लेखक - यशपाल आर्य
हमें विदित हुआ कि विकास दिव्यकीर्ति ने भगवान राम के ऊपर आक्षेप लगाया। वे भागवान् राम पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि उन्होंने माता सीता के लिए बोला कि हे सीता! मेरे लिए तुम वैसी ही त्याज्य हो, जैसे कुत्ते के द्वारा चाट लेने पर हविष्य का उपयोग नहीं किया जाता। इसके साथ ही संबूक वध पर भी आक्षेप लगाया है। सत्य के निर्णयार्थ हम इस विषय पर संक्षिप्त समीक्षा करेंगे। यहां जो कुत्ते के द्वारा चाटे गए हविष्य से तुलना की गई है, इसे प्रसंग को देख कर ही इस श्लोक का वास्तविक अर्थ समझ में आएगा। हम सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण से ही देखते हैं, तत्पश्चात् महाभारत से भी देखेंगे। जब भगवान् श्रीराम रावण का वध कर देते हैं तो देवी सीता जी उनके समक्ष आती हैं तो वे परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें कहते हैं, देखें युद्ध कांड सर्ग 115-
जब सीता जी ने ऐसा कठोर वचन सुना तो देवी सीता जी उत्तर देती हैं, देखें युद्ध कांड सर्ग 116-
जैसे ही देवी सीता अग्नि में कूदने वाली होती हैं उन्हें भगवान् श्रीराम रोक लेते हैं और कहते हैं, देखें युद्ध कांड सर्ग 118-
यहां श्लोक 13 के भाव में जो भगवन् शब्द है वह श्लोक में नहीं है, अर्थ में जोड़ा गया है।
यहां आप देख सकते हैं कि भगवान् राम घोषणा करते हैं कि विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा।
आगे भगवान् श्रीराम कहते हैं -
न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा।।२०।।
अर्थात् भगवान् राम कहते हैं कि मैं देवी सीता को उसी तरह नहीं त्याग सकता जैसे कोई मनस्वी पुरुष अपनी कीर्ति को।
अर्थात् भगवान् श्रीराम भी माता सीता से इतना प्रेम करते थे
यहां माता सीता पवित्र हैं, पतिव्रता है इस बात को प्रमाणित करने के लिए ही भगवान् श्रीराम ने सीता जी को ऐसे कठोर वचन कहा। ताकि सबको ज्ञात हो जाए कि सीता जी पवित्र हैं। अपना उद्देश्य भगवान् राम सर्ग 118 में सबके सामने रख देते हैं, जहां उन्होंने स्पष्ट रूप से बोला है कि मैं परीक्षा ले रहा था। परीक्षा लेनी अत्यन्त आवश्यक थी क्योंकि रावण ने देवी सीता का हरण किया था, लोगों के मन में यह संदेह न रहे वा भविष्य न उत्पन्न हो जाए कि सीता जी अपवित्र हैं, रावण के कैद में रहने से वे रावण रावण से प्रेम करने लगी थीं आदि। देवी सीता पर भविष्य में लग सकने वाले इन आक्षेपों के निवारणार्थ भगवान् श्रीराम ने सीता जी को ऐसा कहा। ताकि लोगों को विदित हो सके कि मेरे द्वारा परित्याग करने पर भी वह शरीर त्याग देंगी किंतु किसी पर पुरुष के पास जाने के विषय स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं। इससे हमें यह भी ज्ञात होता है कि पेरियार ने माता सीता पर जो आक्षेप लगाया है कि वह रावण से प्रेम करती थीं वह भी खंडित होता है।
यहां बीच में जो देवों द्वारा राम जी की स्तुति का प्रसंग, सीता जी का अग्नि में कूद जाना फिर अग्नि देव का उन्हें गोंद में उठा कर लाना इत्यादि मिलावट हैं।
अब हम विकास दिव्यकीर्ति के द्वारा लगाए गए आक्षेप को देखते हैं-
सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा।।
(महाभारत वनपर्व अध्याय 291 श्लोक 13 गीता प्रेस)
यह श्लोक हमें bori से प्रकाशित महाभारत में वनपर्व अध्याय 275 श्लोक 13 में प्राप्त होता है।
इसपर वे कहते हैं कि श्रीराम की दृष्टि में माता सीता का भगवान् श्रीराम के लिए उतना ही महत्व है जितना यज्ञ हेतु कुत्ते के झूठे हविष्य का। अब इसकी समीक्षा करते हैं -
यहां भी रामायण का उपरोक्त प्रसंग है। इसी प्रकार अन्य वचन का प्रयोग महाभारत वनपर्व अध्याय 269 के श्लोक 21 (गीता प्रेस) में किया गया है-
या वे पुरोडाशमिवाध्वर स्थम्
अब दोनों को देखें तो इनका प्रयोग एक मुहावरे के तौर पर किया गया है। इसका प्रयोग उस स्थान पर किया जाता है जहां कोई अयोग्य व्यक्ति किसी श्रेष्ठ स्त्री का हरण कर के उसपर बलपूर्वक अत्याचार करे।
अब हम विकास दिव्यकीर्ति से पूछना चाहते हैं जरा बताइए आज एक प्रचलित मुहावरा है “नाक में नकेल डालना” अब इसका किसी ने प्रयोग कर दिया तो क्या आप यह समझ लेंगे कि वास्तव में किसी के नाम में नकेल डाल दी गई या या ऐसा अर्थ करेंगे कि अपने वश में करना?
