क्या गृध्रराज जटायु पक्षी थे?
लेखक - यशपाल आर्य
आज लोगों ने स्वाध्याय और तर्क करना छोड़ दिया और सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेते हैं, जिसके कारण लोग अनेक मिथ्या बातों को सत्य मान लेते हैं। ऐसी ही एक मिथ्या धारणा है कि जटायु जी पक्षी (bird) थे। अतः सत्य के निर्णयार्थ इस विषय पर लिखना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत हुआ।
जब भगवान् राम महर्षि अगस्त्य से किसी अपने निवास के लिए किसी वन के विषय में पूछते हैं तो वे उन्हें पंचवटी का पता बताते हैं, मार्ग में उनकी भेंट जटायु से होती है-
अथ पञ्चवटीं गच्छन्नन्तरा रघुनन्दनः।आससाद् महाकायं गृध्रं भीमपराक्रमं।।१।।
अर्थात् पञ्चवटी की ओर जाते हुए भगवान् राम ने मार्ग में महापराक्रमी विशालकाय गृध्रराज अर्थात् गृध्रकूट के भूतपूर्व राजा जटायु को देखा।
तं दृष्ट्वा तौ महाभागौ वनस्थं रामलक्ष्मणौ।मेनाते राक्षसं पक्षिं ब्रुवाणौ को भवानिति।।२।।
उनको वनस्थी अर्थात् वानप्रस्थ आश्रम में स्थित पक्षी = विद्वान् को देखकर महाभाग श्रीराम और लक्ष्मण ने उन्हें कोई राक्षस समझा और पूछा - “आप कौन हैं?”
राक्षस भी मनुष्य ही होते थे और वे दुष्टाचरण के कारण राक्षस कहे जाते थे। यद्यपि भयंकर जीवों को भी राक्षस कहा जाता है क्योंकि हमें उनसे अपने प्राणों की रक्षा करनी पड़ती है। अल्पबुद्धि व्यक्ति भी पक्षी को राक्षस समझने की भूल नहीं करेगा, तो भगवान् श्रीराम जैसा महाबुद्धिमान् महापुरुष यह भूल कैसे कर सकता है? अर्थात् यहां स्पष्ट संकेत मिलता है कि जटायु जी की शरीराकृति मानवों जैसी ही थी।
महर्षि तण्डी लिखते हैं -
यो वै विद्वाँसस्ते पक्षिणो, येविद्वाँसस्तेऽपक्षाः।। (ता. ब्रा. १४.१.१३)
यहां विद्वान् को पक्षी कहा है, और अविद्वान् को पक्षरहित। हमारे अनुसार विद्वान् जन विद्या रूपी पक्ष (पंख) की सहायता से संसार के हर पदार्थों में गमन कर सकते हैं जबकि अविद्वान् के पास विद्या रूपी पक्ष का अभाव होने से वह ऐसा नहीं कर सकता इसीलिए विद्वान् और अविद्वान् को क्रमशः पक्षी और पक्षरहित कहा है। इसी बात को आचार्य वररुचि ने दूसरे शब्दों में कहा है-
'पश्यदक्षण्वान् न विचेतदन्धः' इति वचनात् निगमनिरुक्तव्याकरणादिविद्यारुपेण चक्षुषा यः पश्यति, स एव पश्यतीत्युच्यते। स एव हि संसारबन्धनान् मुच्यते, नान्य इति।
(निरुक्त समुच्चय १/३)
जैसे यहां विद्या रूपी नेत्र से देखने को ही देखना कहा है वैसे ही ताण्ड्य ब्राह्मण में विद्या रूपी पक्ष से गमन करना माना गया है।
ततो मधुरया वाचा सौम्यया प्रीणयन्निव।उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मनः॥३॥
तब उन्होंने बड़ी मधुर और सौम्य वाणीमें उन्हें प्रसन्न करते हुए-से कहा- ‘बेटा ! मुझे अपने पिताका मित्र समझो’।
