प्रजापति और उनकी पुत्री के विवाह की समीक्षा
यह कथा हमें मत्स्य पुराण, सरस्वती पुराण में मिलती है व इसका भविष्य पुराण में भी संकेत मिलता है।
कथा को हम मत्स्य पुराण से दे रहे हैं, आप यहां पढ़ सकते हैं-
भविष्य पुराण में इस प्रकार कहा है-
भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खंड ४ अध्याय १८ |
यहां भविष्य पुराण में इस प्रकार कहा है कि ब्रह्मा आदि का अपने बहन आदि से शादी करना वेदमय वाक्य है। इसी से इस संपूर्ण कथा का खंडन हो जाता है, क्योंकि वेद में कन्या को दुहिता कहा है। दुहिता का अर्थ करते हुए भगवान् यास्क लिखते हैं-
दुहिता दुर्हिता। दूरे हिता।
(निरुक्त ३|४)
अर्थात् कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर गोत्र और देश में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं।
इसी प्रकार वेदों के प्रकांड विद्वान, धरती के प्रथम राजा महर्षि मनु जी मनुस्मृति में लिखते हैं-
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।
(मनु० ३/५)
जो कन्या माता के कुछ की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो उस कन्या से विवाह करना उचित है।
तो यह किस प्रकार कहा जा सकता है कि अपनी बेटी आदि से शादी करना वेदानुकूल है। वेदों के दो बहुत प्रकांड विद्वान महर्षि इस बात का खंडन कर रहे हैं।
ब्रह्मा जी का आज हमें अधिक इतिहास नहीं मिलता, किंतु जितना हमें प्राप्त हुआ है वह हम प्रस्तुत करते हैं। कुछ लोग शंका करते हैं कि ब्रह्मा जी के चार मुंह थे किंतु यह बात सत्य नहीं है। ब्रह्मा जी को चतुर्मुख इस रीति से कहा जाता है कि 'चत्वारो वेदा मुखे यस्य इति चतुर्मुखः' अर्थात् चारों वेद जिसके मुख में हों वह चतुर्मुख कहाता है। इसी कारण ब्रह्मा जी को चतुर्मुख कहा जाता है न कि उनके वास्तव में चार मुख थे। महाभारत में एक प्रसंग आता है जहां भीष्म जी बताते हैं कि भगवान् ब्रह्मा जी ने एक लाख अध्याय का एक ग्रंथ लिखा। जिसके विषय में आप नीचे देख सकते हैं-
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ५९ |
इससे विदित होता है कि ब्रह्मा जी बहुत बड़े ऋषि थे। अग्नि आदि ऋषियों ने ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञान दिया, इससे भी विदित होता है कि ब्रह्मा जी बहुत बड़े योगी थे। वे इस धरती के पहले ऐसे इंसान थे, जो चारों वेदों के विद्वान थे। अतः सिद्ध होता है कि वे ऐसा गलत कार्य नहीं कर सकते। क्योंकि योगी वा ऋषि ब्रह्मचारी हुए बिना संभव नहीं। भगवान् मनु कहते हैं कि अर्थ व काम में फंसा व्यक्ति धर्म को, नहीं जान सकता व धर्म को जानने वाले वाले के लिए वेद परम प्रमाण है-
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।
मनु० 2/13
विचार करिए अगर ब्रह्मा जी इतने घोर कामी होते कि उन्होंने अपनी बेटी से ही शादी कर लिया तो क्या अग्नि आदि ऋषि उन्हें वेद का ज्ञान देते? उत्तर है कदापि नहीं। यदि ब्रह्मा जी ऐसा गलत कार्य करते तो लोग भी ऐसा ही गलत कार्य करते, क्योंकि जैसा श्रेष्ठ पुरुष आचरण करता है वैसा ही समाज भी वर्तता है। इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
गीता ३/२१
लेकिन किसी आर्ष ग्रंथों में ऐसे गलत कार्य की प्रसंशा नहीं है अपितु ऐसे दुष्ट कार्यों की निंदा है। इससे भी सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी ऐसे कार्य नहीं कर सकते।
यह कथा ब्राह्मण ग्रंथ के वचन का अर्थ का अनर्थ किया गया है। यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण की तृतीय पंचिका के 33वें कंडिका का गलत अर्थ अर्थ कर के ली गई है। वह कंडिका इस प्रकार है-
इसपर आचार्य सायण ने गलत अर्थ कर के प्रजापति व उसकी पुत्री की कथा को प्रचलित कर दिया। आचार्य सायण का संस्कृत अर्थ व उसपर सुधाकर मालवीय का भाषार्थ इस प्रकार है-
ऐतरेय की इस कंडिका का सही अर्थ महर्षि दयानंद जी ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में किया है। महर्षि जी एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने अनेकों क्षेत्रों में योगदान दिया। महर्षि जी ने सच्चे शिव की खोज में गृह त्याग दिया और अनेक स्थानों पर जा कर सत्य की खोज किया तथा प्रज्ञाचक्षु विरजानंद जी से सत्य का ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान प्राप्त करने के बाद ऋषि ने सत्य का प्रकाश किया, सत्य के अर्थ का प्रकाश हेतु अनेक शास्त्रार्थ किया व वेद की महिमा को प्रतिष्ठित किया, अनेक समाज सुधार का कार्य किया। ऋषि के जीवन को एक पैराग्राफ में बताना संभव नहीं है। ऋषि ने इस कंडिका जो भाष्य किया वह इस प्रकार है-
