क्या उत्तरकांड महर्षि वाल्मीकि कृत है | Critical Research on Interpolations in Ramayana
अनेक लोग यह भ्रम फैलाते रहते हैं कि उत्तरकांड महर्षि वाल्मीकि कृत है, आर्ष है। किन्तु क्या उत्तरकांड भगवान् वाल्मीकि की ही कृति है वा बाद के मिलावट करने वालों ने अपने काल्पनिक कथा को भगवान् वाल्मीकि के माथे मढ़ दिया? निष्पक्ष होकर इसकी समीक्षा करते हैं।
वाल्मीकि रामायण के आदि में जब देवर्षि नारद जी से महर्षि वाल्मीकि जी अनेक गुणों से युक्त मनुष्य के विषय में पूछते हैं तो नारद जी उन्हें भगवान् श्रीराम के विषय में बताते हैं। वहां वे भगवान् श्रीराम के राजा बनने के बाद उनके राज्य का वर्णन करके रामकथा समाप्त करके फलश्रुति बता देते हैं। वहां भगवान् नारद ने उत्तरकांड के किसी घटना का वर्णन नहीं किया है।
यहां आप देख सकते हैं भगवान् श्रीराम के राजा बनने के बाद देवर्षि नारद जी उनके राज्य का वर्णन करके तत्पश्चात उनके ब्रह्मलोक गमन अर्थात् मोक्ष को जाने का वर्णन करके फलश्रुति बता कर भगवान् श्रीराम के जीवनी को समाप्त कर देते हैं, यहां उत्तरकांड के किसी प्रसंग का लेशमात्र भी वर्णन नहीं है। श्लोक 97 में गीता प्रेस ने अर्थ सही नहीं किया है, यहां असंभव दोष प्राप्त होता है। स्वामी जगदीश्वरानंद जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम में इसका सही अर्थ किया है-Critical edition से इन श्लोकों को देखें
(बालकांड प्रथम सर्ग)
जैसे देवर्षि नारद जी ने भगवान् श्रीराम के राजा बनने के बाद फलश्रुति बता कर अपनी कथा समाप्ति कर दिया वैसे ही युद्ध काण्ड के अंत में भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक होने व उनके राज्य का वर्णन करके फलश्रुति बता देते हैं। किन्तु फिर आगे उत्तरकांड शुरू हो जाता है। फलश्रुति ग्रंथ के समाप्ति पर लिखा जाता है किन्तु युद्ध कांड के अंत में फलश्रुति का आना फिर नए कांड अर्थात् उत्तरकांड का आरंभ होना क्या यह संकेत नहीं देता कि उत्तरकांड बाद जोड़ा गया है?
यहां आदिदेव नारायण को राम व शेष को लक्ष्मण कहना आदि बातें मिलावट हैं।
धन्यं यशस्यमायुष्यं राज्ञां च विजयावहं।
श्रादिकाव्यं महत् त्वेतत् पुरा वाल्मीकिना कृतं॥१२॥
इदं तु चरितं चित्रं रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
शृणुयाद्यः सदा लोके स विमुच्येत किल्विषात्॥१३॥
पुत्रकामश्च पुत्रान् वै धनकामो धनानि च।
लभन्ते मनुजा लोके श्रुत्वा रामस्य चेष्टितं॥१४॥
लभते पतिकामा हि पतिं कन्या मनोरमं।
समागमं प्रोषितैश्च लभते बन्धुभिः प्रियैः॥१५॥
शृण्वन्ति लोके य इदं काव्यं वाल्मीकिना कृतं।
प्रार्थितांश्च वरान् सर्वान् प्राप्नुवन्ति यथेप्सितान्॥१६॥
(युद्ध काण्ड सर्ग 113, पश्चिमोत्तर संस्करण)
Critical edition ने फलश्रुति हटा दिया। यहां critical editors से त्रुटि हो गई है, क्योंकि फलश्रुति पश्चिमोत्तर आदि सभी संस्करणों में है। यदि अभ्युपगम सिद्धान्त से यह मान भी लें कि फलश्रुति नहीं है, तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि उत्तरकांड रामायण का हिस्सा है क्योंकि critical edition के भी युद्धकांड के अन्तिम सर्ग में भगवान् श्रीराम के राज्य का वर्णन कर दिया है और वहीं यह भी बता दिया है कि भगवान् श्रीराम ने 10 सहस्र वर्षों तक राज्य किया। यहां भी असंभव दोष होने से जो हमने आर्यमुनि जी का मीमांसा आदि के अनुरूप अर्थ दिया, वही ग्रहण करना उचित है। भगवान् श्रीराम का राज्यकाल बता देना, किंतु यहां उत्तरकांड का वर्णन न होना स्पष्ट घोषणा करता है कि यहां ग्रंथ समाप्त हो गया। अर्थात् आगे जो उत्तरकांड है वह निश्चित ही बाद के लोगों द्वारा प्रक्षिप्त है। बंगाल व पश्चिमोत्तर संस्करण में अनेक सहस्र वर्षों तक राज्य करने वाला श्लोक नहीं प्राप्त होता।
