विष्णु वृंदा कथा की समीक्षा
जैसा कि आप सभी को विदित है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने हमारे महापुरुषों पर दोष लगाया था। जिसमें से इंद्र अहल्या कथा के ऊपर लगाए गए आक्षेप का खंडन हमने पूर्व के लेख में किया था, और इस लेख में हम विष्णु व वृंदा कथा की समीक्षा करेंगे। हम बता दें तो पुराण ऋषि कृत नहीं हैं, इसे मध्यकालीन आचार्यों ने लिख कर व्यास जी के नाम से बता दिया जबकि व्यास जी ने कोई पुराण नहीं रचे थे। जो आप इस बात को जानना चाहें तो 18 पुराणों को स्वयं पढ़ें और अपनी बुद्धि से निष्पक्ष हो कर विचार करें कि क्या यह किसी एक व्यक्ति की कृति संभव है? क्या ऐसी बातें कोई विद्वान लिख सकता है, अगर नहीं तो व्यास जी जैसा महर्षि कैसे लिख सकता है। इसलिए हम पुराण को प्रामाणिक नहीं मानते, हम धर्म के लिए केवल व वेदानुकूल ऋषि कृत आर्ष ग्रंथों को ही प्रमाण मानते हैं। महाभारत काल तक व उसके पूर्व के ऐतिहासिक ग्रंथों में केवल रामायण व महाभारत ही प्रामाणिक हैं, वह भी मिलावट भाग को छोड़ कर, क्योंकि ये दोनों ऋषि कृत हैं। इतिहास के अन्य ऋषिकृत ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं होते। विष्णु व वृंदा की कथा पद्म पुराण आदि में आई है। अतः हम उस कथा को प्रमाण नहीं मानते तथापि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने हमारे महापुरुषों पर दोषारोपण किया है इसलिए हमें इसकी समीक्षा आवश्यक प्रतीत हुई अतः हम यह लिख लिख रहे हैं।
कथा इस प्रकार है कि जालंधर नाम का एक असुर था, जिसकी उत्पत्ति समुद्र से हुई थी। इसकी पत्नी का नाम वृंदा था, जो बहुत ही सती स्त्री थी। इसने देवों से युद्ध कर के उन्हें पराजित कर के स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। फिर उसने वैकुंठ लोक जा कर विष्णु जी को पराजित करने का सोचा और लक्ष्मी जी को छीनना चाहता था। जब वह बैकुंठ पर आक्रमण के लिए गया तो तब लक्ष्मी जी ने कहा कि हम दोनों ही समुद्र से उत्पन्न हैं इसलिए हम भाई बहन हैं। जालंधर को यह बात अच्छी लगी और वह लक्ष्मी जी को बहन मान कर वापस आ गया। फिर वह शिव जी के धाम में गया। वहां उसने पार्वती जी को शिव जी से छीनना चाहा तो इसपर शिव व जालंधर के बीच बहुत युद्ध हुआ। किंतु उसकी पत्नी के सतीत्व के कारण शिव जी उसे पराजित नहीं कर पा रहे थे। इसलिए विष्णु जी छल कर से वृंदा के साथ जालंधर रूप में रहने लगे और वृंदा का सतीत्व भंग होने से जालंधर मारा गया। जब वृंदा को यह पता तो उसने विष्णु जी को शाप दिया कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया इसलिए तुम्हारी स्त्री का भी कोई हरण करेगा तत्पश्चात उसने शरीर त्याग दिया। फिर उसके बाद उसके राख से तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ, जो विष्णु जी को बहुत प्रिय है।
इसी प्रकार की थोड़े पाठभेद के साथ शंखचूर्ण व उसकी पत्नी तुलसी की भी कथा आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कथा विष्णु व वृंदा कथा के बाद लिखी गई है।
वस्तुतः यह सब कथाएं वेद व अन्य आर्ष ग्रंथों के वचनों को न समझ कर व विधर्मियों द्वारा महापुरुषों को नीचा दिखाने हेतु गढ़ी गई। अतः बिना विचारे संस्कृत के हर बात को परम प्रमाण न मानें, हर बात को तर्क व प्रमाण से परीक्षण अवश्य करें। ऋषि महर्षियों ने भी यही कहा है। न्याय दर्शन हमें प्रमाण व तर्क से सत्य का परीक्षण करना सिखाता है।
अब विचार करते हैं कि क्या वृंदा के साथ विष्णु जी ऐसा दुष्कर्म कर सकते हैं?
