क्या रामायण में बुद्ध का उल्लेख है | Reality of the word Buddha appearing in Ramayana

Buddha in Ramayana
लेखक - यशपाल आर्य
कई लोग ऐसा दावा करते हैं कि रामायण में बौद्धों को दंडनीय कहा है इसलिए सिद्ध है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गई। आज हम इसी दावे की समीक्षा करेंगे।
सर्वप्रथम हम वह प्रसंग देखते हैं। प्रसंग इस प्रकार है कि जब भरत जी राम जी को वापस लाने हेतु वन में जाते हैं किंतु राम जी अपनी बात पर दृढ़ रहते हैं तो उसमें जाबालि व श्रीराम जी का संवाद होता है, उसी में बुद्ध शब्द आया है।
अयोध्याकांड सर्ग १०९ के श्लोक ३४ [गीताप्रैस गोरखपुर] में बुद्ध शब्द आया है, अब इसके कुछ श्लोक पूर्व से कुछ श्लोक बाद तक देखें-
कर्मभूमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम्।
अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः।।२८।।
शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट् त्रिदिवं गतः।
तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं याता महर्षयः।।२९।।
अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजाः निशम्य तं नास्तिकवाक्यहेतुम्।
अथाब्रवीत्तं नृपतेस्तनूजो विगर्हमाणो वचनानि तस्य।।३०।।
सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिधिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः।।३१।।
तेनैवमाज्ञाय यथावदर्थमेकोदयं सम्प्रतिपद्य विप्राः।
धर्मं चरन्त स्सकलं यथावत्काङ्क्षन्ति लोकागममप्रमत्ताः।।३२।।
निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्यस्त्वामगृह्णाद्विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्याऽनयैवंविधया चरन्तं सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।३३।।
यथा हि चोर: स‌ तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: श‌ङ्क्यतमः प्रजानाम् न नास्तिकेनाभिमुखो बुध: स्यात्।।३४।।
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाच्श्र शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः।
जित्वा सदेमं च परं च लोकं तस्माव्दिजा स्व‌स्ति हुतं कृतं च।।३५।।
धर्मे रता: स‌त्पुरुषै: स‌मेतास्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः।।३६।।
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं रामं महात्मानमदीनसत्त्वम्।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च सत्यं वच: सानुनयं च विप्रः।।३७।।
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किञ्चन।
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं भवेय काले पुनरेव नास्तिकः।।३८।।
स चापि कालोऽय मुपागतश्शनैर्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात् प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम्।।३९।।
यहां सर्ग १०९ वाँ पूर्ण हुआ, अब अगले सर्ग का प्रथम श्लोक उद्धृत करते हैं-
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठः प्रत्युवाच ह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्य गतागतिम्।।१।।

भावार्थ-
इस कर्म भूमि को पा कर जो शुभ कर्म हो, उसका अनुष्ठान करना चाहिए; क्योंकि अग्नि, वायु तथा सोम भी कर्मों के फल से उन-उन पदों के भागी हुए हैं।।२८।।
देवराज इंद्र सौ यज्ञों का अनुष्ठान कर के स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं। महर्षियों ने भी उग्र तपस्या कर के दिव्य लोकों में स्थान प्राप्त किया है।।२९।।
उग्र तेजस्वी राजकुमार श्रीराम परलोक की सत्ता का खंडन करने वाले जाबालि के पूर्वोक्त वचनों को सुनकर उन्हें सहन न कर सकने के कारण उन वचनों की निंदा करते हुए पुनः उनसे बोले।।३०।।
सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियों पर दया, सबसे प्रिय वचन बोलना तथा देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणों की पूजा करना इन सबको साधु पुरुषों ने स्वर्ग का मार्ग बताया है।।३१।।
सत्पुरुषों के इस वचन के अनुसार धर्म का स्वरूप जानकर तथा अनुकूल तर्क से उसका यथार्थ निर्णय कर के एक निश्चय पर पहुंचे हुए सावधान ब्राह्मण भली भांति धर्माचरण करते हुए उन-उन उत्तम लोकों को प्राप्त होना चाहते हैं।।३२।।
आपकी बुद्धि विषय मार्ग में स्थित है, आपने वेदविरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निंदा करता हूं।।३३।।
जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलंबी) भी दंडनीय होता है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहां इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाए; परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो, उससे वार्तालाप न करे।।३४।।
आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत से शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया है। अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मान कर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि), कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ, याग आदि) कर्मों का संपादन करते हैं।।३५।।
जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते हैं, तेज से संपन्न हैं, जिनमें दान रूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो मल संसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं।।३६।।
महात्मा श्रीराम स्वभाव से ही दैन्यभाव से रहित थे। उन्होंने जब रोषपूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जबालि ने विनयपूर्वक यह अस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा।।३७।।
रघुनंदन! न तो मैं नास्तिक हूं और न नास्तिकों के तरह बात ही करता हूं। परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूं, नास्तिकों की सी बातें कर सकता हूं।।३८।।
इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की सी बातें कह डाली। श्रीराम! मैंने जो बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी कर के अयोध्या लौटने के लिए तैयार कर लूं।।३९।।(अयो. सर्ग १०९)
राम चंद्र जी को रुष्ट जान कर महर्षि वसिष्ठ जी ने उनसे कहा - रघुनंदन! महर्षि जाबालि भी यह जानते हैं कि इसलोक के प्राणियों का परलोक में जाना और आना होता रहता है (इसलिए वे नास्तिक नहीं हैं)।।१।। (अयो. सर्ग ११०)


