क्या महाराज दशरथ जी शिकार खेलते थे

लेखक - यशपाल आर्य

कुछ लोग आक्षेप करते हैं कि महाराज दशरथ शिकार खेलते थे, अकारण पशुओं का वध करते थे और मुनिकुमार को उन्होंने मृग समझ कर मार दिया था। इस लेख में हम उनके मत की समीक्षा करेंगे।

यह कथा थोड़े पाठभेद के साथ पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में भी आई है, शब्दों का अंतर अवश्य है किंतु भाव वही है।

वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार है जब दशरथ जी अपने अंतिम समय में होते हैं तो वे इस घटना को कौशल्या जी से बताते हैं। इस विषय को हम यहां संक्षेप से लिख रहे हैं, कथा इस प्रकार है कि दशरथ जी राजकुमार ही होते हैं, उनका विवाह भी नहीं हुआ होता है। वे शब्दभेदी बाण चलाने में कुशल धनुर्धर होते हैं। एक बार वर्षा ऋतु में वे सरयू नदी के तट पर धनुर्वेद का अभ्यास करने के लिए जाते हैं। वे सोचते हैं कि कोई मदमत्त हाथी, बाघ आदि आएगा तो उसका वध करूंगा (जिससे प्रजा की रक्षा हो सके, अन्यथा हिंसक पशु प्रजा को कष्ट देंगे)। उस समय अंधकार था और वहां उन्हें नदी से आवाज आई, वह आवाज ऐसा लग रहा था मानो हाथी अपने सूंड से जल खींच रहा हो, तो उन्होंने शब्द की दिशा में शब्द का अनुमान कर के अपना बाण चला दिया, वह बाण मुनिकुमार को लग गया। मुनिकुमार को बाण लगते ही वे धरती पर गिर पड़े और बोले कि मुझे किसने अकारण मारा? दशरथ जी को जब ऐसा पता चला तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई। वे मुनिकुमार के पास वे गए और बहुत दुखी हो रहे थे उन्हें देख कर मुनि कुमार ने उनसे मारने का कारण पूछा और कहा कि मेरे माता पिता अंधे हैं और उन्हें जल पिलाने के लिए बोल कर अपने शरीर से तीर निकाल देने के लिए कहते हैं और छटपटाते हुए अपने प्राणों को त्याग देते हैं। फिर दशरथ उनके माता पिता को जल पिलाने के लिए ले जाते हैं, वे देर से आने का कारण पूछते हैं तो दशरथ जी पूरी घटना बता देते हैं। फिर वे दोनों मुनिकुमार के माता पिता दशरथ जी को वहां ले जाने को कहते हैं जहां मुनिकुमार का मृत शरीर पड़ा हुआ था। वे वहां जा कर रोते हुए मुनिकुमार को जलांजलि देने के पश्चात दशरथ जी को शाप देते हैं कि जैसे हमने पुत्रवियोग में प्राण त्यागा है वैसे ही तुम भी त्याग दोगे, फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

इसी कथा में ऐसा आया है कि मुनिकुमार को उनके माता पिता जलांजलि देने वाले होते हैं तो वह दिव्य शरीर के साथ प्रगट हो कर उनसे कुछ समय तक बात करता है तत्पश्चात विमान पर बैठ कर स्वर्ग लोक को चला जाता है। यह बात वेद विरुद्ध और सृष्टि विरुद्ध होने से अप्रमाणिक है तथा सामान्य तर्क से भी विरुद्ध है क्योंकि अगर उनकी अपने माता पिता से इस प्रकार दिव्य शरीर में वार्ता होती तो वे पुत्र वियोग में कदापि प्राण न त्यागते अपितु प्रसन्न होते कि मेरे पुत्र को इतनी बड़ी उपलब्धि प्राप्त हुई।

यहां हम पूरी कथा को संस्कृत श्लोक के साथ विस्तार से लिख कर लेख को बड़ा नहीं करना चाहते, जो कथा को श्लोक सहित विस्तार से पढ़ना चाहें तो वाल्मीकि रामायण अयोध्याकांड सर्ग ६३ व ६४ (गीता प्रेस) में पढ़ सकते हैं।

अब हम दशरथ जी द्वारा आक्षेप का खंडन करते हैं।

सरयू नदी के तट पर जाने के विषय में दशरथ जी कहते हैं-

तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान्रथी।

व्यायामकृतसङ्कल्पः सरयूमन्वगां नदीम्।।२०।।

(अयो. का. सर्ग ६३, गीताप्रेस गोरखपुर)

