कौन कहता है वैदिक धर्म में बालविवाह की आज्ञा है?


लेखक - यशपाल आर्य

इस लेख के अधिकांश प्रमाण महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने ही दिया है अतः हम उनका सादर आभार व्यक्त करते हुए व अपने उन सभी मित्र महानुभावों का भी धन्यवाद व्यक्त करते हुए जिन्होंने इस लेख को लिखने में हमारी सहायता की है, हम लेखनी का आरंभ करते हैं।

आपने देखा होगा कि कुछ कथित बुद्धिजीवी ऐसा आक्षेप लगाते हुए मिल जायेंगे कि सनातन धर्म में बालविवाह होता था, अतः आज हम इस लेख में उन्हीं लोगों की समीक्षा करेंगे।

विवाह किस आयु में करना चाहिए, यह आयुर्वेद का विषय है अतः हम सर्वप्रथम आयुर्वेद का ही प्रमाण देखते हैं- 

उचित समय से न्यून आयुवाले स्त्री-पुरुष को गर्भाधान के लिए मुनिवर धन्वन्तरि जी निषेध करते हुए कहते हैं-

ऊनषोडशवर्षायामप्राप्तः पञ्चविंशतिम्। 

यद्याधत्ते पुमान् गर्भ कुक्षिस्थः स विपद्यते॥

जातो वा न चिरञ्जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः।

तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत्॥

[सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, अ० १०। श्लोक ४७, ४८] 

अर्थात् सोलह वर्ष से न्यून वयवाली स्त्री में, पच्चीस वर्ष से न्यून आयुवाला पुरुष जो गर्भ का स्थापन करे तो वह कुक्षिस्थ हुआ गर्भ विपत्ति को प्राप्त होता अर्थात् पूर्ण काल तक गर्भाशय में रहकर उत्पन्न नहीं होता॥

अथवा उत्पन्न हो तो चिरकाल तक न जीवे वा जीवे तो दुर्बलेन्द्रिय होवे। इस कारण से अतिबाल्यावस्था वाली स्त्री में गर्भ स्थापित न करे॥

अर्थात् आयुर्वेद से स्पष्ट है कि कन्या की उम्र 16 व पुरुष की उम्र 25 वर्ष से न्यून नहीं होनी चाहिए।


अब हम अर्थशास्त्र का प्रमाण देखते हैं, आचार्य चाणक्य लिखते हैं-

ब्रह्मचर्य चाषोडशाद्वर्षात्।।९।।

अतो गोदानं दारकर्म चास्य।।१०।।

नित्यश्च विद्यवृद्धसंयोगो विनय वृद्ध्यर्थं तन्मूलत्वाद्विनयस्य।।११।।

[प्रथम अधिकरण, प्रकरण 2, अध्याय 5]

अर्थात् सोलह वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का यथावत् पालन करे।।९।।

उसके अनंतर गोदान विधि पूर्वक विवाह करे।।१०।।

विवाहोपरांत अपने विनय की वृद्धि हेतु सदा ही विद्या वृद्ध पुरुषों का सहवास किया करे, क्योंकि अनुभवी विद्वान् पुरुषों की संगति ही विनय का मूल है।।११।।


अब हम स्मृति ग्रंथ का प्रमाण देखते हैं। भगवान् मनु जी महाराज मनुस्मृति में कहते हैं-

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्।

अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्॥

मनु० [३।२] 

जब यथावत् ब्रह्मचर्य आचार्यानुकूल वर्तकर, धर्म से चारों वेदों, तीन, दो वा एक वेद को सांगोपांग पढ़के, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष और स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे।

1 वेद को सांगोपाङ्ग अध्ययन करने में कितना वर्ष का समय लगता है, इसका उत्तर देते हुए महर्षि गौतम जी लिखते हैं-

द्वादश वर्षण्येकवेदे ब्रह्मचर्यं चरेत्।।५१।।

प्रतिद्वादश वा सर्वेषु।।५२।।

ग्रहणान्तं वा।।५३।।

[गौतम धर्मसूत्र द्वितीय अध्याय]

अर्थात् 12 वर्ष ब्रह्मचर्य धारण कर के एक वेद का अध्ययन करे।।

प्रत्येक वेद को 12 वर्ष तक पढ़े।।

जबतक वेदाध्ययन करें तब तक ब्रह्मचर्याश्रम में रहें।।

यज्ञोपवीत के बाद ही वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त होता है। अब माना किसी कन्या ने एक वेद का अध्ययन कर के गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। वैदिक काल में ऐसा नियम था कि माता पिता अपने पुत्र/पुत्री को 8 वर्ष की अवस्था में गुरुकुल भेज देते थे। तो सामान्यतः हर स्त्री 8+12=20 वर्ष की आयु में विवाह करती होगी। तो कैसे कहा जा सकता है कि स्त्रियों का बालविवाह होता था?

