इन्द्र अहल्या कथा की समीक्षा
जब विश्वामित्र जी के साथ राम जी व लक्ष्मण जी मिथिला में जाते हैं, तो आश्रम को देख कर भगवान् राम महर्षि विश्वामित्र जी से प्रश्न पूछते हैं-
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम्।।११।।
इदमदाश्रमसङ्काशं कि न्न्विदं मुनिवर्जितम्।
ज्ञातुमिच्छामि भगवन् कस्यायं पूर्वमाश्रम:।।१२।।
अर्थात् आश्रम को देखकर भगवान् राम ने विश्वामित्र जी से पूछा- भगवन्! यह कैसा स्थान है जो देखने में आश्रम जैसा है, किंतु एक भी मुनि दिखाई नहीं देते हैं मैं सुनना चाहता हूं कि यह आश्रम पूर्वकाल में किसका था?
अब विचार करें इस आश्रम में जो मुनि रहता हो, वह अधिकांश आश्रम के अंदर ही रहता हो, केवल कुछ आवश्यक कार्य के लिए ही बाहर निकलता हो वा ऐसा भी संभव है कि वह उस समय कुछ बाहर गया हो। लेकिन यहां राम जी प्रश्न पूछते हैं कि पूर्वकाल में इस आश्रम में कौन रहता था, तो उनका यह प्रश्न पूछना ही गलत है क्योंकि राम जी बहुत बड़े विद्वान थे, वे सदा न्याय विद्या के अनुकूल ही कोई प्रश्न पूछेंगे। यहां राम जी यहां पूछ रहे हैं कि यह आश्रम पूर्वकाल में किसका था। अब सोचिए राम जी को यह कैसे पता चला कि वर्तमान समय में यहां कोई नहीं है, निश्चय ही सर्व शास्त्र विषारद भगवान् राम ऐसी गलती नहीं कर सकते। अतः यहां सिद्ध होता है कि यह श्लोक ही मिलावटी है, जो इस संपूर्ण कथा की नींव है।
पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में इस प्रकार पाठ है, यहां पाठभेद अवश्य है किंतु भाव वही है-
पप्रच्छ मुनिशार्दूलं किमिदं निर्जनं वानम्।।
श्रीमानविरलच्छायो मुनिसंघविवर्जितः।
श्रोतुमिच्छामि भगवन् कस्यासीदयमाश्रमः।।
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम्॥
श्रीमदाश्रमसंकाशं किं न्विदं मुनिवर्जितम्।
श्रोतुमिच्छामि भगवन्कस्यायं पूर्व आश्रमः।।
यहां एक श्लोक जो इस कथा का आधार है, उसकी समीक्षा करने से स्पष्ट होता है कि यह कथा ही मिलावट है, मिलावट करने वाले ने अपनी चालाकी दिखाई है किंतु फिर भी उसकी चालाकी पकड़ में आ जाती है।
इंद्र महर्षि गौतम के वेश में आ कर अहल्या से कहते हैं-
ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनस्सुसमाहिते।(वा. रा. बा. का. स.४८, गीताप्रेस गोरखपुर)
सङ्गमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे।।१८।।
अर्थात् सदा सावधान रहनेवाली सुन्दरी! रतिकी इच्छा वेष धारण किये रखनेवाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकालकी प्रतीक्षा नहीं करते हैं। सुन्दर कटिप्रदेशवाली सुन्दरी! मैं (इन्द्र ) तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।।
पश्चिमोत्तर संस्करण में इस प्रकार आया है-
ऋतुकालमतीक्षोऽपि न प्रतीक्षे सुमध्यमे।बंगाल संस्करण में इस प्रकार आया है-
सङ्गमं शीघ्रमिच्छामि पृथुश्रोणि सह त्वया॥
ऋतुकालः प्रतीक्ष्योऽपि न प्रतीक्षे सुमध्यमे।इनमें पाठभेद अवश्य है, किंतु भाव समान है।
