क्या महर्षि कपिल, कणाद व गोतम नास्तिक थे? (Were Maharshi Kapil, Kaṇāda and Gotam atheist?)
महर्षि कपिल के नास्तिक होने की समीक्षा
कुछ लोग ऐसा दोषारोपण करते हैं कि महर्षि कपिल निरीश्वरवादी थे तथा सांख्य दर्शन नास्तिक दर्शन है, वे लोग अपने इस मत की पुष्टि हेतु सांख्य के अनेक सूत्रों का अर्थ का अनर्थ करते हैं। इसमें सबसे अधिक प्रसिद्ध “ईश्वरासिद्धेः।।” [सां. द. १.९२] सूत्र है। हम सर्वप्रथम इसी सूत्र पर विचार करेंगे व इसकी सत्यता जानने का प्रयास करेगें। इस सूत्र को समझने के लिए इससे दो पूर्व के सूत्रों से इसके पश्चात के दो सूत्रों को देखें तब इस सूत्र का वास्तविक अर्थ पता चालेगा। वे सूत्र इस प्रकार हैं-
यत्सम्बद्धं सत्तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्।।८९।।(सांख्य दर्शन प्रथम अध्याय)
योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः।।९०।। लीनवस्तुलब्धातिशयसम्बन्धाद्वादोषः।।९१।।
ईश्वरासिद्धेः।।९२।।
मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः।।९३।।
उभयथाप्यसत्करत्वम्।।९४।।
यहां भगवान् कपिल प्रत्यक्ष का लक्षण बताते हुए कहते हैं
आत्मा के साथ जिस किसी भी वस्तु के साक्षात सम्बंध से प्राप्त होने वाला और उस वस्तु के स्वरूप को प्रकट करने वाला जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है।।८९।।
अब अगले सूत्र में आंतरिक प्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष कहते हैं-
योगियों का आंतरिक प्रत्यक्ष भी पूर्व सूत्र में बतलाए गए प्रत्यक्ष लक्षण में संग्रहीत होने से पूर्व सूत्रोक्त प्रत्यक्ष लक्षण में कोई दोष नहीं है।।९०।।
योगियों का सूक्ष्म पदार्थों के साथ सीधा स्पष्ट संबंध होता है, इसलिए उस पूर्व परिभाषा में कोई दोष नहीं है। योगियों का आंतरिक प्रत्यक्ष का भी उसमें समावेश हो जाता है।।९१।।
योगियों के आंतरिक प्रत्यक्ष को क्यों माना जाए इसका उत्तर देते हैं-
क्योंकि बाह्य प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि होती है, इस कारण से योगियों का आंतरिक प्रत्यक्ष अवश्य मानना चाहिए।।९२।।
यदि आँख से ईश्वर को देखेंगे तो, वह जीवनमुक्त व्यक्ति होगा वा बद्ध होगा, ये दोनों ही ईश्वर नहीं हैं अतः बाह्य प्रत्यक्ष से वास्तविक ईश्वर की सिद्धि न हो पाएगी।।९३।।
बद्ध वा जीवन्मुक्त पुरुष ईश्वर क्यों नहीं हो सकता इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हैं-
बद्ध या जीवन्मुक्त व्यक्ति का ईश्वर मानने पर उन दोनों में ईश्वर की योग्यता सृष्टि रचना आदि सिद्ध नहीं हो पाएगी, दोनों में यह सामर्थ्य नहीं होने से।
अब बताइए इन सूत्रों में ईश्वर का खंडन कहां किया है? यहां ईश्वर का खंडन नहीं प्रत्युत् ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। यहां यह बताया है कि आंख आदि से ईश्वर का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता किंतु ईश्वर का तो आंतरिक प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर निराकार है, रूपादि गुणों से रहित है तो उसका बाह्य प्रत्यक्ष क्योंकर हो सकता है? उपनिषद् को सभी ब्रह्मविद्या का प्रतिपाद्य ग्रंथ मानते हैं, वहां भी यही कहा है कि ईश्वर का बाह्य प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। देखें प्रमाण-
महर्षि मनु जी के अनुसार वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक कहाता है, इसलिए मनुस्मृति में लिखा है
