डॉ सुरेन्द्र कुमार द्वारा लगाए गए आक्षेपों का उत्तर

                                ।। ओ३म् ।।

लेखक - राज आर्य


नमस्ते पाठकवृंद ! 🙏


मित्रों, “कौन कहता है महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मनुस्मृति में मिलावट की है?” नाम से हमारा लेख (लेखक - यशपाल आर्य) और इसी नाम से हमारी वीडियो भी है। इसके पश्चात् हमने इसी टॉपिक पर एक पोस्ट भी बनाया था, आज उसी टॉपिक पर तीसरा लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। विषय वही है - “मनुस्मृति में क्या है पाठ : ब्रह्मावर्त या आर्यावर्त”?

आज पुनः कुछ काला पहाड़ & कंपनी की महती कृपा से पुनः लेखनी उठाया जा रहा है, यूं तो यह कोई आवश्यक टॉपिक नहीं था। लेख वा वीडियो में ही पर्याप्त समाधान दिया जा चुका है। लेकिन पीठ पीछे छद्म कार्य , ऋषि विरुद्ध मतों को चलाना, हम इसके सख्त विरोधी हैं। इससे अब खंडन कर सत्य को उजागर करना आवश्यक समझते है , प्रमाण दिया जा चुका है परंतु प्रमादियों को spoon feeding ही चाहिए तो छोटा लेख लिख कर दोबारा समझा देते हैं, शायद इस बार क्लियर हो जावे। सोशल मीडिया पर ये असत्य मत प्रचारित किया जा रहा है कि हम अपना नया मत चला रहे हैं, आर्य समाज का विरोध कर रहे हैं। कुछ ने हमे पौराणिक पुकारना आरंभ कर दिया है। इनका द्वेष इस बात से है कि हमने कुछ आर्य विद्वानों के मतों का खंडन कर दिया है, इससे अंधभक्तों से रहा नहीं जा रहा। हमारा मत ऋषियों और आप्तों के अनुकूल रहता है, इससे हम सत्य को सामने लाने हेतु यदा कदा आर्य समाज का भी निष्पक्ष रूप से खंडन कर देते हैं, इससे समाज में सभी को सत्य तक पहुंचने में लाभ होता है। आज आदरणीय श्री डॉक्टर सुरेंद्र कुमार जी का लेख प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्व वीडियो के उत्तर में था, और उसमे कुछ पॉइंट्स दिए हुए थे , जिसमें उन्होंने हम पर कुछ आक्षेप लगाए हैं और कुछ सवाल भी किए हैं। पाठकों को इस लेख के विषय से भावी कई विषयो पर (मनुस्मृति पर) शोध हेतु सहायता प्राप्त होगी। आज हो सकता है लिखते वक्त कहीं कुछ बाते आपको ठीक न लगे, परंतु उसे त्याग आप मुख्य मुद्दे पर ही रहें, प्रमाणों का विश्लेषण करें,  तो आप जो सत्य जानने आए हैं उसे सार्थक कर लेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। अस्तु!

पहले पूर्वपक्ष का हमारे वीडियो के खंडन में उत्तर पढ़े  -

पूर्वपक्ष- राज आर्य नाम के व्यक्ति ने शंका न पूछकर मनुस्मृति के एक पाठान्तर को लेकर वीडियो डाला है, जिसमें मनुस्मृति में आये ब्रह्मावर्त के स्थान पर आर्यावर्त पाठ के पक्ष में कथन किया है। उस वीडियो में अपना पक्ष रखने के लिए पाठकों के साथ छल का व्यवहार किया है। उसके निम्न प्रमाण हैं--

