वेद पर ऋषियों का मत
लेखक - यशपाल आर्य
ऋषि लोग वेदों के विषय में क्या विचार रखते थे इस बात को हम प्रमाणों के आधार पर इस लेख में जानेंगे।
आइए लेख प्रारंभ करते हैं -
मनुस्मृति का प्रमाण
वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च।
[मनु० २|६]
अर्थात् वेद का वचन, वेदज्ञाताओं का वचन, कर्म, साधारण लोगों का कर्म और वह कर्म जिसके करने में चित्त शान्त हो, यह सब धर्म के मूल हैं।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ।।[मनु० २/१३]
जिसको धर्म जानने की इच्छा है, उसको केवल वेद ही परम प्रमाण हैं।
12वें अध्याय में कहते हैं -
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रं इति स्थितिः।।९४।।
पितर=पालक राजा आदि विद्वान् और अन्य मनुष्यों का वेद सनातन नेत्र=मार्ग-प्रदर्शक है, और वह अशक्य अर्थात् जिसे कोई पुरुष नहीं बना सकता इस प्रकार अपौरुषेय हैं, तथा अनन्त सत्यविद्याओं से युक्त है, ऐसी निश्चित मान्यता है।
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः।।९५।।
जो वेदविरोधी स्मृतियां और जो भी कोई कुत्सित पुरुषों के बनाए हुए ग्रन्थ हैं, वे सब निष्फल हैं। क्योंकि वे इस लोक और परलोक में असत्यान्धकार स्वरूप हैं, जिससे ये संसार को दुःखसागर में डुबाने वाले हैं।
उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानि चित्।
तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च।।९६।।
जो इन वेदों से विरुद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट हो जाते है, उनका मानना निष्फल और झूठा है।
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति।।९७।।
चार वर्ण, चार आश्रम, भूत, भविष्यत और वर्तमान आदि की सब विद्या वेदों से ही प्रसिद्ध होती है।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः।
वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूतिर्गुणकर्मतः।।९८।।
सत्, रज, तम इन तीनों गुणों से उत्पन्न जो शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध है वह सब वेद ही से उत्पन्न हुए हैं।
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्।
तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्।।९९।।
यह जो सनातन वेदशास्त्र है सो सब विद्याओं के दान से सम्पूर्ण प्राणियों का धारण और सब सुखों को प्राप्त कराता है, इस कारण से हम लोग (मनु आदि) उसको सर्वथा उत्तम मानते है, और इसी प्रकार मानना भी चाहिए , क्योंकि सब जीवों के लिए सब सुखों का साधन यहीं है।
मुण्डोपनिषद् का प्रमाण
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। [मुण्डोपनिषद् २|१|४]
अर्थात् उस परमेश्वर मस्तक मानो अग्नि है, सूर्य और चंद्र उसके नेत्रों के तुल्य हैं, दिशाएं उसके कानों के तुल्य हैं। वेद मानो उसकी वाणी से निकले अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान हैं।
शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसि तमेद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदऽथर्वाङ्गिरस् [शत० १४.५.४.१०]
