वाल्मीकि रामायण के विभिन्न संस्करण | Different Recensions of Vālmīki Rāmāyaṇa


लेखक - यशपाल आर्य

पश्चिमी संस्करण (बॉम्बे संस्करण) व दाक्षिणात्य संस्करण (कुम्भकोणम् संस्करण)

निर्णय सागर प्रेस (१८८८) और गुजराती प्रिंटिंग प्रेस (१९१२-१९२०) से पश्चिमी संस्करण प्रकाशित हुआ है। यह रामायण का सर्वत्र प्रचलित पाठ है अतः इसे Vulgate edition नाम से जाना जाता है। रामायण के अधिकांश प्रकाशक इसी पाठ को प्रकाशित करते हैं। बॉम्बे व कुम्भकोणम् संस्करण में सर्गों की संख्या लगभग समान है और लगभग २२३ छंदों का अंतर है। बॉम्बे व कुम्भकोणम् संस्करणों में लगभग समान पाठ होने से सामान्यतः यह माना जाता है कि पश्चिमी क्षेत्र का कोई स्वतंत्र पाठ नहीं है। किन्तु ऐसा नहीं है, पश्चिमी भारत की पांडुलिपियों में पश्चिमोत्तर व दाक्षिणात्य दोनों संस्करणों की विशेषताओं और कुछ विशिष्टताओं को प्रदर्शित करते हैं। यह अप्राकृतिक नहीं है, क्योंकि देवनागरी लिपि सर्वव्यापी होने के कारण लगभग सभी संस्करणों का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है। गीता प्रेस बॉम्बे संस्करण प्रकाशित करता है। किन्तु हमारे पास उपलब्ध गीता प्रेस के छियालीसवें पुनर्मुद्रण (संवत् २०७१) में इसे दाक्षिणात्य पाठ माना गया है, वस्तुतः पश्चिमी पाठ और दाक्षिणात्य पाठ को एक मानने से यह त्रुटि हुई है। Critical edition के अनुसार ये दोनों भिन्न भिन्न पाठ हैं।

पश्चिमी संस्करण को आप टेलीग्राम पर art pustakalay से download कर सकते हैं-


पूर्वोत्तर वा बंगाल संस्करण

यह पूर्वोत्तर क्षेत्र का संस्करण है, इसको गैस्पर गौरीशियो ने संपादित दिया। यह छः खंडों में बालकांड से उत्तरकांड पर्यन्त प्रकाशित है। ६ भागों में वर्गीकरण इस प्रकार है-

इस पाठ की विशेषता यह है कि यहां युद्धकांड के अन्त में ‘रामायण समाप्तं’ लिखा है और तत्पश्चात् उत्तर काण्ड आरंभ हुआ है। इससे यह संकेत मिलता है कि जिस पांडुलिपि से इसका संपादन किया गया, उसमें तो उत्तर काण्ड अवश्य था किन्तु परंपरा से उसे परिशिष्ट रूप में स्वीकार किया जाता था, मूल रामायण युद्धकाण्ड में ही समाप्त हो जाती है।


पश्चिमोत्तर वा लाहौर संस्करण

इसका संपादन पण्डित भगवद्दत्त जी, रामलाभाया जी और विश्वबंधु शास्त्री जी ने किया। इसमें एक बहुत अच्छी विशेषता यह है कि पश्चिमोत्तर संस्करण की उन्हें जितनी पांडुलिपियां प्राप्त हुईं, उनके पाठान्तर नोट में रख दिए गए हैं।

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आलोचनात्मक संस्करण वा समीक्षित आवृत्ति (Critical Edition)

किसी ग्रंथ के उपलब्ध सभी पांडुलिपियों पर शोध करके ग्रंथ के मूल स्वरूप वा लगभग मूल स्वरूप को प्राप्त करना आलोचनात्मक संस्करण कहलाता है। The Maharaja Sayajirao University of Baroda के Oriental Institute में विद्वानों ने रामायण के विश्व भर के रामायण की 2 सहस्र से अधिक पांडुलिपियों के ऊपर शोध करके रामायण का आलोचनात्मक संस्करण छापा। 1960 से लेकर 1975 पर्यन्त इसके सात काण्ड सात भागों में छपे।

