कौन कहता है वेदों में अनित्य इतिहास है?

लेखक - यशपाल आर्य
इस लेख को लिखने में जिन मित्रों ने सहायता की है हम उन सबके आभार व्यक्त करते हुए लेख को आरंभ करते हैं। आज अनेक लोग ऐसा मानते हैं कि वेदों में इतिहास है। वे लोग अपनी कल्पना सिद्ध करने हेतु कुछ वेद मंत्रों को भी उद्धृत करते हैं। ऐसे लोगों के मतानुसार वेद कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जिसमें इतिहास भरा हुआ है। कोई अर्जुन का का नाम दिखा देता है, कोई परीक्षित को वेद से सिद्ध करने लगता है, तो कोई इन्द्र वृत्रासुर की कथा दिखा कर यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वेदों में इतिहास है। क्या वास्तव में वेदों में इतिहास है या जिसे हम इतिहास मान रहे हैं वह हमारी भूल है और जिसे हम इतिहास समझ रहे हैं उसका अर्थ ही भिन्न है। इस विषय को जानने हेतु हम सर्वप्रथम ऋषियों के प्रमाण देखेंगे, क्योंकि वे लोग वेदों के साक्षात्कृतधर्मा थे। ऐसे लोगों का ही प्रमाण मान्य होता है जो आप्त हो। आप्त का वचन प्रमाण होता है क्योंकि—
एतेन त्रिविधेनातप्रामाण्येन परिगृहीतोऽनुष्ठीयमानोऽर्थस्य साधको भवति, एवमाप्तोपदेशः प्रमाणम्। एवमाप्ताः प्रमाणम्।
[न्याय दर्शन २/१/६९ महर्षि वात्स्यायन भाष्य]
इस प्रकार वास्तविक विषय का ज्ञान, प्राणियों पर दया तथा सत्य विषय के प्रसिद्ध करने की इच्छा इन तीन प्रकार से आप्तपुरुषों के प्रमाण होने से संसार के साधारण प्राणियों ने आप्तों के उपदेश के अनुसार स्वीकार कर, वैसा ही आचरण करने से उनके सम्पूर्ण संसार के कार्य सिद्ध होते हैं, इस प्रकार आप्तों का उपदेश प्रमाण होता है। और आप्त भी प्रमाण होता है अर्थात् आप्त का जीवन भी प्रमाण होता है।
सर्वप्रथम हम महर्षि जैमिनी कृत मीमांसा देखते हैं। मीमांसा में वेदापौरुषेयत्वाधिकरण में भगवान् जैमिनी वेदों में इतिहास का स्पष्ट तौर पर खंडन करते हैं—











अब हम इसको थोड़ा समझाते हैं।
यहां पूर्वपक्षी १.१.२७ में कहता है कि वेद अनित्य हैं, मनुष्य की रचना हैं क्योंकि उनके साथ व्यक्तियों का नाम जुड़ा हुआ होता है। यदि वेद को वे मनुष्य न बनाते तो उनके नाम मूल संहिता से क्यों जुड़े होते यथा शाकल, वाजसनेय आदि।
सूत्र २८ में कहता है कि वेदों में जन्म मरण वाले मनुष्यों का विवरण मिलता है, इससे सिद्ध होता है कि उनकी उत्पत्ति से पूर्व वेद नहीं थे।
अब सिद्धान्त पक्ष की ओर से पूर्वपक्ष के दावों का खंडन करते हैं और यथार्थ पक्ष स्थापित करेंगे।
सूत्र २९ में कहते हैं पहले कहा जा चुका है कि शब्द नित्य हैं अतः वेद भी नित्य हैं। वस्तुतः यहां ज्ञान रूप में शब्दों के नित्यत्व की बात कही गई है।
सूत्र ३०में कहते हैं कि शाकल, वाजसनेय आदि मंत्र संहिताओं की आख्या प्रवचन के कारण प्रसिद्ध हुई हैं। अर्थात् जिन ऋषियों ने उन वेदों का विशेष प्रवचन किया उनके नाम से वे मंत्र संहिताएं प्रसिद्ध हो गईं, न कि वे ऋषि उन वेदों के कर्ता हैं।
३१वें सूत्र में कहते हैं कि पूर्वपक्ष ने जो कहा कि वेदों में अनित्य मनुष्यों का इतिहास है वह सही नहीं है क्योंकि वेदों के सभी अर्थ श्रुतिसामान्य हैं अर्थात् यौगिक हैं।
३२वें सूत्र में भी यौगिक अर्थ होता है यही समझा रहे हैं।
यहां जो शबर स्वामी जी ने जो मूल संहिताओं से भिन्न शाखाओं को नित्य कहा है वह उचित नहीं है, क्योंकि वेद की शाखाएं ऋषियों ने वेद मंत्रों पर प्रवचन कर के बनाया है, उसमें उन्होंने वेद मंत्रों के अर्थों को समझाया भी है।