इसका भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (वेदोत्पत्ति विषय) में लिखते हैं-
अस्यायमभिप्रायः। याज्ञवल्क्योऽभिवदति - हे मैत्रेयि! महत आकाशादपि बृहतः परमेश्वरस्यैव सकाशादृग्वेदादिवेदचतुष्टयं (निःश्वसितं ) निःश्वासवत्सहजतया निःसुतमस्तीति वेद्यम् । यथा शरीराच्छ्वासो निःसृत्य पुनस्तदेव प्रविशति तथैवेश्वराट् वेदानां प्रादुर्भावतिरोभावो भवत इति निश्चयः॥
इसका भाषानुवाद देखें
याज्ञवल्क्य महाविद्वान् जो महर्षि हुए हैं, वह अपनी पण्डिता मैत्रेयी स्त्री को उपदेश करते हैं कि हे मैत्रेयि ! जो आकाशादि से भी बड़ा सर्वव्यापक परमेश्वर है, उससे ही ऋक् यजुः साम और अथर्व ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं, जैसे मनुष्य के शरीर से श्वास बाहर को आके फिर भीतर को जाता है इसी प्रकार सृष्टि के आदि में ईश्वर वेदों को उत्पन्न करके संसार में प्रकाश करता है, और प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते, परन्तु उसके ज्ञान के भीतर वे सदा बने रहते हैं, बीजाङ्कुरवत्। जैसे बीज में अङ्कुर प्रथम ही रहता है, वहीं वृक्षरूप होके फिर भी बीज के भीतर रहता है, इसी प्रकार से वेद भी ईश्वर के ज्ञान में सब दिन बने रहते हैं, उनका नाश कभी नहीं होता, क्योंकि वह ईश्वर की विद्या है, इससे इसको नित्य ही जानना ॥
यह हमें बृहदारण्यक उपनिषद् [४.५.११] में भी प्राप्त होता है।
निरुक्त का प्रमाण
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्।
योऽर्थज़ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेत ज्ञानविधूतपाप्मा॥ [निरुक्त नैगम कांड १।१८]
जो वेद को स्वर और पाठमात्र पढ़के अर्थ नहीं जानता, वह जैसा वृक्ष-डाली, पत्ते, फल, फूल और अन्य पशु-धान्य आदि का भार उठाता है, वैसे भारवाह अर्थात् भार का उठानेवाला है। और जो वेद को पढ़ता और उनका यथावत् अर्थ जानता है, वही सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होके देहान्त के पश्चात् ज्ञान से पापों को छोड़, पवित्र धर्माचरण के प्रताप से सर्वानन्द को प्राप्त होता है।
पुरुषविद्ययाऽनित्यत्वात् कर्मसंपत्तिर्मन्त्रो वेदे। [निरुक्त १|२]
अर्थात् पुरुष की विद्या वा उसका ज्ञान अनित्य है, अतः वेद में मंत्रों द्वारा कर्तव्य कर्मों का नित्यपूर्ण रूप में प्रतिपादन किया गया है।
इससे सिद्ध है कि निरुक्तकार भगवान् यास्क वेद को नित्य ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, अन्यथा यह युक्ति देने की आवश्यकता न थी कि पुरुष का ज्ञान अनित्य है।
पूर्वपक्ष - पुरुष शब्द से ईश्वर का भी ग्रहण होता है अतः यह सिद्ध होता है कि वेद ईश्वर कृत भी नहीं हैं।
सिद्धान्ती - नहीं, आपका कथन उचित नहीं है। जहां जिस शब्द का जो अर्थ लिया गया हो वही अर्थ लेना चाहिए न कि उस शब्द के जो जितने भी अर्थ हों सबको लेना होता है। सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द जी ने सरल किंतु अति उपयोगी दृष्टांत दिया है-