अब कुछ अल्पबुद्धि लोग आ कर ऐसा कहेंगे कि स्त्रियों व शूद्रों को वेद का अधिकार नहीं था, अतः यह नियम उनपर लागू नहीं होता। इन लोगों को उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं जैसे परमात्मा ने सूर्यादि को सबके लिए बनाया है उसी प्रकार परमात्मा ने वेद का ज्ञान भी सबके लिए दिया है।

अब हम वेद का भी प्रमाण देते हैं कि वेद का ज्ञान सबके लिए है-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।

प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥

[यजुर्वेद २६/२]

अन्वयः - हे मनुष्या यथाऽहमीश्वरो ब्रह्मराजन्याभ्यामर्याय शूद्राय च स्वाय चारणाय च जनेभ्य इहेमां कल्याणीं वाचमावदानि तथा भवन्तोऽप्यावदन्तु। यथाऽहं दातुर्देवानां दक्षिणायै प्रियो भूयासं मेऽयं कामः समृध्यतां माऽद उपनमतु तथा भवन्तोऽपि भवन्तु तद्भवतामप्यस्तु॥२॥

पदार्थः - (यथा) येन प्रकारेण (इमाम्) प्रत्यक्षीकृताम् (वाचम्) वेदचतुष्टयीं वाणीम् (कल्याणीम्) कल्याणनिमित्ताम् (आवदानि) समन्तादुपदिशेयम् (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्म ब्राह्मणश्च राजन्यः क्षत्रियश्च ताभ्याम् (शूद्राय) चतुर्थवर्णाय (च) (अर्याय) वैश्याय। अर्यः स्वामिवैश्ययोः [अ॰३.१.१०३] इति पाणिनिसूत्रम् (च) (स्वाय) स्वकीयाय (च) (अरणाय) सल्लक्षणाय प्राप्तायान्त्यजाय (प्रियः) कमनीयः (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षिणायै) दानाय (दातुः) दानकर्त्तुः (इह) अस्मिन् संसारे (भूयासम्) (अयम्) (मे) मम (कामः) (सम्) (ऋध्यताम्) वर्द्धताम् (उप) (मा) माम् (अदः) परोक्षसुखम् (नमतु) प्राप्नोतु॥

भावार्थः - अत्रोपमालङ्कारः। परमात्मा सर्वान् मनुष्यान् प्रतीदमुपदिशतीयं वेदचतुष्टयी वाक् सर्वमनुष्याणां हिताय मयोपदिष्टा नाऽत्र कस्याप्यनधिकारोऽस्तीति। यथाऽहं पक्षपातं विहाय सर्वेषु मनुष्येषु वर्त्तमानः सन् प्रियोऽस्मि तथा भवन्तोऽपि भवन्तु। एवङ्कृते युष्माकं सर्वे कामाः सिद्धा भविष्यन्तीति॥

पदार्थ - हे मनुष्यो! मैं ईश्वर (यथा) जैसे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र (च) और (स्वाय) अपने स्त्री, सेवक आदि (च) और (अरणाय) उत्तम लक्षणयुक्त प्राप्त हुए अन्त्यज के लिए (च) भी (जनेभ्यः) इन उक्त सब मनुष्यों के लिए (इह) इस संसार में (इमाम्) इस प्रगट की हुई (कल्याणीम्) सुख देने वाली (वाचम्) चारों वेदरूप वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार उपदेश करें। जैसे मैं (दातुः) दान देने वाले के संसर्गी (देवानाम्) विद्वानों की (दक्षिणायै) दक्षिणा अर्थात् दान आदि के लिये (प्रियः) मनोहर पियारा (भूयासम्) होऊं और (मे) मेरी (अयम्) यह (कामः) कामना (समृध्यताम्) उत्तमता से बढ़े तथा (मा) मुझे (अदः) वह परोक्षसुख (उप, नमतु) प्राप्त हो, वैसे आप लोग भी होवें और वह कामना तथा सुख आप को भी प्राप्त होवे॥

भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ। ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होंगे॥


भगवान् मनु का अन्य कथन भी देखें, यहां से भी बालविवाह का खंडन हो जाता है।

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥ 

मनु० [९।९०]

कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्षपर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे। जब प्रतिमास रजोदर्शन होता है तो तीन वर्षों में ३६ वार रजस्वला हुए पश्चात् विवाह करना योग्य है, इससे पूर्व नहीं।


अब हम वेद का प्रमाण दे रहे हैं, भगवान् मनु कहते हैं वेद ही परम प्रमाण हैं, जहां किसी ग्रंथों में कोई बात वेद विरुद्ध हो तो वह बात अप्रमाणिक होती है अतः अब हम वेद से ही इसका प्रमाण देते हैं कि वैदिक धर्म के अनुसार लोगों का युवावस्था में ही विवाह होना चाहिए -