भगवान् मनु का प्रसिद्ध श्लोक है-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवाऽऽदौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे॥
(मनु० १/२१)
यहां महर्षि मनु कहते हैं कि परमात्मा ने सब नाम और पृथक् पृथक् कर्मों व पृथक् पृथक् विभागों को सृष्टि के आदि में वेद से बनाया अर्थात् मनुष्यों ने इन सबका ज्ञान वेद से ही सीखा। यहां भगवान् मनु जी के वचन से स्पष्ट है कि वेदों में किसी व्यक्ति का इतिहास नहीं है प्रत्युत् मनुष्यों ने उन नामों को वेद से सीख कर ही अपना नाम रखा। 
वैशेषिक में महर्षि कणाद वायु महाभूत के विषय में बता रहे होते हैं, उस प्रसंग के सूत्र द्रष्टव्य हैं-
तस्मादागमिकम्।।१७।।
संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम्।।१८।।
(अध्याय २, आह्निक १)
सूत्र १६ में ऋषि बताते हैं कि सामान्यतोदृष्ट लिंग से वायु का ज्ञान हो जाता है इसपर शिष्य जिज्ञासा करता है कि यह सामान्यतोदृष्ट के अनुसार गुण से गुणी द्रव्य का बोध हो जायेगा किन्तु वह द्रव्य वायु है यह कैसे जाना जाए तो इसी का उत्तर १७वें सूत्र में ऋषि देते हुए लिखते हैं कि “इस कारण से आगम से जाना गया है।” अर्थात् वायु आदि पदार्थों का ज्ञान ऋषियों ने वेद से ही सीखा। फिर अगले सूत्र अर्थात् सूत्र १८ में ऋषि कहते हैं कि नाम और कर्म का बोध कराना तो हमसे विशिष्ट का लक्षण है, अर्थात् नाम व कर्म का बोध ईश्वर ने मनुष्यों को वेद द्वारा कराया। यहां भगवान् कणाद का भी यही मत है कि मनुष्यों ने नाम व कर्म कर्म वेद से सीखा। अर्थात् वेदों में सब सत्य विद्याएं हैं इतिहास नहीं यही है। इसी बात को महर्षि वेदव्यास तत्तु समन्वयात् सूत्र में कहते हैं। इस सूत्र को समझने हेतु इससे पूर्व के सूत्रों को भी देखें-
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।।१।।
जन्माद्यस्य यतः।।२।।
शास्त्रयोनित्वात्।।३।।
तत्तु समन्वयात्।।४।।
(प्रथम अध्याय प्रथम पाद)
यहां हम सभी सूत्रों का भाष्य नहीं करेंगे केवल चौथे सूत्र पर विचार करेंगे, इस सूत्र को समझने हेतु पूर्व के सूत्रों को समझना आवश्यक था इसलिए हमने उन्हें भी उद्धृत किया है। यहां ऋषि कहते हैं कि वेद और सृष्टि दोनों ईश्वर से उत्पन्न हुई है यह बात दोनों के परस्पर समन्वय से जानी जाती है कि दोनों का कर्ता एक है। [ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण है, उपादान नहीं। उपादान तो प्रकृति है] निश्चित ही भगवान् वेदव्यास सृष्टि और वेद को पूरी तरह से (मनुष्य की दृष्टि से) समझ चुके थे इसीलिए ऐसा लिखा। यानि क्या सिद्ध हुआ? यह कि महर्षि वेदव्यास वेद को और सृष्टि को पूरी तरह समझ चुके थे और उन्हें पूरे वेद में सृष्टि के नियम अर्थात् सृष्टि कैसे बनी, कौन कौन से नियम कार्य कर रहे हैं, किसने बनाया, सृष्टि में जीव परस्पर कैसे वर्ताव करें इस प्रकार का ज्ञान मिला, वेदों में कहीं इतिहास नहीं मिला। जो कोई कहे कि उन्हें इतिहास भी मिला होगा और यहां उसका प्रसंग न होने से यहां उसका उल्लेख नहीं किया तो इसका भी उत्तर दे देते हैं। प्रथम अध्याय के तृतीय पाद में महर्षि लिखते हैं-
अत एव च नित्यत्वम्॥ [ब्र. सू. १.३.२९]
यहां वेद को नित्य कहा है, यदि वेदव्यास जी को इसमें मानवीय इतिहास मिला होता तो वे इसे नित्य क्यों कहते? क्योंकि जिसमें इतिहास होगा वह ग्रंथ उस व्यक्ति से पूर्व विद्यमान नहीं हो सकता जिसका उसमें इतिहास हो। अतः वेदों को नित्य कहना यह स्पष्ट घोषणा करता है कि वेदों में किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है।
इसी प्रकार मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्तात्। [२|१|६८] के व्याख्या में महर्षि वात्स्यायन ने वेदों को नित्य कहा है-
द्रष्टृप्रवक्तृसामान्याच्चानुमानम्। य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनामित्यायुर्वेदप्रामाण्यवद्वेदप्रामाण्यमनुमातव्यमिति। नित्यत्वाद्वेदवाक्यानां प्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादित्युक्तम्।
अतः न्याय दर्शन के अनुसार भी वेदों में इतिहास नहीं है ऐसा सिद्ध होता है।