किसी ने किसी से कहा कि ‘हे भृत्य! त्वं सैन्धवमानय’=‘तू सैन्धव को ले आ।’ तब उसको समय अर्थात् प्रकरण का विचार करना आवश्यक है; क्योंकि ‘सैन्धव’ नाम दो पदार्थों का है, एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो स्वस्वामी के गमन का समय हो तो घोड़े, और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है। और जो गमन-समय में लवण और भोजनसमय में घोड़े को ले आवे, तो उसका स्वामी उसपर क्रुद्ध होकर कहेगा कि ‘तू निर्बुद्धि पुरुष है। गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े को लाने का क्या प्रयोजन था? तू प्रकरणवित् नहीं है; नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिये था, उसी को लाता। जो तुझको प्रकरण का विचार करना आवश्यक था, वह तूने नहीं किया, इससे तू मूर्ख है, मेरे पास से चला जा।’ इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो, वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिये।
इसी प्रकार जहां पुरुष शब्द आया है वहां हमें तर्क और ऊहा के द्वारा विचार करना चाहिए कि यह अपौरुषेय शब्द जीव के लिए कहा है या परमात्मा के लिए। यदि ऐसा माना जाए कि वेद ईश्वर ने नहीं बनाए तो इस बात का “तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यं” “शास्त्रयोनित्वात्” “एवं वा अरेऽस्य महतो....” इत्यादि वचनों से विरोध होता है। किन्तु आप्त के वचनों में विरोध नहीं होता, क्योंकि महर्षि वात्स्यायन लिखते हैं-
एतेन त्रिविधेनातप्रामाण्येन परिगृहीतोऽनुष्ठीयमानोऽर्थस्य साधको भवति, एवमाप्तोपदेशः प्रमाणम्। एवमाप्ताः प्रमाणम्।
[न्याय दर्शन २/१/६९ महर्षि वात्स्यायन भाष्य]
इस प्रकार वास्तविक विषय का ज्ञान, प्राणियों पर दया तथा सत्य विषय के प्रसिद्ध करने की इच्छा इन तीन प्रकार से आप्तपुरुषों के प्रमाण होने से संसार के साधारण प्राणियों ने आप्तों के उपदेश के अनुसार स्वीकार कर, वैसा ही आचरण करने से उनके सम्पूर्ण संसार के कार्य सिद्ध होते हैं, इस प्रकार आप्तों का उपदेश प्रमाण होता है। और आप्त भी प्रमाण होता है अर्थात् आप्त का जीवन भी प्रमाण होता है।
एक विषय में भिन्न साक्षात् कृत धर्मा लोगों के दो परस्पर विरुद्ध विचार नहीं हो सकते।
दूसरा हेतु यह है कि यहां कहा है कि पुरुष का ज्ञान अनित्य है किंतु समाधिपाद सूत्र 26 व उसके भाष्य में भगवान् व्यास के अनुसार ईश्वर का ज्ञान नित्य व त्रिकलाबाध्य कहा है। किंतु भगवान् यास्क ने जिस पुरुष के विषय में कहा है उसका ज्ञान अनित्य है।
अतः यहां यही मानना चाहिए कि यहां अपौरुषेय का तात्पर्य पुरुष अर्थात् जीवात्मा की कृति नहीं है ऐसा लेना चाहिए न कि पुरुष विशेष ईश्वर से।
अब कुछ लोग कहेंगे कि हमें तो किसी मध्यकालीन आचार्य का प्रमाण चाहिए, तो हम उनके लिए भी प्रमाण दे देते हैं। आचार्य सायण ऐतरेय की भाष्यभूमिका में लिखते हैं-
पौरुषेयवाक्यं तु बोधकमपि सद्भ्रान्तिमूलत्वसम्भावनया तत्परिहाराय अन्य- प्रमाणमपेक्ष्यैव प्रमाणम्। न तु वेदः मूलप्रमाणमपेक्षते; तस्य नित्यत्वेन कर्तृदोषशङ्काया अनुदयात्। एतदेव जैमिनिना सूत्रितम् ' तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात्' इति।।
ननु वेदोऽपि कालिदासादिवाक्यवत् पौरुषेय एव ब्रह्मकार्यत्वश्रवणात्-