अब हम इस बात को संस्करणों से देखते हैं, और जानने का प्रयास करते हैं कि यह बात संस्करणों में आई है वा नहीं-
१. सर्वप्रथाम हम बंगाल संस्करण में देखते हैं, बंगाल संस्करण में जाबालि को राम जी का उत्तर अयोध्याकांड सर्ग ११८ में आया है, वहां इस प्रकार है, हम यहां कुछ श्लोक पूर्व से कुछ श्लोक बाद तक दे रहे हैं ताकि सबको विदित हो सके कि कितने श्लोक मिलावट हैं। अब आप इनकी तुलना गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण से करें आपको स्पष्ट हो जायेगा कि बुद्ध वा नास्तिक वाले जो श्लोक हैं सब मिथ्या हैं।
ramayan me budh

क्या रामायण में बुद्ध का उल्लेख है?
अयोध्या काण्ड सर्ग ११८ (बंगाल संस्करण)

वाल्मीकि रामायण में तथागत बुद्ध...?
अयोध्या काण्ड सर्ग ११९ (बंगाल संस्करण)

२. अब हम Oriental Institute of Baroda से प्रकाशित रामायण के critical edition से देखते हैं, उसमें सर्ग १०१ में आई है। अब हम आपको फोटो दे रहे हैं इसकी आप गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण से तुलना करें और आप पाएंगे कि Critical edition में कहीं भी बुद्ध शब्द नहीं आया है। वहां इससे पूर्व के श्लोक तो आए हैं किन्तु बुद्ध वाले प्रसंग का कोई श्लोक नहीं मिलता।
रामायण में बुद्ध विरोधी श्लोक
अयोध्या काण्ड सर्ग १०१ (Critical edition)

Ramayan me buddh
अयोध्या काण्ड सर्ग १०२ (critical edition)


३. रामायण का यह संस्करण Prof. John Smith द्वारा संशोधित डिजिटल संस्करण है, जिसे उन्होंने Muneo Tokunaga के द्वारा अनुवादित रामायण के आधार पर बनाया था। Muneo Tokunaga ने रामायण के ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ बड़ौदा द्वारा प्रकाशित रामायण के critical edition का अनुवाद किया था। इसमें १०१वें सर्ग में भगवान् राम जाबालि के बात का उत्तर देते हैं किन्तु इसमें भी कहीं बुद्ध का नाम नहीं आया है। हम नीचे श्लोक दे रहे हैं आप इसकी तुलना गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण से करें तथा आप पाएंगे कि इसमें कहीं भी बुद्ध या बुद्ध से संबंधित श्लोक नहीं है। अब हम इसका प्रमाण देते हैं
पहले ये श्लोक रोमन लिपि में देखें, जिसे हमने titus.uni-frankfurt.de से उद्धृत किया है-
Ramayan me budh

Ramayan buddh ke baad ki rachna


रामायण में बुद्ध की उपस्थिति

अब हम इन श्लोकों को देवनागरी लिपि में देते हैं, जो हमें sanskritdocuments.org से प्राप्त हुआ है-
Ramayan me buddh ki upasthiti