संगमं शीघ्रमिच्छामि पृथुश्रोणि सह तथा॥
छांदोग्य उपनिषद् में देवराज के विषय में कथा आती है, उससे पता चलता है कि उन्होंने १०१ वर्ष तक ब्रह्मचारी रह कर अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त किया। अब शंका हो सकती है कि मनुष्य इतना कैसे जिएगा तो उनको बता दूं कि वेद में ४०० वर्ष तक जीने के लिए उपदेश किया गया है। इंद्र को देवराज भी कहा जाता है इसका कारण है कि वे देव वर्ग के मनुष्यों के राजा थे व अपने समय के सभी देव (शतपथ ब्राह्मण के अनुसार विद्वान को देवता कहते हैं) अर्थात् ऋषियों में महान् ज्ञाता थे। ऋषि बनने के लिए योगी होना अनिवार्य है। योगदर्शन में अष्टांग योग के प्रथम अंग अर्थात् यम का एक विभाग ब्रह्मचर्य है, बिना ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किए कोई यम से आगे नहीं बढ़ सकता, अतः यहां सिद्ध है कि इंद्र ब्रह्मचारी थे। अब जो इंद्र इतने महान् ब्रह्मचारी थे, वे किसी की स्त्री के साथ ऐसा दुराचार कैसे कर सकते हैं? इससे भी स्पष्ट है कि यह कथा ही मिलावट है।
परस्परविरोध के कारण भी यह कथा फर्जी है-
आगे के श्लोक से पता चलता है अहल्या ने जान बूझ कर इंद्र के साथ दुराचार किया-
मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥१९॥
अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥२०॥
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्।
अर्थात् रघुनन्दन! महर्षि गौतमका वेष धारण करके आये हो हुए इन्द्रको पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने 'अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं' इस कौतूहलवश उनके साथ समागमका निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।।
रतिके पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्ट होकर कहा - 'सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागमसे कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँसे चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतमके कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकारसे आ रक्षा कीजिये।
क्रिटिकल एडिशन में भी यही गीताप्रेस का पाठ है बस वहां 'कृतार्थास्मि' के स्थान पर 'कृतार्थोऽसि' व 'सर्वथा' के स्थान पर 'सर्वदा' आया है।
बंगाल संस्करण में इस प्रकार कहा है-
मुनिवेशधरं शक्रं सा ज्ञात्वापि परंतप।पश्चिमोत्तर संस्करण में इस प्रकार कहा है-
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात॥
अब्रवीच्च सुरश्रेष्ठं कृतार्थं सा वचस्तदा।
कृतार्थोऽसि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमलक्षितः॥
मुनिवेशधरं शक्रं सा ज्ञात्वाऽपि परन्तप।इनका भी गीताप्रेस के ही सदृश अर्थ है।
मैतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुंतूहलात्।।
अब्रवीच्च सुरश्रेष्ठं कृतार्थं सा वचस्तदा ।
कृतार्थाऽस्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमलक्षितः।।
