शम्बूक वध सत्य या मिथक? | Shambuk vadh : truth or myth

लेखक - यशपाल आर्य

शम्बूक वध की कथा इस प्रकार है-






(उत्तरकाण्ड सर्ग ७३-७६ गीता प्रेस)

क्या रामायण में शूद्र लोगों को हीन समझा गया है?

रामायण में निषादराज गुह के विषय में लिखा है-

तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा।

निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः॥

(अयोध्या काण्ड सर्ग 50 श्लोक 33 गीता प्रेस)

अर्थात् शृङ्गवेरपुर में गुहनामका राजा राज्य करता था। वह श्रीरामचन्द्रजीका प्राणोंके समान प्रिय मित्र था। उसका जन्म निषादकुलमें हुआ था वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्तिकी दृष्टिसे भी बलवान् था तथा वहाँके निषादों का सुविख्यात राजा था।

यहां गुह को “रामस्यात्मसमः सखा” कहा है। आगे यह भी कहा है कि निषादराज गुह श्रीराम को गले लगाते हैं-

तमार्तः सम्परिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत्।

यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते॥

(अयोध्या काण्ड सर्ग 50 श्लोक 36 गीता प्रेस)

भगवान् श्रीराम गुह के गले लग कर उन्हें स्वस्थ व आनंद से युक्त देखकर प्रसन्न होते हैं और मित्र आदि के विषय में भी पूछते हैं-

भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन् वाक्यमत्रवीत्।।४१।।

दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि ह्यरोगं सह बान्धवैः।

अपि ते कुशलं राष्ट्रे मित्रेषु च वनेषु च।।४२।।

(अयोध्या काण्ड सर्ग 50 गीता प्रेस)

अब अन्य संस्करणों से भी देखें-

(अयोध्या काण्ड सर्ग 44 श्लोक 9,12,17,18 Critical edition)

(अयोध्या काण्ड सर्ग 51, श्लोक 9, 12,18,19)

(बंगाल संस्करण अयोध्या काण्ड सर्ग 47, श्लोक 9,12,18,19)

यहां आप देख सकते हैं पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में गुह को धार्मिक कहा है।

शूद्रकुलोत्पन्न तपस्विनी शबरी के यहां जाकर श्रीराम उनका आतिथ्य स्वीकार करते हैं-

पाद्यमाचमनीयं च सर्वे प्रादाद् यथाविधि।

(अरण्य काण्ड सर्ग ७४ श्लोक ७ गीता प्रेस)

शबरी ने भगवान् श्रीराम को पाद्य, अर्ध्य और आचमनीय आदि सब सामग्री समर्पित की और विधिवत् उनका सत्कार किया।

और वे श्रीराम शबरी से पूछते हैं-

कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कश्चित्ते वर्धते तपः।

कच्चित्ते नियतः कोप आहारश्च तपोधने॥

(अरण्य काण्ड सर्ग ७४ श्लोक ८ गीता प्रेस)

तपोधने! क्या तुमने सारे विघ्नोंपर विजय पा ली? क्या तुम्हारी तपस्या बढ़ रही है? क्या तुमने क्रोध और आहारको काबू कर लिया है?

अब अन्य संस्करणों में देखें

पश्चिमोत्तर संस्करण सर्ग 80 श्लोक 10

बंगाल संस्करण सर्ग 77 श्लोक 9

अरण्यकाण्ड सर्ग 70 श्लोक 7 critical edition

क्या जो श्रीराम निषादराज गुह से गले मिलते हैं, शूद्र कुल उत्पन्न शबरी का आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उनकी तपस्या की वृद्धि के विषय में भी पूछते हैं, वही श्रीराम शूद्र का तपस्या करने मात्र से वध कर सकते हैं? शबरी का जन्म किस परिवार में हुआ था, इस विषय में वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता किन्तु परंपरा वादी आचार्यों के अनुसार उनका जन्म शूद्र परिवार में हुआ था। आज भी कोल जनजाति के लोग उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं। कुछ पौराणिक लोग शंबूक वध को सही सिद्ध करने हेतु शबरी को जन्मना ब्राह्मण सिद्ध करने हेतु प्रयत्न करते हैं किन्तु उनका प्रयत्न निष्फल है क्योंकि भगवान् श्रीराम के जीवन पर रचना करने वाले विद्वानों ने भी शबरी को हीन कुल में उत्पन्न माना है। अध्यात्म रामायण में शबरी स्वयं के विषय में भगवान् श्रीराम से कहती हैं-

