित) षड्विंश ब्राह्मण ५.५.४ में भी प्रातः व सायं दो ही काल में संध्या करने का विधान है, सायण ने भी यही स्वीकार किया है - भगवान् मनु भी दो ही काल के संध्या का विधान व फल का वर्णन करते हैं- मनु० २.१०१,१०२ लौगाक्षि गृह्यसूत्र १.२६ देखें- तैत्तिरीय आरण्यक का प्रमाण देखें - अर्थात् जब सूर्य के उदय और अस्त का समय आवे, उसमें नित्य प्रकाशस्वरूप, आदित्य परमेश्वर को उपासना करता हुआ ब्रह्मोपासक मनुष्य ही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है । पूर्वपक्ष - तैत्तिरीय आरण्यक में त्रिकालीय संध्या का प्रमाण है- तै. आ. १०...

ऋग्वेदीय बह्वृच शाखा : एक विहंगावलोकन (Ṛgvedīya Bahvṛca Śākhā)

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(इस विषय मे प्रमाण खोजने में प्रिय मित्र राज आर्य जी ने बहुत सहायता की है, एतदर्थ हम उनका हार्दिक धन्यवाद व आभार व्यक्त करते हैं) भगवान् पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की कुल २१ शाखाएं थीं, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की ९ शाखाएं थीं। इस प्रकार चारों वेदों की ११३१ शाखाएं होती हैं। महाभाष्य १.१.१ यहां ऋग्वेद के लिए बह्वृच का सामान्य प्रयोग किया गया है किन्तु इसके साथ ही एक ऋग्वेदीय शाखा विशेष की भी बह्वृच संज्ञा थी। सम्प्रति यह अनुपलब्ध है किन्तु इतिहास में हमें इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं, जिन्हें हम यहाँ उद्धृत करते हैं- कौषीतकि ब्राह्मण १६.९ अगर बह्वृच ऋग्वेद का केवल सामान्य नाम मात्र ही होता तो यहाँ इसे पैङ्गय व कौषीतकि से भिन्न नहीं कहा जाता क्योंकि पैङ्गय व कौषीतकि दोनों ही ऋग्वेद की शाखाएं हैं। शतपथ ब्राह्मण से भी इस शाखा का अस्तित्व प्रमाणित होता है- श. ब्रा. ११.५.१.१० यहाँ कहा है कि बह्वृच के अनुसार उर्वशी पुरुरवा के आलंकारिक संवाद वाले सूक्त में १५ ऋचाएं हैं किन्तु ऋग्वेद की शाकल संहिता में १८ ऋचाएं हैं। अतः यहाँ यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि बह्वृच नाम से कोई म...