विष्णु जी के इतिहास के विषय में आज हमें अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती किंतु कहीं कहीं थोड़ी बहुत ही मिलती है। वाल्मीकि रामायण में भगवान् राम महर्षि विश्वामित्र जी से सिद्धाश्रम को देख कर उसके विषय में पूछते हैं तो विश्वामित्र जी जो प्रकार उत्तर देते हैं, उससे विष्णु जी के विषय में थोड़ी जानकारी प्राप्त होती है, वह इस प्रकार है-
इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः।।२।।
तपश्चरणयोगार्थमुवास सुमहातपाः।।३।।
अर्थात् विश्वामित्र जी कहते हैं कि हे राम! यह देवताओं के भी पूजनीय अर्थात् विद्वानों के भी पूजनीय जिनके सदृश उस समय धरती पर दूसरा ऋषि नहीं था, उस भगवान् विष्णु जी ने यहां यहां तप करने हेतु निवास किया।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मन:।।३।।
सिद्धाश्रम इति ख्यातस्सिद्धो ह्यत्र महातपा:।।४।।
(वाल्मीकि रामायण बालकांड सर्ग 29, गीता प्रेस)
हे राम! पहले यह आश्रम वामन नाम के महात्मा था, उन्हें यहां सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी इसलिए इसको सिद्धाश्रम नाम से जाना जाता है।
बंगाल संस्करण के इस प्रमाण से पता चलता है कि विष्णु जी का एक नाम वामन था, वहां इस प्रकार कहा है-
विष्णुर्वामननृपेनं तप्यमानो महत् तपः।
अब आगे वामनावतार की कथा आ गई है। यह वामनावतार की कथा मिलावटी है क्योंकि ऋग्वेद ७.९९.१ के अर्थ को न समझ कर वामन अवतार की कथा बना दी गई।
यह मंत्र इस प्रकार है-
प॒रो मात्र॑या त॒न्वा॑ वृधान॒ न ते॑ महि॒त्वमन्व॑श्नुवन्ति।
उ॒भे ते॑ विद्म॒ रज॑सी पृथि॒व्या विष्णो॑ देव॒ त्वं प॑र॒मस्य॑ वित्से॥
अब इसका स्वामी ब्रह्ममुनि जी इस प्रकार अर्थ करते हैं-
पदार्थ - (मात्रया) प्रकृति के पञ्चतन्मात्रारूप (तन्वा) शरीर से (वृधानः) वृद्धि को प्राप्त (ते) तुम्हारी (महित्वम्) महिमा को हे (विष्णो) विभो ! (न) नहीं (अश्नुवन्ति) प्राप्त कर सकते। हे व्यापक परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (उभे) दोनों लोकों को हम (विद्म) जानते हैं, जो (पृथिव्याः) पृथिवी से लेकर (रजसी) अन्तरिक्ष तक हैं, जो (देव) दिव्य शक्तिमन् परमात्मन् ! (त्वं) तुम ही (अस्य) इस ब्रह्माण्ड के (परं) पार को (वित्से) जानते हो, अन्य नहीं ॥
भावार्थ - जीव केवल प्रत्यक्ष से लोकों को जान सकता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का ज्ञाता एकमात्र परमात्मा है। तन्मात्रा कथन करना यहाँ प्रकृति के सूक्ष्म कार्य्यों का उपलक्षणमात्र है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति उसके शरीरस्थानी होकर उस परमात्मा के महत्त्व को बढ़ा रही है, या यों कहो कि प्रकृत्यादि सब पदार्थ उस परमात्मा के एकदेश में हैं और वह असीम अर्थात् अवधिरहित है ॥
अब कुछ लोग कहेंगे कि क्या प्रमाण है कि अवतारवाद मिथ्या है, इसलिए अब हम थोड़ा इसपर भी विचार करते हैं। वेद में ईश्वर को शरीर व नस नाड़ी से रहित, निराकार सर्वव्यापक कहा है। इन सबसे अवतारवाद का खंडन होता है। अब हम भागवत पुराण में दिए अवतारवाद के क्रम पर पर विचार करते हैं।
भागवत पुराण से स्पष्ट होता है कि पहले कूर्म अवतार हुआ फिर वराह अवतार फिर नरसिंह फिर वामन अवतार हुआ। इसी से अवतारवाद का खंडन हो जाता है। पुराण में आता है कि बलि के समय में समुद्र मंथन हुआ, जो बिरोचन का पुत्र था, विरोचन प्रह्लाद का पुत्र था। कूर्म के बाद नरसिंह अवतार हुआ, जो प्रह्लाद के बाल्यकाल में हुआ था, जिसने हिरण्यकश्यप का वध किया। फिर वामन अवतार हुआ, जो राजा बलि से तीन पग भूमि मांगने गए थे। अब विचार करिए जब नरसिंह अवतार प्रह्लाद के बाल्यकाल में हुआ तो कच्छप अवतार जो बलि के समय में हुआ था वह नरसिंह से पूर्व कैसे हो सकता है? इसी से सिद्ध होता है कि पुराण ऋषियों ने नहीं बनाए बल्कि किसी अल्पबुद्धि ने बनाया है।