नास्तिको वेदनिन्दकः
किंतु कपिल जी वेद की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं
निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्।।(सां. द. ५.५१)
इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदनित्यत्वविचारः) में लिखते हैं
वेदानां निजशक्त्यभिव्यक्तेः पुरुषसहचारिप्रधान सामर्थ्यात् प्रकटत्वात्स्वतः प्रामाण्यनित्यत्वे स्वीकार्ये इति।
भाषार्थ - इसी प्रकार से सांख्यशास्त्र में कपिलाचार्य भी कहते हैं - (निज०) परमेश्वर की (निज) अर्थात् स्वाभाविक जो विद्याशक्ति है उससे प्रकट होने से वेदों का नित्यत्व और स्वतः प्रामाण्य सब मनुष्यों को स्वीकार करना चाहिये।
अब हमने यहां देखा कि महर्षि कपिल यहां वेद को स्वतः प्रमाण स्वीकार कर रहे हैं। यहां यह भी पता चलता है कि वे जो कुछ भी लिखेंगे सो वेदानुकूल ही लिखेंगे।
पूर्वपक्ष - तत्सन्निधानादधिष्ठातृत्वं मणिवत्॥ [१.९६] सूत्र में चुंबक और लोहे के दृष्टांत से प्रकृति को ईश्वराधीन नहीं माना है। जैसे चुंबक और लोहा दोनों ही जड़ होते हैं इसी प्रकार यह सृष्टि भी बिना ईश्वर के बन गई।
सिद्धांती - उपमान और उपमेय में जितनी समानता दिखाई जाती है उतना ही ग्रहण करना चाहिए, उपमान के सभी लक्षण उपमेय में शत प्रतिशत नहीं होते, जितना वक्ता साधर्म्य दिखाना चाहता है उतना ही मानना चाहिए। इसका सही अर्थ देखें-
पूर्वपक्ष - कर्मवद्दृष्टेर्वा कालादेः॥३.६०॥
प्रकृति का स्वतः जगत का सृजन करना भी सम्मत है जिसप्रकार काल आदि के कार्य देखने को मिलते हैं, जिसप्रकार काल को निर्देशित करने वाला या अधिष्ठाता कोई नहीं इसी प्रकार प्रकृति का स्वातंत्र्य है।
सिद्धांती - किसने कहा काल का अधिष्ठाता कोई प्रमाण है? कम से कम आर्ष ग्रंथों को पढ़ कर कुछ बोलते तो उचित होता। अथर्ववेद (१९.५२.१) में कहा है
काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्तत॒ मन॑सो॒ रेतः॑ प्रथ॒मं यदासी॑त्।
स का॑म॒ कामे॑न बृह॒ता सयो॑नी रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि॥
इस मंत्र में कहा है कि ईश्वर को सृष्टि रचने की कामना हुई।
जबकि वहीं अथर्ववेद (१९.५३.१०) में काल के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है-
का॒लः प्र॒जा अ॑सृजत का॒लो अग्रे॑ प्र॒जाप॑तिम्।
स्व॑यं॒भूः क॒श्यपः॑ का॒लात्तपः॑ का॒लाद॑जायत॥
अर्थात् इन दोनों प्रमाणों को देखें तो यह सिद्ध होता है कि काल तत्त्व ईश्वर से प्रेरित होता है। अतः पूर्वपक्ष का दिया हेतु खंडित होता है। इसी प्रकार पूर्वपक्ष की प्रतिज्ञा कि प्रकृति स्वयं सृष्टि की रचना कर सकती है का भी खण्डन होता है। अब इस सूत्र का भी सही अर्थ देखें-
महर्षि कपिल कितने बड़े ईश्वरवादी थे इसको बताने हेतु हम कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-
स हि सर्ववित् सर्वकर्ता॥५६॥
ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा॥५७॥
(सां. द. अ. ३)
जिसके वश में प्रकृति है, वह निश्चित रूप से सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान सृष्टि कर्ता ईश्वर है।।५६।।
इस प्रकार ईश्वर की सत्ता सिद्ध है।।५७।।
पूर्वपक्ष - यहां स से अभिप्राय उस लीनचित्त पुरुष का है जिसका कथन ३.५४ में कहा है।
सिद्धांती - पहले पूरा प्रकरण पढ़ लेना चाहिए फिर खंडन करने का प्रयत्न करना चाहिए। यहां तो आपकी बात सिद्ध नहीं हो रही। जरा जो आपने सूत्र उद्धृत किया उससे लेकर हमारे दिए सूत्र तक अच्छे से पढ़ लेवें-