1. दावा किया है कि इस वीडियो का उद्देश्य आर्य विद्वानों का अपमान करना नहीं है। परन्तु उसमें अपने शब्दों को विद्वानों की भाषा बताकर दुर्वचनपूर्ण और असभ्य शब्दों का प्रयोग किया है। ऐसा संकेत मिलता है कि यह व्यक्ति स्वामी वेदानन्द, पं०भगवद्दत्त,पं० युधिष्ठिर मीमांसक, डा०सुरेन्द्र कुमार,स्वामी विद्यानन्द आदि के पाठों को अशुद्ध साबित कर स्वयं को अधिक विद्वान् स्थापित करने का इच्छुक है। इस व्यक्ति को सभ्य भाषा सीखने की जरूरत है। छलयुक्त, असभ्य और अपूर्ण उत्तर से विद्वत्ता का सम्मान नहीं प्राप्त किया जा सकता है।"

उत्तरपक्ष - असभ्यता तो बहाना है, गलत पाठ को बचाना है! भला यह कैसा हेतु या प्रमाण हुआ? हमारे मत में हमने कोई असभ्य वचन किसी विद्वान के लिए प्रयोग नही किया है, सबको विदित है हमारी वीडियो केवल डॉ. सुरेंद्र कुमार या अन्य आर्य विद्वानों आदि को इंगित करने हेतु नही बनाई गई थी, बल्कि जितने भी आक्षेपकर्ता चाहे उपेंद्र बागी हो या जिस भी मत मतांतर से कोई हो, उन सभीको लक्षित कर उनका यथोचित खंडन हमारे द्वारा बनाया गया था। संभवतः यहां आपसे समझने में कोई भूल हुई है; और किसी मत का खंडन करना असभ्यता है तो पूर्वपक्ष को अपने "सभ्यता" के परिभाषा को ठीक करने की आवश्यकता है। आगे जो आपने स्वामी वेदानंद आदि का नाम लेकर हमपर मनमाने आक्षेप लगाया है सो भी ठीक नहीं, हमें न तो अपने आपको इन विद्वानों से ऊपर बताने की इच्छा है, न ही उनके बराबरी की; हां आप ये कह सकते थे - आपने As it is पूर्व विद्वानों का कॉपी किया सो हमारे में भी वह दोष समान है तो कुछ ठीक होता। तथापि हमने सदा सभी आर्य विद्वानों का यथावत आदर और सम्मान किया है। प्रत्युत् ये सत्य है हमारे अंदर किसी भी किस्म की अंधभक्ति नहीं है, आंख मूंदकर प्रमाण विरुद्ध बातों को मानना, बिना जांच परख के हां में हां मिला देना। किसी भी प्रकार आर्य विद्वानों का यह सम्मान नहीं हो सकता। जो बातें प्रमाण अनुकूल हो उसीको मानना उचित होता है। अगर आप चाहते हैं कि बिना प्रमाण के हम केवल अंधभक्ति करें, तो यह विद्वनों के साथ अन्याय होगा। रही बात इन विद्वानों के अशुद्ध पाठों की, तो हम भी एक सवाल रखना चाहते है - आप किस संस्करण को प्रमाणिक कहते हैं और क्यों? क्या आप लोगो के पास महर्षि मनु का पाठ उपलब्ध है?
नहीं है, तो आप किस प्रकार आश्वस्त हो कर ये दावा कर रहे हैं कि आपके पास अशुद्ध पाठ नही हो सकता? यदि हमने पूर्व विद्वानों के त्रुटियों को प्रमाण सहित ठीक करने का प्रयास किया और ऋषि के पक्ष में मतदान किया तो हम पर जबरदस्ती आर्य विद्वानों से बड़ा विद्वान् दिखाने का आरोप क्यों?