अर्थात् वर्षा ऋतु के उस अत्यंत सुखद समय में मैं (दशरथ जी) धनुष बाण ले कर रथ पर सवार हो कर व्यायाम वा धनुर्वेद के अभ्यास के लिए सरयू नदी के तट पर गया।

इस श्लोक पर गीता प्रेस व स्वामी जगदीश्वरानंद जी का अनुवाद देखें

अयोध्याकांड सर्ग ६३ [गीता प्रेस कृत अनुवाद]


स्वामी जगदीश्वरानंद जी कृत वाल्मीकि रामायण अयोध्याकांड सर्ग ४८

इस श्लोक के अर्थ में गीताप्रेस ने तथा स्वामी जगदीश्वरानंद जी ने शिकार खेलना लिखा है जो कि पूरी तरह से गलत है क्योंकि यहां व्यायामकृतसङ्कल्पः कहा है, अर्थात् व्यायाम करने वा धनुर्वेद का अभ्यास करने की इच्छा से, यहां शिकार की कोई बात ही नहीं आई है।

पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में यह बात और अधिक स्पष्टता से आई है, वहां इस प्रकार श्लोक है-

पश्चिमोत्तर संस्करण

बंगाल संस्करण

यहां पूर्णस्पष्ट रूप से लिखा है कि दशरथ जी धनुर्वेद के शब्द भेदी बाण का अभ्यास करने के लिए ही आए थे अतः शिकार खेलने वाली बात में श्लोक के अर्थ का अनर्थ किया गया है।

आगे देखें

निपाने महिषं रात्रौ गजं वाऽभ्यागतं नदीम्।

अन्यं वा श्वापदं कञ्चिज्जिघांसुरजितेन्द्रियः।।२१।।

(अयो. का. स ६३, गीताप्रेस गोरखपुर)

यहाँ महिष, गज, मृग तथा श्वापद, इन चार का अनुमान लगाया है। यहां सामान्य अर्थ लेकर देखें, तो महिष, गज, मृग (यदि हिरण मानें) तो अहिंसक हैं। जबकि श्वापद अर्थात् बाघ हिंसक जानवर है, तब इनकी परस्पर संगति नहीं बैठती है। इस कारण इन चारों को ही हिंसक मानना पड़ेगा। महिष जंगली भैसा उपद्रवी होता ही है, हाथी भी मदोन्मत हो सकता है, परन्तु हिरण उपद्रवकारी नहीं माना जा सकता, तब मृग का अर्थ शेर मानना ही प्रकरण अनुकूल होगा। इससे सिद्ध हुआ है कि दशरथजी इन उपद्रवी व हिंसक जानवरों को मारने के विषय में सोच रहे थे, फिर भी ऐसा सोचते हुए भी स्वयं को अजितेन्द्रिय कहा क्योंकि क्योंकि उन्होंने बिना वास्तविकता का अनुभव किए ही उन्होंने मुनिकुमार पर तीर चला दिया। इससे स्पष्ट पता चलता है कि शिकार खेलना उस समय प्रचलित नहीं था, अपितु इसे बुरा माना जाता था। धनुर्विद्या का अभ्यास बिना किसी को मारे करते थे। ऐसे हिंसक व उपद्रवी जानवर, जो जन सामान्य के लिये संकट पैदा कर रहे होते थे, उन्हें ही मारने का राजा अधिकार देता था। दशरथ जी ने बिना संकट के ही मारने का विचार किया, इसी कारण स्वयं को अवगुणी बता रहे हैं।

बंगाल पाठ में श्लोक इस प्रकार है-


पश्चिमोत्तर संस्करण में इस प्रकार आया है

यहां पर जंगली हाथी की बात आई है, जंगली हाथी उत्पात ही मचाते हैं, अतः मृग व महिष दोनों का अर्थ हिंसक लेना ही तर्कसंगत व प्रकरण अनुकूल होगा। अतः यहां महिष से जंगली भैंसे व मृग से सिंह का ग्रहण होगा।

अब इस विषय पर हम और अधिक स्पष्ट प्रमाण देते हैं। जब दशरथ जी मुनिकुमार के पिता के पास जाते हैं तो उनसे कहते हैं -

भगवंश्चापहस्तोऽहं सरयूतीरमागतः।

जिघांसुश्श्वापदं कञ्चिन्निपाने चाऽगतं गजम्।।

(अयो. सर्ग ६४)