जैसे कोई बोल दे कि सिर पर पैर रख कर भागना तो क्या आप यह अर्थ लेंगे कि वह सिर पर पैर रख कर भागने लगा या ऐसा अर्थ करेंगे कि वह व्यक्ति तुरंत भाग गया?
कोई बोल दे कि पेट में चूहे कूद रहे हैं तो क्या आप उसे चूहे मारने की दवा दे देंगे और बोलेंगे कि इसे खा लो चूहे मर जाएंगे या उसे भोजन खिलाएंगे?
कोई बोल दे कि इस व्यक्ति के आंख पर चर्बी चढ़ गई है तो क्या आप उसे डॉक्टर के पास लेकर जायेंगे चर्बी हटवाने या यह अर्थ समझेंगे कि वह व्यक्ति अहंकार के कारण ध्यान नहीं दे रहा है?
इस प्रकार के अनेक मुहावरे आज समाज में प्रचलित हैं क्या उनका शब्दशः अर्थ करेंगे?
क्या माता सीता भगवान् श्रीराम के लिए महत्वहीन थीं, अब इसपर विचार करते हैं-
भगवान् श्रीराम देवी सीता से कहते हैं-
न देवि बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये।।२७।।
अर्थात् देवि ! तुम्हें दुःख देकर मुझे स्वर्गका सुख मिलता हो तो मैं उसे भी लेना नहीं चाहूँगा।
यत् सृष्टासि मया सार्धं वनवासाय मैथिलि।
न विधातुं मया शक्या प्रीतिरात्मवता यथा॥२९॥
(अयो. का. स. ३०)
अर्थात् मिथिलेशकुमारी! जब तुम मेरे साथ वन में रहने के लिये ही उत्पन्न हुई हो तो मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, ठीक उसी तरह जैसे आत्मज्ञानी पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता का त्याग नहीं करते।
विकास दिव्यकीर्ति कहते हैं कि हम तुलसी दास जी को बचाने के लिए ऐसा बोले थे कि तुलसी दास जी इन सबको अपने रामचरित मानस में नहीं लिखा।
समीक्षा - वाह! आपका कार्य वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी सामान्य व्यक्ति को बचाने के लिए विद्वानों के खंडन में धोखाधड़ी का प्रयोग करे। आपने भी महाभारत के वचन को तोड़ मरोड़ कर अपनी स्वार्थ सिद्धि किया है।
देखिए तुलसी दास जी स्वयं के विषय में लिखते हैं-
जब तुलसीदास जी स्वयं लिखते हैं कि वे विद्वान् नहीं हैं तो उन्हें बचाने के लिए महाभारत जैसे ऋषिकृत ग्रंथ को वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ निकाल कर खंडन करना कहां तक उचित है?