यहां भगवान् वाल्मीकि लिखते हैं कि जटायु जी ने भगवान् राम को मधुर व सौम्य वाणी में उत्तर दिया। क्या किसी पक्षी के लिए ऐसा कहा जा सकता है? वर्णोच्चारण शिक्षा में हर शब्द के उच्चारण के विषय में बताया कि उच्चारण में कौन सा अंग किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए। गृध्र पक्षी में जीभ इत्यादि का अभाव होने से तथा उनके मुखादि अवयवों के अनुरूप वर्णोच्चारण न होने से वे शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते, अतः उनके उच्चारण को मधुर व सौम्य उच्चारण नहीं कहा जा सकता। किंतु यहां मधुर व सौम्य उच्चारण इस बात को निश्चित करता है कि जटायु जी कोई पक्षी नहीं बल्कि मनुष्य थे।
स तं पितृसखं मत्वा पूजयामास राघवः।स तस्य कुलमव्यग्रमथ पप्रच्छ नाम च॥४॥
भगवान् श्रीराम ने उन्हें अपने पिता का मित्र जानकर उनका सत्कार किया। फिर उनसे उनका कुल व नाम पूछा।
यहां अगले श्लोक में भगवान् श्री राम ने जटायु जी से उनके कुल के नाम के विषय में पूछते हैं तो वे जीवों की उत्पत्ति बताने लगते हैं, जो निश्चय ही प्रश्न के विरुद्ध और सृष्टि के विरुद्ध होने से अप्रमाणिक एवं प्रक्षिप्त है। यह श्लोक इस प्रकार से है-
रामस्य वचनं श्रुत्वा कुलमात्मानमेव च।आचचक्षे द्विजस्तस्मै सर्वभूतसमुद्भवम्॥५॥
श्रीरामका यह प्रश्न सुनकर उस पक्षीने उन्हें अपने कुल और नामका परिचय देते हुए समस्त प्राणियों की उत्पत्तिका क्रम ही बताना आरम्भ किया।
पूर्वार्द्ध में कहा है कि जटायु ने अपने कुल का परिचय दिया, पक्षियों में कुल नहीं होता। श्लोक का उत्तरार्द्ध मिलावट है क्योंकि ऐसा न मानने पर प्रसंग भंग होता है, जब श्रीराम ने उनके विषय में पूछा तो सभी प्राणियों की उत्पत्ति बताना व्यर्थ है। इसलिए यहां पश्चिमोत्तर संस्करण का श्लोक देते हैं, वहां यह श्लोक मूल पाठ रूप में विद्यमान है-
आचचक्षे द्विजश्रेष्ठो यथावत् परिपृच्छतः॥५॥
अर्थात् द्विजश्रेष्ठ जटायु ने पूछे गए प्रश्नों का यथावत् उत्तर दिया।
यहां जटायु जी को द्विजश्रेष्ठ विशेषण दिया गया है।
पूर्वपक्षी - पक्षी को भी द्विज कहा जाता है क्योंकि चिड़िया अंडा देती है वह प्रथम जन्म और अंडे से बच्चे का निकलना द्वितीय जन्म।
सिद्धांती - हां पक्षी को द्विज कहा जा सकता है। किंतु प्रकरण देख कर ही अर्थ निकाला जाता है। यहां जटायु जी को द्विज श्रेष्ठ कहा है। गृध्र पक्षी को मृत पशुओं का मांस खाने से निकृष्ट माना जाता है, श्रेष्ठ नहीं। अतः गृध्र श्रेष्ठ से जटायु जी मनुष्य सिद्ध होते हैं पक्षी नहीं।
आगे वे कहते हैं -
जटायुरिति मां विद्धि श्येनीपुत्रमरिंदम॥३३॥
अर्थात् मुझे जटायु नाम से जानें, मैं श्येनी का पुत्र हूं।
सोऽहं वाससहायस्ते भविष्यामि यदीच्छसि।इदं दुर्गे हि कान्तारं मृगराक्षससेवितम्।सीतां च तात रक्षिष्ये त्वयि याते सलक्ष्मणे॥३४॥
तात! यदि आप चाहें तो मैं यहाँ आपके निवास में सहायक होऊँगा। यह दुर्गम वन शेरों तथा राक्षसोंसे सेवित है अर्थात् ये सब यहां निवास करते हैं। लक्ष्मणसहित आप यदि अपनी पर्णशालासे कभी बाहर चले जायें तो उस अवसरपर मैं देवी सीताकी रक्षा करूँगा'।
जटायुषं तु प्रतिपूज्य राघवो मुदा परिष्वज्य च संनतोऽभवत्।पितुर्हि शुश्राव सखित्वमात्मवाञ्जटायुषा संकथितं पुनः पुनः॥३५॥
यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने जटायुका बड़ा सम्मान किया और प्रसन्नतापूर्वक उनके गले लगकर वे उनके सामने नत मस्तक हो गये । फिर पिताके साथ जिस प्रकार उनकी मित्रता हुई थी, वह प्रसङ्ग मनस्वी श्रीरामने जटायुके मुखसे बारंबार सुना।
स तत्र सीतां परिदाय मैथिलीं सहैव तेनातिबलेन पक्षिणा।जगाम तां पञ्चवटीं सलक्ष्मणो रिपून् दिधक्षञ्शलभानिवानलः॥३६॥
तत्पश्चात् वे मिथिलेशकुमारी सीता को जटायु संरक्षण में सौंपकर लक्ष्मण और उन अत्यन्त बलशाली अपने पक्षधर जटायुके साथ ही पञ्चवटी की ओर ही चल दिये। श्रीरामचन्द्रजी मुनि द्रोही राक्षसों को शत्रु समझकर उन्हें उसी प्रकार दग्ध कर डालना चाहते थे, जैसे आग पतिङ्गोंको जलाकर भस्म कर देती है।
[अरण्य काण्ड सर्ग १४, गीता प्रेस]
अब पश्चिमोत्तर संस्करण से देखें-
अरण्यकाण्ड सर्ग १९
अब यहां त्रिलोचन शब्द का प्रयोग हुआ है, इसपर संक्षिप्त विचार करते हैं-
लोचन शब्द का अर्थ आंख और देखना दोनों होते हैं। हर व्यक्ति को ही ही नेत्र होते हैं। गर्भावस्था में विकार होने से शिशु के शरीर में में सामान्य से न्यून वा अधिक अंग हो जाते हैं, किंतु महादेव शिव जी के विषय में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः त्रिलोचन का सीधा अर्थ तीन आंखों वाला नहीं हो सकता किन्तु “त्रयोवेदाः यस्य लोचने सः त्रिलोचनः” ऐसा समझना चाहिए। अर्थात् जो वेद त्रयी (शैली की दृष्टि से) का ऋषि बनकर दर्शन [ऋषिर्दर्शनात् (निरुक्त २.११)] करने वाला हो अर्थात् उनके यथार्थ अर्थों को ईश्वर की कृपा से जानने वाला हो वह त्रिलोचन कहलाता है।
अब बंगाल संस्करण से देखें-
अरण्यकाण्ड सर्ग २०
अब critical edition में देखें-
अरण्यकाण्ड सर्ग १३
ऊपर जो गीता प्रेस सर्ग १४ श्लोक ५ के लिए लिखा था वही यहां भी समझ लेवें।
इसी प्रकार जब भगवान् श्रीराम मायावी मारीच का वध करने के लिए जाते हैं तो लक्ष्मण जी से कहते हैं-
प्रदक्षिणेनातिबलेन पक्षिणा जटायुषा बुद्धिमता च लक्ष्मण।भवाप्रमत्तः प्रतिगृह्य मैथिलीं प्रतिक्षणं सर्वत एव शङ्कितः॥
(वा. रा. अर. का. स.४३, श्लो.५१ गीता प्रेस)
अर्थात् लक्ष्मण! अपने विद्वान्, बुद्धिमान् जटायु बड़े ही बलवान और समर्थ्यशाली हैं। उनके साथ ही यहां सदा सावधान रहना। मिथलेश कुमारी सीता को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों से सावधान रहना।
अब इसे पश्चिमोत्तर पाठ से देखें
अब critical edition से देखें
सर्ग ४१
अब जरा विचार करिए क्या भगवान् श्रीराम ऐसी स्थिति में राक्षसों से सावधान रहने के लिए अपने भाई को किसी पक्षी के साथ रहकर भगवती सीता जी का ध्यान रखने को कहेंगे? कदापि नहीं। किन्तु अत्यधिक बलवान और समर्थ्यशाली लक्षण गृध्र जैसे पक्षी में नहीं घट सकते, किंतु मनुष्य में ही हो सकते हैं।
जब रावण माता सीता का हरण कर के ले जा रहा होता है तो माता सीता जटायु को देखते ही कहती हैं-
