आचार्य चाणक्य का मंडल सिद्धान्त
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 4 मंडलों का उल्लेख किया है-
विजिगीषुमित्रं मित्रमित्रं वास्य प्रकृतयस्तिस्रः ॥ ३२ ॥
ताः पञ्चभिरमात्यजनपद दुर्गकोशदण्डप्रकृतिभिरेकैकश: संयुक्ता मण्डलमष्टादशकं भवति।।३३।।
अर्थशास्त्र 6.2.32,33
अब चार मण्डलोंका संक्षेप में निरूपण करते हैं:- विजिगीषु, उसका मित्र और मित्रमित्र ये तीन प्रकृति हैं॥३२॥
इनमेंसे एक २ अलहदा २ अमात्य जनपद दुर्ग कोश और दण्ड इन पांच प्रकृतियोंके साथ मिलकर (अर्थात् एक विजिगीषु और उसकी अमात्य आदि पांच प्रकृतियां ६. ये सब मिलकर) अठारह अवयव वाला एक मण्डल बन जाता है। इसे विजिगीषु सम्बन्धी मण्डल कहते हैं (इस प्रकार अन्य भी समझ लेने चाहिए ॥ ३३ ॥
प्रथम मंडल- इसमें स्वयं विजिगीषु(राजा), उसका मित्र, उसके मित्र का मित्र शामिल है।
द्वितीय मंडल- इस मंडल में विजिगीषु का शत्रु शामिल होता है, साथ ही विजिगीषु के शत्रु का मित्र और शत्रु के मित्र का मित्र सम्मिलित किया जाता है।
तृतीय मंडल- इस मंडल में मध्यम, उसका मित्र एवं उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।
चतुर्थ मंडल- इस मंडल में उदासीन, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।
राजात्मद्रव्यप्रकृतिसंपन्नोनयस्याधिष्ठानं विजिगीषुः ।।१६।।
तस्य समन्ततो मण्डलीभूता भूम्यनन्तरा अरिप्रकृतिः ॥१७॥
तथैव भूम्येकान्तरा मित्रप्रकृतिः॥१८॥
अरिसंपयुक्तः सामन्तः शत्रुः॥१९॥
अर्थशास्त्र 6.2.16,17,18,19
विजिगीषु के राज्यके चारों ओर लगे राज्योंके अधिपति 'अरि प्रकृति' कहाते हैं ॥ १७ ॥
इसी प्रकार एक राज्यसे व्यवहित राज्यों के अधिपति 'मित्र प्रकृति' कहते हैं ॥ १८ ॥
अरिसम्पत्ति (अराजबोजी इत्यादि) से युक्त सामन्तभी शत्रु कहता है ॥ १९ ॥
तस्मान्मित्रमरिमित्रं मित्रमित्रमरिमित्रमित्रं चानन्तर्येण भू-मीनां प्रसज्यते पुरस्तात्॥२३॥
अर्थशास्त्र 6.2.23
इसके बाद मित्र, अरिमित्र, मित्रंमित्र और अरिमित्रमित्र, ये राजा राज्योंके क्रमसे विजिगीषुके सामने आते हैं। अर्थात् जब विजिगीषु शत्रुको विजय करनेके लिये प्रवृत्त होता है तब उसके सामने क्रमसे ये पांच राजा आते हैं-शत्रु, मित्र, अरिमित्र, मित्रमित्र और अरिमित्रमिन्न। तात्पर्य यह है कि अपने देशसे लगेही हुए देश का राजा शत्रु, उसके आगेका मित्र और उसके आगेका अरिमित्र, इसी प्रकार आगे समझिये ॥ २३ ॥
पश्चात्पाणिग्राह आक्रन्दः पाणिग्राहासार आक्रन्दासार इति॥२४॥
भ्रम्यनन्तरः प्रकृत्यमित्र: तुल्याभिजन सहजः ॥२५॥
विरुद्धो विरोधयिता वा कृत्रिमः ॥ २६ ॥
अर्थशास्त्र 6.2.24-25-26
तथा विजिगीषु के पीछे के चार पाणिग्राह, आक्रन्द, पाणिग्राहासार,और आक्रन्दसार कहाते हैं, इन दोनों के बीच में एक विजिगीषु, ये सब मिलाकर दशका 'राजमण्डल' कहता है॥२४॥
अपने राज्यके समीप ही राज्य करनेवाला स्वाभाविक शत्रु, तथा अपने वंशम उत्पन्न हुआ दायभागी, ये दोनों 'सहजशत्रु' कहाते हैं ॥२५॥
स्वयं विरुद्ध हो जाने वाला, अथवा किसी को विरोधी कर देने वाला 'कृत्रिमशत्रु' कहलाता है॥२६॥
विजिगीषु- ऐसा राजा जो विजय का इच्छुक है और अपने राज्य में उत्तम शासन स्थापित करना चाहता है।
अरि - ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु की सीमा के साथ लगा हो अर्थात वह विजिगीषु का स्वाभाविक शत्रु है।
मित्र - ऐसा नृपति जिसका राज्य अरि की सीमा से लगा हो वह अरि का स्वाभाविक शत्रु व विजिगीषु का मित्र है