प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायद्दिवमित्यन्य आहुरुष समित्यन्ये। तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्। तस्य यद्रेतसः प्रथम मुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत्॥
ऐ० पं० ३। कण्डि० ३३, ३४॥
प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता ॥
शत० कां० १०। अ० २। ब्रा० २। कं० ४ ॥
तत्र पिता दुहितुर्गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः॥
निरु० अ० ४ खं० २१॥
द्यौर्मे॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्मे मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्।
उ॒त्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒३॒॑र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हि॒तुर्गर्भ॒माधा॑त्॥१॥
ऋ० मं० १॥ सू० १६४ मं० ३३॥
शास॒द्वह्नि॑र्दुहि॒तुर्न॒प्त्यं॑ गाद्वि॒द्वाँ ऋ॒तस्य॒ दीधि॑तिं सप॒र्यन्।
पि॒ता यत्र॑ दुहि॒तुः सेक॑मृ॒ञ्जन्त्सं श॒ग्म्ये॑न॒ मन॑सा दध॒न्वे॥२॥
ऋ० मं० ३। सू० ३१। मं० १॥
भाष्यम्- सविता सूर्य्यः सूर्य्यलोकः प्रजापतिसंज्ञकोऽस्ति। तस्य दुहिता कन्यावद् द्यौरुषा चास्ति। यस्माद्यदुत्पद्यते तत्तस्यापत्यवत्, स तस्य पितृवदिति रूपकालङ्कारोक्तिः। स च पिता तां रोहितां किञ्चिद्रक्तगुणप्राप्तां स्वां दुहितरं किरणैर्ऋष्यवच्छीघ्रमभ्यध्यायत् प्राप्नोति। एवं प्राप्तः प्रकाशाख्यमादित्यं पुत्रमजीजनदुत्पादयति। अस्य पुत्रस्य मातृवदुषा पितृवत्सूर्य्यश्च। कुतः! तस्यामुषसि दुहितरि किरणरूपेण वीर्येण सूर्य्याद्दिवसस्य पुत्रस्योत्पन्नत्वात्। यस्मिन् भूप्रदेशे प्रातः पञ्चघटिकायां रात्रौ स्थितायां किंचित्सूर्य्यप्रकाशेन रक्तता भवति तस्योषा इति संज्ञा। तयोः पितादुहित्रोः समागमादुत्कटदीप्तिः प्रकाशाख्य आदित्यपुत्रो जातः। यथा मातापितृभ्यां सन्तानोत्पत्तिर्भवति, तथैवात्रापि बोध्यम्।
एवमेव पर्जन्यपृथिव्योः पितादुहितृवत्। कुतः? पर्जन्यादद्भ्यः पृथिव्या उत्पत्तेः। अतः पृथिवी तस्य दुहितृवदस्ति। स पर्जन्यो वृष्टिद्वारा तस्यां वीर्य्यवज्जलप्रक्षेपणेन गर्भं दधाति। तस्माद् गर्भादोषध्यादयोऽपत्यानि जायन्ते। अयमपि रूपकालङ्कारः॥[१-३]॥
अत्र वेदप्रमाणम्
(द्यौर्मे पिता०) प्रकाशो मम पिता पालयितास्ति, (जनिता) सर्वव्यवहाराणामुत्पादकः। अत्र द्वयोः सम्बन्धत्वात्। तत्रेयं पृथिवी माता मानकर्त्री। द्वयोश्चम्वोः पर्जन्यपृथिव्योः सेनावदुत्तानयोरूर्ध्वं तान योरुत्तानस्थितयोरलङ्कारः। अत्र पिता पर्जन्यो दुहितुः पृथिव्या गर्भं जलसमूहमाधात्, आ सामन्ताद्धारयतीति रूपकालङ्कारो मन्तव्यः॥१॥
(शासद्वह्नि० ) अयमपि मन्त्रोऽस्यैवालङ्कारस्य विधायकोऽस्ति। वह्निशब्देन सूर्य्यो दुहिताऽस्य पूर्वोक्तैव। स पिता स्वस्या उषसो दुहितुः सेकं किरणाख्यवीर्य्यस्थापनेन गर्भाधानं कृत्वा दिवसपुत्रमजनय दिति॥२॥
अस्यां परमोत्तमायां रूपकालङ्कारविधायिन्यां निरुक्तब्राह्मणेषु व्याख्यातायां कथायां सत्यामपि ब्रह्मवैवर्त्तादिषु भ्रान्त्या याः कथा अन्यथा निरूपितास्ता नैव कदाचित्केनापि सत्या मन्तव्या इति ।
भाषार्थ – नवीन ग्रन्थकारों ने एक यह कथा भ्रान्ति से मिथ्या करके लिखी है, जो कि प्रथम रूपकालङ्कार की थी - (प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरम०) अर्थात् यहां प्रजापति कहते हैं सूर्य्य को, जिस की दो कन्या एक प्रकाश और दूसरी उषा। क्योंकि जो जिससे उत्पन्न होता है, वह उसका ही संतान कहाता है। इसलिये उषा जो कि तीन चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर पूर्व दिशा में रक्तता दीख पड़ती है, वह सूर्य्य की किरण से उत्पन्न होने के कारण उसकी कन्या कहाती है। वह रक्तता scattering of light के कारण दिखाई देती है, सुबह की उस बेला को वैदिक भाषा में उषा नाम दिया गया है। अब कुछ लोग कहेंगे कि क्या वेद में प्रकाश के विषय में बताया है? हम उन लोगों को बता दें कि वेदों में सभी सत्य विद्या है। वेद में सूर्य के प्रकाश के रंगों के भी विषय में बताया है। हम प्रकाश के रंगों हेतु वेद से कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं-
एको अश्वो वहति सप्तनामा।
ऋग्वेद 1-164-2
सूर्य के प्रकाश में 7 रंग होता है, यह बात इस मंत्र में पहले से है।
अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मय:।
अथर्ववेद 7/107/1
सूर्य की सात किरणें दिन को उत्पन्न करती है।
अब आपको शंका हो सकती है कि क्या वेदों में ultraviolet और infrared के विषय में नहीं बताया गया है? इसका उत्तर है, बताया गया है। इस बात को बताते हुए अथर्ववेद में कहा गया है-
ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा रुपाणि बिभ्रत:।
अथर्ववेद 1-1-1
अर्थात् सूर्य से तीन प्रकार की किरणें निकलती हैं ultraviolet, visible और infrared तथा visible spectrum 7 प्रकार की होती हैं।
उन में से उषा के सम्मुख जो प्रथम सूर्य्य की किरण जाके पड़ती है, वही वीर्य्यस्थापन के समान है। उन दोनों के समागम से पुत्र अर्थात् दिवस उत्पन्न होता है । 'प्रजापति' और 'सविता' ये शतपथ में सूर्य के नाम हैं।
तथा निरुक्त में भी रूपकालङ्कार की कथा लिखी है कि- पिता के समान पर्जन्य अर्थात् जलरूप जो मेघ है, उसकी पृथिवीरूप दुहिता अर्थात् कन्या है। क्योंकि पृथिवी की उत्पत्ति जल से ही है। जब वह उस कन्या कन्या में वृष्टि द्वारा जलरूप वीर्य को धारण करता है, तब उससे गर्भ रहकर ओषध्यादि अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं।
अब कुछ लोगों को शंका हो सकती है कि पृथ्वी बादल की पुत्री कैसे हो सकती है? इसका भी समाधान कर देते हैं। यहां गैसों के बादलों से पृथ्वी की उत्पत्ति बताई गई है। आधुनिक विज्ञान भी गैसों में बादलों से पृथ्वी की उत्पत्ति मानता है। इसीलिए Stephen Hawking अपनी पुस्तक A Brief History of Time में लिखते हैं-
यहां हॉकिंग ने धरती की उत्पत्ति बताई है किंतु अगले पैराग्राफ में उनसे यह त्रुटि भी थोड हो गई है। दूसरे पैराग्राफ में स्टीफन हॉकिंग ने बताया है कि पहले ऑक्सीजन नहीं थी लेकिन समुद्र था, और उस समय ऑक्सीजन किसी फॉर्म में उपलब्ध नहीं थी, लेकिन कुछ जलीय जीवों ने इसे अपने अंदर से अन्य तत्व खा कर ऑक्सीजन रिलीज किया। तो यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब ऑक्सीजन ही नहीं था तो समुद्र का अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है तथा जब ऑक्सीजन किसी फॉर्म में उपलब्ध ही नहीं थी तो जीवों ने जीवों ने ऑक्सीजन कैसे रिलीज किया?
इस कथा का मूल ऋग्वेद में इस प्रकार है कि (द्यौर्मे पिता०) द्यौ जो सूर्य्य का प्रकाश है, सो सब सुखों का हेतु होने से मेरे पिता के समान और पृथिवी बड़ा स्थान और मान्य का हेतु होने से मेरी माता के तुल्य है। (उत्तान०) जैसे ऊपर-नीचे वस्त्र की दो चांदनी तान देते हैं, अथवा आमने सामने दो सेना होती हैं, इसी प्रकार सूर्य्य और पृथिवी, अर्थात् उपर की चांदनी के सामन सूर्य्य, और नीचे के बिछौने के समान पृथिवी है। तथा जैसे दो सेना आमने-सामने खड़ी हों, इसी प्रकार सब लोकों का परस्पर सम्बन्ध है। इस में योनि अर्थात् गर्भस्थापन का स्थान पृथिवी, और गर्भस्थापन करनेवाला पति के समान मेघ है। वह अपने बिन्दुरूप वीर्य्य के स्थापन से उसको गर्भधारण कराने से ओषध्यादि अनेक सन्तान उत्पन्न करता है, कि जिनसे सब जगत् का पालन होता है॥१॥
(शासद्वहि०) सब का वहन अर्थात् प्राप्ति करानेवाले परमेश्वर ने मनुष्यों की ज्ञानबुद्धि के लिये रूपकालङ्कार कथाओं का उपदेश किया है। तथा वही (ऋतस्य०) जल के धारण करनेवाला, (नप्त्यङ्गा०) जगत् में पुत्रपौत्रादि का पालन और उपदेश करता है। (पिता यत्र दुहितु:०) जिस सुखरूप व्यवहार में स्थित होके पिता दुहिता में वीर्य्य स्थापन करता है, जैसा कि पूर्व लिख आये हैं, उसी प्रकार यहां भी जान लेना। जिसने इस प्रकार के पदार्थ और उनके सम्बन्ध रचे हैं, उसको हम नमस्कार करते हैं॥२॥
जो यह रूपकालङ्कार की कथा अच्छी प्रकार वेद ब्राह्मण और निरुक्तादि सत्यग्रन्थों में प्रसिद्ध है, इसको ब्रह्मवैवर्त्त श्रीमद्भागवतादि मिथ्या ग्रन्थों में भ्रान्ति से बिगाड़ के लिख दिया है। तथा ऐसी ऐसी अन्य कथा भी लिखी हैं। उन सब को विद्वान् लोग मन से त्याग के सत्य कथाओं को कभी न भूलें।
यह निराकरण ऋषि ने एक विज्ञापन में भी दिया है, जो इस प्रकार है-
ऋषि दयानंद सरस्वती का पत्र व्यवहार और विज्ञापन भाग १
चतुर्थ संस्करण (सं० २०५०, आश्विन, पूर्णिमा अक्टूबर सन् १९९३)
पूर्ण संख्या - ७४, Pg. १००
