यजुर्वेद में बकरे के दूध का भ्रान्ति निवारण
महर्षि दयानन्द का जीवन चरित भाग 2 [लेखक - देवेंद्र नाथ जी मुखोपाध्याय] |
जीवनचरित महर्षि स्वामी दयायन्द सरस्वती [लेखक - पण्डित लेखराम जी] |
अतः हम महर्षि दयानन्द कृत संस्कृत भाष्य पर ही विचार करेंगे। आप इस मंत्र के ऋषि के भाष्य को देखेंगे तो ऋषि समयाभाव के कारण छागस्य पद का अर्थ किए बिना ही छोड़ कर आगे बढ़ गए क्योंकि उन्होंने पहले ही इस पद का अर्थ किया था इसलिए उन्हें लगा कि भाषानुवाद करने वाले पंडित इसका भाषार्थ में सही अर्थ कर देंगे किन्तु उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया।
इसका सही अर्थ जानने हेतु हम सर्वप्रथम छाग शब्द का वेद भाष्य में महर्षि दयानंद जी द्वारा किए हुए कुछ अर्थ उद्धृत करते हैं-
१. छागस्य = अजादेः (यजुर्वेद २१.४१)
२. छागेन = अजादिदुग्धेन (यजुर्वेद १९.८९)
अब इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि यहां बकरी अर्थ का भी ग्रहण संभव है। अतः प्रकरण अनुकूल बकरी अर्थ ही ग्रहण होगा बकरा नहीं हो सकता। इस प्रकार छागस्य पद का अर्थ “बकरी आदि पशुओं के” होगा। ऋषि ने छागस्य पद का यही अर्थ यजुर्वेद २१.४१ के संस्कृत भाष्य में किया है, अतः उन्होंने दो मंत्र आगे (यजुर्वेद २१.४३) आए इस पद का अर्थ करना आवश्यक नहीं समझा क्योंकि उन्हें लगा कि भाषा भाष्य करने वाले उस पद से अर्थ समझ लेंगे किंतु उन लोगों ने अर्थ समझने में गड़बड़ कर दिया।
हम सब जानते हैं वेद के पदार्थ व भावार्थ में विरोध नहीं होता। अतः इस मंत्र पर सर्वप्रथम हम महर्षि का भावार्थ देखते हैं-
ये छागादीनां रक्षां विधाय तेषां दुग्धादिकं सुसंस्कृत्य भुक्त्वा द्वेषादियुक्तान् पुरुषन्निवार्य सुवैद्यानां सङ्गं कृत्वा शोभनं भोजनाऽऽच्छादनं कुर्वन्ति, ते प्रत्यङ्गाद् रोगान्निवार्य सुखिनो भवन्ति॥
इसका अर्थ करते हुए भाषा भाष्य में भी लिखा है-
जो छेरी आदि पशुओं की रक्षा कर उनके दूध अदि का अच्छा-अच्छा संस्कार और भोजन कर वैरभावयुक्त पुरुषों को निवारण कर और अच्छे वैद्यों का संग करके उत्तम खाना, पहिरना करते हैं, वे प्रत्येक अंग से रोगों को दूर कर सुखी होते हैं॥
यहां इसी मंत्र के भाष्य के भावार्थ में ऋषि कृत भाष्य के साथ साथ उनके भाष्य का भाषा भाष्य करने वाले ने भी बकरी ही अर्थ ग्रहण किया है तो अल्पबुद्धियों द्वारा यह आक्षेप लगाया जाना कि यहां महर्षि दयानन्द ने बकरा अर्थ किया है, इसका पूर्णतः खंडन हो जाता है।
सर्वप्रथम ऋषि का संस्कृत भाष्य देखें
अतः इस मंत्र का इस प्रकार अर्थ होगा-
हे (होतः) दाता पुरुष! जैसे (होता) विद्या को लेने अर्थात् ग्रहण करने वाला (अश्विनौ) अध्यापक और उपदेश करने हारे का (यक्षत्) संग करे और वे (अद्य) आज (छागस्य) बकरी आदि पशुओं के (मध्यतः) मध्य से (हविषः) ग्रहण करने योग्य पदार्थ (मेदः) घी दुग्ध आदि चिकने पदार्थों को (उद्भृतम्) श्रेष्ठ प्रकार से धारण करके (आत्ताम्) सेवन करें। अथवा जैसे (द्वेषोभ्यः) दुष्टों से (पुरा) प्रथम (गृभः) ग्रहण करने योग्य (पौरुषेय्याः) पुरुषों के समूह में साध्वी स्त्रियों से (पुरा) पहिले (नूनम्) निश्चय करके (घस्ताम्) खावें वा जैसे (यवसप्रथमानाम्) जौ जिनका पहला अन्न, (घासेअज्राणाम्) आनंद को संचालित करने हारे, (सुमत्क्षराणाम्) उत्तम आनन्दों का संचालन करने हारे, (शतरुद्रियाणाम्) रुलाने वाले सैकड़ों विद्वान (पीवोपवसनानाम्) पीव् का एक अर्थ हृष्ट पुष्ट होता है अतः यहां पीवोपवसनानाम् का तात्पर्य कवच से है वा पीव् का एक अर्थ मोटा भी होता है तो अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि मोटे मोटे वस्त्रों को धारण कर के (अग्निष्वात्तानाम्) जिन्होंने भलीभांति अग्निविद्या का ग्रहण किया हो यहां ईश्वर और भौतिक