महाभारत के रामोपाख्यान पर्व में रामकथा का वर्णन है किन्तु भी उत्तरकांड का कोई लेश मात्र भी वर्णन नहीं है।
IIT Kanpur ने रामायण की एक वेबसाइट बनाया है, जिसपर उन्होंने दाक्षिणात्य पाठ अपलोड किया है। यद्यपि दाक्षिणात्य पाठ में उत्तरकांड है तथापि website पर उत्तरकांड नहीं है। इससे यह अनुमान होता है कि वहां के विद्वान् जन भी उत्तरकांड को रामायण का भाग नहीं मानते
इसी प्रकार Indian Culture नाम से भारत सरकार की वेबसाइट है, उसपर वाल्मीकि रामायण का दाक्षिणात्य पाठ अपलोड किया गया है। एक ही पेज पर हमें सभी 6 कांड मिल जाते हैं किन्तु वहां 7वां अर्थात् उत्तरकाण्ड नहीं मिलता।
तमिल भाषा में कम्बन् ने रामकथा पर आधारित एक ग्रंथ लिखा, जिसे कम्ब रामायण व रामावतारं नाम से जाना जाता है, उसमें केवल 6 कांड ही हैं, युद्ध काण्ड के अन्त में भगवान् श्रीराम के राजा बनने पर वे कम्ब रामायण की समाप्ति कर देते हैं, वे भी उत्तरकांड का लेशमात्र भी वर्णन नहीं करते।
भट्टिकाव्य जो कवि भट्टि द्वारा विरचित ग्रन्थ है, उसमें भी युद्धकांड तक ही वर्णन है। रावण वध के पश्चात् भगवान् श्रीराम के अयोध्या पुनरागमन साथ यह काव्य समाप्त हो जाता है, विद्वानों के अनुसार इसका काल 6वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध का है।
इसी प्रकार कुमारदास विरचित जानकीहरणं में भी युद्धकांड तक ही वर्णन प्राप्त होता है। यहां भी भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद ग्रंथ समाप्त हो जाता है -
चम्पू रामायण जो कि राजा भोज के काल का ग्रंथ है, उसमें भी 6 कांड ही हैं। युद्धकांड की समाप्ति के साथ ही ग्रंथ समाप्त हो जाता है, उत्तरकांड है ही नहीं।
कदाचित प्रतीत होता है कि पहले उत्तरकांड खिल के रूप में था, जो बाद में रामायण में जोड़ दिया गया। इसीलिए कम्ब रामायण, चम्पू रामायण आदि में इसे भाव नहीं दिया गया। यह कांड रचा कब गया यह शोध का विषय है, किन्तु विद्वानों द्वारा यह मूल वाल्मीकि रामायण का हिस्सा नहीं माना जाता था, अगर माना जाता तो क्या यूं ही अनेकत्र एक कांड की उपेक्षा की जाती? अब हम उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण देने जा रहे हैं, जिसे देखकर आपको पूर्णतः विश्वास हो जायेगा कि निश्चय ही यह प्रक्षिप्त है। बंगाल संस्करण में युद्धकांड समाप्त होने के साथ ही रामायण समाप्त हो जाता है। वहां युद्ध कांड के समाप्त होने पर लिखा है “रामायणं समाप्तं” यद्यपि बंगाल संस्करण का उत्तरकांड भी प्रकाशित है, किन्तु वहां उत्तर कांड समाप्त होने पर ऐसा कुछ नहीं लिखा है। इससे हमने जो ऊपर कहा कि उत्तरकांड खिल रूप में प्रचलित था, यही मान्यता पुष्ट होती है।
अब प्रश्न हो सकता है कि यदि रामायण युद्धकांड तक ही है तो उसे युद्धकांड के अंत में प्रकाशक ने चतुर्विंश सहस्र श्लोकों का क्यों कहा? इसका उत्तर यह है कि जैसे वर्तमान में महाभारत को शत सहस्र श्लोक का (लगभग में) कहा जाता है, यदि उसमें से अनार्ष हरिवंश के 12000 श्लोकों को घटा दिया जाए तो महाभारत का कोई भी संस्करण 1 लाख के आस पास नहीं पहुंचता। अर्थात् महाभारत के लिए 1 लाख श्लोक खिल भाग को लेकर ही माना जाता है, वैसे ही यहां रामायण के विषय में भी समझना चाहिए।