अब हम इस कंडिका पर आचार्य अग्निव्रत जी का भाष्य देते हैं। किंतु हम प्रथम थोड़ा आचार्य जी के विषय में जान लेते हैं। आचार्य जी ने पूरे ऐतरेय का वेद विज्ञान आलोक नाम से वैज्ञानिक भाष्य किया है। आचार्य जी ने सृष्टि के विषय में ऐसे ऐसे बातें वेद विज्ञान आलोक में बताया है, जिसके विषय में आधुनिक विज्ञान या तो बहुत उलझा हुआ महसूस करता है या उसके विषय में अभी कल्पना भी नहीं करता। आचार्य जी ने big bang theory की वैज्ञानिक तथ्यों से खंडन कर के वेद विज्ञान आलोक में वैदिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति बताया है। यहां हम केवल एक कंडिका का अर्थ दे रहे हैं, ऐतरेय में 40 अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय में अनेक कंडिका है, प्रत्येक कंडिका में सृष्टि के गूढ़ रहस्य को समझाया गया है। आचार्य जी वेद की गरिमा व महिमा को स्थापित करने में वह दुर्लभ कार्य कर रहे हैं, जो संभवतः वर्तमान समय में कोई नहीं कर रहा। महर्षि दयानंद जी ने जो कहा था कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, उन्होंने इस विषय में अपने ग्रंथों में कई संकेत दिया है किंतु समय अभाव के कारण वे इस बात को विस्तार से नहीं बता सके, आचार्य जी महर्षि दयानंद जी के इसी वाक्य को सिद्ध करने में लगे हुए हैं। अब हम आचार्य जी का भाष्य यहां प्रस्तुत करते हैं-
१. प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायत्, दिवमित्यन्य आहुः, उषसमित्यन्ये, तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्येत् तं देवा अपश्यन्। अकृतं वै प्रजापतिः करोतीति ते तमैच्छन्, य एनमारिष्यत्येतमन्योन्यस्मिन्नाविन्दन्, तेषां या एव घोरतमास्तन्व आसंस्ता एकथा समभरन्, ताः संभृता एष देवोऽभवत् तदस्यैतद् भूतवन्नाम।। भवति वै स योऽस्येतदेवं नाम वेद।
[दुहिता कन्या इव किरणः (तु.म.द.ऋ. भा. ४.५१.१०), (कन्या = कन्या कमनीया भवति, क्वेयं नेतव्येति वा कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः नि.४.१५), दूरे हिता कान्तिरूषा (तु.म.द.ऋ. भा. १.११६.१७), दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा (नि.३.४)। ऋश्यः = ऋषति गच्छतीति ऋष्यः (उ.को.४.११३)। (कण्डिका में मूर्धन्य के स्थान पर तालव्य का प्रयोग छान्दस है।) रोहितः = अंगुलिनाम (निघं २.५), एतद्वा आसां (गवाम् ) बीजं यद्रोहित रूपम् (मै.४.२.१४), ये (पशव:) प्रथमे ऽसृज्यन्त ते रोहिताः (जे.बा.३.२६३) । मृत्युः = मृत्युर्वै यमः (मै.२.५.६), अपानान्मृत्युः (ऐ. आ. २.४.१)। प्रजापतिः = सोमो हि प्रजापतिः (श. ५.१.५.२६)]
व्याख्यानम्- जैसा कि हम अवगत है कि अप्रकाशित और शीतल सूक्ष्म सोम पदार्थ से विभिन्न प्रकार की आग्नेय तरंगे उत्पन्न होती हैं। इस कारण ये तरंगे प्रजा और वह सोम पदार्थ प्रजापति कहलाता है। जब ये प्रजारूप तरंगें अपने उत्पादक सोम पदार्थ से दूर स्थित होकर आकर्षण-विकर्षण तथा प्रकाश आदि गुणों से युक्त होती हैं तथा सोम पदार्थ की अति सूक्ष्म रश्मियों को आवश्यक मात्रा में अवशोषित वा आकर्षित करती रहती है, ऐसी अवस्था में ये किरणे सोमरूपी प्रजापति की दुहिता कहलाती हैं। यह प्रजापति रूप सोम पदार्थ अति विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ प्रायः अव्यक्त अवस्था में होता है। इसी कारण कहा है- अनिरुक्त उ वे प्रजापतिः (की बा.२३.२ तां. ७.८.३), अपरिमितः प्रजापतिः (तै.सं. १. ७.३.२.८.१३)।
वस्तुतः यह सोम तत्त्व मनस् तत्व एवं सूक्ष्म वाग्रश्मियों का मिश्रण होता है। उधर वे दुहिता रूप तरंगों को कुछ विद्वान् 'दिव' तो कुछ 'उप' कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उन तरंगों में विद्युत, प्रकाश और ऊष्मा का सम्मिश्रण होता है। महर्षि ऐतरेय महीदास उनकी रोहित संज्ञा भी करते इसका तात्पर्य यह है कि ये तरंगें रक्तवर्णीय किंवा ऐसे विकिरणों के बीज के समान होती है और इनकी दीप्ति सुन्दर होती है। इस प्रकार का शोभन किरण समूह प्रजापति रूप सोम तत्त्व से दूर स्थित होता है और वह सोम तत्त्व ही उन किरणों की कान्ति का उत्पादक होता तत्त्व उन किरणों के साथ सम्पर्क में नहीं आता। यदि ऐसा हो जाये तो सम्पूर्ण किरण समूह अप्रकाशित परन्तु और शीतल सोम तत्त्व से मिलकर कान्तिहीन हो जाये। जब कभी सृष्टि में इस प्रकार की स्थिति बनता वह सम्पूर्ण सो है कि सम्पूर्ण सोम तत्त्व ही उन किरणों की ओर प्रवाहित होने लगे, तो यह किया सृष्टि निर्माण बाधक सिद्ध होती है। महर्षि ऐसी ही अवाञ्छनीय घटना का यहाँ वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में कभी ऐसी घटना घटी, उस समय देवों अर्थात् मन और वाक् तत्व से संयुक्त प्राथमिक प्राणों ने इसे रोकने का प्रयास किया परन्तु वे उस सोम पदार्थ के प्रवाह को नहीं रोक सके। उस समय उन प्राथमिक प्राणों से कुछ ऐसे विकिरण उत्पन्न हुए जो अत्यन्त तीव्र थे। ऐसे वे तीव्रतम विकिरण उन प्राणों के द्वारा एकत्र होकर और भी तीक्ष्ण होने लगे। वे ऐसे विकिरण भूतवान् कहलाये क्योंकि वे विभिन्न प्रकार के उत्पन्न सूक्ष्म प्राणों से उत्पन्न हुए थे और उनसे ही युक्त थे। उन ऐसे प्राणों का सोम प्रजापति से किस प्रकार संघर्ष होता है, यह इसी खण्ड में आगे वर्णित है।