आपके ही पश्चात प्रकाशित हुए सत्यार्थ प्रकाश के मोहनचंद जी वाले संस्करण में उन्होंने पूर्वोक्त विद्वानों की टिप्पणियों के विरुद्ध पाठ स्वीकार किया है। क्या उन पर भी बड़े विद्वान होने का कोरा आरोप किया जाएगा? इसी से ऐसे गौण टिप्पणियां को कोई सैद्धांतिक प्रमाण नहीं माना जा सकता।

पूर्वपक्ष - (२.) मनुस्मृति २/१७ श्लोक में उक्त आर्य विद्वानों और परम्परागत सभी संस्कृत के नौ भाष्यकारों ने  सरस्वती और दृषद्वती नदियों के मध्य स्थित देश की सीमा के लिए "ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते"  पाठ माना है। उक्त सज्जन ने "आर्यावर्तं प्रचक्षते" पाठान्तर को सही कहा है। परन्तु यह अधूरा कथन करके पाठकों को भ्रमित किया है। आगे २/२२ श्लोक में मनु ने पूर्व और पश्चिम समुद्रों के मध्यवर्ती तथा विंध्य एवं हिमालय के मध्यवर्ती सम्पूर्ण देश को आर्यावर्त कहा है --"आर्यावर्तं प्रचक्षते"। इस सज्जन ने मनुस्मृति के दोनों श्लोकों में परस्पर विरोध और सन्देह उत्पन्न कर दिया। छल यह है कि इस सज्जन ने २/२२दूसरे श्लोक में वर्णित आर्यावर्त की सीमाएं भिन्न क्यों हैं, इसका कारण नहीं बताया है। उसकी चर्चा ही नहीं की है। क्योंकि उसका समाधान इस सज्जन के पास नहीं है।
३. यदि २/१७ में भी ब्रह्मावर्त के स्थान पर आर्यावर्त  पाठ मानेंगे और २/२२ में भी  आर्यावर्त पाठ मानेंगे, तो दोनों श्लोकों में वर्णित अलग-अलग सीमाओं में से आर्यावर्त की दो तरह की सीमा हो जायेंगी। कौनसी सीमा को सही मानेंगे? वीडियो निर्माता ने इस आपत्ति का समाधान छुआ तक नहीं। अधूरा कथन करके पाठकों को भ्रम में रखा है।"

सिद्धांती - प्रथम तो आदरणीय डाक्टर सुरेंद्र कुमार जी! आप जिस प्रकार ऋषि दयानंद के पाठ की अवहेलना करते आ रहे हैं और नव्य परंपरा के मनुस्मृति भाष्यकारो के पाठ में दिखाने को कह रहे हैं, जैसे आप्त कोई ऋषि लोग न होकर ये सभी १०वीं सदी के नवीन आचार्य गण लोग ही होवे और "मध्यकालीनाचार्योपदेशः शब्दः" जैसा कोई सूत्र न्याय दर्शन में होता हो। इसपर मुझे मालविकाग्निमित्रम् से एक सीख स्मरण आ गई, उसे पाठको को पढ़ना अवश्य चाहिए-