यद्यपि गोस्वामी जी ने उस काल में भगवान् श्रीराम की कथा को घर घर पहुंचा कर बहुत महान कार्य किया, लेकिन उनकी एक ऋषि से तुलना नहीं हो सकती।
भगवान् श्रीराम सीता जी की अग्नि परीक्षा के समय कहते हैं कि मैं देवी सीता को उसी तरह नहीं त्याग सकता जैसे कोई मनस्वी व्यक्ति अपनी कीर्ति नहीं त्याग सकता। और भगवान् श्रीराम के विषय में यह प्रसिद्ध है कि -
“रामो द्विर्नाभिभाषते” (गीता प्रेस अयोध्याकांड सर्ग 18, श्लोक 30) तथा पश्चिमोत्तर पाठ में यहां “रामो ऽसत्यं न भाषते” पाठ है।
तो जहां भगवान् श्रीराम एक ओर देवी सीता को कभी न छोड़ने वाली बात कहते हैं तो दूसरी ओर उन्हें कैसे निकाल सकते हैं? कोई भी न्यायाधीश केवल सुनी सुनाई बातों के आधार पर फैसला नहीं देता तो राम जी जैसे महापुरुष जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम का विशेषण दिया जाता है वे ऐसा कार्य कैसे कर सकते हैं? इसके अतिरिक्त हमने आगे संबूक वध में उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने का हेतु दिया है उसे भी यहां समझ लेवें।
विकास दिव्यकीर्ति ने संबूक वध को भी प्रमाणिक मान कर उसके आधार पर भगवान् श्रीराम को शूद्र विरोधी बताया। अब इसकी भी समीक्षा कर लेते हैं।
बालकांड प्रथम सर्ग में देवर्षि नारद जी महर्षि वाल्मीकि को रामकथा सुनाते हैं वहां कहीं भी संबूक वध प्रसंग नहीं आता, संबूक वध तो क्या पूरा उत्तरकांड नहीं है उसमें।
और आगे जब महर्षि ब्रह्मा वाल्मीकि जी के आश्रम पर आते हैं तो वे कहते हैं -
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः॥३२॥
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम्।
(वाल्मीकि रामायण सर्ग 2 गीता प्रेस)
अब बताइए महोदय, नारद जी ने बालकांड प्रथम सर्ग में संबूक वध कहां बताया? क्या आप श्लोक दे सकते हैं? जब वाल्मीकि जी को नारद जी ने युद्ध कांड तक ही सुनाया और ब्रह्मा जी ने कहा कि जैसा नारद जी ने सुनाया वैसा ही वर्णन किया तो उत्तर कांड कहां से प्रमाणिक हो सकता है? क्योंकि नारद जी ने उत्तराकाण्ड के विषय में तो सुनाया ही नहीं तो वाल्मीकि जी लिखेंगे कहां से? अर्थात् बाद की कृति है स्पष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि युद्धकांड के अंत में फलश्रुति दे देते हैं और वहीं समाप्त कर देते हैं तो किसने कब लिख दिया? उत्तर कांड के अंत में भी एक फलश्रुति है। फलश्रुति ग्रंथ के अंत में होती हैं और नारद जी सुनाए अनुसार उन्होंने युद्ध कांड तक ही लिखा अर्थात् स्पष्ट है कि युद्ध कांड की फलश्रुति के साथ ही ग्रंथ समाप्त हो जाता है, उत्तरकांड को बाद में किसी ने जोड़ दिया।
महाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यान पर्व है, यहां महर्षि मार्कण्डेय जी युधिष्ठिर जी को रामकथा सुनाते हैं और वे भी युद्धकांड में ही समाप्त कर देते हैं, यानि यह कथा महाभारत के बाद में प्रक्षिप्त हुई है।
युद्धकांड सर्ग 128 में लिखा है-
न पर्यदेवन् विधवा (श्लोक 98)
अर्थात् भगवान् राम के राज्य में विधवाओं का विलाप नहीं सुनाई पड़ता था अर्थात् स्त्रियां विधवा नहीं होती थीं।
आगे श्लोक 101 में कहा है-
आसन् वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः।
अब कुछ लोग सहस्र का अर्थ यहां हजार से लेंगे। किंतु मनुष्य की आयु हजार वर्ष तथा सहस्र पुत्र संभव नहीं है अतः यहां सहस्र का अर्थ भिन्न है, शतपथ ब्राह्मण में सहस्र का अर्थ इस प्रकार है -
सर्वं वै सहस्रं। (श० ६.४.२.७)
परमं सहस्रं। (तां० १६.९.२)
अर्थात् सब लोग पूर्ण आयु और अनेक पुत्रों वाले होते थे। जब सब लोग अपनी पूर्ण आयु तक जीते थे तो किसी ब्राह्मण के पुत्र की अल्पायु में ही मृत्यु कैसे हो सकती है? अर्थात् यहां से भी संबूक वध मिथ्या सिद्ध होता है।
शूद्र तपस्या कर सकता है वा नहीं
अब हम विचार करते हैं कि शूद्र तपस्या कर सकता है वा नहीं?