इस प्रकार की स्थिति बनने पर वह देव पदार्थ उपर्युक्त प्रकार से तीक्ष्ण ठोकर समर्थ और सबल होता है।
वैज्ञानिक भाष्यसार - इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म, शीतल और अप्रकाशित मरुद्रश्मियों के सम्पीडित होने से विभिन्न विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की उत्पत्ति होती है। इन तरंगों से युक्त कॉस्मिक पदार्थ जब सुन्दर और लाल वर्ण की कान्ति से युक्त होकर इस ब्रह्माण्ड में भासने लगता और जिसमें अनेक विद्युदावेशित कणों का विशाल भण्डार होता है, उस समय वह सूक्ष्म मरुद्रश्मियों के द्वारा सतत पोषण प्राप्त करता रहता है। पुनरपि वे सूक्ष्म मरुद्रश्मियां व्यापक स्तर पर उस पदार्थ के साथ संयुक्त नहीं होतीं क्योंकि ऐसा होने पर उस कॉस्मिक पदार्थ की कान्ति व ऊष्मा अत्यन्त क्षीण होने की आशंका रहेगी। दूसरा पक्ष यह भी है कि वह सोम पदार्थ (मरुद्रश्मिया) इस सम्पर्क प्रक्रिया से सम्पीडित होकर ऋणावेशित कणों में वृद्धि कर दे, जिसके कारण वह कॉस्मिक पदार्थ ऋणावेशित रूप प्राप्त कर ले किंवा ॠणावेशित और धनावेशित कण परस्पर संयुक्त होकर ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जायें, जिससे लोकों की निर्माण की प्रक्रिया ही भंग हो जाये। जब कभी ब्रह्माण्ड में ऐसी अनिष्ट घटना घटती है, उस समय प्राणादि पदार्थों के द्वारा ऐसे तीक्ष्ण विकिरण उत्पन्न होते हैं, जो घटना को रोकने में समर्थ होते हैं।
२. तं देवा अब्रुवन्। अयं वै प्रजापतिरकृतमकरिमं विध्येति स तथेत्यब्रवीत् स वै वो वरं वृणा इति; वृणीष्वेति स एतमेव वरमवृणीत, पशूनामाधिपत्यं तदस्यैतत् पशुमन्नाम।।
पशुमान् भवति योऽस्यैतदेवं नाम वेद ।।
तमभ्यायत्याविध्यत् स विद्ध ऊर्ध्व उदप्रपतत्, तमेतं मृग इत्याचक्षते, य उ एव मृगव्याधः स उ एव सः, या रोहित् सा रोहिणी, यो एवेषुस्त्रिकाण्डा सो एवेषुस्त्रिकाण्डा।।
तद्वा इदं प्रजापते रेतः सिक्तमधावत्, तत्सरोऽभवत्, ते देवा अब्रुवन्, मेदं प्रजापते रेतो दुषदिति, यदब्रुवन्, मेदं प्रजापते रेतो दुषदिति, तन्मादुषमभवत्, तन्मादुषस्य मादुषत्वं, मादुषं ह वै नामैतद् यन्मानुषं तन्मादुषं सन्मानुषमित्याचक्षते परोक्षेण; परोक्षप्रिया इव हि देवाः॥९॥
{अभ्यायत्य = (आ+यम् विस्तार करना, फैलाना, ऊपर खींचना, नियन्त्रित करना = आप्टेकोष ) । व्याधः = (वि + आङ् + डुधाञ्, व्यथ ताडने ) । इषुः = ईषतेर्गतिकर्मणो वधकर्मणो वा (नि.६.१८) आचक्षते = चष्टे पश्यतिकर्मा (निघं.३.११), चक्षसे दर्शनाय (नि.६.२७) । काण्डम् = काम्यते तत् काण्डम् (तु.उ.को.१.११५)। मानुषम् = यन्मन्द्रं मानुषं तत् (ते.सं. २.५.११.१), पशवो मानुषाः (क.४१.६), (मन्द्रम् = प्रशंसनीयम् म.द.ऋ. भा. ४.२६.६), (मन्द्रा वाङ्नाम निघं.१.११)। मादुष= दोषरहितं रेत इति सायण:}
व्याख्यानम्- इस कण्डिका में उपर्युक्त भूतवान् विकिरण समूह एवं प्रजापति का संवाद चेतनवत् दर्शाया है, जिसका आशय निम्नानुसार है उन उपर्युक्त देवों अर्थात् मन-वाक् संयुक्त प्राथमिक प्राणों ने उस मन्दगामी सोम पदार्थ को नियन्त्रित करने वा रोकने के लिए उन तीक्ष्ण विकिरणों को प्रेरित किया, जिससे कि वह सोम पदार्थ उपरिवर्णित संदीप्त एवं तेजयुक्त कॉस्मिक पदार्थ को निस्तेज न कर सके। तब उन तीक्ष्क्षण रूद्र रूप विकिरणों ने उन सोम रश्मियों पर प्रहार किया। इस प्रहार की क्रियाविधि और परिणाम अग्रिम कण्डिकाओं में वर्णित है। इस प्रहार के पश्चात् वह रुद्र रूप तीक्ष्ण विकिरण और भी तीक्ष्ण व श्रेष्ठ हो गया। वह विभिन्न मरुद रूप पशु रश्मियों को सब ओर से नियन्त्रित करने में सक्षम हो गया। इस कारण वह विभिन्न मरुद्रश्मियों से युक्त होकर पशुमान् और पशुपति कहलाया। इस प्रकार की स्थिति बनने पर वे सभी रूद्र संज्ञक विकिरण एवं प्राथमिक प्राणादि पदार्थ विभिन्न मरुद्रश्मियों से युक्त हो जाते हैं।।