अध्यात्म रामायण अरंगाकांड सर्ग 10, श्लोक 17

इसी प्रकार तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी कहा है-


यहां भी शबरी ने स्वयं को अधम जाति कहा है।

वाल्मीकि रामायण के टीकाकार गोविंदराज जी ने भी उन्हें हीन कुल में उत्पन्न माना है-


वर्ण जन्म से या कर्म से

महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे किन्तु तपस्या के द्वारा उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि वर्ण कर्मानुसार होता है जन्म से नहीं? यदि कोई कहे कि इस जन्म में नहीं होता तो यह भी असत्य है क्योंकि विश्वामित्र जी जन्म से क्षत्रिय थे और तप से उसी जन्म में ब्राह्मण हो गए।

भगवान् मनु का यह कथन विशेष द्रष्टव्य हैं-

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ 

[मनु० २।१६८]

यहां भगवान् मनु ने वेद न पढ़ कर अन्यत्र श्रम करने वाले द्विज को इसी जन्म में शीघ्र शूद्र होने का विधान किया है।

गीता में भी योगेश्वर भगवान् कृष्ण जी वर्ण को गुण, कर्म से बताया है-

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।

(गीता ४.१३)

भगवान् मनु का कथन है-


(मनु० १०.६५)


अब हम शंबूक वध पर पुनः विचार करते हैं-

ब्राह्मण बालक के मरने में और शूद्र के तप में क्या कार्य कारण संबंध था? यदि नहीं था तो बालक की मृत्यु नहीं होनी चाहिए क्योंकि महर्षि कणाद कहते हैं “कारणाभावात्कार्याभावः” (वै. द. १.२.१)। जब इनमें कार्य कारण संबंध ही नहीं है तो पूरी कथा स्वतः ही मिथ्या हो गई क्योंकि पूरी कथा का यही कारण था, जब कारण ही सत्य नहीं है तो शंबूक वध की कथा कैसे सत्य हो सकती है? यदि अभ्युपगम सिद्धान्त से यह मान लिया जाए कि कोई कार्य कारण संबंध भी था तो प्रश्न उपस्थित होता है कि अन्य ब्राह्मणों के बच्चों वा पूरे ब्राह्मण वर्णस्थ लोगों का नाश क्यों नहीं हुआ?

दुर्जनतोष न्याय से यदि मान भी लें कि शूद्र तप नहीं कर सकता और शंबूक ने तप किया यह उसका अपराध था तो यह मत भी वाल्मीकि रामायण के विरुद्ध है क्योंकि भगवान् श्रीराम के राज्य के विषय में महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं-

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः।

स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्टाः स्वैरेव कर्मभिः ॥ १०४॥

(वाल्मीकि रामायण युद्धकांड सर्ग 128)

अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णोंके लोग लोभरहित होते थे । सबको अपने ही वर्णाश्रमोचित कर्म से संतोष था और सभी उन्हींके पालन में लगे रहते थे।

जब सब वर्णों के लोग लोभराहित होकर अपने ही वर्णाश्रमोचित कर्म करते थे तो शंबूक अपने वर्ण हेतु निषिद्ध कर्म क्यों करने लगा?

यहां यह तात्पर्य नहीं है कि निम्न वर्ण के लोग उच्च वर्ण को प्राप्त करने हेतु प्रयत्न नहीं करते थे अपितु यह है कि प्रयत्न तो करते थे किंतु यदि कोई उच्च वर्णों को प्राप्त नहीं कर पाता था तो उसे अपने कर्मों में ही संतोष होता था।

शूद्र को तप का अधिकार

वेद में तो शूद्र को तप का स्पष्ट आदेश दिया है-

(यजु० ३०.५)

काण्व संहिता ३४.५ में भी यह मंत्र आया है -

शतपथ ब्राह्मण (१३.६.२.१०) में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए इस प्रकार लिखा है-