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Critical edition कैसे बनाया गया इसके लिए हम बालकाण्ड का उदाहरण देते हैं, जिससे विद्वान् आसानी से समझ सकें। बालकाण्ड की समीक्षित आवृत्ति बनाने हेतु 86 पांडुलिपियां चुनी गईं, जो इस प्रकार हैं-

Versions of Valmiki Ramayana

इन पांडुलिपियों का अनुशीलन करके विभिन्न पांडुलिपियों के संस्करण निर्धारण और रामायण का वास्तविक स्वरूप कैसा रहा होगा विद्वानों ने अनुमान किया, जो इस प्रकार है-

Valmiki Ramayan ke Sanskaran

जब पांडुलिपियों का संकलन कार्य पूर्ण हो गया तो यह देखा गया कि कुछ पांडुलिपियां पुराने पांडुलिपियों की नकल मात्र थीं। कन्नड़ और नंदिनागरी के पाठ लिपि के सदृश ही थे अतः इन्हें हटा दिया गया। अंततः 37 पांडुलिपियों के आधार पर बालकांड का संशोधित पाठ छपा।

Ramayan ke Sanskaran

रामायण के पाठों का निर्धारण इस प्रकार किया गया-

(i) जो पाठ औदीच्य और दाक्षिणात्य दोनों में समान हैं, उसे स्वीकार कर लिया गया।

(ii) जब दोनों में पाठ भिन्न भिन्न हैं तो सामान्यतः दाक्षिणात्य पाठ को स्वीकार किया गया क्योंकि उनके अनुसार दाक्षिणात्य पाठ की भाषा मूल के अधिक निकट प्रतीत होती है। 

दोनों पाठों के असहमति की स्थिति में दाक्षिणात्य पाठ प्रकरण के विरुद्ध है वा निरर्थक है तो औदीच्य पाठ को प्राथमिकता दी गई है।

(iii) किसी पाठ का दोनों या दोनों में से किसी एक संस्करण में अभाव है तो यह उसके मिलावट होने का संदेह व्यक्त करता है अतः उसे छोड़ दिया गया है।

(iv) दोनों में से किसी संस्करण में किसी अंश को छोड़ दिया गया है और वह संदर्भ हेतु आवश्यक नहीं है तो उसे छोड़ दिया गया है।

(v) कोई अंश शोध में उपलब्ध पांडुलिपियों में से कुछ पांडुलिपियों (भले ही किसी सम्पूर्ण संस्करण में न हो) में छोड़ दिए गए हैं, वे निकटता से संबंधित नहीं हैं और प्रभावित नहीं करते तो उन्हें गौण रूप में छोड़ दिया गया है।

(vi) तरंगीय रेखा का आमतौर पर वहां उपयोग किया गया है जहां एक ही संस्करण की पांडुलिपियां बराबर बंटी हों और विवादास्पद बात हो। जब दाक्षिणात्य पाठ औदीच्य पाठ से भिन्न हों तो इसका उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि दाक्षिणात्य पाठ सामान्यतः औदीच्य पाठ से पुराना स्वरूप प्रदर्शित करता है।

(vii) जहां तक संभव हो व्याख्या के पक्ष में संशोधन से बचा गया है।

विभिन्न पाठों को देखते हुए संशोधन कैसे किया गया, इसके लिए हम बालकाण्ड प्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक का उदाहरण देते हैं-

आशा करते हैं कि आपको यह जानकारी पसंद आई होगी और अनेक जिज्ञासाओं का समाधान भी हुआ होगा। अगर पसंद आई हो तो अधिक से अधिक शेयर करें ताकि अन्य लोग भी लाभान्वित हो सकें। इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं...

।।ओ३म् शम्।।

Comments

  1. Bahut badhiya, ab ham bina kisi chinta ke Valmiki ramayan padh sakte hai. Apke diye gaye recension ke list bahut kaam ayenge. achha hua apne pdf bhi upalabdh kardi.

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