सत्त्व रज तम गुण या कण | Are Satwa Raj Tam Properties Or Particles?
कुछ विद्वान् जनों का मत कि सत्व रज व तम कण हैं गुण नहीं। उनके अनुसार सत्वादि तीन कणों के समुच्चय का नाम प्रकृति है। वस्तुतः यह मत मानना सत्य नहीं है। कण मानने पर प्रश्न यह उठता है कि इनके गुण क्या हैं, तो उत्तर दिया जाता है-
प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम्।।
(सांख्य १.१२७)
प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः इति। एते गुणाः...
(योगदर्शन व्यास भाष्य साधनपाद - १८)
प्रीति, अप्रीति, विषाद, प्रकाशशीलता आदि को सत्वादि के गुण हैं, ऐसा कल्पित कर लिया जाता है। यह अवधारणा वैदिक सिद्धांतों के विपरीत है। इस अवधारणा को प्रस्तुत करने हेतु जो प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं वे इस अवधारणा के ठीक विपरीत सिद्ध होते हैं। ऊपर दिए दोनों प्रमाणों में सत्व आदि को ही गुण कहा है न कि प्रीति, अप्रीति, विषाद, प्रकाशशीलता आदि को। वेद व आर्ष ग्रंथों का कथन है-
अनादि नित्यस्वरूप सत्त्व, रज और तमोगुणों की एकावस्थारूप प्रकृति से उत्पन्न जो परमसूक्ष्म पृथक्-पृथक् वर्तमान तत्त्वावयव विद्यमान हैं, उन्हीं का प्रथम ही जो संयोग का आरम्भ है, और संयोग विशेषों से अवस्थान्तर दूसरी-दूसरी अवस्था को सूक्ष्म स्थूल-स्थूल बनते-बनाते विचित्ररूप बनी है, इसी से यह संसर्ग होने से 'सृष्टि' कहाती है।
(स० प्र० समु० ८)
सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः।
तमोगुणेन संयुक्तौ भवतोऽव्यावहारिकौ।।२९।।
(महाभारत शांति पर्व अध्याय १८७)
महाभूतानीन्द्रियाणि गुणाः सत्त्वं रजस्तमः।
त्रैलोक्यं सेश्वरं सर्वमहङ्कारे प्रतिष्ठितम्।।१९।।
(महाभारत शांति पर्व अध्याय २०५)
सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान्विदुः।
सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ।।१८।।
(महाभारत शांति पर्व अध्याय २०९)
सत्त्वमानन्द उद्रेकः प्रीतिः प्राकाश्यमेव च।
सुखं शुद्धित्वमारोग्यं सन्तोषः श्रद्दधानता।।१७।।
अकार्पण्यमसंरम्भः क्षमा धृतिरहिंसता।
समता सत्यमानृण्यं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।१८।।
शौचमार्जवमाचारमलौल्यं हृद्यसम्भ्रमः।
इष्टानिष्टवियोगानां कृतानामविकत्थनम्।।१९।।
दानेन चानुग्रहणमस्पृहार्थे परार्थता।
सर्वभूतदया चैव सत्त्वस्यैते गुणाः स्मृताः।।२०।।
रजोगुणानां सङ्घातो रूपमैश्वर्यविग्रहे।
अत्याशित्वमकारुण्यं सुखदुःखोपसेवनम्।।२१।।
परापवादेषु रतिर्विवादानां च सेवनम्।
अहङ्कारस्त्वसत्कारश्चिन्ता वैरोपसेवनम्।।२२।।
परितापोऽपहरणं ह्रीनाशोऽनार्जवं तथा।
भेदः परुषता चैव कामक्रोधौ मदस्तथा।
दर्पो द्वेषोऽतिवादश्च एते प्रोक्ता रजोगुणाः।।२३।।
तामसानां तु सङ्घातं प्रवक्ष्याम्युपधार्यताम्।
मोहोऽप्रकाशस्तामिस्रमन्धतामिस्रसञ्ज्ञितम्।।२४।।
मरणं चान्धतामिस्रं तामिस्रं क्रोध उच्यते।
तमसो लक्षणानीह भक्षाणामभिरोचनम्।।२५।।
भोजनानामपर्याप्तिस्तथा पेयेष्वतृप्तता।
गन्धवासो विहारेषु शयनेष्वासनेषु च।।२६।।
दिवास्वप्ने विवादे च प्रमादेषु च वै रतिः।
नृत्यवादित्रगीतानामज्ञानाच्छ्रद्दधानता।
द्वेषो धर्मविशेषाणामेते वै तामसा गुणाः।।२७।।
(महाभारत शांति पर्व अध्याय २०१)
तमो रजस्तथा सत्त्वं गुणानेतान्प्रचक्षते।
अन्योन्यमिथुनाः सर्वे तथान्योन्यानुजीविनः।।४।।
अन्योन्यापाश्रयाश्चैव तथान्योन्यानुवर्तिनः।
अन्योन्यव्यतिषक्ताश्च त्रिगुणाः पञ्च धातवः।।५।।
(महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय ३६)
नैव शक्या गुणा वक्तुं पृथक्त्वेनेह सर्वशः।
अविच्छिन्नानि दृश्यन्ते रजः सत्त्वं तमस्तथा।।१।।
(महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय ३९)
यत्किञ्चिदिह वै लोके सर्वमेष्वेव तत्त्रिषु।
त्रयो गुणाः प्रवर्तन्ते अव्यक्ता नित्यमेव तु।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणसर्गः सनातनः।।२१।।
(महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय ३९)
अनुद्रिक्तमनूनं च ह्यकम्पमचलं ध्रुवम्।
सदसच्चैव तत्सर्वमव्यक्तं त्रिगुणं स्मृतम्।।२३।।
(महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय ३९)
महान्तमेव चाऽऽत्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।
विषयाणां ग्रहीतृणि शनैः पञ्चेन्द्रियाणि च।।१५।।
(मनु० अ० १)
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्० (ऋ. १०.१९०.१) मन्त्र की ऋषि ने पञ्चमहायज्ञ विधि के संध्योपासनाविधिः में व्याख्या किया है, वहां ऋषि सत्यम् का अर्थ करते हैं - “त्रिगुणमयं प्रकृत्यात्मकमव्यक्तं, स्थूलस्य सूक्ष्मस्य जगतः कारणं च”
त्रिधातु (ऋग्वेद १.१५४.४)
त्रितस्य धारया (ऋग्वेद ९.१०२.३) का भी यही अर्थ है कि प्रकृति तीन गुणों को धारण करती है, न कि सत्वादि कणों का त्रित प्रकृति है। धारण करने वाला और जो वस्तु धारण की जा रही है कभी एक नहीं हो सकती। इसको सरल उदाहरण से समझें-
जैसे कपड़ा धागे से बनता है और कपड़े को धागे का धारक नहीं कहा जा सकता। एक सोफा सेट में कुछ कुर्सियां व एक मेज भी है। सोफा सेट कुर्सियों आदि का समूह है, न कि उनका धारक। उनकी अनुपस्थिति में हम सोफा सेट नहीं कह सकते। जब वेद व आर्ष ग्रंथों में उन्हें गुण ही बताया है तो क्या इन्हें कण बताने वाले विद्वान् जन स्वयं को वेद व ऋषियों से महान् मानने का दावा करते हैं?
क्या गुण और गुणी कभी एक हो सकते हैं?
एक ऐसा मत कि गुण और गुण को धारण करने वाले द्रव्य में कोई अंतर नहीं है। यह केवल शब्दजाल मात्र है, केवल व्यवहारिक उपयोग की अवधारणा है। यदि कोई कहे कि सेब मीठा है। यहां सेब गुणी और मीठा गुण है। अब कोई प्रश्न करे कि सेब खट्टा मीठा को छोड़ कर क्या है? हम उत्तर देंगे कि सेब केवल खट्टेपन या मिठास का पर्याय नहीं है प्रत्युत् उसमें भिन्न भिन्न स्वाद हो सकते हैं जो उसमें उपस्थित रासायनिक तत्त्वों के कारण हो सकता है। यदि अम्ल की अधिकता है तो खट्टा अधिक होगा और कार्बोहाइड्रेट की अधिकता है तो मीठा अधिक होगा। सेब में इन दोनों गुणों के अतिरिक्त अन्य गुण भी हो सकते हैं, जैसे रूप, रस, गंध आदि। इससे पूर्वपक्ष को यह भ्रम हो गया कि अनेक गुण से युक्त द्रव्य सदैव अनेक कणों से मिलकर बना होगा। जो मूल कण होगा उसमें केवल एक ही गुण होगा। अर्थात् मूल कण वाले वालों की अवधारणा (concept) है कि एक से अधिक गुण वाला पदार्थ कभी मूल नहीं हो सकता। जिनमें एक से अधिक गुण होगा वह दो वा अधिक कणों के योग से निर्मित होगा। मूल कण में सदैव एक ही गुण होता है और वह गुण व द्रव्य एक समान हो जाते हैं। ऐसे मत को मानने वालों से प्रश्न है कि महर्षि कणाद की परिभाषा के अनुसार ईश्वर द्रव्य है। ईश्वर दो या दो से अधिक पदार्थों के संयोग से नहीं बना है अर्थात् ईश्वर का विभाग भी नहीं किया जा सकता। अब पूर्वपक्ष के अनुसार तो ईश्वर में एक ही गुण रहा होगा लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि ईश्वर में निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, सर्वव्यापक आदि अनेक गुण हैं।
इस भ्रान्ति का कारण व निवारण
पूर्वपक्ष - महर्षि कणाद के अनुसार द्रव्य में गुण रहता है लेकिन गुण में गुण नहीं रहता-
क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्।।१५।।
द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।।१६।।
(वै. द. अ.१ आ.१)
अगर सत्त्वादि को गुण मान लें तो यह मत महर्षि कणाद के विरुद्ध होगा।
सिद्धान्ती - कोई चीज हमें नहीं समझ आ रहा है यह हमारी त्रुटि है कि वेद और ऋषियों का वचन मिथ्या है। एक गुण से दूसरा गुण उत्पन्न होता है यह वैशेषिक दर्शन में स्वीकार किया गया है। भगवान् कणाद लिखते हैं-
द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते गुणाश्च गुणान्तरं।।