जबकि अहल्या व गौतम के पुत्र शतानंद विश्वामित्र जी से कहते हैं-
अपि रामे महातेजा मम माता यशस्विनी।(वा. रा. बा. का. स.५१, गीताप्रेस गोरखपुर)
वन्यैरुपाहरत्पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम्।।५।।
अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातनम्।
मम मातुर्महातेजो दैवेन दुरनुष्ठितम्।।६।।
क्रिटिकल एडिशन में महातेजा के स्थान पर महातेजो व दैवेन दुरनुष्ठितम् के स्थान पर देवेन दुरनुष्ठितम् आया है, बाकी गीताप्रेस का ही है।
यहां उन्होंने अहल्या जी के लिए ‘यशस्विनी’ व ‘दैवेन दुरनुष्ठितम्’ शब्द का प्रयोग किया है। इसी प्रकार सर्ग ४९ के श्लोक १३ में उन्हें 'महाभागा' व 'तपसा द्योतितप्रभाम्' कहा है। दैवेन दुरनुष्ठितम् से स्पष्ट है कि उन्होंने जान बूझ कर नहीं किया था अपितु वह इंद्र के द्वारा छली गई थीं। इसी प्रकार यदि इंद्र ने उनके साथ दुराचार किया होता तो उनके लिए यशस्विनी, महाभागा, तपसा द्योतितप्रभाम् जैसे शब्द प्रयुक्त न होते।
बंगाल संस्करण में इस प्रकार आया है-
अपि त्वया मुनिश्रेष्ठ मम माता यशस्विनी।पश्चिमोत्तर संस्करण में इस प्रकार आया है-
दर्शिता राजपुत्रस्य रामस्यास्य महात्मनः॥
अपि रामाय मे माता पूजार्हाय महात्मने।
पूजां कृतवती सम्यगहल्या भृशदुःखिता॥
अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातनं।
मम मातुर्महाबुद्धे देवेन वदनुष्ठितं॥
अपि त्वया मुनिश्रेष्ठ मम माता तपस्विनी।इनमें पाठभेद अवश्य है किंतु इनके शब्दों का भी गीताप्रेस के ही तुल्य अर्थ निकलता है, अतः यहां सिद्ध होता है कि अहल्या जी निर्दोष थीं।
दर्शिता राजपुत्रस्य रामस्यास्य महात्मनः॥
अपि रामाय मे माता पूजाऽर्हाय महामुने।
पूजां कृतवती सम्यगहल्या भृशदुःखिता॥
अपि रामाय कथितं पुरावृत्तं महामुने।
मम मातुर्महाबुद्धे दैवेन दुरनुष्ठितं॥
इस प्रकार कथा में परस्पर विरोधी बात है, कहीं कहा है कि अहल्या जी ने जान बूझ कर दुराचार किया तो कहीं कहा गया है कि वे इंद्र के द्वारा छली गईं। तो वहीं महाभागा, यशस्विनी, तपसा द्योतितप्रभाम् आदि वचन से यह भी स्पष्ट होता है कि उनकी इच्छा से व बिना इच्छा के भी इंद्र ने उनके साथ दुराचार नहीं किया था।
कहां से आई यह कथा?
यह कथा ब्राह्मण ग्रंथ के वचन के अर्थ को विकृत कर के आई है। शतपथ ब्राह्मण में इंद्र को एक विशेषण दिया गया है अहल्याजार, इसी से पूरी कथा चल पड़ी। रामायण में भी अहल्या शब्द देख कर पूरी कथा बाद में रामायण में मिला दी गई। इस कथा का सही अर्थ महर्षि दयानंद जी ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में किया है व इस कंडिका के विज्ञान को यथार्थ रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।शतपथ की जिस कंडिका के अर्थ को न समझ कर यह गलत कथा चल पड़ी वह कंडिका निम्न है-
शत० कां० ३। अ० ३। ब्रा० ४। कं० १८॥ |
अब इस कंडिका के भाष्य हेतु प्रमाण प्रस्तुत करते हैं -