जटायो पश्य मामार्य हियमाणामनाथवत् ।
अनेन राक्षसेन्द्रेणाकरुणं पापकर्मणा ॥ ३८ ॥
(अरण्यकांड सर्ग 49 गीता प्रेस)
अर्थात् आर्य जटायु! देखिये, यह पापाचारी राक्षसराज अनाथकी भाँति मुझे निर्दयतापूर्वक हरकर लिये जा रहा है।
यहां माता सीता जी ने जटायु को आर्य कहा है। आर्य शब्द श्रेष्ठ मनुष्यों के लिए प्रयुक्त होता है न कि पक्षियों के लिए।
जब जटायु जी सीता जी का वचन सुनते हैं तो-
तं शब्दमवसुप्तस्तु जटायुरथ शुश्रुवे।
निरैक्षद् रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च ददर्श सः॥१॥
ततः पर्वतशृङ्गाभस्तीक्ष्णतुण्डः खगोत्तमः।
वनस्पतिगतः श्रीमान् व्याजहार शुभां गिरम्॥२॥
जटायु उस समय सो रहे थे । उसी अवस्था में उन्होंने सीताकी वह करुण पुकार सुनी। सुनते ही तुरंत आँख खोलकर उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता तथा रावणको देखा।
तब वनस्पतियों के बीच में बैठे हुए पर्वतशृंग के तुल्य बड़े डील डौल वाले, रोबीले मुख वाले, आकाश में गमन करने वालों में उत्तम, श्रीमान् जटायु ने मधुर शब्दों में कहा।
अब यहां दूसरे श्लोक में आए तुंड व खग शब्द पर विचार करते हैं। कुछ लोग ये आक्षेप करेंगे कि तुंड का अर्थ तो चोंच होता है मुंह नहीं। आज शिक्षा के क्षेत्र में आप्टे का बहुत अधिक प्रमाण होता है, इसीलिए हम सबसे पहले वहीं से प्रमाण देते हैं कि तुंड का अर्थ मुख भी होता है
अब हम शंकराचार्य जी का प्रमाण देते हैं। भज गोविन्दम् स्तोत्र में वे लिखते हैं-यहां शंकराचार्य जी ने मुंह के लिए तुंड का प्रयोग किया है।
अतः यहां रोबीले मुख का अर्थ करना उचित है, द्विज व आर्य विशेषण के अनुकूल होने से यही ग्राह्य है न कि चोंच। इसी प्रकार खग शब्द से भी जटायु जी पक्षी सिद्ध नहीं होते। ख शब्द आकाश के लिए प्रयुक्त होता है और ग गमन हेतु प्रयोग किया जाता है अतः हमारा अर्थ उचित है।
आगे जटायु जी रावण को समझाते हैं। इस प्रसंग को आप वाल्मीकि रामायण में पढ़ सकते हैं।
वे रावण को अपना परिचय देते हुए कहते हैं-
जटायुर्नाम नाम्नाहं गृध्रराजो महाबलः।।४।।
अर्थात् मेरा नाम जटायु है और मैं बलवान गृध्रकूट का राजा हूं।
इसी प्रसंग में जटायु जी कहते हैं-
न शतस्त्वं बलाद्ध वैदेहीं मम पश्यतः।
हेतुभिययसंयुक्तर्भुवां वेदश्रुतीमिव॥२२॥
(अर. का. स. ५० गीता प्रेस)
मेरे देखते-देखते तुम विदेहनन्दिनी सीताका बलपूर्वक अपहरण नहीं कर सकते; ठीक उसी तरह जैसे अटल वेद की श्रुतियों का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।
क्या कोई पक्षी “हेतुभिययसंयुक्तर्भुवां वेदश्रुतीमिव” जैसा वचन बोल सकता है? कभी नहीं क्योंकि पक्षी वेद ज्ञान पर विचार ही नहीं कर सकता, उसे इतनी बुद्धि नहीं है। अतः जटायु जी को जो द्विज शब्द से संबोधित किया गया था वह उन्हें आर्य मनुष्य सिद्ध करता है न कि पक्षी।
पूर्वपक्ष - द्विज शब्द पक्षियों के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है, तो आपने मनमानी करते हुए आर्य मनुष्य कैसे ले लिया?
