मनोज मुंतशिर के हनुमान् जी पर दिए गए विवादित वक्तव्य की समीक्षा | Scrutiny of Manoj Muntashir's controversial statement on Hanumān ji


लेखक - यशपाल आर्य

मनोज मुंतशिर जी एक बहुत विवादित वक्तव्य सामने आया जिसमें वे कह रहे हैं कि हनुमान् जी दार्शनिक बातें नहीं करते थे, वे भगवान् नहीं थे। हनुमान् जी के विषय में जो विवादित वक्तव्य दिया उससे शायद ही कोई वैदिक धर्मी सहमत होगा। हम प्रमाण के साथ आदरणीय मनोज जी के भ्रम का प्रीतिपूर्वक निवारण करना चाहेंगे। ऋष्यमूक पर्वत पर जब भगवान् श्रीराम को देखकर सुग्रीव जी को यह भ्रम हो जाता है कि कहीं ये वाली के भेजे तो नहीं न हैं तब हनुमान् जी सत्यता जानने हेतु जाते हैं और दोनों में वार्तालाप होती है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते हैं-

नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।२८।।

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।२९।।

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।

अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।३०।।

अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्यथम्।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्।।३१।।

संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीम्।।३२।।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया।

कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।३३।।

(वा. रा. कि. का. स. ३)

अर्थात् जिसे ऋग्वेदकी शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेदका अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेदका विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषामें वार्तालाप नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होंने समूचे व्याकरणका कई बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत-सी बातें बोल जानेपर भी इनके मुँहसे कोई अशुद्धि नहीं निकली। सम्भाषणके समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अङ्गोंसे भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ। इन्होंने थोड़ेमें ही बड़ी स्पष्टताके साथ अपना अभिप्राय निवेदन किया है। उसे समझनेमें कहीं कोई संदेह नहीं हुआ है। रुक-रुककर अथवा शब्दों या अक्षरोंको तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्यका उच्चारण नहीं किया है, जो सुननेमें कर्णकटु हो । इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप से स्थित है और कण्ठसे बैखरीरूपमें प्रकट होती है, अतः बोलते समय इनकी आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊँची। मध्यम स्वरमें ही इन्होंने सब बातें कहीं हैं। ये संस्कार और क्रमसे सम्पन्न, अद्भुत, अविलम्बित तथा हृदयको आनन्द प्रदान करनेवाली कल्याणमयी वाणीका उच्चारण करते हैं। हृदय, कण्ठ और मूर्धा - इन तीनों स्थानोंद्वारा स्पष्टरूपसे अभिव्यक्त होनेवाली इनकी इस विचित्र वाणीको सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा। वध करनेके लिये तलवार उठाये हुए शत्रुका हृदय भी इस अद्भुत वाणीसे सकता है। 

अब बताइए महानुभाव क्या जिस भगवान् हनुमान् जी को भगवान् श्रीराम जैसे वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञ इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, उनके लिए क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि वे दर्शनिक नहीं थे? यदि हां, तो यह दुःसाहस के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसी प्रकार किष्किंधा काण्ड सर्ग ५३ के ५वें श्लोक में उन्हें महर्षि वाल्मीकि जैसे ऋषि ने सर्वशास्त्रविषारद कहा है। अन्यत्र और भी प्रमाण देखें-

रावण वध के पश्चात् इसकी भगवती सीता को सूचना देने हेतु भगवान् श्रीराम हनुमान् जी को भेजते हैं। हनुमान् जी के सुमधुर संभाषण के कारण भगवती सीता उनकी प्रसंशा में कहती हैं-

अतिलक्षणसम्पन्नं माधुर्यगुणभूषणम्।

बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं त्वमेवार्हसि भाषितुम्।।२६।।

श्लाघनीयोऽनिलस्य त्वं सुतः परमधार्मिकः।

बलं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम्।।२७।।

तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः।

एते चान्ये च बहवो गुणास्त्वय्येव शोभनाः।।२८।।

यु. का. सर्ग ११३

वीरवर! तुम्हारी वाणी उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न, माधुर्य भूषित तथा बुद्धिके आठ अङ्गों (गुण) से अलंकृत है। ऐसी वाणी केवल तुम्हीं बोल सकते हो। तुम वायुदेवताके प्रशंसनीय पुत्र तथा परम धर्मात्मा हो । शारीरिक बल, शूरता, शास्त्रज्ञान, मानसिक बल, पराक्रम, उत्तम दक्षता, तेज, क्षमा, धैर्य, स्थिरता, विनय तथा अन्य बहुत-से सुन्दर गुण तुम में एक साथ विद्यमान हैं, इसमें संशय नहीं है।

आठ अंगों वाली बुद्धि क्या है इस पर तिलक टीका में यह श्लोक उद्धृत है-

शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा।

ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणाः।।

गोविंदराज कृत भूषण टीका में यह किञ्चित् पाठभेद के साथ इस प्रकार मिलता है-

ग्रहणं धारणं चैव स्मरणं प्रतिपादनम्।

ऊहापोहोर्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणाः।।

उनके गुणों का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं-

तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः।

पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा।।

यु. का. स. १२८ श्लो. ८२

अर्थात् हनुमान् जी में तेज, धृति, यश, चतुरता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और उत्तम बुद्धि ये सद्गुण सदा विद्यमान रहते हैं।

जिन हनुमान् जी की इतनी प्रशंसा भगवान् श्रीराम, भगवती सीता, महर्षि वाल्मीकि कर रहे हैं आप उन्हें आप दार्शनिक नहीं थे ऐसा बोल रहे हैं, यह आपका हठ मात्र है।

अब रही बात भगवान् शब्द की तो आप्टे कोश के अनुसार यशस्वी, प्रसिद्ध, सम्मानित व्यक्ति को भगवान् कहा जाता है, बताइए महानुभाव क्या हनुमान् जी में ये गुण विद्यमान नहीं थे? यदि थे तो उन्हें भगवान् कहने में आपको क्या आपत्ति है? आप यह क्यों बोल रहे हैं कि वे भगवान् नहीं थे हमने बनाया?

परमात्मा मनोज मुंतशिर जी को सत्य के ग्रहण करने का सामर्थ्य प्रदान करें, इसी कामना के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं...

।।ओ३म् शम्।।


Comments

  1. सुन्दर कांड ही सुन ले पाता चल जाएगा हाँ खेल दिया इसने Dimak Se

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