रेतः सोमः॥
श० कां० ३। अ० ३ । ब्रा० २। कं० १॥ रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीयते॥
निरु० अ० १२ | खं० ११॥
सूर्य्यरश्मिश्च॒न्द्रमा गन्धर्व इत्यपि निगमो भवति । सोऽपि गौरुच्यते ॥
निरु० अ० २ । खं० ६॥
र आ भग॑म् । जार इव भगम् । आदित्योऽत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता॥
निरु० अ० ३। खं० १६।
एष एवेन्द्रो य एष तपति॥
श० कां० १ । अ० ६ । ब्रा० ४। कं० १८।।
महर्षि दयानंद जी का भाष्य –
इन्द्रः सूर्य्यो य एष तपति, भूमिस्थान्पदार्थांश्च प्रकाशयति। अस्येन्द्रेति नाम परमैश्वर्य्यप्राप्तेर्हेतुत्वात् । स अहल्याया जारोऽस्ति। सा सोमस्य स्त्री। तस्य गोतम इति नाम। गच्छतीति गौरतिशयेन गौरिति गोतमश्चन्द्रः। तयोः स्त्रीपुरुषवत् सम्बन्धोऽस्ति। रात्रिरहल्या। कस्मादहर्दिनं लीयतेऽस्यां तस्माद्रात्रिरहल्योच्यते। स चन्द्रमा: सर्वाणि भूतानि प्रमोदयति, स्वस्त्रियाऽहल्यया सुखयति।
अत्र स सूर्य्य इन्द्रो रात्रेरहल्याया गोतमस्य चन्द्रस्य स्त्रिया जार उच्यते। कुतः? अयं रात्रेर्जरयिता। 'जृष् वयोहाना'विति धात्वर्थोऽभिप्रेतोऽस्ति । रात्रेरायुषो विनाशक इन्द्रः सूर्य एवेति मन्तव्यम्॥
इसका हिंदी अर्थ इस प्रकार से है-
सूर्य्य का नाम इन्द्र, रात्रि का अहल्या, तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालङ्कार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस के उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात् यह सूर्य्य ही रात्रि के वर्त्तमान रूप शृंगार को बिगाड़नेवाला है। इसलिये यह स्त्रीपुरुष का रूपकालङ्कार बांधा है, कि जैसे स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम 'गोतम' इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को 'अहल्या' इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है। तथा सूर्य्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए वह उसका 'जार' कहाता है।
निराकरण ऋषि ने एक विज्ञापन में भी दिया है, जो इस प्रकार है-
ऋषि दयानंद सरस्वती का पत्र व्यवहार और विज्ञापन भाग १
चतुर्थ संस्करण (सं० २०५०, आश्विन, पूर्णिमा अक्टूबर सन् १९९३)
पूर्ण संख्या - ७४, Pg. १०१,१०२
हमें इसी प्रकार शतपथ की वैज्ञानिक कथा के तरह षड्विंश ब्राह्मण में भी कहा है
अहल्यायै जारेति।।२०।।
(प्रथम अध्याय)
यह विशेषण इंद्र के लिए है, पाठकगण प्रकरण अनुकूल होने से यहां भी शतपथ वाला अर्थ समझ लेवें।
अब हम इस कथा के वास्तविक अर्थ के प्रकाशित करने के लिए एक प्राचीन आचार्य का भी प्रमाण देते हैं। कुमारिल भट्ट जी ने भी मीमांसा के शाबर भाष्य के टीका, जिसको उन्होंने तंत्रवार्तिक नाम से लिखा है, उसमें प्रथम अध्याय के तृतीय अध्याय के सप्तम सूत्र में इस कथा का यही अर्थ किया है, देखें प्रमाण
अब इसका अंग्रेजी अनुवाद The English Translation of TantraVartika में देखेंक्या अहल्या जी शाप के कारण पत्थर की शिला हो गई थीं?