कठोपनिषद् में देखें



अब विचार करते हैं कि क्या शूद्र वेदों का ज्ञान नहीं ले सकता? इसको जानने के लिए हम वेद से ही जानते हैं-

यथेमाँवाचङ्कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याँ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय। प्रियो देवानान्दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयम्मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥

(यजुर्वेद २६.२)

अन्वयः - हे मनुष्या यथाऽहमीश्वरो ब्रह्मराजन्याभ्यामर्याय शूद्राय च स्वाय चारणाय च जनेभ्य इहेमां कल्याणीं वाचमावदानि तथा भवन्तोऽप्यावदन्तु। यथाऽहं दातुर्देवानां दक्षिणायै प्रियो भूयासं मेऽयं कामः समृध्यतां माऽद उपनमतु तथा भवन्तोऽपि भवन्तु तद्भवतामप्यस्तु॥

पदार्थः - (यथा) येन प्रकारेण (इमाम्) प्रत्यक्षीकृताम् (वाचम्) वेदचतुष्टयीं वाणीम् (कल्याणीम्) कल्याणनिमित्ताम् (आवदानि) समन्तादुपदिशेयम् (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्म ब्राह्मणश्च राजन्यः क्षत्रियश्च ताभ्याम् (शूद्राय) चतुर्थवर्णाय (च) (अर्याय) वैश्याय। अर्यः स्वामिवैश्ययोः [अ॰३.१.१०३] इति पाणिनिसूत्रम् (च) (स्वाय) स्वकीयाय (च) (अरणाय) सल्लक्षणाय प्राप्तायान्त्यजाय (प्रियः) कमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षिणायै) दानाय (दातुः) दानकर्त्तुः (इह) अस्मिन् संसारे (भूयासम्) (अयम्) (मे) मम (कामः) (सम्) (ऋध्यताम्) वर्द्धताम् (उप) (मा) माम् (अदः) परोक्षसुखम् (नमतु) प्राप्नोतु॥

भावार्थः - अत्रोपमालङ्कारः। परमात्मा सर्वान् मनुष्यान् प्रतीदमुपदिशतीयं वेदचतुष्टयी वाक् सर्वमनुष्याणां हिताय मयोपदिष्टा नाऽत्र कस्याप्यनधिकारोऽस्तीति। यथाऽहं पक्षपातं विहाय सर्वेषु मनुष्येषु वर्त्तमानः सन् प्रियोऽस्मि तथा भवन्तोऽपि भवन्तु। एवङ्कृते युष्माकं सर्वे कामाः सिद्धा भविष्यन्तीति॥

पदार्थ -

हे मनुष्यो! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देने वाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। जैसे मैं (दातुः) दान देने वाले के संसर्गी (देवानाम्) विद्वानों की (दक्षिणायै) दक्षिणा अर्थात् दान आदि के लिये (प्रियः) मनोहर पियारा (भूयासम्) होऊं और (मे) मेरी (अयम्) यह (कामः) कामना (समृध्यताम्) उत्तमता से बढ़े तथा (मा) मुझे (अदः) वह परोक्षसुख (उप, नमतु) प्राप्त हो, वैसे आप लोग भी होवें और वह कामना तथा सुख आप को भी प्राप्त होवे॥

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ। ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होंगे॥

(संस्कृत भाष्य महर्षि दयानन्द जी कृत, भाषानुवाद पंडितों द्वारा)

कौन से कर्म धर्म हैं, इसके लिए महर्षि जैमिनी ने कहा है 

चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः। (मी. १.१.२)

अर्थात् जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेद विरुद्ध हो वह अधर्म कहाता है।

हमने यजुर्वेद से प्रमाण दिया कि शूद्र को भी वेद का उपदेश करना चाहिए और मीमांसा में कहा कि जो वेद की आज्ञा है उसके अनुसार चलना धर्म है। और कठोपनिषद में धर्म के अनुसार चलना ही तपस्या है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि शूद्र को तपस्या का अधिकार नहीं?

महर्षि वैशंपायन जी कहते हैं-

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः।

दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गे यान्ति भारत।।

(महाभारतआश्वमेधिक पर्व अध्याय ९१ श्लोक ३७)

अर्थात् भरतनन्दन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो भी तप का आश्रय लेते हैं वे दानधर्म रूपी अग्नि से तप कर सुवर्ण के समान शुद्ध हो स्वर्ग को चले जाते हैं।

तो वेद वेदांगों के तत्त्वज्ञ और सम्पूर्ण जीवों के रक्षक श्रीराम तप जैसा वेदानुकूल कर्म करने के कारण शूद्र का वध क्यों कर सकते हैं?