जब उन तीक्ष्ण रुद्ररूप विकिरणों ने उन मन्दगामी अप्रकाशित सोम रश्मियों को तोड़ना प्रारम्भ किया किंवा उन पर तीव्र प्रहार किया, तब वे सोम रश्मियां सब ओर फैलकर नियन्त्रित हो गई और वे सोम रश्मियां उन दुहितारूप किरणों से पृथक् होकर ऊपर की ओर उठने लगी और यह क्रिया अति तीव्र रूप से होने लगी। वे ऊपर उठती हुई सोम रश्मियां मृग रूप हो गई। इसका तात्पर्य यह है कि वे रश्मियां शुद्ध रूप में प्रकाशित होने वाली और अति तीव्रगामी हो गई। इस प्रकार जो सोम रश्मिया स्वयं अप्रकाशित और मन्दगामी थीं, वे तीव्रगामी और प्रकाशवती विकिरणों में परिवर्तित हो गई। इसके साथ ही जिन रुद्ररूप तीक्ष्ण विकिरणों ने उन सोम रश्मियों पर प्रहार किया था, वे मृगव्याध का रूप हो गये। इसका तात्पर्य यह है कि वे ऐसी तेजस्वी, शुद्ध और तीव्रगामी विकिरणों में परिवर्तित हो गये, जो विभिन्न मरुद्रश्मियों को ताड़ने, दबाने, उन्हें नियन्त्रित करने और सब ओर से उन्हें विशेषरूप से प्राप्त करने में सक्षम थे। इसके साथ ही वे दुहिता संज्ञक लाल रंग की तेजस्वी किरणों से परिपूर्ण पदार्थ रोहिणी का रूप गया। इसका तात्पर्य यह है कि वह अपने स्थान से कुछ ऊपर उठ गया एवं अनेक प्रकार के परमाणुओं का बीज रूप बन गया। अब महर्षि कहते हैं कि उन रुद्ररूप विकिरणों का इषु अर्थात् तीव्र गतिशील और हिंसक एवं अग्रगामी भाग तीन समूहों में विभक्त होकर तीन दिशाओं में प्रहार कर रहा था, इस कारण उसने सोम पदार्थ का तीन भागों में भेदन कर दिया।
इस संघर्ष में उन सोम रश्मियों, जो उपर्युक्तानुसार मृगरूप धारण कर चुकी थीं, उनका रेत अर्थात् ऐसी सूक्ष्म तेजस्वी रश्मियां जो विशेष उत्पादन सामर्थ्य से युक्त थीं, पृथक् होकर वह चलीं और अन्तरिक्ष में सूक्ष्म वाग्रश्मियों के रूप में एकत्र होने लगीं। उस समय प्राणादि प्राथमिक प्राणों ने उन रश्मियों को आच्छादित करके अपनी सुरक्षा प्रदान की। इसके कारण वे तेजस्वी वाग्रश्मियां “मादुष” कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि वे रश्मियां पूर्णतः निर्दोष अर्थात् शुद्ध रूप में होती हैं और इन्हीं रश्मियों को “मानुष" नाम से भी जाना जाता है। ये रश्मियां भी पशुरूप अर्थात् प्रशंसनीय मरुद्र रूप ही होती हैं परन्तु उनका तेज ऐसा होता है कि जो किसी तकनीक से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इन ऐसी परोक्ष तेज वाली रश्मियों को देव अर्थात् प्राथमिक प्राणादि पदार्थ सदैव आकर्षित किये रहते हैं। वस्तुतः ये देव पदार्थ स्वयं परोक्ष रूप वाले ही होते हैं और इनके प्रत्येक कर्म भी परोक्ष और सूक्ष्म ही होते हैं।
वैज्ञानिक भाष्यसार - उपर्युक्त तीक्ष्ण विकिरणों के द्वारा अप्रकाशित और ठण्डे सोम पदार्थ पर जब तीव्र आघात होता है, उस समय वे तीक्ष्ण विकिरण विभिन्न मरुद्रश्मियों को नियन्त्रित करके उनमें से कुछ रश्मियों को अपने साथ संयुक्त कर लेते हैं और वे सोम रश्मियां, अति तीव्रगामी और दीप्तियुक्त होकर ऊपर की ओर प्रवाहित होने लगती हैं और वे तीक्ष्ण रश्मिया जिन्होंने सोम रश्मियों पर प्रहार किया था और भी अधिक भेदन शक्तिसम्पन्न हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त पूर्ववर्णित लाल रंग की रश्मियों से । युक्त कॉस्मिक पदार्थ कुछ ऊपर की ओर उठकर अनेक तत्त्वों के निर्माण का उपादान कारण बन जाता है। उपर्युक्त सोम रश्मियों पर जो हिंसक प्रहार होता है, यह तीन दिशाओं से एक साथ होता है और वह सोम पदार्थ को तीन भागों में विभक्त कर देता है। इस संघर्ष में उन सोम अर्थात् मरुद्रश्मियों का सूक्ष्म बीजरूप रश्मिसमूह अन्तरिक्ष में एकत्र होने लगता है। इस रश्मिसमूह की रश्मिया किसी भी भौतिक तकनीक से प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आ सकती। इन रश्मियों को प्राणापानादि रश्मियां आकर्षित और आच्छादित करके शुद्ध और संरक्षित रूप प्रदान करती हैं। ये प्राणापानादि पदार्थ और उनकी क्रियाएं भी किसी भीतिक तकनीक से अनुभव में नहीं आ सकतीं।
आवश्यक एवं विशेष सूचना- यह हमें आचार्य जी ने ही दिया है व इस कंडिका के भाष्य को दिखाने की अनुमति भी प्रदान किया है। किंतु वेद विज्ञान आलोक की पीडीएफ बनाना वा किसी कंडिका का फोटो वा उसके अंदर की लिखी जानकारी सोशल मीडिया पर पब्लिक वा पर्सनल शेयर करना अपराध है, ऐसा करने वाले पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।