प्रथम अङ्क

समझ नहीं आता आप इतने विद्वान् होकर किस प्रकार के दावे कर रहे है? आर्य विद्वानों के काल में भारत वर्ष के सभी पांडुलिपियों और संस्करणों का अध्ययन शोध अनुसंधान करना पाना कठिन था, आज सुविधा होने से सरलता से संभव है। क्या आज के अनुसंधान से मनुस्मृति के "आर्यावर्त" वाले पाठ अर्थात् प्रत्यक्ष को नकार दिया जावे? यहां मैं आपकी महाभूल न सही, महाभ्रांति अवश्य कहना चाहूंगा। जो अब भी आप सत्य मत को न स्वीकार कर लीपापोती कर रहे हैं। उदाहरणार्थ - भारतवर्ष से रामायण के अलग अलग Recensions और पाठ प्राप्त होते है, जब भी कोई पाठ दूसरे पाठ से समकक्ष हो, तो उसे शोधकर्ता स्वीकृत कर लेते हैं। परंतु जब समस्त संस्करणों में अनर्गल पाठ मिले, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता तब भारत की एक ही पांडुलिपि से जो अन्य प्रमाणों के अनुकूल बैठे उसे ही ग्रहण किया जाता है, अन्यों को नहीं (यथा - हमारी सीता जी के विवाह समय में आयु वाले लेख (लेखक - यशपाल आर्य) वा वीडियो देख लीजिएगा - सीता जी ६ वर्ष की थी या १७ वर्ष )
इसी तरह "देशम् आर्यावर्तं" चूंकि Northern Recensions में स्पष्ट पाठ प्राप्त हो रहा है, तो आवश्यक नहीं आर्य विद्वानों के पाठ वा पौराणिक भाष्यकारों के कथित एक दो पाठ देखकर उसे मौलिक समझकर उन्हें मनु का मौलिक पाठ मानने लगना। यहां सुरेंद्र कुमार जी ने ही छल किया है और मनमाने ढंग से खंडन किया है, क्योंकि हमारा मंतव्य और प्रतिज्ञा ऋषि दयानंद के पाठ की प्रमाणिकता सिद्धि में थी वही इनके सहित आर्य विद्वानों ने समस्त पाठों में इसे अप्राप्त बताकर उपेंद्र बागी द्वारा ऋषि दयानंद पर लगे आक्षेप को खाद पानी देने में सहायता किया है। अब सत्य स्वीकारने के बजाए, अपने गलतियों को छिपाकर "ब्रह्मावर्त" के मूल होने की वकालत किया जा रहा है। यह पाठकों पर छोड़ दिया जाता है कि छल हमारे द्वारा किया गया है वा इनके पक्ष से, प्रतिज्ञा हमारी टूटी है या इनकी।

आगे , हमारे दलील पर इन्होंने उसे अर्ध - सत्य करार देकर हम पर छल करने का आरोप किया है और बदले में एक प्रश्न भी पूछा है की मनुस्मृति २/१७ और २/२२ में आर्यावर्त की सीमाएं भिन्न मिलती हैं, जिसे हमारा छल बताया जा रहा है । देखिए इनके संदेह का उत्तर तो हम ठोस सबूत के साथ देंगे ही, लेकिन इससे पहले आपको ऋषि दयानंद का ही पत्र देख लेना चाहिए -


यहां ऋषि ने इकट्ठे मनु २/१७ और २/२२ में आर्यावर्त पाठ ही माना है, अर्थात् वे दोनों ही सीमाओं को आर्यावर्त की बता रहे हैं। इसपर क्या कहना है आपका? क्या आप कहेंगे ऋषि दयानंद छल युक्त वचन हर जगह प्रयोग करते थे, या अपने मन से श्लोक के पाठों में हेर फेर करते थे या इसमें कोई आपकी ही भूल है?


पाठकगणों! ऊपर दिए गए मनुस्मृति की क्रिटिकल एडिशन के अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि विभिन्न संस्करणों में कुछ श्लोक कही आगे - पीछे प्राप्त होते हैं, (जैसे अलग अलग अध्याय के श्लोक अलग अलग अध्यायों में बीच बीच में आना) जिसे श्लोकों का स्थानांतरण वा transposition कहते हैं। ये पांडुलिपि विशेषज्ञो और विद्वान शोधकर्ताओ को साधारणतया ज्ञात है, लेकिन क्योंकि डॉ सुरेंद्र कुमार जी का शोध पूर्णतः संस्करणों और पाठभेद आदि critical analysis के अभाव में किया गया है इसलिए इन्होंने श्लोकों के स्थानांतरण को न समझकर हर जगह पूर्वापर प्रसंग कहकर सैकड़ों मौलिक मनु वचन को प्रक्षिप्त घोषित कर दिया, जिसे महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूर्णरूपेण वेदानुकूल और आर्ष कोटि वचन स्वीकार किया था, ये भी इनकी भ्रांति है।  मनुस्मृति पर इनका प्रक्षेपानुसंधान जहां जहां श्लोकों के स्थानान्तर को न समझकर अच्छे श्लोकों को भी प्रक्षिप्त सिद्ध किया गया है, यह चिंता का विषय है, ऋषि दयानन्द के विरुद्ध तो हैं ही। महर्षि भी इस स्थानांतरण को जानते हुए ही कभी मनु के वचन पर प्रसंग टूटने जैसे कसौटी लगाते हुए नहीं पाए गए, परंतु डॉ सुरेंद्र जी को ऋषि के बताएं तथा वेद सम्मत प्रमाणिक श्लोकों की कोई चिंता नहीं रही। मनुस्मृति अंतर्गत कई सारे additional श्लोक हैं, जो कई संस्करणों में नहीं मिलते, जिसे हमने वीडियो में पूर्व बता आए हैं उसे पुनः बताकर लेख को विस्तार नही देंगे । 