महर्षि वाल्मीकि ने युद्धकांड में भगवान् श्रीराम के राज्य का वर्णन करते हुए लिखा है-

न पर्यदेवन् विधवा (सर्ग 128 श्लोक 98 गीता प्रेस, सर्ग 131 श्लोक 97 दाक्षिणात्य संस्करण)

अर्थात् भगवान् राम के राज्य में विधवाओं का विलाप नहीं सुनाई पड़ता था अर्थात् स्त्रियां विधवा नहीं होती थीं।

न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते॥ (सर्ग 128 श्लोक 99 गीता प्रेस, सर्ग 131 श्लोक 98 दाक्षिणात्य संस्करण)

अर्थात् और वृद्ध जनों को बालकों के अन्त्येष्टि-संस्कार नहीं करने पड़ते थे।

आसन् वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः। (सर्ग 128 श्लोक 101 गीता प्रेस, सर्ग 131 श्लोक 100 दाक्षिणात्य संस्करण)

अब कुछ लोग सहस्त्र का अर्थ यहां हजार से लेंगे। किंतु मनुष्य की आयु हजार वर्ष तथा सहस्र पुत्र संभव नहीं है अतः यहां सहस्र का अर्थ भिन्न है, शतपथ ब्राह्मण में सहस्त्र का अर्थ इस प्रकार है -

सर्वं वै सहस्रं। (श० ६.४.२.७)

परमं सहस्रं। (तां० १६.९.२)

अर्थात् सब लोग पूर्ण आयु और अनेक पुत्रों वाले होते थे।

अब विभिन्न संस्करणों में देखें


बंगाल संस्करण सर्ग 110 श्लोक 3,6

बंगाल संस्करण सर्ग 113 श्लोक 5

वाल्मीकि रामायण युद्ध कांड सर्ग 116 श्लोक 84,85,87 critical edition 

देवर्षि नारद जी ने भी श्रीराम के राज्य का वर्णन करते हुए कहा है-

न पुत्रमरणं केचिद् द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित्।

नार्यश्वाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः॥

(बालकाण्ड प्रथम सर्ग श्लोक 91 गीता प्रेस)

अर्थात् कोई कहीं भी अपने पुत्रकी मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी।

अब अन्य संस्करणों में देखें

पश्चिमोत्तर संस्करण बालकांड सर्ग 1 श्लोक 90,91
बंगाल संस्करण बालकांड सर्ग 1 श्लोक 95

Critical edition बालकांड सर्ग 1 श्लोक 72

जब सब लोग अपनी पूर्ण आयु तक जीते थे, स्त्री विधवा नहीं होती थीं, पिता पुत्र की मृत्यु नहीं देखता था तो किसी ब्राह्मण के पुत्र की अल्पायु में ही मृत्यु कैसे हो सकती है?

अध्यात्म रामायण में भी शंबूक वध का वर्णन नहीं मिलता, देखें विषय सूची-

पिछले लेख में हमने सीता परित्याग के खंडन हेतु हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण व नरसिंह पुराण से प्रमाण दिया था कि उनमें सीता परित्याग का प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार इन ग्रंथों में शंबूक वध का भी प्रमाण नहीं है। अर्थात् इन पुराणों के रचना काल तक यह घटना प्रचलित नहीं थी, यदि थी भी तो विद्वान् जन प्रमाणिक नहीं मानते थे। इसके अतिरिक्त उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने में हमने जो हेतु दिया था उसे भी यहां समझ लेवें।


संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ

  • वाल्मीकि रामायण गीता प्रेस
  • वाल्मीकि रामायण दाक्षिणात्य संस्करण
  • वाल्मीकि रामायण पश्चिमोत्तर संस्करण
  • वाल्मीकि रामायण बंगाल संस्करण
  • मनुस्मृति
  • गीता
  • यजुर्वेद
  • काण्व संहिता
  • शतपथ ब्राह्मण


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