जो हमने ऊपर लिखा उनके प्रमाण देखें-
भागवत पुराण प्रथम स्कंध तृतीय अध्याय |
भागवत पुराण 8वां स्कंध 6वां अध्याय |
अवतारों का यही क्रम है, जिसे आप महाबलिपुरम् के राया गोपुरम् मंदिर के एक स्तंभ पर उकेरी गई 10 अवतारों की मूर्तियों में भी देख सकते हैं-
भगवान् राम को बल में भगवान् विष्णु के सदृश कहा है, (द्रष्टव्य वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग श्लोक १८) इससे यह संकेत मिलता है कि जिस प्रकार भगवान् राम महापराक्रमी थे, उसी प्रकार विष्णु जी भी थे। यहां उपमान प्रमाण का प्रयोग किया गया है।
विष्णु जी को देवों अर्थात् ऋषियों द्वारा पूजित अर्थात् सत्कार प्राप्त कहा है, अर्थात् उस समय के ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ थे। बिना ब्रह्मचारी हुए कोई योगी नहीं हो सकता क्योंकि अष्टांग योग में योग के 8 अंग बताए हैं, जिनमें से पहला यम है, इसका एक भाग ब्रह्मचर्य है। बिना योगी हुए ऋषि नहीं बन सकता क्योंकि ऋषि मंत्र दृष्टा को कहते हैं, मंत्र को अच्छी तरह से समाधिस्थ अवस्था में ही जाना जा सकता है, इसलिए योगी बने बिना कोई ऋषि नहीं हो सकता। ऋषि लोग में वही पूजित होता है जो ज्ञान में उन सबसे बड़ा हो। सबसे बड़ा ज्ञानी वही सकता है जिसने वेद को पूरी तरह समझ लिया हो। वेद के विषय में भगवान् मनु लिखते हैं "सर्वज्ञानमयो हि सः", वेद को पूरी तरह जानने के लिए लिए महायोगी होना अनिवार्य है क्योंकि वेद उस परमात्मा की रचना है, जिसने इस ब्रह्माण्ड को बनाया अतः वेद को समझने के लिए उस परमात्मा से जुड़ना होगा, उसका एक मात्र उपाय समाधि अवस्था है। ऋषि महर्षियों द्वारा कौन पूजित होता है, इसके विषय में भगवान् मनु कहते हैं-
ब्राह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता।
बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः।
मनु० 2/150
अर्थात् वेदाध्ययन के जन्म को देने वाला और अपने धर्म का उपदेश देने वाला विद्वान् बालक अर्थात् अल्पायु होते हुए भी धर्म से शिक्षा प्राप्त करने वाले दीर्घायु व्यक्ति का पिता अर्थात् गुरू के समान होता है।
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः।
अज्ञं हि बालं इत्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्।।
मनु० 2/153
अर्थात् चाहे सौ वर्ष का भी हो परन्तु जो विद्या-विज्ञान-रहित है वह 'बालक' और जो विद्या-विज्ञान का दाता है, उस बालक को भी 'वृद्ध' मानना चाहिये; क्योंकि सब शास्त्र, आप्त विद्वान् अज्ञानी को 'बालक' और ज्ञानी को 'पिता' कहते हैं।
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्।।
मनु ० 2/154
अर्थात् अधिक वर्षों के बीतने से, श्वेत बालों के होने, अधिक धन से और बड़े कुटुम्ब से 'वृद्ध' नहीं होता, किन्तु ऋषि-महात्माओं का यही निश्चय है कि जो हमारे बीच में विद्या-विज्ञान में अधिक है, वही 'वृद्ध' पुरुष कहाता है।
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।
मनु० 2/156
अर्थात् शिर के बाल श्वेत होने से 'वृद्ध' नहीं होता, किन्तु जो युवा भी विद्या पढ़ा हुआ है, उसी को विद्वान् लोग 'बड़ा' जानते हैं।
इस प्रकार यहां स्पष्ट सिद्ध हो गया कि भगवान् विष्णु जी ने वृंदा के साथ दुराचार नहीं किया था, अगर किया होता तो उन्हें देवताओं द्वारा पूजित क्यों कहा जाता?