“........ ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुः तस्मादजायत।।” इति श्रुतेः।
यहां स्पष्ट है कि सायण ने भी अपौरुषेय का अर्थ जीव की कृति नहीं अपितु ईश्वर की कृति है ऐसा माना है। यदि ऐसा न होता तो “ननु वेदोऽपि कालिदासादिवाक्यवत् पौरुषेय एव ब्रह्मकार्यत्वश्रवणात्” जैसे वचन क्योंकर लिखते? अतः अपुरुषेय का अर्थ ईश्वर कृत ही मानना उचित है।
सभी ६ वैदिक दर्शनों का वेद को मानने का प्रमाण
१. न्याय दर्शन का प्रमाण-
मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्तात्। [२|१|६८]
महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदनित्यत्वविचार) में इस प्रकार लिखते हैं-
अस्यायमर्थः - तेषां वेदानां नित्यानामीश्वरोक्तानां प्रामाण्यं सर्वैः स्वीकार्यम्। कुतः ? आप्तप्रामाण्यात्। धर्मात्मभिः कपटछलादि- दोषरहितैर्दयालुभिः सत्योपदेष्टृभिर्विद्यापारगैर्महायोगिभिः सर्वैर्ब्रह्मादि- भिराप्तैर्वेदानां प्रामाण्यं स्वीकृतमतः। किंवत्? मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत्। यथा सत्यपदार्थविद्याप्रकाशकानां मन्त्राणां विचाराणां सत्यत्वेन प्रामाण्यं भवति, यथा चायुर्वेदोक्तस्यैकदेशोक्तौषधसेवनेन रोगनिवृत्त्या तद्भिन्नस्यापि भागस्य तादृशस्य प्रामाण्यं भवति, तथा वेदोक्तार्थस्यैकदेशप्रत्यक्षेणेतरस्यादृष्टार्थविषयस्य वेदभागस्यापि प्रामाण्यमङ्गीकार्यम्। एतत्सूत्रस्योपरि भाष्यकारेण वात्स्यायनमुनिनाप्येवं प्रतिपादितम्-
"द्रष्टृप्रवक्तृसामान्याच्चानुमानम्। य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनामित्यायुर्वेदप्रामाण्यवद्वेदप्रामाण्यमनुमातव्यमिति। नित्यत्वाद्वेदवाक्यानां प्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादित्युक्तम्।”
अस्यायमभिप्रायः - यथाप्तोपदेशस्य शब्दस्य प्रामाण्यं भवति तथा सर्वथाप्तेनेश्वरेणोक्तानां वेदानां सर्वैराप्तैः प्रामाण्येनाङ्गीकृतत्वाद्वेदाः प्रमाणमिति बोध्यम् । अत ईश्वरविद्यामयत्वाद्वेदानां नित्यत्वमेवोपपन्नं भवतीति दिक्।
भाषार्थ - वैसे ही न्यायशास्त्र में गोतम मुनि भी शब्द को नित्य कहते हैं, (मन्त्रायु० ) वेदों को नित्य ही मानना चाहिए, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त ब्रह्मादि जितने आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य ही मानते आये हैं। उन आप्तों का अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये। क्योंकि आप्त लोग वे होते हैं जो धर्मात्मा, कपट छलादि दोषों से रहित, सब विद्याओं से युक्त, महायोगी और सब मनुष्यों के सुख होने के लिये सत्य का उपदेश करनेवाले हैं, जिनमें लेशमात्र भी पक्षपात वा मिथ्याचार नहीं होता। उन्होंने वेदों का यथावत् नित्य गुणों से प्रमाण किया है जिन्होंने आयुर्वेद को बनाया है। जैसे आयुर्वेद वैद्यकशास्त्र के एक देश में कहे औषध और पथ्य के सेवन करने से रोग की निवृत्ति से सुख प्राप्त होता है, जैसे उसके एक देश के कहे के सत्य होने से उसके दूसरे भाग का भी प्रमाण होता है इसी प्रकार वेदों का भी प्रमाण करना सब मनुष्यों को उचित है। क्योंकि वेद के एक देश में कहे अर्थ का सत्यपन विदित होने से उससे भिन्न जो वेदों के भाग हैं, कि जिनका अर्थ प्रत्यक्ष न हुआ हो, उनका भी नित्य प्रमाण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि आप्त पुरुष का उपदेश मिथ्या नहीं हो सकता।