अतः अनुमान से कहा जा सकता है दोनों ही मौलिक हैं, दोनो में आर्यावर्त ही पाठ होना चाहिए। हजारों वर्षो में श्लोक स्थानांतरित होना सभी को मान्य है। अब हम इनके मांगे समाधान को प्रस्तुत करते हैं, जिसे हमने उसी समय वीडियो के description में आर्यावर्त के अभिलेख रूप में दे दिया था, प्रमादवश इन्होंने उसे पढ़ा नहीं, ना हमसे द्वेष करने वाले महोदय साहब काला पहाड़ ने ही जांचा है। (अस्तु! इनसे और उम्मीद हो भी क्या सकती है)

पाठकगणों! परंपरागत रूप से मनुस्मृति के हुए सभी भाष्यकाराें से भी पूर्व ३३५ - ३७५ CE के राजा समुद्रगुप्त का Stone pillar inscription का प्रमाण हमे प्राप्त होता है-



यहां मित्रों! Corpus inscriptionanum indicarum vol.3 में स्पष्ट रूप से राजा समुद्रगुप्त जी ने द्रविड़ देशों के राजाओं को अलग और विंध्य से उत्तर के राजाओं को अलग संबोधन करते हुए इसी मनुस्मृति के श्लोकान्तर्गत प्राचीन परंपरा का ही प्रमाण दिया है। अर्थात् मध्यकाल तक ३री सदी पर्यंत द्रविड़ राजाओं को भिन्न करके "आर्यावर्त" नाम दिया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त भगवान् मनु का काल लगभग आदि सृष्टि का है, उस समय टेक्टोनिक प्लेट्स, समुद्र के जलस्तर आदि की स्थिति आज से भिन्न होगी, भूगोल का यह सामान्य सा ज्ञान है। अतः हमारे इतिहास या भूगोल के विषय में ज्ञान को जांचने से पूर्व एक बार स्वयं के ज्ञान पर भी चिन्तन करना चाहिए। जल्दबाजी में खंडन करने से बचना चाहिए, बिना पूर्वपक्ष को पढ़े तो खंडन हेतु करना ही नहीं चाहिए,  यही हमारा संदेश है। हां, उत्तर की अपेक्षा और बिना उत्तर लिए निर्णय दे देना भी ठीक नही है।

मित्रों! अब हमारे पास मनु २/१७ में आर्यावर्त देश होने के कई सारे ठोस हेतु हो चुके। पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक के अनुसार मनुस्मृति का पुनः प्रवचन भृगु ऋषि द्वारा किया गया था, जिसका वर्णन महाभारत से प्राप्त होता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि एक पाठ महर्षि मनु का है तो वहीं दूसरा श्लोक महर्षि भृगु का है, इसलिए आर्यावर्त की दो सीमाएं प्राप्त होती हैं। १७वें श्लोक की बात प्राचीनतम अभिलेखों से पुष्ट हो रही है। इतिहास और भूगोल संबंधित से प्रदेश का "ब्रह्मावर्त" नाम मुझे नही लगता ऐसा कोई पुरातात्विक प्रमाण वा अभिलेख इससे प्राचीन डॉक्टर सुरेंद्र कुमार या काला पहाड़ & कंपनी हमें लाकर दिखा सकते हैं। अतः ब्रह्मावर्त ही "आर्यवर्त" की विकृति से बाद में प्रचलित हो सकता है। तथा हमे ये भी आपत्ति है "ब्रह्मावर्त" पाठ की प्राचीनता सिद्ध न होने में और उसे मनमाने ढंग से "प्रदेश" बनाने में पूर्वपक्ष के पास स्वयं के मनमाने निराधार अनुमानों के अलावा कोई ठोस सबूत या हेतु नहीं है । 