कठोपनिषद में कहा है
अब विचार करते हैं कि क्या शूद्र वेदों का ज्ञान नहीं ले सकता? इसको जानने के लिए हम वेद से ही जानते हैं-
यथेमाँवाचङ्कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याँ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय। प्रियो देवानान्दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयम्मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥
(यजुर्वेद २६.२)
अन्वयः - हे मनुष्या यथाऽहमीश्वरो ब्रह्मराजन्याभ्यामर्याय शूद्राय च स्वाय चारणाय च जनेभ्य इहेमां कल्याणीं वाचमावदानि तथा भवन्तोऽप्यावदन्तु। यथाऽहं दातुर्देवानां दक्षिणायै प्रियो भूयासं मेऽयं कामः समृध्यतां माऽद उपनमतु तथा भवन्तोऽपि भवन्तु तद्भवतामप्यस्तु॥
पदार्थः - (यथा) येन प्रकारेण (इमाम्) प्रत्यक्षीकृताम् (वाचम्) वेदचतुष्टयीं वाणीम् (कल्याणीम्) कल्याणनिमित्ताम् (आवदानि) समन्तादुपदिशेयम् (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्म ब्राह्मणश्च राजन्यः क्षत्रियश्च ताभ्याम् (शूद्राय) चतुर्थवर्णाय (च) (अर्याय) वैश्याय। अर्यः स्वामिवैश्ययोः [अ॰३.१.१०३] इति पाणिनिसूत्रम् (च) (स्वाय) स्वकीयाय (च) (अरणाय) सल्लक्षणाय प्राप्तायान्त्यजाय (प्रियः) कमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षिणायै) दानाय (दातुः) दानकर्त्तुः (इह) अस्मिन् संसारे (भूयासम्) (अयम्) (मे) मम (कामः) (सम्) (ऋध्यताम्) वर्द्धताम् (उप) (मा) माम् (अदः) परोक्षसुखम् (नमतु) प्राप्नोतु॥
भावार्थः - अत्रोपमालङ्कारः। परमात्मा सर्वान् मनुष्यान् प्रतीदमुपदिशतीयं वेदचतुष्टयी वाक् सर्वमनुष्याणां हिताय मयोपदिष्टा नाऽत्र कस्याप्यनधिकारोऽस्तीति। यथाऽहं पक्षपातं विहाय सर्वेषु मनुष्येषु वर्त्तमानः सन् प्रियोऽस्मि तथा भवन्तोऽपि भवन्तु। एवङ्कृते युष्माकं सर्वे कामाः सिद्धा भविष्यन्तीति॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देने वाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। जैसे मैं (दातुः) दान देने वाले के संसर्गी (देवानाम्) विद्वानों की (दक्षिणायै) दक्षिणा अर्थात् दान आदि के लिये (प्रियः) मनोहर पियारा (भूयासम्) होऊं और (मे) मेरी (अयम्) यह (कामः) कामना (समृध्यताम्) उत्तमता से बढ़े तथा (मा) मुझे (अदः) वह परोक्षसुख (उप, नमतु) प्राप्त हो, वैसे आप लोग भी होवें और वह कामना तथा सुख आप को भी प्राप्त होवे॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ। ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होंगे॥
(संस्कृत भाष्य महर्षि दयानन्द जी कृत, भाषानुवाद पंडितों द्वारा)
कौन से कर्म धर्म हैं, इसके लिए महर्षि जैमिनी ने कहा है
चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः। (मी. १.१.२)
अर्थात् जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेद विरुद्ध हो वह अधर्म कहाता है।
हमने यजुर्वेद से प्रमाण दिया कि शूद्र को भी वेद का उपदेश करना चाहिए और मीमांसा में कहा कि जो वेद की आज्ञा है उसके अनुसार चलना धर्म है। और कठोपनिषद में धर्म के अनुसार चलना ही तपस्या है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि शूद्र को तपस्या का अधिकार नहीं?
यजुर्वेद ३०.५ में कहा है-
तप॑से॒ शू॒द्रं
जिस भगवान् श्रीराम को देवर्षि नारद ने वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञः और रक्षिता जीवलोकस्य (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड प्रथम सर्ग) जैसे वचन कहा है क्या वे वेदों के विरुद्ध जा सकते हैं? क्या सब जीवों की रक्षा करने वाले अकारण किसी तपस्वी का वध कर सकते हैं?
भीष्म पितामह महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान् शिव का यह उपदेश कहते हैं-
भगवान् शिव की दृष्टि में धर्म
महाभारत का अन्य प्रमाण देखें, महर्षि वैशंपायन जी कहते हैं-
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः।
दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गे यान्ति भारत।।
(महाभारतआश्वमेधिक पर्व अध्याय ९१ श्लोक ३७)
अर्थात् भरतनन्दन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो भी तप का आश्रय लेते हैं वे दानधर्म रूपी अग्नि से तप कर सुवर्ण के समान शुद्ध हो स्वर्ग को चले जाते हैं।
अब कौन बोल सकता है कि सनातन धर्म में शूद्र को तप करने का अधिकार नहीं है?
इसी के साथ विषय का अंत होता है। ईश्वर इन्हें सत्य को ग्रहण करने तथा असत्य को त्यागने का सामर्थ्य दें, इसी भावना के साथ...
।।ओ३म् शम्।।
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