वैदिक पूजा पद्धति | Vaidic Pūjā Paddhati

लेखक - यशपाल आर्य

अनेक लोगों को यह जिज्ञासा होती है कि महर्षि दयानन्द ने जो संध्या विधि बनाई है, उसमें मंत्रों को उन्होंने स्वयं के अनुसार रखा है या ऋषियों के अनुसार? अगर ऋषियों के अनुसार रखा है तो क्या प्रमाण है? हम यह स्पष्ट कर दें कि महर्षि दयानन्द ने इस विषय में जो भी लिखा है वह उन्होंने ऋषियों का ही अनुसरण किया है। महर्षि ने जो भी संध्या विधि बताई है ,वह ऋषि लोगों की परंपरा से प्राप्त है। हम यह दावा स्वयं ही नहीं कर रहे अपितु इस लेख में इस बात का प्रमाण भी देंगे। कविकुलगुरु कालिदास विश्वविद्यालय के Ms. No. 354 में हमें यजुर्वेदीय संध्या नाम से एक पांडुलिपि प्राप्त हुई, उसमें जो संध्या विधि और मंत्र हैं, लगभग वही महर्षि दयानन्द जी द्वारा बनाई हुई संध्या विधि में भी हैं।


अब हम दोनों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं। सर्वप्रथम हम संस्कार विधि के अन्तर्गत बताई संध्या को देखेंगे फिर यजुर्वेदीय संध्या की पांडुलिपि देखेंगे और तुलना करेंगे कि दोनों में कितनी समानता व असमानता है।




पञ्चमहायज्ञविधि के अन्तर्गत संध्योपासना विधि


यजुर्वेदीय संध्या

मनुस्मृति का श्लोक दोनों में ही प्रमाण के रूप में उपयोग किया गया है। महर्षि दयानंद ने जो विकल्प से मार्जन करने का विधान किया है, तीन प्राणायाम और और गायत्री मंत्र पढ़ कर शिखा बांधने का विधान किया है वह यजुर्वेदीय संध्या में नहीं मिलता। शन्नो देवी० मंत्र दोनों में प्राप्त होते हैं, किन्तु अंतर इतना है कि महर्षि ने इसे आचमन मंत्र बताया है जबकि यजुर्वेदीय संध्या में ऐसा नहीं लिखा है। आगे इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन व प्राणायाम मंत्र दोनों में समान हैं।




पञ्चमहायज्ञविधि के अन्तर्गत संध्योपासना विधि

यजुर्वेदीय संध्या

अघमर्षण मंत्र दोनों में समान हैं बस अंतर यह है कि महर्षि ने इन्हें अघमर्षण मंत्र कहा है जबकि यजुर्वेदीय संध्या में इन्हें कोई संज्ञा नहीं दी गई है। ‘आगे शन्नो देवी०’ से आचमन की भी बात दोनों में समान है। महर्षि ने जो गायत्री आदि मंत्रों को अर्थ पूर्वक मन में विचार और परमार्थ हेतु जगद्रचना जैसे कर्म करने वाले परमार्थ स्वरूप ब्रह्म का चिंतन और उस परब्रह्म की प्रार्थना का विधान किया है वह यजुर्वेदीय संध्या में नहीं मिलता।





पञ्चमहायज्ञविधि के अन्तर्गत संध्योपासना विधि





यजुर्वेदीय संध्या 

मनसा परिक्रमा व उपस्थान मंत्र भी दोनों में समान हैं।



पञ्चमहायज्ञविधि के अन्तर्गत संध्योपासना विधि

यजुर्वेदीय संध्या

गुरुमंत्र और ‘नमो शंभवाय च०’ दोनों में समान है। महर्षि ने जो समर्पण हेतु ‘हे ईश्वर दयानिधे०’ कथन का विधान किया वह यजुर्वेदीय संध्या में नहीं मिलता। यजुर्वेदीय संध्या के ऊपर दिए दो पेजों में जिसको हमने अंडरलाइन नहीं किया है वह पाठ महर्षि कृत संध्या में नहीं है, हमें ये वचन नहीं मिले। यह कहां का है, यह शोध का विषय है। अतः ऋषि दयानंद जी ने जो भी संध्या की विधि लिखी है वह प्राचीन ऋषियों की ही है। यदि हमें भी अपने ऋषियों महापुरुषों की पूजा पद्धति के अनुसार ही पूजा करनी है तो महर्षि दयानंद जी द्वारा बताई संध्या विधि के अनुसार संध्या करें।

कोई यह आक्षेप करे कि इसको आर्य समाज के किसी व्यक्ति ने बना दिया होगा। यह बात सत्य नहीं है क्योंकि आरंभ में ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखकर मंगलाचरण किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि भले ही यह पांडुलिपि अधिक पुरानी नहीं है, तथापि यह संध्या प्राचीन काल से चली आ रही है, किसी पुरानी पांडुलिपि से यह पांडुलिपि बनाई गई है। लेखक के असावधानी के कारण इस पांडुलिपि में वर्तनी से संबंधी त्रुटियां हो गई हैं।

अगर ऋषियों के अनुसार ईश्वर की पूजा करनी है तो महर्षि दयानंद जी द्वारा बताई संध्या विधि के अनुसार संध्या अवश्य करें। परमात्मा सभी सद्बुद्धि दें, जिससे सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकें। इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं, आशा है आपको लेख अवश्य पसंद आया होगा। यदि लेख पसन्द आया हो तो अधिक से अधिक शेयर करें।



संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ

  • पञ्चमहायज्ञविधिः
  • यजुर्वेदीय संध्या (Manuscript)

Comments

  1. बहुत ही उत्तम एवं प्रशंसनीय शोध कार्य। हार्दिक साधुवाद। जिज्ञासु जन एवं विद्वातगण को अधिक उपयोगी है। महर्षि दयानंद जी के प्रति श्रद्धा में ओर वृद्धि हुई। अभी तक यही भ्रांति या मान्यता थी कि *वैदिक संध्या* महर्षि जी की अपनी विशेष विधि और लेखन है। इस भ्रांति का निराकरण हुआ।

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