पूर्वपक्ष - "(४.) इस सज्जन ने जम्मू की एक पांडुलिपि को आधार मानकर अपना पक्ष रखा है। जबकि पांडुलिपियों  में तो समय-समय में हस्तलेखकों द्वारा मनमाने ढंग से स्वयं किये अनेक पाठान्तर मिलते हैं।जब तक मूल ग्रन्थ के पूर्वापर प्रसंग और अविरोध से कोई कथन सिद्ध नहीं होता, तब तक पांडुलिपि की ग्राह्य प्रामाणिकता नहीं बनती। पांडुलिपि कितनी पुरानी या नयी है, यह भी नहीं बताया गया है। अतः इस सज्जन द्वारा प्रस्तुत प्रमाण मान्य नहीं हो सकता। "

सिद्धान्ती - वाह! इसे कहते हैं स्वयं गलती कर अंत में आसानी से दोष दूसरों पर मढ देना। जरा आप अपने वचनों को पढ़ने का कष्ट करें और विचारे ये ही चीज तो हम चीख चीखकर वीडियो में बता रहे हैं फिर आप यह लेख लिख ही क्यों रहे हैं, जाकर अपने त्रुटि का सुधार ही किया होता तो हमें भी अपने बचाव पक्ष में लेख लिखते हेतु समय नष्ट नहीं करना पड़ता -

अब कुछ तथ्य रखूंगा, जिससे भविष्य में शोध को सही दिशा प्राप्त हो - यह सत्य है आपके मनुस्मृति पर शोध Critical edition के सहारे के बिना थी और दूसरा आप "पूर्वापर प्रसंग" बनाते रह गए, जो कि शोध की दुनिया में त्रुटि थी। हम यहां कोई इतिहास की घटनाक्रम बनाने थोड़ी बैठे हैं, जो मनु के काल से प्रसंग सहित आपको सिद्धांत प्राप्त होंगे। आपने बोला किसी संस्करण में नहीं मिलता। समस्त Recensions की पांडुलिपियों को आपने भली भांति नहीं देखा और वही ८ भाष्यकारों का सामान्य पाठ देखकर आप उसे प्राचीन और ऑथेंटिक समझने लगे, तभी आपको ये भ्रांति हुई कि ऋषि का वाक्य किसी भी पाठ में नही मिलता। यही भूल उपेंद्र बागी और लगभग लगभग सभी को हुई, इसी के निवारण हेतु हमने वीडियो बनाया, जिसमें सत्य का ही प्रकाश किया। इसपर विद्वानों को आपत्ति होनी ही नही चाहिए थी, पुनः ये खंडन में उत्तर लिख उसे सर्वत्र प्रचारित कर हमारे सत्य मत का दुष्प्रचार क्योंकर होने लगा? विचार करें, एक तरफ आप उन्हें प्रशंसा में ऋषि कहते है दूसरी ओर आप ही उपेंद्र बागी के लगाए आक्षेपों को सही ठहराने सहायता कर रहे है। यहां ऋषि द्रोह किसका हुआ? आपको ऋषि में त्रुटि दिखाने से पूर्व ये ज्ञात होना चाहिए था, महर्षि दयानंद तथा लेखराम जी आदि तो स्वयं निघंटु इत्यादि का पांडुलिपियों से चयनित Ce निकालकर शोध प्रस्तुत करते थे, वे इतनी बड़ी त्रुटि क्यों करेंगे? हम और हमारी टीम स्वयं उसी विधा पर चल रहे हैं, तभी सत्य का बोध कर पाए है। Patrick ollivelle ने २००५ में ही अपना मनुस्मृति पर Critical edition Oxford से प्रकाशित कर दिया था, शोध हेतु उसे जांचना भी योग्य था। हमने संस्करणों के आधार से ही सभी प्रमाण दिए हैं, आप चाहे तो Shri Ranbir Research Institute, Jammu से Collection - Ms No 636 Manuscript की जांच परख कर खंडन कर सकते हैं।