रहीमदास लिखते हैं-धुरिधरत निज सीस पैकहु रहीम केहि काज।हाथी चलते चलते अपनी सूंड से मिट्टी उठाकर अपने शरीर पर डालता रहता है। वह ऐसा क्यों करता है? रहीम के मत में वह उस मिट्टी को खोज रहा है जिसका स्पर्श पाकर मुनि पत्नी का उद्धार हो गया था।
जेहिरज मुनि पत्नी तरी तेहिढूँढत गजराज।।
अध्यात्म रामायण में कहा है-
अध्यात्म रामायण बालकांड सर्ग ६ |
इसी प्रकार तुलसीदास जी भी लिखते हैं-
तथा शप्त्वा स वै शक्रं भार्यामपि शप्तवान्।इह वर्षसहस्राणि बहूनि त्वं निवत्स्यसि।।२९।।वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि।।३०।।यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मज:।आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि।।३१।।तस्यातिथ्येन दुर्वुत्ते लोभमोहविवर्जिता।मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि।।३२।।
राघवौ तु ततस्तस्या: पादौ जगृहतुस्तदा।।१७।।
यहां तो स्पष्ट लिखा है कि राम व लक्ष्मण दोनों भाइयों ने उनके चरण स्पर्श किया, न कि उन्हें अपने चरण से स्पर्श किया। भगवान् राम के समकालीन वाल्मीकि जी ही हुए थे अतः उन्हीं की लिखी बात प्रमाण हो सकती है, अन्यों की नहीं।
अब कुछ पौराणिक बंधु बोलेंगे कि आपने तुलसीदास जी का खंडन किया है, आपके लेख का उद्देश्य तुलसीदास जी का खंडन ही है। हम ऐसे लोगों को बता दें कि हमारा उद्देश्य तुलसी दास जी का खंडन नहीं अपितु संसार के समक्ष सत्य को प्रस्तुत करना है। देखिए, तुलसीदास जी अपने बारे में बालकांड में लिखते हैं-
यहां तुलसीदास जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि वे सभी विद्याओं से हीन हैं, अतः यदि उनसे कोई गलती हो रही है तो उसे स्वीकार कर के सत्य को मानें। उनकी किसी गलत बात को भी सही मानना उनके साथ अन्याय है।
पूर्वपक्ष - तुलसी दास जी बालकांड में लिखते हैं कि राम जी का अवतार अनेक बार हो चुका है और अनेकों रामायण हैं, इसलिए सभी बातें सत्य हैं। देखें प्रमाण-
उत्तरपक्ष - आपके अनुसार राम जी किसके अवतार हैं?
पूर्वपक्ष - भगवान् विष्णु जी के।
उत्तरपक्ष - एक विष्णु नाम के महापुरुष हुए थे, जो बहुत बड़े योगी थे, निराकार ईश्वर के उपासक थे और एक विष्णु परमात्मा का गुणवाचक नाम है। यदि आप यह मानते हैं कि भगवान् राम विष्णु नामक महापुरुष के अवतार थे तो वाल्मीकि जी भगवान् राम को बल में विष्णु के सदृश कहते हैं -
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः।
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः।।
(वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग श्लोक 18)
यहां सदृश शब्द से स्पष्ट है कि वे विष्णु जी के अवतार नहीं थे, अगर अवतार होते तो तुल्य शब्द नहीं आता।
और यदि आप उन्हें परमात्मा का अवतार मानते हैं तो वह भी मिथ्या है क्योंकि वेद में ईश्वर को अकायम्, अस्नाविरम् जैसे विशेषण दिये गए हैं अर्थात् ईश्वर शरीर रहित है, नस नाड़ी के बंधन से मुक्त है। जिनसे स्पष्ट है कि ईश्वर अवतार नहीं लेता। अतः वे परमात्मा भी अवतार नहीं हैं। अब जब यह सिद्ध हो गया कि भगवान् राम अवतार नहीं थे तो आपकी यह बात भी मिथ्या सिद्ध हुई कि सभी रामायण सत्य हैं क्योंकि सबमें भगवान् राम के अलग अलग अवतारों का वर्णन है। क्योंकि आपने इसके पीछे हेतु यह दिया था कि राम जी ईश्वर के अवतार हैं। आपकी अवतार वाले हेतु का तर्क व वेद विरुद्ध होने से आपकी बात भी मिथ्या सिद्ध हुई। यदि आप यह मानते हैं कि जितनी लोगों द्वारा रामायण लिखी गई, सब प्रामाणिक है तो आप बताएं कि क्या पेरियार द्वारा लिखित सच्ची रामायण भी प्रामाणिक है? उसने जो भगवान् राम आदि पर दोषारोपण किया क्या वे आपको मान्य हैं? अतः यही बात युक्तियुक्त है कि भगवान् राम के समकालीन होने से महर्षि वाल्मीकि जी कृत रामायण ही प्रामाणिक है, वह भी प्रक्षेपों को छोड़ कर।
इस कथा में कितना भाग मूल है?