भगवन्! मैं धनुष बाण लेकर सरयू के तट पर आया था। मेरे आने का उद्देश्य यह था कि कोई हिंसक जंगली पशु अर्थात् बाघ आदि वा मदमत्त हाथी घाट पर पानी पीने के लिए आवे तो उसे मारूं। (ताकि प्रजा भयमुक्त रह सके, उन्हें इन हिंसक पशुओं से कष्ट न हो)

पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में इस प्रकार कहा है-

बंगाल संस्करण

पश्चिमोत्तर संस्करण

यहां मृग का अर्थ शेर ही होगा जैसा कि हमने पूर्व में सिद्ध किया है।

दशरथ जी ने यहां भी स्पष्ट रूप से मदमत्त गजराज, सिंह वा हिंसक पशु, की बात कही है, अर्थात् प्रजा के लोगों को हिंसक पशुओं से भयमुक्त करने के लिए आए थे न कि शिकार खेलने की शौक में।

और भी प्रमाण देखें, जब दशरथ जी मुनिकुमार की आवाज सुनते हैं तब उसके महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं-

तां गिरं करुणं श्रुत्वा मम् धर्मानुकांङ्क्षिणः।।३३।।

कराभ्यां सशरं चापं व्यथितस्यापतद् भुवि।

(वा. रा. अयो. का. स.६३)

अर्थात् ये करुणा भरे वचन सुन कर मेरे मन में बड़ी व्यथा हुई। कहां मैं तो धर्म की अभिलाषा करने वाला था और कहां यह अधर्म का कार्य बन गया। उस समय मेरे हाथों से धनुष और बाण छूट कर पृथ्वी पर गिर पड़े।

बंगाल और पश्चिमोत्तर संस्करण में यह श्लोक इस प्रकार आया है

बंगाल संस्करण

अब यहां पर दशरथ जी ने स्पष्ट रूप से बोल दिया कि वे धर्म की अभिलाषा करने वाले थे तथा पश्चिमोत्तर व बंगाल संस्करण में आया है कि वे अधर्म से भयभीत हो गए जिससे आयुध उनके हाथ से गिर गया, इसलिए इसका भी भाव यही है कि वे धर्मानुकूल कार्य हेतु आए थे किंतु अनजाने में अधर्म हो गया। अतः सिद्ध हुआ कि दशरथ जी धर्म विरुद्ध कार्य नहीं कर सकते, वे यहां धर्मानुकूल कार्य हेतु ही आए थे। भगवान् मनु ने मनुस्मृति में राजा के व्यसन गिनवाए हैं, उनमें से 10 व्यसन काम से उत्पन्न व 8 व्यसन क्रोध से उत्पन्न बताया है।

मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।

तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः।।४७।।

(मनु० अ० ७)

यहां मनु जी ने काम से उत्पन्न व्यसन में मृगया अर्थात् शिकार खेलना भी गिनवाया है।

मनु जी काम से उत्पन्न हुए चार बड़े दुर्गुणों को गिनवाते हैं-

पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्।

एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे।।५०।।

(मनु० वही अध्याय)

अब यहां काम से उत्पन्न सबसे बड़े दुर्गुणों में भी मृगया अर्थात् शिकार का नाम लिया है।

अब देखें भगवान् मनु के अनुसार काम व क्रोध से उत्पन्न दुर्गुणों राजा राजा की क्या गति होती है-

कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।

वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु।।४६।।

(मनु० वही अध्याय)

यहां भगवान् मनु कहते हैं कि जो राजा कामज व्यसन से युक्त होता है वह अर्थ अर्थात् राज्य, धनादि व धर्म से रहित हो जाता है तथा जो क्रोधज व्यसन से युक्त होता है वह शरीर से भी रहित हो जाता है।

यहां पर दशरथ जी कह रहे हैं कि वे धर्म की अभिलाषा करने वाले थे, अर्थात् धर्मानुकूल कार्य करने आए थे न कि धर्मविरुद्ध, जबकि मनु महाराज कहते हैं कि कामज व्यसन से युक्त राजा धर्म व अर्थ से रहित हो जाता है अतः यहां भी सिद्ध है कि वे शिकार खेलने नहीं आए थे अपितु प्रजा के रक्षा हेतु जो शिकारी पशु उनके राज्य में घुस आए थे, उनके वध हेतु आए थे।


संदर्भित व सहायक ग्रंथ

१. वाल्मीकि रामायण [विभिन्न संस्करण]

२. मनुस्मृति

३. मांसाहार धर्म, अर्थ व विज्ञान के आलोक में (लेखक - आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी)

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धन्यवाद



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