न कारणलयात् कृतकृत्यता मग्नवदुत्थानात्।।५४।।
सूत्रार्थ = प्रकृति में जाकर छिपने से भी जीव कि पूरी सफलता नहीं होती, उसे फिर पुनर्जन्म में आना ही होगा जैसे गोताखोर पानी में डुबकी मारके फिर ऊपर आता है।
अब इसका हेतु बताते हुए अगला सूत्र लिखते हैं-
अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात्।।५५ ।।
सूत्रार्थ = प्रकृति के कार्य रूप न होने पर भी उसका कार्य के रूप में रूपान्तरण हो ही जाता है, पराधीन होने से।
वह कौन है जिसके अधीन प्रकृति है इसका उत्तर अगले सूत्र में देते हुए लिखते हैं-
स हि सर्ववित सर्वकर्ता।।५६।।
सूत्रार्थ = जिसके वश में प्रकृति है, वह निश्चित रूप से सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान सृष्टि कर्ता ईश्वर है।
ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा॥५७॥
सूत्रार्थ = इस तरह वेद के प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि सिद्ध है। प्रकृति में सर्वज्ञत्वादि गुण तो किसी सूरत में नहीं हो सकते हैं, सर्वज्ञत्वादि गुण तो ईश्वर ही में है।
यहां कहां किसी जीवात्मा को ईश्वर कहा है? अपितु जीवात्मा के ईश्वर होने का खंडन तो प्रथम अध्याय में करते हुए लिखते हैं-
मुक्तात्मन: प्रशंसोपासासिद्धस्य वा।।९५।।
सूत्रार्थ = शरीर धारी किसी व्यक्ति को यदि ईश्वर मान लें तो वह उस जीवन मुक्त अथवा योगाभ्यास उपासना आदि से विशिष्ट योग्यता प्राप्त बद्ध व्यक्ति की प्रशंसा मात्र है, वह वास्तविक ईश्वर नहीं है।
अतः यहां भी पूर्वपक्षी का मत असिद्घ है और यहां वेदोक्त ईश्वर का प्रतिपादन है।
पूर्वपक्ष - हम मध्यकालीन भाष्यकारों की बातें प्रमाण मानते हैं, उन लोगों की व्याख्या हमारे बताए अनुसार है।
सिद्धांती - कोई भाष्य पुराना होने मात्र से ही प्रामाणिक नहीं हो जाता। प्रामाणिक तो तब होता है जब वह उस ग्रन्थ के अर्थ का यथार्थ अर्थ प्रतिपादन करे। महर्षि कपिल लिखते हैं कि वेद ईश्वर की निज शक्ति से उत्पन्न होने से स्वतः प्रमाण हैं, और उन मध्यकालीन आचार्यों की बात वेद विरुद्ध होने से वे महर्षि कपिल के मत को यथार्थ प्रतिपादन नहीं कर रहे, अतः वे प्रमाण मानने योग्य नहीं। कोई भी भाष्यकार वहीं तक प्रमाण है जहां तक वह उस ग्रंथ के यथार्थ मत का प्रतिपादन करे।
अब हम इस संशय को सर्वथा नष्ट करने हेतु महाभारत से प्रमाण देते हैं, भीष्म जी कहते हैं-
अत्र ते संशयो मा भूज्ज्ञानं सांख्यं परं मतम्।
अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्ण ब्रह्म सनातनम्॥१०१॥
अनादिमध्यनिधनं निर्द्वन्द्वं कर्तृ शाश्वतम्।
कूटस्थं चैव नित्यं च यद् वदन्ति मनीषिणः॥१०२॥
यतः सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः।
यच्च शंसन्ति शास्त्रेषु वदन्ति परमर्षयः॥१०३॥
(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ३०१)
सांख्यज्ञान मुख्य ज्ञान है इस विषय में तुम्हें संशय नहीं होना चाहिये। इसमें अक्षर ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्मका ही प्रतिपादन हुआ है। वह ब्रह्म आदि, मध्य और अन्तसे रहित निर्द्वन्द्र, जगत्की उत्पत्तिका हेतुभूत, शाश्वत, कूटस्थ और नित्य है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं। संसारकी सृष्टि और प्रलयरूप सारे विकार उसी से सम्भव होते हैं अर्थात् प्रकृति पदार्थ से सृष्टि की रचना करता है और सृष्टि को पुनः नाश कर के प्रलय अवस्था में ले आता है। महर्षि अपने शास्त्रोंमें उसी की प्रशंसा करते हैं।