अग्नि दोनों ही ग्रहण होंगे इसके लिए आप ऋषि कृत पंच महायज्ञ विधि के पितृयज्ञ प्रकरण को देख सकते हैं, वहां ऋषि लिखते हैं “अग्निरीश्वरः सुष्ठुतया आत्तो गृहीतो यैस्ते 'अग्निष्वात्ताः'। यद्वा अग्नेर्गुणज्ञानात् पृथिवीजलव्योम - यान- यन्त्ररचनादिका पदार्थविद्या सुष्ठुतया आत्ता गृहीता यैस्ते।” वहीं इसके भाषार्थ में लिखा है “अग्नि जो परमेश्वर वा भौतिक उनके गुण ज्ञात करके जिनने अच्छे प्रकार अग्निविद्या सिद्ध की है, उनको 'अग्निष्वात्ताः' कहते हैं।” (पार्श्वतः) दोनों ओर (श्रोणितः) कटिप्रदेश (शितामतः) तीक्ष्ण व अपरिपक्व स्थान से (उत्सादतः) उखाड़े हुए (अङ्गादङ्गात्) प्रत्येक अंग से (अवत्तानाम्) नम्र व उत्तम अंगों की (एव) ही (अश्विना) दो श्रेष्ठ वैद्य (करतः) चिकित्सा करें और (हविः) उक्त पदार्थों से खाने योग्य पदार्थ का (जुषेताम्) सेवन करें, वैसे (यज) सब पदार्थों वा व्यवहारों की संगति किया करें॥
भाष्यसार - इस मंत्र में कहा है कि श्रेष्ठ विद्याओं को ग्रहण करने वाले लोग उत्तम विद्वानों और उपदेशकों का संग करें तथा बकरी आदि पशुओं से घी, दुग्ध आदि पदार्थ प्राप्त कर उनका यथावत उपयोग लेवें। वा जैसे साध्वी स्त्रियों से पूर्व पुरुष निश्चय कर के खावें। वस्तुतः स्त्री को वैदिक धर्म में घर की स्वामिनी कहा है इसीलिए यहां कहा है कि स्त्रियां विद्वान पुरुषों को पूर्व भोजन कराएं किंतु दुष्टों को भोजनादि न दें। आगे कहा है कि कवच वा बर्फीले प्रदेशों में रह कर मोटे मोटे वस्त्र धारण करने वाले, अग्नि आदि विद्या को जानने वाले तथा दुष्टों को रुलाने वाले सैनिकों की दो श्रेष्ठ वैद्य शल्य चिकित्सा आदि के द्वारा उन्हें स्वस्थ करें।
अब यहां कुछ लोग ऐसा प्रश्न कर सकते हैं कि छागस्य शब्द तो पुलिंग का वाचक है तो स्त्रीलिंग में इसका अर्थ किस प्रकार किया जा सकता है? उत्तर है वेद और आर्ष ग्रंथों का सही अर्थ करने में तर्क और ऊहा सहायक है। इसीलिए महर्षि यास्क ने तर्क को ऋषि और ऊहा को ब्रह्म कहा है। देखें प्रमाण -
निरुक्त अध्याय 13, खंड 12,13 |
अतः यहां तर्क और ऊहा से बकरी ही अर्थ ग्रहण होगा न कि बकरा। व्याकरण वेद और ऋषियों के ग्रंथों को देख कर ही बना है तथा वैदिक व लौकिक संस्कृत में भिन्नता होने से लौकिक संस्कृत का नियम वेद पर नहीं आरोपित किया जा सकता। मीमांसा दर्शन पर शबर स्वामी भाष्य लिखते हैं और उनका काल शंकराचार्य जी से पूर्व का है और उनके मीमांसा भाष्य का पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक भाषा अनुवाद करते हैं। उसमें ऐसा अर्थ पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक ने भी स्वीकार किया है कि प्रकरण अनुकूल पुलिंग में छागस्य का पाठ स्त्रीलिंग में छागाया (छाग्या) हो जाता है। देखें प्रमाण-
अब बताइए पाठकगण इसमें बकरे का कहां से आ गया? अतः आक्षेप लगाने वालों ने निश्चय ही ऋषि का भाष्य पढ़े बिना ही खंडन करने का प्रयास कर के अपनी बुद्धिहीनता का ही परिचय दिया है।
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संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
१. यजुर्वेद भाष्य (महर्षि दयानन्द जी सरस्वती)
२. यजुर्वेद भाष्य भास्कर {महर्षि के यजुर्वेद भाष्य का भाषा भाष्य} (पण्डित सुदर्शन देव जी आचार्य)
३. संस्कृत हिन्दी कोश {वामन शिवराम जी आप्टे}
४. आचार्य शबरस्वामि विरचितम् जैमिनीय मीमांसा भाष्यम् (पण्डित युधिष्ठिर जी मीमांसक)
५. जीवन चरित्र महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (पंडित लेखराम जी)
६. महर्षि दयानन्द का जीवन चरित (देवेन्द्र नाथ जी मुखोपाध्याय)
७. निरुक्त
८. पंच महायज्ञ विधि (महर्षि दयानन्द जी सरस्वती)
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