(वै. द. १.१.१०)
प्रकाश आदि गुण सत्व आदि गुणों से उत्पन्न होते हैं यह असत्य कैसे हो सकता है, यह तो महर्षि कणाद के अनुसार भी सत्य है कि गुण से गुण उत्पन्न होता है।
पूर्वपक्ष - महर्षि दयानन्द लिखते हैं-
(सत्त्व) शुद्ध, (रजः) मध्य, (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है, उसका नाम 'प्रकृति' है।
(स. प्र. समु. ८)
अगर सत्व आदि गुण होते तो ऋषि उनको वस्तु क्यों कहते तथा प्रकृति को इन वस्तुओं का संघात कहना भी यही संकेत करता है कि ये कण हैं।
सिद्धांती - किसी विषय को जानने हेतु विभिन्न आर्ष ग्रंथों को देखना पड़ेगा, उसपर गहन चिंतन करना पड़ेगा। एक ही ग्रंथ में कुछ एक दो शब्द पढ़ कर नहीं जाना जा सकता। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन सभी को महर्षि कणाद ने पदार्थ कहा है, बिना प्रसंग को समझे वस्तु का अर्थ केवल द्रव्य करना हट और पूर्वाग्रह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। महर्षि कणाद लिखते हैं-
धर्मविशेषप्रसूताद्द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्।।
(वै. द. १.१.४)
अब संघात शब्द पर विचार करते हैं-
अगर संघात का अर्थ समूह माना जाए तो प्रकृति नित्य नहीं हो सकती, बल्कि उसे उत्पन्न हुआ मानना पड़ेगा। संघात शब्द में सम् उपसर्ग, हन धातु व घञ् प्रत्यय है। अतः प्रसंगानुकूल अर्थ होगा जिसमें तीनों गुण पूर्णतया लुप्त हो गए हों या वे अब पूर्णतया निष्क्रिय या स्थिर हों।
पूर्वपक्ष - सांख्य दर्शन में कहा है-
सत्त्वादीनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात।।६.३९।।
अर्थात् सत्व आदि प्रकृति के धर्म अर्थात् गुण नहीं है उसके रूप होने से। यहां तो सत्त्व आदि को प्रकृति रूप अर्थात् प्रकृति द्रव्य बोल दिया और गुण होने का खंडन कर दिया। क्या अब आप कपिलमुनि का विरोध करेंगे?
सिद्धान्त - ऐसा अर्थ मानने पर यह सूत्र वेद का हमने जो ऊपर प्रमाण दिया उसके विरुद्ध हो जाता है, अतः आपका अर्थ प्रमाणिक नहीं हो सकता। अब संक्षेप में इसके यथार्थ अर्थ पर विचार करते हैं। यहां भगवान् कपिल कहते हैं सत्त्वादि प्रकृति के धर्म नहीं हैं अर्थात् सत्व आदि गुण प्रकृति को धारण नहीं करते, प्रत्युत् प्रकृति इन गुणों को धारण करती है। धर्म शब्द धृञ् धारणे धातु से बना है, जिसका अर्थ धारण करना होता है। यह कथन भी वही अर्थ प्रकट करता है, जो अर्थ वेद प्रकृति को त्रिधा जैसे विशेषण देकर बताता है। आगे ऋषि इसका कारण बताते हैं कि प्रकृति रूप होने से। जैसे कोई कहे कि नीम तो कटुरूप है, क्या यह कथन गलत है? नहीं, इस कथन में कुछ भी गलती नहीं है। क्या यहां कटुता द्रव्य हो गई? नहीं, यह तो गुण है। ठीक ऐसे ही कपिल ऋषि ने ऐसा नहीं कहा, जैसा आप अर्थ लेते हैं।
सत्त्वादि गुणों की ब्रह्मांड में भूमिका
पूर्व में हम ‘प्रकाशशीलं सत्वं०’ व ‘प्रीत्यप्रीति०’ को उद्धृत कर चुके हैं, उन दोनों आर्ष वचनों के अनुसार सत्त्वादि गुणों पर संक्षेप से विचार करते हैं-
सत्त्व गुण के कारण प्रकाश व प्रीति अर्थात् आकर्षण बल (attraction force) आदि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण के कारण क्रियाशीलता व अप्रीति अर्थात् प्रतिकर्षण बल (repulsion force) आदि की उत्पत्ति होती है। तमोगुण से स्थितिशीलता व विषाद अर्थात् जड़त्व (inertia) आदि तमोगुण के कारण उत्पन्न होते हैं।
ईश्वर सभी को सद्बुद्धि प्रदान करें, जिससे सभी सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कर सकें, इसी कामना के साथ...
।।ओ३म् शम्।।
संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- Basic Material Cause of Creation
- सत्यार्थ प्रकाश
- महाभारत critical edition (BORI)
- योग दर्शन व्यास भाष्य सहित
- सांख्य दर्शन
- वैशेषिक दर्शन
- पञ्चमहायज्ञविधिः
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