युवा॑ सु॒वासाः॒ परि॑वीत॒ आगा॒त्स उ॒ श्रेया॑न्भवति॒ जाय॑मानः।

तं धीरा॑सः क॒वय॒ उन्न॑यन्ति स्वा॒ध्यो॒३॒॑ मन॑सा देव॒यन्तः॑॥

ऋ०, म० ३। सूक्त ८। मं० ४॥

जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत [पूर्वक] ब्रह्मचर्य-सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त, (सुवासाः) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रह्मचर्ययुक्त (युवा) विद्याग्रहण कर पूर्ण जवान होके गृहाश्रम में, (आगात्) आता है, (सः) वही दूसरे=विद्याजन्म में, (जायमानः) प्रसिद्ध होकर, (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त, मङ्गलकारी, (भवति) होता है, (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यानयुक्त, (मनसा) विज्ञान से, (देवयन्तः) विद्यावृद्धि की कामनायुक्त, (धीरासः) धैर्ययुक्त, (कवयः) विद्वान् लोग, (तम्) उसी पुरुष को, (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं। और जो ब्रह्मचर्यधारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये विना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं, वे स्त्री-पुरुष नष्ट-भ्रष्ट होकर विद्वानों में अप्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं॥


आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः।

नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥२॥ 

ऋ०, म० ३। सूक्त० ५५। मं० १६॥

जो (अप्रदुग्धाः) किसी ने दुही न हों, उन (धेनवः) गौओं के समान, (अशिश्वीः) बाल्यावस्था से रहित, (सबर्दुघाः) सब प्रकार के उत्तम व्यवहारों को पूर्ण करनेहारी, (शशयाः) कुमारावस्था का उल्लङ्घन करनेहारी, (नव्यानव्याः) नवीन-नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण, (भवन्तीः) वर्त्तमान, (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियाँ, (देवानाम्) ब्रह्मचर्य-सुनियमों से पूर्ण विद्वानों के, (एकम्) अद्वितीय, (महत्) बड़े, (असुरत्वम्) प्रज्ञा-शास्त्रशिक्षा-युक्त, प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई, जवान पतियों को प्राप्त होके, (आधुनयन्ताम्) गर्भधारण करें। 

कभी भूलके भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें, क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश [ होता है ] उससे अधिक स्त्री का नाश होता है॥


पू॒र्वीर॒हं श॒रदः॑ शश्रमा॒णा दो॒षावस्तो॑रु॒षसो॑ ज॒रय॑न्तीः।

मि॒नाति॒ श्रियं॑ जरि॒मा त॒नूना॒मप्यू॒ नु पत्नी॒र्वृष॑णो जगम्युः॥

ऋ०, म० १। सूक्त १७९ । मं० १॥

जैसे (नु) शीघ्र, (शश्रमाणाः) अत्यन्त श्रम करनेहारे (वृषणः) वीर्य सींचने में समर्थ पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष, (पत्नीः) युवावस्थास्थ, हृदय को प्रिय स्त्रियों को, (जगम्युः) प्राप्त होकर, पूर्ण शतवर्ष वा उससे अधिक आयु को आनन्द से भोगते और पुत्र-पौत्रादि से संयुक्त रहते रहैं, वैसे स्त्री-पुरुष सदा वर्त्तें। जैसे (पूर्वीः) पूर्व वर्त्तमान (शरदः) शरद् ऋतुओं, और (जरयन्तीः) वृद्धावस्था को प्राप्त करानेवाली (उषसः) प्रात:काल की वेलाओं को (दोषाः) रात्री, और (वस्तोः) दिन (तनूनाम्) शरीरों की (श्रियम्) शोभा को (जरिमा) अतिशय वृद्धपन [करके] बल और शोभा को (मिनाति) दूर कर देता है, वैसे (अहम्) मैं स्त्री वा पुरुष, (उ) अच्छे प्रकार, (अपि) निश्चय करके ब्रह्मचर्य से विद्या, शिक्षा, शरीर और आत्मा के बल और युवावस्था को प्राप्त होके ही विवाह करूँ। इससे विरुद्ध करना, वेदविरुद्ध होने से सुखदायक विवाह कभी नहीं होता॥


ब्रह्मचरेण कन्या युवान विदन्ते पतिम्।।

अथर्ववेद का० ११| अ० ३| सू० ५| मं० ५||

अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करते हुए सुशिक्षा को प्राप्त कर युवावस्था को प्राप्त हुई कन्या यथायोग्य युवा पति को प्राप्त करे।


जैसा कि आपने यहां कई प्रमाण देखा कि वैदिक धर्म में बालविवाह की कोई अनुमति नहीं है अपितु पूर्ण युवावस्था में ही विवाह का विधान है अतः बालविवाह का खंडन है। इसे अधिक से अधिक शेयर करें ताकि वेद के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वालों का मुंह बंद हो सके।


संदर्भ एवं सहायक ग्रंथ -

१. सत्यार्थ प्रकाश

२. ऋग्वेद

३. यजुर्वेद

४. अथर्ववेद

५. मनुस्मृति

६. गौतम धर्मसूत्र

७. सुश्रुत संहिता

८.अर्थशास्त्र

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