नोट - भगवान् श्रीराम के विषय में जानने हेतु वाल्मीकि रामायण ही प्रमाण है, वह भी बिना मिलावट वाली। यहां अनार्ष ग्रंथों को उद्धृत करने का कारण इतना ही है कि पाठकगण यह जान सकें कि भिन्न भिन्न काल में कवि लोग भी उत्तरकांड को रामायण का भाग नहीं मानते थे, यदि कहीं मान्यता थी तो वह खिल रूप में में ही थी।
ऊपर दिए हेतुओं व प्रमाणों से उत्तरकांड प्रक्षिप्त सिद्ध हो गया, अब बालकाण्ड में आए तथोत्तर शब्द की समीक्षा अनिवार्य है, क्योंकि उसकी समीक्षा किए बिना उत्तरकांड का पूर्णतः खंडन नहीं माना जा सकता।
बालकाण्ड में तथोत्तर की समीक्षा
वाल्मीकि रामायण बालकांड में कहा है-
चतुर्विंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः।
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्काण्डानि तथोत्तरम्॥२॥
(वा. रा. बा. का. स. 4 गीता प्रेस)
अर्थात् भगवान् वाल्मीकि ऋषि ने 24 हजार श्लोक, 500 सर्ग 6 कांड और एक उत्तरकांड (6+1=7) का प्रतिपादन किया है।
उत्तरकांड में कहा है-
एतावदेतदाख्यानं सोत्तरं ब्रह्मपूजितम्।
रामायणमिति ख्यातं मुख्यं वाल्मीकिना कृतम्॥१॥
(उत्तरकांड सर्ग 111, गीता प्रेस)
एतदाख्यानमायुष्यं सभविष्यं सहोत्तरम्।
कृतवान् प्रचेतसः पुत्रस्तद् ब्रह्माप्यन्वमन्यत॥११॥
(उत्तरकांड सर्ग 111, गीता प्रेस)
अब यहां प्रश्न उठता है कि क्या भगवान् वाल्मीकि सीधे सात काण्ड या रामायण नहीं लिख सकते थे? यदि यह कहा जाए कि छंद बनाने के लिए ऐसा कहा तो प्रश्न यह उठता है वाल्मीकि रामायण उत्कृष्ट कवि को केवल छंद पूर्ति हेतु ऐसा करना पड़ रहा है वह भी बार बार। इसलिए स्वामी जगदीश्वरानंद जी ने उचित ही कहा है, तथोत्तर शब्द संदेहपूर्ण हैं, इसलिए ये श्लोक प्रमाणिक नहीं हैं। इन शब्दों को देखकर ऐसा लगता है दाल में जरूर कुछ काला है। ‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ न्याय से यह सिद्ध होता है कि उत्तरकांड महर्षि वाल्मीकि की कृति नहीं है, बाद में किसी ने जोड़ा है। इन श्लोकों को अप्रमाणिक मानते हुए स्वामी विद्यानंद जी ने उचित ही लिखा है-
समूची रचना में वह अलग से थेगली की तरह लगाया गया प्रतीत होता है, अथवा धोती की लम्बाई कम होने के कारण बाजार से एक गज अतिरिक्त कपड़ा लाकर जोड़ा गया लगता है। पर उस टुकड़े का रंग, धागा, डिजाइन आदि भिन्न होने के कारण खप नहीं पा रहा है। रफूगर कपड़े की मरम्मत इस योग्यता से करते हैं कि वह मरम्मत किया हुआ नहीं जान पड़ता । परन्तु वाल्मीकि तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते जाते हैं कि उत्तरकाण्ड के नाम से यह भाग बाद में जोड़ा गया है, पहले नहीं था — इदन्न मम।
यहां हम बालकांड में आए सहोत्तर व तथोत्तर शब्द की समीक्षा करेंगे, क्योंकि यदि बालकांड में ही उत्तरकांड अप्रमाणिक सिद्ध हो जाए तो उत्तरकांड में जाकर पुनः समीक्षा करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड चतुर्थ सर्ग के द्वितीय श्लोक (गीता प्रेस) को Critical edition ने इस श्लोक को प्रक्षिप्त माना है क्योंकि यह सब संस्करणों में प्राप्त नहीं होता।
(Critical edition बालकांड चतुर्थ सर्ग)
यहां इसका critical notes द्रष्टव्य है, वहां वे रामायण पर काठक के टिप्पणी को उद्धृत करते हैं, जो इस प्रकार है-
कतककृतस्तु प्रक्षिप्तोऽयं श्लोको न त्वार्ष इत्याहु