अब महाभारत में भगवान् कपिल के मुख से सुनें कि उनकी वेद व ईश्वर में कितनी श्रद्धा थी।
कपिल उवाच -
एतावदनुपश्यन्ति यतयो यान्ति मार्गगाः।
नैषां सर्वेषु लोकेषु कश्चिदस्ति व्यतिक्रमः॥१॥
(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 269)
महर्षि कपिल ने कहा- यम-नियमोंका पालन करनेवाले संन्यासी ज्ञानमार्गका आश्रय लेकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं । वे इस दृश्य संसार को नश्वर समझते हैं। सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी गतिका कहीं कोई अवरोध नहीं होता।
कपिल उवाच-
वेदाः प्रमाणं लोकानां न वेदाः पृष्ठतः कृताः।
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।।१।।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।।२।।
(शान्तिपर्व अध्याय २७०)
भगवान् कपिल ने कहा- स्यूमरश्मे! सम्पूर्ण लोकोंके लिये वेद ही प्रमाण हैं। अतः वेदों की अवहेलना नहीं की गयी है। ब्रह्म से दो को जानना चाहिए - शब्दब्रह्म अर्थात् वेद और परब्रह्म अर्थात् सच्चिदानन्द परमात्मा। जो पुरुष शब्दब्रह्ममें पारंगत हो चुका है, वह परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है।
और भी प्रमाण देखें-
(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २७०)महर्षि कणाद को नास्तिक मानने वालों की समीक्षा
इसी प्रकार कुछ लोग वैशेषिक दर्शन को नास्तिक दर्शन व महर्षि कणाद को निरीश्वरवादी कहते हैं। उनके मत की भी थोड़ी समीक्षा कर लेते हैं।वैशेषिक दर्शन में ऐसे लोग ईश्वर के खंडन का प्रमाण तो दिखा नहीं पाते किंतु वे ऐसा कुतर्क करते हैं कि वैशेषिक दर्शन में ईश्वर की सिद्धि नहीं की गई है, अतः खंडन ही समझना चाहिए। वस्तुतः वैशेषिक दर्शन पदार्थ विद्या को समझाने के लिए है, अतः उसमें मुख्य विषय वही होगा इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें ब्रह्म को ही नकार दिया गया है। इसको एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे मान लीजिए आपने किसी बहुत बड़े साइंटिस्ट और मैथमेटीशियन को एक समोसे के दुकान पर बैठा दिया और पूछें कि इसके बनने की पूरी प्रक्रिया समझाएं। वह एक पूरी पुस्तक लिख देगा कि तेल इतने डिग्री गर्म था तब समोसा तलने हेतु डाला गया, इसे कार्बोहाइड्रेट्स आदि कितने मात्रा में हैं आदि। लेकिन इस प्रक्रिया में वह बनाने वाले का नाम नहीं लेगा तो क्या इसका यह मतलब हो जायेगा कि उसने बनाने वाले को ही नकार दिया? नहीं, उसका विषय यहां समोसे के बनने की प्रक्रिया बताना, उसमें उपलब्ध कार्बोहाइड्रेट्स आदि की जानकारी देना है। इसी प्रकार महर्षि कणाद का वैशेषिक में मुख्य विषय पदार्थों के विषय में जानकारी देना है। तथापि उसमें ईश्वर और वेद पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए सूत्र भी प्राप्त होते हैं। जिसमें से कुछ हम उद्धृत करते हैं-
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।। (वै. द. १.१.२) के भाष्य में आचार्य प्रशस्तपाद लिखते हैं-
यहां आप प्रशस्तपाद भाष्य में देख सकते हैं कि वह लिखते हैं ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल चलने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसके आगे भगवान् कणाद कहते हैं-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।। (वै. द. १.१.३)