अब कुछ लोगों मन में प्रश्न आ रहा होगा कि आपने इस कथा में मिलावट सिद्ध किया लेकिन अब यह भी बताएं कि इसमें से कितने श्लोक मौलिक हैं, यह प्रश्न आना स्वाभाविक है। चलिए अब हम मूल श्लोकों को भी लिख देते हैं-तां दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम्।(सर्ग ४८)
साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन्।।१०।।
मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघव:।।११।।
मिथिला में पहुंचकर जनकपुरी की सुंदर शोभा देखकर सभी महर्षि गण साधु साधु कह कर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।।१०।।
वहां मिथिला के वन में भगवान राम ने एक आश्रम देखा।।११।।
तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मण:।।११।।(सर्ग ४९)
विश्वामित्रवचश्श्रुत्वा राघवस्सहलक्ष्मण:।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह।।१२।।
ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम्।।१३।।
धूमेनाभिपरीताङ्गी दीप्तामग्निशिखामिव।।१४।
स तुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव।
मध्येंऽभसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव।।१५।।
राघवौ तु ततस्तस्या: पादौ जगृहतुस्तदा।।१७।।
पाद्यमर्घ्यं तथाऽऽतिथ्यं चकार सुसमाहिता।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा।।१८।।
हे महातेजस्वी राम! उस पुण्यकर्मा आश्रम पर चलो।।११।।
महर्षि विश्वामित्र जी का ऐसा वचन सुनकर लक्ष्मण सहित श्री राम ने उन महर्षि को आगे करके उस आश्रम में प्रवेश किया।।१२।।
और उन्होंने महाभागा अहल्या जी को देखा, तप के कारण वे तेजोमय दिखाई पड़ती थीं।।१३।।
वे धूम से घिरी हुई प्रज्वलित अग्निशिखा सी जान पड़ती थीं।।१४।।
ओले और बादलों से ढकी हुई पूर्ण चंद्रमा की प्रभा सी दिखाई देती थीं तथा जल के भीतर उद्भासित होने वाली सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा के समान दृष्टिगोचर होती थीं।।१५।।
राम व लक्ष्मण जी ने तब उनका चरण स्पर्श किया।।१७।।
अहल्या जी ने बड़ी सावधानी से पाद्य और अर्घ के साथ उनका आतिथ्य सत्कार किया। भगवान् राम जी ने शास्त्रीय विधि से उनका आतिथ्य सत्कार को स्वीकार किया।।१८।।
तत: प्रागुत्तरां गत्वा रामस्सौमित्रिणा सह।(सर्ग ५०)
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत्।।१।।
तदनंतर लक्ष्मण सहित श्रीराम विश्वामित्र जी को आगे कर के ईशानकोण की दिशा में चल कर यज्ञ मंडप में जा पहुंचे।।
इस लेख को अधिक से अधिक शेयर करें ताकि लोगों को जो अपने महापुरुषों के विषय में भ्रांतियां हुई हैं, उनका निवारण हो सके।
संदर्भित व सहायक ग्रंथ
- वाल्मीकि रामायण
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका - महर्षि दयानन्द जी सरस्वती
- ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन (पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा संपादित)
- शतपथ ब्राह्मण
- निरुक्त
- षडविंश ब्राह्मण
- तन्त्रवार्तिकम्
- The English Translation of TantraVartika
- रामायण भ्रांतियां और समाधान - स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती
- रामचरितमानस
- अध्यात्म रामायण
Indra Ahiliya is ka fake story
ReplyDelete