सिद्धान्ती - यहां ऐसी शंका करना निर्मूल है, क्योंकि रामायण में जटायु को आर्य शब्द से संबोधित भी किया गया है अतः आर्य और द्विज दोनों की तुलना करें तो जटायु मनुष्य ही हो सकते हैं, पक्षी नहीं।
पश्चिमोत्तर संस्करण से देखें
अरण्य काण्ड सर्ग ५५
अब बंगाल संस्करण से देखें -
अरण्य काण्ड सर्ग 56
बंगाल संस्करण के इस सर्ग के 31वें श्लोक का पश्चिमोत्तर पाठ से तुलना करने से विदित होता है कि यहां शूद्र शब्द मूढ़ के लिए प्रयुक्त हुआ है।अब इसको critical edition से देखें
अरण्य काण्ड सर्ग 48
पूर्वपक्ष - रावण ने युद्ध में जटायु के पंख काट दिया था, अगर वे पक्षी न होते तो पंख कहां से आया?
सिद्धांती - हमने ऊपर अनेक हेतु व प्रमाण दिया है, जिससे जटायु मनुष्य सिद्ध होते हैं पक्षी नहीं, अतः इन दो श्लोकों का सही अर्थ बताना आवश्यक समझते हैं, जिससे जटायु के पंख की कल्पना कर ली गई-
तस्य व्यायच्छमानस्य रामस्यार्थे स रावणः।
पक्षौ पादौ च पार्श्वे च खङ्गमुद्धृत्य सोऽच्छिनत्॥४२॥
स च्छिन्नपक्षः सहसा रक्षसा रौद्रकर्मणा।
निपपात महागृध्रो घरण्यामल्पजीवितः॥४३॥
(अर. का. स. ५१)
अन्त में श्रीराम के लिए युद्ध करनेवाले जटायु के दोनों हाथों, पसलियों वाले भाग और पैरों को रावण ने तलवार के वार से काट दिया। भयानक कर्म करनेवाले रावण द्वारा हाथों और पैरों के कट जाने पर जटायु मरणासन्न होकर पृथिवी पर गिर पड़े।
पश्चिमोत्तर संस्करण में देखें
अरण्यकाण्ड सर्ग ५७
बंगाल संस्करण में देखें
अरण्यकाण्ड सर्ग ५७
Critical edition से देखें
अरण्यकाण्ड सर्ग ४९
जब भगवान् श्रीराम देवी सीता को खोजते हुए आते हैं तो पूछने पर जटायु पूरा घटनाक्रम बताते हैं और प्राण त्याग देते हैं। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम दुखी होकर उनके गुणों का वर्णन करते हैं। उसमें से भगवान् श्रीराम के कुछ शब्द उद्धृत करते हैं-
गृध्रराज्यं परित्यज्य पितृपैतामहं महत्।
मम हेतोरयं प्राणान् मुमोच पतगेश्वरः॥२३॥
(अरण्य काण्ड सर्ग ६८, गीता प्रेस)
पिता-पितामह द्वारा प्राप्त हुए गृध्रकूट के विशाल राज्यका त्याग करके इन पतगेश्वर अर्थात् [आकाशादि में] गमन करने में श्रेष्ठ ने मेरे ही लिये अपने प्राणोंकी आहुति दी है।
सीताहरणजं दुःखं न मे सौम्य तथागतम्।
यथा विनाशो गृधस्य मत्कृते च परंतप॥२५॥
राजा दशरथः श्रीमान् यथा मम महायशाः।
पूजनीयश्च मान्यश्च तथायं पतगेश्वरः॥२६॥
सौमित्रे हर काष्ठानि निर्मथिष्यामि पावकम्।
गृध्रराजं दिधक्ष्यामि मत्कृते निधनं गतम्॥२७॥
नाथं पतगलोकस्य चितिमारोपयाम्यहम्।