यहां महर्षि कहते हैं कि उस ईश्वर का वचन होने से आम्नाय (वेद) का प्रमाण है।
इसपर आप वैशेषिक के कुछ व्याख्याखकारों की व्याख्या भी देखें-
वैशेषिक दर्शन २.१.१८ & १९ में महर्षि ईश्वर के विषय में लिखते हैं-
वैशेषिक दर्शन ४.२.५ से प्रसंग चलता है कि शरीर दो प्रकार के हैं योनिज और अयोनिज। इस प्रसंग में वैशेषिक ४.२.११ में भगवान् कणाद वेद को प्रमाण मानते हुए लिखते हैं-
वेदों के विषय में महर्षि ६.१.१ में लिखते हैं-
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।
अर्थात् वेदों में वाक्य रचना बुद्धि पूर्वक है।
महर्षि कणाद ईश्वर के विषय में बताते हुए वैशेषिक दर्शन (७.१.२२) में लिखते हैं
विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा।।
यहां महर्षि लिखते हैं कि जिस प्रकार आकाश विभु परिमाण वाला है उसी प्रकार आत्मा अर्थात् परमात्मा भी विभु परिमाण वाला है, यह सूत्र यजुर्वेद (४०.१७) के वचन “ओम् खम् ब्रह्म” का भाव लेकर बनाया प्रतीत होता है यहां स्पष्ट रूप से ईश्वर को माना गया है। इस सूत्र के “तथा चात्मा” की अनुवृत्ति देहली दीपक न्याय से अगले सूत्र में भी आयेगी। अगला सूत्र इस प्रकार है-
तदभावादणु मनः।। (वैशेषिक दर्शन ७.१.२२)
अर्थात् उस विभु परिमाण के अभाव होने से मन अणु परिमाण वाला है उसी प्रकार आत्मा (जीवात्मा) भी अणु परिमाण वाला है।
महर्षि गोतम के नास्तिक होने की समीक्षा
कुछ लोग महर्षि गोतम पर भी नास्तिक होने का दोषारोपण करते हैं। न्याय दर्शन ४.१.१९ से २१ पर्यन्त तीन सूत्रों में ईश्वर के विषय में चर्चा है। पूर्व के दो सूत्र दो भिन्न पूर्वपक्ष अपना पक्ष रखते हैं और २१वें सूत्र में सिद्धान्त पक्ष की ओर से गोतम जी इनका खंडन करते हुए लिखते हैं-
नोट - यहां अफलं का अर्थ है कि फल अभी नहीं मिला बाद में मिलेगा, ऐसा नहीं कि कर्मफल नष्ट हो गया।
महर्षि गोतम जी वेद के विषय में कहते हैं-
मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्तात्। [२|१|६८]
महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदनित्यत्वविचार) में इस प्रकार लिखते हैं-
अस्यायमर्थः - तेषां वेदानां नित्यानामीश्वरोक्तानां प्रामाण्यं सर्वैः स्वीकार्यम्। कुतः ? आप्तप्रामाण्यात्। धर्मात्मभिः कपटछलादि- दोषरहितैर्दयालुभिः सत्योपदेष्टृभिर्विद्यापारगैर्महायोगिभिः सर्वैर्ब्रह्मादि- भिराप्तैर्वेदानां प्रामाण्यं स्वीकृतमतः। किंवत्? मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत्। यथा सत्यपदार्थविद्याप्रकाशकानां मन्त्राणां विचाराणां सत्यत्वेन प्रामाण्यं भवति, यथा चायुर्वेदोक्तस्यैकदेशोक्तौषधसेवनेन रोगनिवृत्त्या तद्भिन्नस्यापि भागस्य तादृशस्य प्रामाण्यं भवति, तथा वेदोक्तार्थस्यैकदेशप्रत्यक्षेणेतरस्यादृष्टार्थविषयस्य वेदभागस्यापि प्रामाण्यमङ्गीकार्यम्। एतत्सूत्रस्योपरि भाष्यकारेण वात्स्यायनमुनिनाप्येवं प्रतिपादितम्-
"द्रष्टृप्रवक्तृसामान्याच्चानुमानम्। य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनामित्यायुर्वेदप्रामाण्यवद्वेदप्रामाण्यमनुमातव्यमिति। नित्यत्वाद्वेदवाक्यानां प्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादित्युक्तम्।”