इसी प्रकार जाबालि ने जो मृतक श्राद्ध आदि का खंडन किया है वह भी मिलावट है, क्योंकि उस समय मृतक श्राद्ध होता ही नहीं था, श्राद्ध व तर्पण तो जीवितों का होता है, माता, पिता, आचार्य की श्रद्धा से सेवा सुश्रुषा करना श्राद्ध व यथायोग्य पदार्थों से तृप्त करना तर्पण कहाता है, मृतकों का श्राद्ध नहीं होता। मृतक श्राद्ध का पाखण्ड तो बाद में कुछ लोगों से अपने धन अर्जित के लिए बनाया था।
हमें पंजाब विश्वविद्यालय के A.C. Joshi Library से अयोध्याकांड की एक पांडुलिपि (Mss. No. 192) प्राप्त हुई, जो इसके पर लगी details के अनुसार 1696 विक्रमी की है। इसमें भी हमें बुद्ध वाले श्लोक प्राप्त नहीं होते-




गीता प्रेस से प्रकाशित रामायण के अयोध्याकांड के इस सर्ग में 39 श्लोक हैं जबकि इस पांडुलिपि में मात्र 28 श्लोक हैं अर्थात् 11 श्लोक नहीं मिलते।

अब हम इस विषय में एक वाल्मीकि रामायण से बाहरी साक्ष्य भी देते हैं-
सत्यार्थ प्रकाश के द्वादश समुल्लास की अनुभूमिका में इस प्रकार लिखा है-
जब आर्य्यावर्त्तस्थ मनुष्यों में सत्याऽसत्य का यथावत् निर्णय कारक वेदविद्या छूटकर अविद्या फैलके मतमतान्तर खड़े हुए, यही जैन आदि के विद्याविरुद्धमतप्रचार का निमित्त हुआ। क्योंकि 'वाल्मीकीय' और 'महाभारतादि' में जैनियों का नाममात्र भी नहीं लिखा और जैनियों के ग्रन्थों में 'वाल्मीकीय' और भारत में कथित 'राम-कृष्णादि' की गाथा बड़े विस्तारपूर्वक लिखी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मत इनके पीछे चला, क्योंकि जैसा अपने मत को बहुत प्राचीन जैनी लोग लिखते हैं, वैसा होता तो वाल्मीकीय आदि ग्रन्थों में उनकी कथा अवश्य होती, इसलिए जैनमत इन ग्रन्थों के पीछे चला है।
कोई कहे कि जैनियों के ग्रन्थों में से कथाओं को लेकर वाल्मीकीय आदि ग्रन्थ बने होंगे तो उनसे पूछना चाहिए कि वाल्मीकि आदि में तुम्हारे ग्रन्थों का नाम लेख भी क्यों नहीं? और तुम्हारे ग्रन्थों में क्यों है? क्या पिता के जन्म का दर्शन पुत्र कर सकता है? कभी नहीं।
ऋषि ने इतिहास तिमिर नाशक व अमरकोश का प्रमाण दे कर सिद्ध किया है कि जैन और बौद्ध एक ही हैं, अतः यहां सिद्ध होता है कि ऋषि ने कई पांडुलिपियों में देखा जहां उन्हें बुद्ध शब्द नहीं मिला इसीलिए उन्होंने उपरोक्त बात लिखी।
इस विषय में Oriental Institute of Baroda की टिप्पणी भी द्रष्टव्य है-
Ramayan me buddh ko chor kaha hai
इसका भी भाव यही है कि बुद्ध वाला श्लोक बाद में मिलाया गया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट रुप से सिद्ध हो गया कि बुद्ध वाला श्लोक मिलावट है वा इस प्रसंग में गीताप्रैस का श्लोक ३० से श्लोक ३९ तक मिलावट है, केवल श्लोक ३६ थोड़े पाठभेद के साथ मूल है, श्लोक ३६ में गीताप्रेस व बड़ौदा संस्करण में प्रधानां शब्द आया है जबकि बंगाल संस्करण में प्रजानां शब्द आया है। इसी प्रकार जाबालि द्वारा मृतक श्राद्ध का खंडन करना भी मिलावट है क्योंकि इसके पीछे हेतु यह है कि आर्य लोग मृतकों का श्राद्ध जैसे पाखण्ड नहीं करते थे।
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संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ व वेबसाइट-
१. वाल्मीकि रामायण (विभिन्न संस्करण)
२. Oriental Institute of Baroda से प्रकाशित रामायण का Critical Edition
३. सत्यार्थ प्रकाश
४. sanskritdocuments.org
५. titus.uni-frankfurt.de



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