भगवान् पतञ्जलि योग दर्शन में लिखते हैं कि ईश्वर का ज्ञान त्रिकालाबाध्य है, देखें प्रमाण-
स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवसच्छेदात्।।
[समाधि पाद सूत्र २६]
वह ईश्वर पूर्वजों का भी गुरु है, काल से उसका बाध न होने के कारण, इस सूत्र में पूर्व शब्द से अभिप्राय अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामक महर्षियों से है। सृष्टि के आदि में परमात्मा जिनके हृदय में वेद का प्रकाश करता है, पूर्वज शब्द सबसे प्रथम अर्थात् सृष्टि के आदि में जन्म लेने के कारण आता है।
इसी सूत्र पर महर्षि व्यास जी भाष्य लिखते हैं-
पूर्वे हि गुरवः कालेनावच्छिद्यन्ते। यात्रावच्छेदार्थेन कालो नोपावर्तते स एष पूर्वेषामपि गुरुः। यथाऽस्य सर्गस्याऽऽदौ प्रकर्षगत्या सिद्धस्तथाऽतिक्रान्तसर्गादिष्वपि प्रत्येतव्यः।
अर्थात् पूर्वज गुरु अग्नि आदि काल से बाध हो जाते हैं। जिसमें सीमाबद्ध रूप से काल नहीं वर्ताता अर्थात् जो त्रिकालाबाध्य है। वह यह ईश्वर प्रथम गुरुओं का भी गुरु है।जैसे इस सृष्टि की आदि में इसकी सर्वज्ञता सिद्ध है, वैसे ही सृष्टि के अंत में भी जाननी चाहिए।
राजा भोज वृत्ति में लिखते हैं

जब ईश्वर का ज्ञान वेद त्रिकालाबाध्य है तो इसमें मनुष्यों का इतिहास, किसी नदी पर्वत का इतिहास क्यों कर आ सकता है? ऐसा आने पर वह त्रिकालाबाध्य नहीं रहेगा, क्योंकि उस व्यक्ति वा वस्तु के इतिहास से पूर्व वह क्योंकर हो सकता है? अतः यहां भी सिद्ध है कि वेदों में इतिहास होना संभव नहीं है।
वेद की चर्चा हो और निरुक्त की बात ही न हो ऐसा तो संभव नहीं है। अतः हम भगवान् यास्क का भी मत जानेंगे।
पुरुषविद्ययाऽनित्यत्वात् कर्मसंपत्तिर्मन्त्रो वेदे।
[निरुक्त १|२]
अर्थात् पुरुष की विद्या वा उसका ज्ञान अनित्य है, अतः वेद में मंत्रों द्वारा कर्तव्य कर्मों का नित्यपूर्ण रूप में प्रतिपादन किया गया है।
यहां भगवान् यास्क लिखते हैं पुरुषविद्ययाऽनित्यत्वात् इससे अर्थापत्ति से यह सिद्ध होता है कि वेदों में जो विद्या है वा कर्म का प्रतिपादन है वह नित्य है, यदि भगवान् यास्क के मत में नित्य न होता तो ‘पुरुषविद्ययाऽनित्यत्वात्’ नहीं लिखते।
अब कुछ लोगों की शंका हो सकती है कि निरुक्त में भी कुछ मंत्रों में इतिहास बताया है तो इस भ्रान्ति का भी निवारण कर देते हैं। हम हम निरुक्त के तीन प्राचीन भाष्यकारों का प्रमाण देते हैं कि वेदों में अनित्य इतिहास नहीं है प्रत्युत् वह नित्य इतिहास है। सर्वप्रथम दुर्गाचार्य का प्रमाण देखें, वे निरुक्त १०/२६ की व्याख्या में लिखते हैं-