(मन्त्रायु०) इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने वेदों का नित्य होना स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जो आप्त लोग हैं वे वेदों के अर्थ को देखने दिखाने और जनानेवाले हैं। जो-जो उस मन्त्र के अर्थ के द्रष्टा वक्ता होते हैं, वे ही आयुर्वेद आदि के बनानेवाले हैं। जैसे उनका कथन आयुर्वेद में सत्य है वैसे ही वेदों के नित्य मानने का उनका जो व्यवहार है सो भी सत्य ही है, ऐसा मानना चाहिए। क्योंकि जैसे आप्तों के उपदेश का प्रमाण अवश्य होता है, वैसे ही सब आप्तों का भी जो परम आप्त सबका गुरु परमेश्वर है, उसके किये वेदों का भी नित्य होने का प्रमाण अवश्य ही करना चाहिये।
२. वैशेषिकदर्शन का प्रमाण-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यं। [वैशेषिक १|१|३]
अस्यायमर्थः- तद्वचनात्तयोर्धर्मेश्वरयोर्वचनाद्धर्मस्यैव कर्त्तव्यतया प्रतिपादनादीश्वरेणैवोक्तत्वाच्चाम्नायस्य वेदचतुष्टयस्य प्रामाण्यं सर्वैर्नित्यत्वेन स्वीकार्यम्।
भाषार्थ- (तद्वचना०) वेद ईश्वरोक्त हैं, इनमें सत्यविद्या और पक्षपात रहित धर्म का ही प्रतिपादन है, इससे चारों वेद नित्य हैं। ऐसा ही सब मनुष्यों को मानना उचित है क्योंकि ईश्वर नित्य है, इससे उसकी विद्या भी नित्य है।
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।। [वै. ६.१.१]
वेदों में वाक्य रचना बुद्धिपूर्वक है।
३. सांख्य दर्शन का प्रमाण -
निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यं। [सांख्य दर्शन ५|५१]
अस्यायमर्थः - वेदानां निजशक्त्यभिव्यक्तेः पुरुषसहचारिप्रधान- सामर्थ्यात् प्रकटत्वात्स्वतः प्रामाण्यनित्यत्वे स्वीकार्ये इति।
भाषार्थ - परमेश्वर की (निज) अर्थात् स्वाभाविक जो विद्याशक्ति है उससे प्रकट होने से वेदों का नित्यत्व और स्वतः प्रामाण्य सब मनुष्यों को स्वीकार करना चाहिये।
४. योगदर्शन का प्रमाण -
स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवसच्छेदात्।। [समाधि पाद सूत्र २६]
वह ईश्वर पूर्वजों का भी गुरु है, काल से उसका बाध न होने के कारण, इस सूत्र में पूर्व शब्द से अभिप्राय अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामक महर्षियों से है। सृष्टि के आदि में परमात्मा जिनके हृदय में वेद का प्रकाश करता है, पूर्वज शब्द सबसे प्रथम अर्थात् सृष्टि के आदि में जन्म लेने के कारण आता है।
इसी सूत्र पर महर्षि व्यास जी भाष्य लिखते हैं-
पूर्वे हि गुरवः कालेनावच्छिद्यन्ते। यात्रावच्छेदार्थेन कालो नोपावर्तते स एष पूर्वेषामपि गुरुः। यथाऽस्य सर्गस्याऽऽदौ प्रकर्षगत्या सिद्धस्तथाऽतिक्रान्तसर्गादिष्वपि प्रत्येतव्यः।