यहां रामायण में 500 सर्ग कहा है किन्तु दाक्षिणात्य पाठ व बॉम्बे पाठ में सम्प्रति क्रमशः 648 व 645 सर्ग प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार इसमें 24000 श्लोक कहा है किन्तु जब विद्वानों ने पांडुलिपियों पर शोध करके critical edition निकाला तो उसमें उन्होंने मात्र 18766 श्लोकों को मूल माना।
अब पूर्वपक्ष प्रश्न कर सकता है कि आपने तो इस श्लोक को मिलावट सिद्ध कर दिया किन्तु critical edition ने इससे अगले श्लोक को मूल माना है, उसमें भी सहोत्तर शब्द है-
कृत्वा तु तन्महाप्रज्ञः सभविष्यं सहोत्तरम्।
चिन्तयामास को न्वेतत् प्रयुञ्जीयादिति प्रभुः॥
(Critical edition 1.4.2, गीता प्रेस 1.4.3)
यह श्लोक William Carey & Joshua Marshman द्वारा अनुवादित व प्रकाशित रामायण में नहीं है
Augustus Guilelmus A Schlegel द्वारा संपादित रामायण में भी यह श्लोक नहीं है। critical edition का द्वितीय श्लोक इस पाठ में प्रथम श्लोक के स्थान पर पाठभेद के साथ आया है, इसमें सभविष्यं सहोत्तरं है ही नहीं अपितु उसके स्थान पर ‘काव्यं रामायणाह्वयं’ पाठ मिलता है।
(वाल्मीकि रामायण बालकांड चतुर्थ सर्ग)
Professor Peter Peterson द्वारा प्रकाशित रामायण में भी यह श्लोक नहीं मिलता। critical edition का प्रथम श्लोक श्लोक इस पाठ में प्रथम श्लोक के स्थान पर है, critical edition का द्वितीय श्लोक इसमें है ही नहीं और critical edition ka तृतीय श्लोक इस पाठ में द्वितीय श्लोक के रूप प्राप्त होता है।
(बालकाण्ड चतुर्थ सर्ग)
बंगाल संस्करण में भी यह श्लोक नहीं है।
(बालकाण्ड चतुर्थ सर्ग)
पश्चिमोत्तर पाठ में भी यह श्लोक नहीं है।
(बालकाण्ड तृतीय सर्ग)
विभिन्न पाठों में इस श्लोक का न मिलना, इससे साफ पता चलता है कि यह श्लोक बाद में जोड़ा गया है ताकि लोग अनार्ष रचना उत्तरकांड को वाल्मीकिकृत समझ कर इसे अपना लें।
कुछ पांडुलिपियों में संपूर्ण रामायण को संक्षिप्त रूप से बालकाण्ड में बताया है, critical editiors ने पांडुलिपियों पर शोध करके यह पता लगाया कि यह अनेक पांडुलिपियों में नहीं मिलता, अतः उन्होंने इसे प्रकाशित तो किया किन्तु परिशिष्ट रूप में। हम उस पूरे सर्ग को दिखान का अनावश्यक विस्तार करना आवश्यक नहीं समझते। पठकगण उसके प्रथम पृष्ठ को देख लेवें -
सन्दर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- वाल्मीकि रामायण (गीता प्रेस)
- वाल्मीकि रामायण (पश्चिमोत्तर संस्करण)
- वाल्मीकि रामायण (बंगाल संस्करण)
- वाल्मीकि रामायण (पश्चिमोत्तर संस्करण)
- वाल्मीकि रामायण (Professor Peter Peterson द्वारा प्रकाशित)
- वाल्मीकि रामायण (Augustus Guilelmus A Schlegel द्वारा प्रकाशित)
- वाल्मीकि रामायण (William Carey & Joshua Marshman द्वारा अनुवादित व प्रकाशित )
- वाल्मीकि रामायण (स्वामी जगदीश्वरानंद जी द्वारा संशोधित)
- मर्यादा पुरुषोत्तम राम (स्वामी जगदीश्वरानंद जी)
- रामायण भ्रांतियां एवं समाधान (स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती)
- महाभारत (गीता प्रेस)
- भट्टिकाव्य (जयमंगल कृत टीका सहित)
- चम्पू रामायण
- कम्ब रामायण (श्री न० वी० राजगोपालन जी द्वारा अनुवादित)
- जानकीहरणं (ब्रजमोहन व्यास जी कृत अनुवाद सहित)
- रघुवंश एवं जानकीहरण की तुलनात्मक समीक्षा (डॉ० अवधेश कुमार जी मिश्र)
- काकावीन रामायण (डॉ० चंद्रदत्त जी पालीवाल द्वारा अनुवादित)
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