अब स्कंद स्वामी का भाष्य देखें। वे 
आचार्य वररुचि जो आचार्य दुर्ग व स्कंद स्वामी से भी प्राचीन हैं अब उनका प्रमाण देखें
यहां हमने तीन निरुक्त के भाष्यकारों का प्रमाण दिया इनके मत में वेदों में नित्य इतिहास है, अर्थात् ग्रहों के बनने, तारों के बनने, पार्टिकल के बनने, क्वांटा के बनने आदि का इतिहास है अर्थात् सृष्टि के बनने का इतिहास है, ये इसी प्रकार हर कल्प में बनते हैं अर्थात् प्रवाह से नित्य हैं अतः इन्हें नित्य इतिहास कहा है और जो इतिहास जैसा दिखता है वह औपचारिक अर्थात् आलंकारिक वर्णन है।
अब हम मीमांसा पर भाष्यकार शबर स्वामी जी का प्रमाण देते हैं। नीचे दिए गए दो फोटो में से प्रथम मीमांसा १/२/१० व द्वितीय ९/१/४४ पर शबर स्वामी जी का भाष्य है-

यहां दोनों में ही शबर स्वामी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वेदों में इतिहास मानने पर उसे अनित्य मानना पड़ेगा। वहीं ९/१/४४ में तो स्पष्ट लिख दिया “इतिहासवचनमिदं प्रतिभाति” यानि यह इतिहास का आभास मात्र है इतिहास नहीं।
प्रश्न - वेदों में अनेक शब्दों में भूतकाल में प्रयोग किया जाता है, इससे स्पष्ट है कि वेदों में इतिहास है।
सिद्धांती - यह बात उचित नहीं है, इस विषय अष्टाध्यायी ३.४.६ में महर्षि पाणिनि लिखते हैं -
अतः आपका दिखाया गया दोष वेदों पर लागू नहीं होता।

अब हम वेदों में इतिहास दिखने वाले कुछ दावों को लेते हैं और उनपर संक्षिप्त रूप से विचार करते हैं-

कृष्णा पुत्र अर्जुन का नाम आना
पूर्वपक्ष - वेदों में कृष्णा के पुत्र अर्जुन का नाम आया है -
कृष्णायाः पुत्रो अर्जुनो... (अथर्ववेद १३.३.२६)
सिद्धांती - नहीं, यहां कृष्णा नाम रात्रि का और अर्जुन नाम सूर्य का है, यहां आलंकरिक रूप में वर्णन किया है। शतपथ ब्राह्मण (९/२/३/३०) में कहा है-
रात्रिर्वै कृष्णा शुक्लवत्सा, तस्या असावादित्यो वत्सः।
यहां कोई मानवीय इतिहास का वर्णन नहीं है।

गंगा आदि नदियों के नाम-
निरुक्त में भगवान् यास्क नदी शब्द का निर्वचन करते हैं -
नद्यः कस्मात्‌ । नदना भवन्ति। शब्दवत्यः। (निरुक्त २.२४)
ऋषियों ने इस प्रकार नदी शब्द का अर्थ समझ कर लोक में नदी के लिए रूढ़ कर दिया। निघंटु में भगवान् यास्क ने सिन्धवः, सरस्वत्यः शब्द को नदीनाम में बताया है। यहां ये दोनों ही शब्द प्रथमा विभक्ति बहुवचन के शब्द हैं, किन्तु ये दोनों नदियां तो अनेक नहीं थीं एक एक ही थीं। वेदों में नदियों का इतिहास मानने वालों का इसी से खंडन हो जाता है। निघंटु में नदीनाम शब्द देखें

अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वेदों में आए गंगादि का क्या अर्थ है? हम जानते हैं कि वेद मंत्रों का त्रिविध अर्थ होता है। महर्षि दयानन्द जी ने प्रसंगानुकूल यहां आध्यात्मिक अर्थ लिया है। देखें-



अब कुछ लोगों की शंका शंका हो सकती है कि ऋषि दयानन्द ने व्याकरण निरुक्त को तोड़ मरोड़ कर नाड़ी अर्थ किया है, किन्तु इन शब्दों का नाड़ी अर्थ तो संभव ही नहीं है। तो उन लोगों के संतुष्टि हेतु शिव स्वरोदय ग्रंथ का प्रमाण देते हैं जहां ये शब्द नाड़ियों के लिए आए हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह एक तन्त्र ग्रंथ है। इन ग्रन्थों में जहां कोई बात वेद के अनुकूल है तो लेने में कोई दिक्कत नहीं 