अर्थात् पूर्वज गुरु अग्नि आदि काल से बाध हो जाते हैं। जिसमें सीमाबद्ध रूप से काल नहीं वर्ताता अर्थात् जो त्रिकालाबाध्य है। वह यह ईश्वर प्रथम गुरुओं का भी गुरु है।जैसे इस सृष्टि की आदि में इसकी सर्वज्ञता सिद्ध है, वैसे ही सृष्टि के अंत में भी जाननी चाहिए।
महर्षि दयानन्द जी इसका अर्थ करते हैं -
यः पूर्वेषां सृष्ट्यादावुत्पन्नानामग्निवाय्वादित्याङ्गिरोब्रह्मादीनां प्राचीनानामस्मदादीनामिदानींतनानामग्रे भविष्यतां च सर्वेषामेव ईश्वर एव गुरुरस्ति। गृणाति वेदद्वारोपदिशति सत्यानर्थान् स गुरुः। स च सर्वदा नित्योऽस्ति तत्र कालगतेरप्रचारत्वात्। न स ईश्वरो ह्यविद्या- दिक्लेशैः पापकर्मभिस्तद्वासनया च कदाचिद्युक्तो भवति । यस्मिन् निरतिशयं नित्यं स्वाभाविकं ज्ञानमस्ति तदुक्तत्वाद्वेदानामपि सत्यार्थवत्त्वनित्यत्वे वेद्य इति।
अब भाषानुवाद देखें
जो कि प्राचीन अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि पुरुष सृष्टि की आदि में उत्पन्न हुए थे, उनसे लेके हम लोग पर्यन्त और हमसे आगे जो होनेवाले हैं, इन सबका गुरु परमेश्वर ही है, क्योंकि वेद द्वारा सत्य अर्थों का उपदेश करने से परमेश्वर का नाम गुरु है। सो ईश्वर नित्य ही है, क्योंकि ईश्वर में क्षणादि काल की गति का प्रचार ही नहीं है, और वह अविद्या आदि क्लेशों से और पापकर्म तथा उनकी वासनाओं के भोगों से अलग है। जिसमें अनन्त विज्ञान सर्वदा एकरस बना रहता है, उसी के रचे वेदों का भी सत्यार्थपना और नित्यपना भी निश्चित है, ऐसा ही सब मनुष्यों को जानना चाहिये।
५. वेदांत दर्शन का प्रमाण -
शास्त्रयोनित्वात्॥ [ब्र. सू. १.१.३]
अस्यायमर्थः – 'ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत्सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। न हीदृशस्य शास्त्रस्यर्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोऽस्ति। यद्यद्विस्तरार्थं शास्त्रं यस्मात्पुरुषविशेषात्संभवति, यथा व्याकरणादिपाणिन्यादेर्ज्ञेयैकदेशार्थमपि स ततोऽप्यधिकतरविज्ञान इति सिद्धं लोके किमु वक्तव्यमितीदं वचनं शङ्कराचार्येणास्य सूत्रस्योपरि स्वकीयव्याख्याने गदितम्। अतः किमागतं, सर्वज्ञस्येश्वरस्य शास्त्रमपि नित्यं सर्वार्थज्ञानयुक्तं च भवितुमर्हति।
अन्यच्च तस्मिन्नेवाध्याये-
अत एव च नित्यत्वम्॥ [ब्र. सू. १.३.२९]
अस्यायमर्थः - अत ईश्वरोक्तत्वान्नित्यधर्मकत्वाद् वेदानां स्वतः प्रामाण्यं सर्वविद्यावत्त्वं सर्वेषु कालेष्वव्यभिचारित्वान्नित्यत्वं च सर्वेनुष्यैर्मन्तव्यमिति सिद्धम्। न वेदस्य प्रामाण्यसिद्ध्यर्थमन्यत्प्रमाणं स्वीक्रियते। किंत्वेतत्साक्षिवद्विज्ञेयम् वेदानां स्वतः प्रमाणत्वात् सूर्यवत् । यथा सूर्यः स्वप्रकाशः सन् संसारस्थान्महतो ऽल्पाँश्च पर्वतादीन् त्रसरेण्वन्तान्पदार्थान्प्रकाशयति तथा वेदोऽपि स्वयं स्वप्रकाशः सन् सर्वा विद्याः प्रकाशयतीत्यवधेयम्।