अब कुछ लोग कहेंगे कि सायण के प्रमाण को आप अस्वीकार कर प्राचीन आचार्यों की बात को प्रमाण नहीं मान रहे। वस्तुतः ऐसे आक्षेप लगाने वाले लोगों ने प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों को नहीं पढ़ा है। वस्तुतः ऋषियों के ग्रंथों वा वेद के अर्थ को समझने के लिए ऋषि लोग ही प्रमाण होते हैं न कि कोई ऐसा आचार्य जिसने वेद व ऋषियों के ग्रंथों को समझा ही नहीं, क्योंकि महर्षि गौतम न्यायदर्शन में लिखते हैं "आप्तोपदेशः शब्दः" अर्थात् आप्त का ही वचन शब्द प्रमाण होता है तथा इस सूत्र के वात्यायन भाष्य के अनुसार साक्षात्कृतधर्मा को ही आप्त कहा जाता है। अस्तु! ऐसे हठी दुराग्रही लोगों के लिए हम आचार्य कुमारिल भट्ट जी का प्रमाण देते हैं, स्वामी कुमारिल जी का काल आचार्य सायण से पूर्व का है। आचार्य कुमारिल भट्ट जी के समय भारत पर बौद्ध मतावलंबियों का राज्य हो गया था, वे लोग वैदिक धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए थे। वैदिकों पर अत्याचार करते थे। उस समय स्वामी कुमारिल भट्ट जी ने वैदिक ग्रंथों का स्वाध्याय किया तत्पश्चात बौद्ध ग्रंथों का भी स्वाध्याय किया। दिए वे सभी बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करते गए और उन्होंने अपने बौद्ध आचार्य जिससे उन्होंने बौद्ध मत के विषय में शिक्षा लिया था, वह उस समय का बहुत बड़ा बौद्ध आचार्य माना जाता था उसको शास्त्रार्थ में पराजित किया। शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो हारेगा वह अग्नि में प्रवेश करेगा। जिसके कारण इनके बौद्ध आचार्य को स्वयं का अग्निदाह करना पड़ा। जिसके कारण इनको आत्मग्लानि हुई कि मैंने जिससे शिक्षा लिया उसी के साथ ऐसा कर्म किया, जिस कारण इन्होंने भी आत्मदाह कर लिया। वैदिक धर्म को स्थापित करने में महान योगदान देने वाले आचार्य कुमारिल जी ने भी प्रजापति व उसकी पुत्री की कथा का ऐसा ही अर्थ किया है-
अब इसका अंग्रेजी अनुवाद देखें-ज्योतिबा फुले ने गुलमगिरी में जो ब्रह्मा जी को गाली दिया था, वह उसकी ही मूर्खता को सिद्ध करता है। क्योंकि जो ये पढ़े होते तो इन्हें कुमारिल भट्ट जी का अर्थ अवश्य विदित होता। इससे प्रमाणित होता है कि वे कुछ भी सुन कर लिख मारे, सत्य को जानने के लिए क्रॉस चेक नहीं किया। अतः ऐसे लोगों की बातें सुन कर भ्रमित न हुआ करें।
अब आपको शंका हो सकती है कि ऐतरेय की इस कंडिका के भाष्य पर आचार्य जी और महर्षि जी के भाष्य में भिन्नता है, तो उत्तर है कि ब्राह्मण ग्रंथों के किसी किसी वचन का एक से अधिक प्रकार का भी अर्थ संभव है।
अब कुछ लोग कहेंगे कि आचार्य सायण के भाष्य को ही हम प्रामाणिक मानेंगे अन्यों के नहीं क्योंकि आचार्य सायण के भाष्य से ही उन लोगों की ब्रह्मा जी के चरित्र को गिराने की मंशा पूरी हो सकती है। ऐसे लोगों से हम कहना चाहेंगे कि आचार्य सायण ने यहां केवल व्याकरण से अर्थ किया है, जबकि ब्राह्मण ग्रंथों की शैली भी यौगिक है। वे ऐसी शैली में लिखे गए हैं जिसे कोई पुण्यात्मा मनुष्य ही समझ सकता है। ब्राह्मण ग्रंथों को समझने हेतु सत्यार्थ प्रकाश में बताई गई पठन पाठन विधि के अनुसार पढ़ना होगा। ब्राह्मण ग्रंथों व वेद के हर शब्द का अर्थ करने के लिए यह देखना पड़ेगा कि उस शब्द का ऋषियों ने क्या क्या अर्थ किया है व कौन सा अर्थ उस प्रकरण में उस शब्द के लिए उपयुक्त रहेगा। तथा वेद में अनित्य इतिहास नहीं होने से ब्राह्मण ग्रंथों में भी अधिक अनित्य इतिहास नहीं है। इस ऋषि इस विषय में का ऐसा मत है, ब्राह्मण ग्रंथों में केवल इतना ही अनित्य इतिहास है, कहीं उनके गोत्र आदि के विषय में बता दिया है, इससे अधिक अनित्य इतिहास नहीं है। वेद में ऐसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में मिला था। जब ब्राह्मण ग्रंथों में मानवीय इतिहास का वर्णन नहीं है तो वहां प्रजापति और उनकी पुत्री की कहानी क्यों होगी? इस कारण भी आचार्य सायण का भाष्य अमान्य है।
अब कुछ लोग कहेंगे कि वेद में इतिहास नहीं है, इसका क्या प्रमाण है। तो संक्षेप में इस प्रश्न पर भी विचार कर लेते हैं। ऋषियों के ग्रंथों और स्वयं वेद में यह शब्द प्रमाण मिलता है कि वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने मनुष्यों को दिया। इसीलिए वेद को अपौरुषेय कहा जाता है। वेद का अपौरुषेय होने का प्रमाण-
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रं इति स्थितिः।।
(मनु. अ. १२ श्लो. ९४)