अरि मित्र - ऐसा नृपति जिसका राज्य मित्र की सीमा से लगा हो यह अरि के मित्र का मित्र है व विजिगीषु के मित्र का शत्रु है
मित्र मित्र - ऐसा नृपति जिसका राज्य अरि मित्र के राज्य से लगा हो वह अरि मित्र का स्वाभाविक शत्रु व विजिगीषु के मित्र का मित्र है
अरि मित्र मित्र - ऐसा नृपति जिसका राज्य मित्र मित्र की सीमा से लगा हो वह मित्र मित्र का स्वाभाविक शत्रु है व अरि के मित्र का मित्र है
मित्र मित्र मित्र - ऐसा नृपति जिसका राज्य अरि मित्र मित्र की सीमा से लगा हो वह अरि मित्र मित्र का स्वाभाविक शत्रु है व इस कारण से यह विजिगीषु के मित्र के मित्र का मित्र है !
मध्यम - ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों की सीमाओं से लगा हो। अतः वह इनमे से किसी का भी शत्रु या मित्र हो सकता है।
उदासीन- ऐसा नृपति जिसके राज्य की स्थिति विजिगीषु के शत्रु और मध्यम दोनों से परे हो परन्तु वह इतना बलशाली हो की वह संकट के समय किसी की भी सहायता या विरोध करने में समर्थ हो। इसलिए उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
पार्षिंग्राह- ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य के पीछे की ओर सीमा से लगा हो। अतः वह युद्ध के समय पीछे से उपद्रव खड़ा कर सकता है। वह स्वाभाविक रूप से विजिगीषु का शत्रु होता है।
आक्रन्द- ऐसा नृपति जिसका राज्य पार्षिंग्राह की राज्य की सीमा के साथ लगा हो अतः वह पार्षिंग्राह का स्वाभाविक शत्रु होता है और विजिगीषु का स्वाभाविक मित्र होता है।
पार्षिंग्राहासागर- ऐसा नृपति जिसका राज्य आक्रन्द की सीमा के साथ लगा हो अतः वह आक्रन्द का शत्रु होता है पार्शिनग्राह का परोक्ष मित्र होता है और विजिगीषु का परोक्ष शत्रु होता है।
आक्रंदासार- ऐसा नृपति जिसका राज्य पार्षिंग्राहासागर के राज्य के सीमा के साथ लगा हो, अतः वह पार्षिंग्राहासागर का स्वाभाविक शत्रु होता है; आक्रन्द का और विजिगीषु का परोक्ष मित्र होता है।
अन्तरधि - ऐसा नृपति जिसका राज्य दो शक्तिशाली राज्यों के मध्य हो अन्तरधि कहलाता है यह दोनों में से किसी का भी मित्र व शत्रु हो सकता है!
इन चारों मंडलों के संयोग से वृहद् राजयमंडल की रचना होती है। चूँकि प्रत्येक मंडल में ३-३ राज्य आते हैं, इसलिए वृहद् राजयमंडल में 12 राज्य आ जाते हैं। इन्हे राज्य प्रकृतियाँ कहा जाता है।
कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धों के संचालन हेतु छः प्रकार की नीतियों का विवरण दिया है-
षड्गुण्यस्य प्रकृतिमण्डलं योनिः॥१॥
संधिविग्रहासनयानसंश्रयद्वैधीभावाः षाड्गुण्यमित्याचार्याः॥२॥
[अर्थशास्त्र 7.1.1-2]
स्वामी आदि सात प्रकृति और १२ राजमण्डल, सन्धि आदि छः
गुणों के कारण हैं ॥ १ ॥
आचार्य कहते हैं कि:- सन्धि, विग्रह, यान, आसन,
संश्रय और द्वैधीभाव ये छः गुण हैं ॥ २ ॥
(1) संधि - संधि शान्ति बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर निर्बल बनाना है।
(2) विग्रह - शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।
(3) यान - युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी,
(4) आसन - तटस्थता की नीति,
(5) संश्रय - अर्थात् आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना
(6) द्वैधीभाव - अर्थात् एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।
कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृष्टि से ही किया जाना चाहिए।
Ati shobhniya
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