भाषार्थ - (शास्त्र०) इस सूत्र के अर्थ में शङ्कराचार्य ने भी वेदों को नित्य मान के व्याख्यान किया हैं कि- ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं, सूर्य के समान सब सत्य अर्थों के प्रकाश करनेवाले हैं। उनका बनानेवाला सर्वज्ञादि गुणों से युक्त परब्रह्म है, क्योंकि सर्वज्ञ ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वज्ञगुणयुक्त इन वेदों को बना सके, ऐसा सम्भव कभी नहीं हो सकता । किन्तु वेदार्थविस्तार के लिये किसी जीव-विशेष पुरुष से अन्य शास्त्र बनाने का सम्भव होता है । जैसे पाणिनि आदि मुनियों ने व्याकरणादि शास्त्रों को बनाया है। उनमें विद्या के एक-एक देश का प्रकाश किया है। सो भी वेदों के आश्रय से बना सके हैं। और जो सब विद्याओं से युक्त वेद हैं, उनको सिवाय परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं बना सकता, क्योंकि परमेश्वर से भिन्न सब विद्याओं में पूर्ण कोई भी नहीं है । किञ्च परमेश्वर के बनाये वेदों के पढ़ने, विचारने और उसी के अनुग्रह से मनुष्यों को यथाशक्ति विद्या का बोध होता है, अन्यथा नहीं, ऐसा शङ्कराचार्य ने भी कहा है। इससे क्या आया कि वेदों के नित्य होने में सब आर्य लोगों की साक्षी है । और यह भी कारण है कि जो ईश्वर नित्य और सर्वज्ञ है उसके किये वेद भी नित्य और सर्वज्ञ होने के योग्य हैं। अन्य का बनाया ऐसा ग्रन्थ कभी नहीं हो सकता।
(अत एव०) इस सूत्र से भी यही आता है कि वेद नित्य हैं, और सब सज्जन लोगों को भी ऐसा ही मानना उचित है। तथा वेदों के प्रमाण और नित्य होने में अन्य शास्त्रों के प्रमाणों को साक्षी के समान जानना चाहिये, क्योंकि वे अपने ही प्रमाण से नित्य सिद्ध हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश में सूर्य का ही प्रमाण है, अन्य का नहीं, और जैसे सूर्य प्रकाशस्वरूप है, पर्वत से लेके त्रसरेणु पर्यन्त पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे वेद भी स्वयंप्रकाश हैं और सब सत्यविद्याओं का भी प्रकाश कर रहे हैं।
१.१.३ के भाष्य में शंकराचार्य जी लिखते हैं-
६. मीमांसा दर्शन का प्रमाण
औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धन्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत् प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात्।। [मी० १.१.५]
सूत्रार्थ - (शब्दस्यार्थेन) शब्द का अर्थ के साथ (सम्बन्धः) सम्बन्ध (औत्पत्तिकः) वाभाविक है। (तस्य) उस धर्म का [निमित्तं] ( ज्ञानम् ) ज्ञानसाधन (उपदेश:) उपदेश है [उस ज्ञान का] (अव्यतिरेकः) व्यतिरेक=विपर्यय नहीं होता है। [इस कारण] (तत्) वह चोदना (अनुपलब्धेऽर्थे) अनुपलब्ध अर्थ में भी (प्रमाणम्) प्रमाण है। ( बादरायणस्यं) बादरायण आचार्य के मत में (अनपेक्षत्वात्) अपेक्षा से रहित प्रर्थात् स्वत: प्रमाण ने से।
आचार्य बादरायण अर्थात् महर्षि वेदव्यास जी महाराज वेद को स्वतः प्रमाण किस हेतु से मानते हैं, वह सूत्र “शास्त्रयोनित्वात्॥” में बताया है, जिसे ऊपर पाठकगण वेदांत के प्रमाण वाले प्रसंग में पढ़ चुके हैं, अतः हम यहां दोहराना उचित नहीं समझते।
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्॥ [मी. १.१.१८]