पितर=पालक राजा आदि विद्वान् और अन्य मनुष्यों का वेद सनातन नेत्र=मार्ग-प्रदर्शक है, और वह अशक्य अर्थात् जिसे कोई पुरुष नहीं बना सकता इस प्रकार अपौरुषेय हैं, तथा अनन्त सत्यविद्याओं से युक्त है, ऐसी निश्चित मान्यता है।
वेद सृष्टि के आदि में मिला इसका प्रमाण-
स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवसच्छेदात्।।
[समाधि पाद सूत्र २६]
अर्थात् वह ईश्वर पूर्वजों का भी गुरु है, काल से उसका बाध न होने के कारण, इस सूत्र में पूर्व शब्द से अभिप्राय अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामक महर्षियों से है। सृष्टि के आदि में परमात्मा जिनके हृदय में वेद का प्रकाश करता है, पूर्वज शब्द सबसे प्रथम अर्थात् सृष्टि के आदि में जन्म लेने के कारण आता है।
इसी सूत्र पर महर्षि व्यास जी भाष्य लिखते हैं-
पूर्वे हि गुरवः कालेनावच्छिद्यन्ते। यात्रावच्छेदार्थेन कालो नोपावर्तते स एष पूर्वेषामपि गुरुः। यथाऽस्य सर्गस्याऽऽदौ प्रकर्षगत्या सिद्धस्तथाऽतिक्रान्तसर्गादिष्वपि प्रत्येतव्यः।
अर्थात् पूर्वज गुरु अग्नि आदि काल से बाध हो जाते हैं। जिसमें सीमाबद्ध रूप से काल नहीं वर्तता अर्थात् जो त्रिकालाबाध्य है। वह यह ईश्वर प्रथम गुरुओं का भी गुरु है।जैसे इस सृष्टि की आदि में इसकी सर्वज्ञता सिद्ध है, वैसे ही सृष्टि के अंत में भी जाननी चाहिए।
इस प्रकार ऋषियों के प्रमाणों से सिद्ध है कि वेद ज्ञान को सृष्टि के आदि में परमात्मा ने मनुष्यों को दिया। ईश्वर ने जब मनुष्य को आदि सृष्टि में वेद का ज्ञान दिया तो उसमें अनित्य इतिहास क्यों कर हो सकता है? हां, उसमें नित्य इतिहास अवश्य रहेगा। मनुष्यों का इतिहास नित्य इतिहास नहीं अपितु अनित्य इतिहास है क्योंकि यह इतिहास उस मनुष्य के उत्पन्न होने से पूर्व नहीं था। जबकि सृष्टि उत्पत्ति आदि नित्य इतिहास है क्योंकि वेद में कहा है "यथापूर्वमकल्पयत्" जिसका अर्थ है जिस प्रकार सृष्टि पूर्व कल्प में बनी थी उसी प्रकार इस कल्प में भी है, अर्थात् जिस प्रकार पूर्व के कल्पों में सृष्टि उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार इस कल्प में भी हुई है व आगे के कल्पों में भी होगी। सृष्टि उत्पत्ति का इतिहास इसलिए होगा क्योंकि मनुष्य इससे सृष्टि को समझ सके जिससे सृष्टि का अच्छी तरह लाभ ले कर अपनी और दूसरों की उन्नति करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर सके। वेद में मानव के लिए आवश्यक सभी सत्य विद्याएं हैं, इसीलिए भगवान् मनु कहते हैं "सार्वज्ञान मयो हि सः"। वस्तुतः वेद से ही मनुष्यों ने अपने नाम कर्म आदि सब सीखा, इसीलिए मनुष्यों को यह भ्रम हो जाता है कि वेदों में मानवीय इतिहास है। इस विषय में भगवान् मनु का प्रमाण-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे।।
मनु० १/२१
जैसे आज किसी व्यक्ति का नाम राम हो और वह वाल्मीकि रामायण में अपना नाम देख कर बोले कि रामायण में मेरा इतिहास है। जैसे यह बात बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है, वैसे ही वेदों में यौगिक शब्दों को देख कर उनसे मानवीय वा किसी नदी आदि के इतिहास की कल्पना करना बुद्धिमानी नहीं। अतः सायण भाष्य प्रामाणिक नहीं है।
इसी प्रकार शतपथ प्रथम कांड के सप्तम अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण के प्रथम तीन कंडिका का भी अर्थ का अनर्थ कर के प्रजापति व उनकी दुहिता की कथा बना दी। वह कंडिका इस प्रकार है-
पि॒ता यत्स्वां दु॑हि॒तर॑मधि॒ष्कन्क्ष्म॒या रेत॑: संजग्मा॒नो नि षि॑ञ्चत्।स्वा॒ध्यो॑ऽजनय॒न्ब्रह्म॑ दे॒वा वास्तो॒ष्पतिं॑ व्रत॒पां निर॑तक्षन्॥
- ऋग्वेद
- अथर्ववेद
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका
- वेद विज्ञान आलोक
- निरुक्त
- मनुस्मृति
- ऐतरेय
- शतपथ
- योग दर्शन
- भविष्य पुराण
- मत्स्य पुराण
- तन्त्रवार्तिकम्
- The English Translation of TantraVartika
- उपदेश मंजरी
- पौराणिक पोल प्रकाश
- महाभारत
- सत्यार्थ प्रकाश
- A Brief History of Time
- ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन (पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा संपादित)
Very detailed and informative article, thank you so much 🙏🏻
ReplyDeleteवाह अति उत्तम
ReplyDeleteबहुत सुंदर बहुत अच्छा
ReplyDeleteBrahma never married his Daughter
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