यहां आप गंगादि शब्दों का निर्वचन देख सकते हैं। एक निर्वचन के अनेक अर्थ हो सकते हैं जिन्हें प्रसंगानुकूल प्रकरण के अनुसार ग्रहण किया जाता है। यहां महर्षि दयानन्द जी ने इन शब्दों को तीर्थ के प्रसंग में नाड़ियों का अर्थ किया है। देखें प्रमाण-

यहां श्लोक ३७४ में आप देख सकते हैं गंगादि नाम नाड़ियों के लिए आए हैं।
नदी सूक्त का मीमांसा दर्शन के शबर भाष्य के आर्ष मतानुसार पर्यालोचन में पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक गंगादि शब्दों का सृष्टि विद्या से संबंधित अर्थ करते हैं-



इन्द्र वृत्रासुर की कथा
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में ऋषि इस कथा का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं -


वेदों में परीक्षित शब्द आना
पूर्वपक्ष - वेदों में परीक्षित शब्द आने से उसमें परीक्षित का इतिहास है।
सिद्धांती - आपका यह कथन उचित नहीं, हम ऊपर अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध कर चुके हैं कि वेदों में अनित्य इतिहास नहीं है। अब परीक्षित शब्द पर संक्षेप में विचार कर लेते हैं। ऋषियों का परिक्षित् के विषय में कथन है -
अग्निर्हीमाः प्रजाः परिक्षेत्यग्निं हीमाः प्रजाः परिक्षियन्ति।। [ऐ. ६.३२]
अग्निर्वै परिक्षित्।। [ऐ० ६.३२|| गो० उ०६.१२]
संवत्सरो व परिक्षित् संवत्सरो हीदं सर्वं परिक्षियतीति।। [गो० उ०६.१२]
ऋषियों ने अग्नि व संवत्सर को परीक्षित कहा है, वेदों में किसी राजा परिक्षित् की चर्चा नहीं अपितु अग्नि व संवत्सर के विषय में बताया गया है।

अंत में सारांश रूप में यही बताना चाहेंगे कि वेदों में किसी मनुष्य वा नदी पर्वत का इतिहास नहीं है। वेदों में जो भी इतिहास दिखते हैं वे सृष्टि के बनने का इतिहास है वा सृष्टि विद्या को आलंकारिक रूप से समझाया गया है। हम आशा करते हैं कि इस लेख को पढ़ने वाले पाठकगण सत्य से अवगत हुए होंगे और उन्हें कुछ नई जानकारी मिली होगी। आइए हमारी पूर्व में क्या मान्यता थी इसे छोड़ कर निष्पक्ष होकर सत्य को स्वीकार करें, परमात्मा हम सभी को सद्बुद्धि दें इसी कामना के साथ....
।।ओ३म् शम्।।



संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
  • मीमांसा शाबर भाष्यम् (व्याख्याकार - पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक)
  • ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (महर्षि दयानन्द जी सरस्वती)
  • अष्टाध्यायी भाष्य (महर्षि दयानंद जी सरस्वती)
  • वैशेषिक दर्शन (उदयवीर जी शास्त्री)
  • मनुस्मृति
  • ब्रह्मसूत्र
  • शतपथ ब्राह्मण
  • गोपथ ब्राह्मण
  • ऐतरेय ब्राह्मण
  • न्याय दर्शन वात्स्यायन भाष्य सहित (व्याख्याकार - ढुण्ढिराज जी शास्त्री)
  • योग दर्शन व्यास भाष्य व भोज वृत्ति सहित (आचार्य सतीश जी)
  • भूमिका भास्कर (स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती)
  • आचार्य वररुचि प्रणीत निरुक्त समुच्चय (संपादक - पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक)
  • निरुक्त आचार्य दुर्ग की टीका
  • स्कंद स्वामी कृत निरुक्त भाष्य टीका
  • निघंटु (महर्षि दयानन्द जी द्वारा प्रकाशित)
  • The Nighantu And The Nirukta (लक्ष्मण स्वरूप एम. ए.)
  • निरुक्तशास्त्रम् (व्याख्याकार - पंडित भगवद्दत्त जी)
  • शिव स्वरोदय
  • निरुक्त भाष्य (प्रो० चन्द्रमणि जी विद्यालङ्कार)

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