अस्यायमभिप्रायः - यथाप्तोपदेशस्य शब्दस्य प्रामाण्यं भवति तथा सर्वथाप्तेनेश्वरेणोक्तानां वेदानां सर्वैराप्तैः प्रामाण्येनाङ्गीकृतत्वाद्वेदाः प्रमाणमिति बोध्यम् । अत ईश्वरविद्यामयत्वाद्वेदानां नित्यत्वमेवोपपन्नं भवतीति दिक्।
भाषार्थ - वैसे ही न्यायशास्त्र में गोतम मुनि भी शब्द को नित्य कहते हैं, (मन्त्रायु० ) वेदों को नित्य ही मानना चाहिए, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त ब्रह्मादि जितने आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य ही मानते आये हैं। उन आप्तों का अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये। क्योंकि आप्त लोग वे होते हैं जो धर्मात्मा, कपट छलादि दोषों से रहित, सब विद्याओं से युक्त, महायोगी और सब मनुष्यों के सुख होने के लिये सत्य का उपदेश करनेवाले हैं, जिनमें लेशमात्र भी पक्षपात वा मिथ्याचार नहीं होता। उन्होंने वेदों का यथावत् नित्य गुणों से प्रमाण किया है जिन्होंने आयुर्वेद को बनाया है। जैसे आयुर्वेद वैद्यकशास्त्र के एक देश में कहे औषध और पथ्य के सेवन करने से रोग की निवृत्ति से सुख प्राप्त होता है, जैसे उसके एक देश के कहे के सत्य होने से उसके दूसरे भाग का भी प्रमाण होता है इसी प्रकार वेदों का भी प्रमाण करना सब मनुष्यों को उचित है। क्योंकि वेद के एक देश में कहे अर्थ का सत्यपन विदित होने से उससे भिन्न जो वेदों के भाग हैं, कि जिनका अर्थ प्रत्यक्ष न हुआ हो, उनका भी नित्य प्रमाण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि आप्त पुरुष का उपदेश मिथ्या नहीं हो सकता।
(मन्त्रायु०) इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने वेदों का नित्य होना स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जो आप्त लोग हैं वे वेदों के अर्थ को देखने दिखाने और जनानेवाले हैं। जो-जो उस मन्त्र के अर्थ के द्रष्टा वक्ता होते हैं, वे ही आयुर्वेद आदि के बनानेवाले हैं। जैसे उनका कथन आयुर्वेद में सत्य है वैसे ही वेदों के नित्य मानने का उनका जो व्यवहार है सो भी सत्य ही है, ऐसा मानना चाहिए। क्योंकि जैसे आप्तों के उपदेश का प्रमाण अवश्य होता है, वैसे ही सब आप्तों का भी जो परम आप्त सबका गुरु परमेश्वर है, उसके किये वेदों का भी नित्य होने का प्रमाण अवश्य ही करना चाहिये।
अतः आइए ऋषियों के नाम पर फैली भ्रांतियों को समाप्त कर के, उन्हें सत्य रूप में समझने का प्रयास करें। ईश्वर हम सबको ऐसी सद्बुद्धि दें, इसी कामना के साथ...
।।ओ३म् शम्।।
सन्दर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- सांख्य दर्शन [संस्कृत भाष्य - स्वामी ब्रह्ममुनि जी, भाषा भाष्य - स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक]
- सांख्य दर्शन [गंगा प्रसाद जी उपाध्याय]
- यजुर्वेद
- अथर्ववेद
- मनुस्मृति
- ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
- वैशेषिक दर्शन [शंकर मिश्र कृत वैशेषिकसूत्रोपस्कार (उपस्कार व्याख्या), जयनारायण तर्क पंचानन भट्टाचार्य कृत कणादसूत्रविवृत्ति तथा चंद्रकांत भट्टाचार्य कृत वैशेषिक भाष्य सहित]
- प्रशस्तपाद भाष्य (संपादक व भाषानुवादक - पंडित दुर्गाधर झा जी)
- वैशेषिदर्शनम् (उदयवीर जी शास्त्री)
- न्याय दर्शन वात्स्यायन भाष्य सहित (आचार्य ढुंढिराज जी शास्त्री)
- उपनिषदार्य्य भाष्य (पंडित आर्यमुनि जी कृत उपनिषद् भाष्य)
- वेदों का यथार्थ स्वरूप (पं० धर्मदेव जी विद्यामार्तंड)
- महाभारत
ji namaste
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