अस्यायमर्थः – 'तु' शब्देनानित्यशङ्का निवार्यते । विनाशरहित- त्वाच्छब्दो नित्योऽस्ति, कस्मात्? दर्शनस्य परार्थत्वात्। दर्शनस्योच्चारणस्य परस्यार्थस्य ज्ञापनार्थत्वात्, शब्दस्यानित्यत्वं नैव भवति। अन्यथाऽयं गोशब्दार्थोऽस्तीत्यभिज्ञाऽनित्येन शब्देन भवितुमयोग्यास्ति। नित्यत्वे सति ज्ञाप्यज्ञापकयोर्विद्यमानत्वात् सर्वमेतत् सङ्गतं स्यात्। अतश्चैकमेव गोशब्दं युगपदनेकेषु स्थलेष्वनेक उच्चारका उपलभन्ते । पुनः पुनस्तमेव चेति । एवं जैमिनिना शब्दनित्यत्वेऽनेके हेतवः प्रदर्शिताः।
भाषार्थ - शब्द में जो अनित्य होने की शङ्का आती है, उसका 'तु' शब्द से निवारण किया हैं। शब्द नित्य ही हैं, अर्थात् नाशरहित हैं, क्योंकि उच्चारणक्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है सो अर्थ के जानने ही के लिये है, इससे शब्द अनित्य नहीं हो सकता। जो शब्द का उच्चारण किया जाता है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा होती है कि श्रोत्रद्वारा ज्ञान के बीच में वही शब्द स्थिर रहता है, फिर उसी शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है। जो शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान कौन कराता, क्योंकि वह शब्द ही नहीं रहा, फिर अर्थ को कौन जनावे। और जैसे अनेक देशों में अनेक पुरुष एक काल में ही एक गो शब्द का उच्चारण करते हैं, इसी प्रकार उसी शब्द का उच्चारण वारंवार भी होता है, इस कारण से भी शब्द नित्य है । जो शब्द अनित्य होता तो यह व्यवस्था कभी नहीं बन सकती । सो जैमिनि मुनि ने इस प्रकार के अनेक हेतुओं से पूर्वमीमांसा शास्त्र में शब्द को नित्य सिद्ध किया है।
महाभारत का प्रमाण-
अनादि निधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।।२४।।
ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु सृष्टयः।
नाना रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्।।२५।।
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते सः ईश्वरः॥२६॥
महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय २३२, श्लोक २४,२५,२६
अर्थात् स्वयंभुव परब्रह्म परमात्मा ने आदि अंत से रहित वेद वाक् को उत्पन्न किया। ऋषियों अर्थात् प्राण रश्मियों (प्राणा ऋषयः।। श. ७.२.३.५) के नाम और वेद की रश्मियों से रचे हुए सब पदार्थों के नाम, विभिन्न पदार्थों व प्राणियों के नाना रूप एवं उनके कर्मों को आदि सृष्टि में वेद शब्दों से बनाता है व उन्हीं के माध्यम से उनका ज्ञान भी देता है।
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धन्यवाद
संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (महर्षि दयानन्द जी सरस्वती)
- योग दर्शन व्यास भाष्य सहित
- वेदों का यथार्थ स्वरूप (पंडित धर्मदेव जी विद्यामार्तंड)
- महाभारत
- वेदान्त दर्शन शंकराचार्य भाष्य सहित (श्री गीता सत्संग से प्रकाशित)
- वैशेषिक दर्शन
- मीमांसा दर्शन (व्याख्याकार - पंडित युधिष्ठिर जी मीमांसक)
- ऋग्वेदीयम् ऐतरेयब्राह्मणम् सायणभाष्योपेतम् सविमर्श ‘शशिप्रभा’ नामहिन्दीव्याख्ययाविभूषितम् [व्याख्याकार - प्रो० उमेश प्रसाद सिंह जी]
अत्युत्तम लेख!!🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteJabardast
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