इमं धक्ष्यामि सौमित्रे हतं रौद्रेण रक्षसा॥२८॥
(अरण्यकांड सर्ग ६८ गीता प्रेस)
अर्थात् सौम्य! शत्रुओंको संताप देनेवाले लक्ष्मण! इस समय मुझे सीताके हरणका उतना दुःख नहीं है, जितना कि मेरे लिये प्राणत्याग करनेवाले जटायुकी मृत्यु से हो रहा है। महायशस्वी श्रीमान् राजा दशरथ जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही ये पक्षिराज जटायु भी हैं। सुमित्रानन्दन! तुम सूखे काष्ठ ले आओ, मैं मथकर आग निकालूँगा और मेरे लिये मृत्युको प्राप्त हुए इन गृध्रराजका दाह-संस्कार करूँगा। सुमित्राकुमार! उस भयंकर राक्षसके द्वारा मारे गये इन विद्वान् श्रेष्ठ जटायु को मैं चितापर चढ़ाऊँगा और इनका दाह-संस्कार करूँगा।
जरा विचार करिए क्या गृध्र जैसे पक्षियों को पिता और पितामह से विरासत में राज्य प्राप्त हो सकता है? क्या किसी को एक पक्षी के लिए अपनी पत्नी के हरण से ज्यादा दुःख हो सकता है? क्या एक पक्षी को अपने पिता के सदृश माननीय और पूज्य माना जा सकता है? क्या पक्षी का अंत्येष्टि संस्कार होता है? कभी नहीं। ये सब लक्षण मनुष्य में ही घटित हो सकते हैं, पक्षी में नहीं।
अब अन्य संस्करणों में देखें-
पश्चिमोत्तर संस्करण अरण्य काण्ड सर्ग ७५
बंगाल संस्करण अरण्यकाण्ड सर्ग ७३
अरण्यकाण्ड सर्ग ६४ (Critical edition)
प्रमाणों के आधार पर पूर्वापर प्रसंग को ध्यान में रखते हुए अगर रामायण का अध्ययन करें तो जटायु जी मनुष्य ही सिद्ध होते हैं न कि पक्षी। भगवान् वाल्मीकि ने रामायण के इतिहास को काव्यात्मक शैली में लेखनीबद्ध किया है। इसलिए इसमें उपमा आदि अलङ्कारों का प्रयोग हुआ है। जिसके गुण जिससे मिलते हैं, कहीं कहीं उसे उसी नाम से प्रयोग कर दिया जाता है, यह काव्य की उत्कृष्टता का लक्षण है। अगर आपको यह जानकारी पसंद आई हो तो इस लेख को अधिक से अधिक शेयर अवश्य करें ताकि लोग सत्य से अवगत हो सकें।
संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- वाल्मीकि रामायण (गीता प्रेस)
- वाल्मीकि रामायण (पश्चिमोत्तर संस्करण)
- वाल्मीकि रामायण (बंगाल संस्करण)
- वाल्मीकि रामायण (Critical edition)
- वाल्मीकि रामायण (स्वामी जगदीश्वरानंद जी द्वारा संशोधित)
- वाल्मीकि रामायण (यशपाल शास्त्री जी द्वारा संशोधित)
- वाल्मीकि रामायण (पंडित आर्यमुनि जी द्वारा संशोधित)
- आप्टे कोष
- रामायण भ्रांतियां एवं समाधान (स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती)
- निरुक्त
- भज गोविन्दम् स्तोत्र
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