विष्णु जी का अधिक इतिहास हमें प्राप्त नहीं होता किंतु हमें जो जानकारी प्राप्त हुई है वह आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं-
रामायण में संकेत मिलता है कि वे वासव के भाई थे-
ततो राक्षसशार्दूलो विद्राव्य हरिवाहिनीम्।
स ददर्श ततो रामं तिष्ठन्तमपराजितम्॥११॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विष्णुना वासवं यथा।
आलिखन्तमिवाकाशमवष्टभ्य महद् धनुः॥१२॥
उधर वानर सेनाको खदेड़कर राक्षससिंह रावणने देखा कि किसीसे पराजित न होनेवाले श्रीराम अपने भाई लक्ष्मणके साथ उसी तरह खड़े हैं, जैसे वासव अपने भाई भगवान् विष्णु के साथ खड़े होते हैं। वे अपने विशाल धनुषको उठाकर आधाशमें रेखा बाणको खाँचते-से प्रतीत होते थे।
महर्षि दयानंद जी के पूना प्रवचन को उपदेश मंजरी नाम से संकलित किया गया है, वहां विष्णु जी के विषय में इस प्रकार कहा है-
आठवां उपदेश |
10वां उपदेश |
कहां से आई यह कथा?
अब हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि यह कथा कहां से आई। इसपर गंभीरता से विचार करने से ऐसा संकेत मिलता है कि प्राचीन काल में जलचक्र (water cycle) के विज्ञान को बताने के लिए किसी श्लोक रहा होगा, विज्ञान को न समझने वालों ने इस श्लोक के अर्थ का अनर्थ कर के यह कथा बना दिया, क्योंकि जलंधर नाम बादल का है इस रीति से है कि "जलं धरतीति जलंधरः"। बादल समुद्र के जल से बनता है, इसलिए उसको समुद्र का पुत्र कहा जाता है। बादल के जो झुंड दिखते हैं उनको वृंद (समूह) कहा जाता है। उस को यहां स्त्रीलिंग में वृंदा बना कर यहां कल्पना की गई है कि मानो घटा बादल (जलंधर) की स्त्री हो। विष्णु का अर्थ होता है व्यापक अतः यहां विष्णु नाम व्यापक बल अर्थात् gravitational force का है। जब gravitational force मेघ के समूह (वृंदा) को अपने ओर खींचता है अर्थात् उसको जार करता है तो जालंधर की मृत्यु हो जाती है अर्थात् वह जल के रूप में धरती पर गिरने लगता है। इस तरह इस विज्ञान को न समझ कर विष्णु व वृंदा की कथा गढ़ दी गई।
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संदर्भित व सहायक ग्रंथ-
१. मनुस्मृति
२. सत्यार्थ प्रकाश
३. वाल्मीकि रामायण
४. उपदेश मंजरी
५. बोलो किधर जाओगे
६. त्रिदेव निर्णय (लेखक - पंडित शिवशंकर जी शर्मा "काव्यतीर्थ")
अति उत्तम भाई
ReplyDeleteYe sari katha ye bakwas hai
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