पाठकगणों! पूर्वपक्ष ने हमसे मध्यकालीन पारंपरिक भाष्यकारों का प्रमाण मांगा था, शायद वे यह भूल गए कि मनुस्मृति के Commentators के वाक्यों में भी बहुत मात्रा में पाठभेद प्राप्त होते हैं। तब भी ये भ्रांति पाले हुए हैं कि किसी भी मनु स्मृति भाष्यकार ने ब्रह्मावर्त के स्थान पर आर्यावर्त पाठ नहीं लिया। देखें, ये जम्मू से प्राप्त पांडुलिपि और किसी की नहीं, बल्कि 12th century के कुल्लूकभट भाष्य में ही आपको आर्यावर्त पाठ प्राप्त हो रहा है-



अब निर्विवाद रूप से सभी को मानना ही पड़ेगा कि जम्मू से प्राप्त होने वाली सभी मनुस्मृति कुल्लूक भट्ट भाष्य के पाठ में ब्रह्मावर्त पाठ नदारद है, और "आर्यावर्त" पाठ ही प्राप्त होता है जो आज भी पाठभेद होने से पूर्व स्वरूप में मौजूद है। अतः इसे सभी ऐतिहासिक प्रमाणों से अनुकूल शुद्ध पाठ ग्रहण करना होगा।

पूर्वपक्ष - " (५.) ऐसा ज्ञात होता है कि वीडियो डालने वाले सज्जन ने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं भूगोल की परम्परा का अध्ययन नहीं किया ........."

उत्तरपक्ष - अब तक सभी को विदित हो ही चुका है कि इतिहास और भूगोल की परंपरा में आपने क्या सिद्ध कर दिया और हमने क्या, इसे अधिक बताने की आवश्यकता तो है नहीं। सब पाठकगण अपने अपने बुद्धि से निर्णय कर लेंगे। बस इतना जरूर अन्त में लिखेंगे - यदि हमको वाग्जाल ही करना होता और लोगो को भ्रांति में डालना होता, तो मैं कभी ऋषि दयानंद का जीवन न जानने का प्रयत्न करता और न उन्हें पढ़ता और न आज यह लेख लिख रहा होता। यह केवल सत्य को जानने की जिज्ञासा है जिसपर हम आगे बढ़ रहे हैं, उसी को अन्य महानुभावों को अवगत करा रहे हैं, पूर्ण rational ढंग से, प्रमाण और तर्क के आधार से। आपने अन्त में बहुत अच्छी बात लिखी - सुधार करना!

बस हम उसी सुधार पथ पर चल रहे हैं, ऋषि के मन्तव्यों को सीख रहे हैं, अन्यों को भी सिखा रहे हैं, बिगड़े हुए धर्म कार्य को ठीक कर रहे हैं बस अपने ढंग से। 

अंत में सभी पाठक गणों को मेरा संदेश - स्वाध्याय करते वक्त ऋषि के ग्रंथो को पढ़ने के साथ साथ उसमे लिखे वाक्यों के पीछे अर्थों को क्योंकर कहा गया है वह जानना महत्वपूर्ण है, इस चीज में चिंतन मनन किया करें। आपके कुछ भ्रांतियों का निवारण हुआ और ज्ञान अर्जन हुआ हो तो इस लेख को अधिक से अधिक शेयर करे। 


अलमति विस्तरेण


जय आर्य , जय आर्यावर्त 🚩🚩🚩

सभी को सादर नमस्ते जी 🙏

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