ऋषियों के अनुसार ब्रह्माण्ड की मूल अवस्था

Prakriti avastha

लेखक - यशपाल आर्य
क्या आप जानते हैं कि ब्रह्माण्ड की मूल अवस्था को पूरी तरह जाना नहीं जा सकता, किंतु मनुष्य जितना जान सकता है वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों में बताया है तथा हमारे ऋषियों ने भी वेद से समझ कर समाधिस्थ हो कर वेद के वचन को विस्तृत रूप से जान कर बताया है, उस अवस्था का नाम प्रकृति है। आज जो मॉडर्न साइंस जानने की बात करता है वह केवल कल्पना मात्र ही करता है, उन कल्पनाओं की समीक्षा आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी ने वेद विज्ञान आलोक में किया है, जो महानुभाव इस विषय में जानना चाहें तो वेद विज्ञान आलोक का अध्ययन अवश्य करें वा आचार्य जी की वेद विज्ञान आलोक कक्षाओं की वीडियो देखें। यद्यपि "ब्रह्मांड की मूल अवस्था क्या है" इस विषय पर वेदों में बताया है तथा अनेक ऋषियों ने भी बताया है तथापि हम यहां केवल दो महापुरुषों के कथनों पर विचार करेंगे। एक हैं चारों वेदों के प्रथम ज्ञाता महर्षि भगवान् ब्रह्मा जी तथा दूसरे महर्षि भगवान् महादेव शिव जी। आज इनके ग्रंथ उपलब्ध नहीं होते, किंतु इनके कथन को उद्धृत कर के भीष्म जी ने शरशैय्या पर पड़े हुए युधिष्ठिर जी को उपदेश दिया था, इस कारण आज भी हमें प्रकृति अवस्था के विषय में भगवान् महादेव शिव व भगवान् ब्रह्मा का कथन प्राप्त होता है। इन महापुरुषों के कथन के विषय में विचार व शोध महान वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत जी ने किया था, हम यहां जो भाष्य दे रहे हैं यह उन्हीं का है अतः हम आचार्य जी का आभार व्यक्त करते हुए विषय को आरंभ करते हैं।
प्रकृति के विषय में महान् वैज्ञानिक भगवान् महादेव शिव अपनी धर्मपत्नी भगवती उमा जी से कहते हैं-
नित्यमेकमणु व्यापि क्रियाहीनमहेतुकम।
अग्राह्यमिन्द्रियैः सर्वैरेतदव्यक्त लक्षणम्।।
अव्यक्तं प्रकृतिर्मूलं प्रधानं योनिरव्ययम्।
अव्यक्तस्यैव नामानि शब्दैः पर्यायवाचकैः।।
(महाभारत अनुशासन पर्व-दानधर्मपर्व १४५ वां अध्याय)
तथा इसके विषय में महर्षि ब्रह्मा जी कहते हैं-
तमो व्यक्तं शिवं धाम रजो योनिः सनातनः।
प्रकृतिर्विकारः प्रलयः प्रधानं प्रभवाप्ययौ।।२३।।
अनुद्रिक्तमनूनं वाप्यकम्पमचलं ध्रुवम्।
सदसच्चैव तत् सर्वमव्यक्तं त्रिगुणं स्मृतम्।।
ज्ञेयानि नामधेयानि नरैरध्यात्मचिन्तकैः।।२४।।
(महाभारत आश्वमेधिक पर्व अनुगीता पर्व अध्याय-३९)
अब हम इन श्लोकों में दिए गए प्रत्येक विशेषण पर थोड़ा विस्तार से विचार करते हैं-
(1) नित्य- यह पदार्थ सदैव विद्यमान रहता है अर्थात् इसका कभी भी अभाव नहीं होता। यह अजन्मा एवं अविनाशी रूप होता है।
(२) एक- महाप्रलय काल में अर्थात् ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व यह पदार्थ सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में सर्वथा एकरस भरा रहता है, उसमें कोई भी उतार-चढ़ाव अर्थात् सघनता व विरलता का भेद (fluctuation) प्रलयावस्था में नहीं होता।
(३) अणु- यह जड़ पदार्थ की सबसे सूक्ष्म अवस्था में विद्यमान होता है। इससे सूक्ष्म जड़ पदार्थ की अवस्था की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
(४) व्यापी- यह पदार्थ सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में व्याप्त होता है। कहीं भी अवकाश नहीं रहता।
(५) क्रियाहीन- महाप्रलयावस्था में यह पदार्थ पूर्ण निष्क्रिय होता है।
(६) अहेतुक- इस पदार्थ का कोई भी कारण नहीं होता, इसका तात्पर्य यह है कि यह पदार्थ ईश्वरादि द्वारा निर्मित नहीं होता, बल्कि स्वयम्भू रूप होता है। सृष्टि का हेतु ईश्वर इसे प्रेरित व विकृत अवश्य करता है, परन्तु उसे बनाता नहीं है।
(७) अग्राह्य- यह पदार्थ की वह स्थिति है, जिसे किसी इन्द्रियादि साधनों से कभी भी जाना वा ग्रहण नहीं किया जा सकता।
(८) अव्यक्त- इसे किसी प्रकार से व्यक्त नहीं किया जा सकता। व्यक्त का लक्षण बताते हुए महर्षि व्यास ने लिखा- "प्रोक्तं तद्व्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत् जीर्यतेप्रियते चैव, चतुभिलक्षणयुतम्।।" (महा. शा.प.|मो.प.| अ.२३६| श्लोक ३०) इसके जो विपरीत हो, वह अव्यक्त कहाता है। इससे सिद्ध हुआ कि प्रकृति रूपी पदार्थ न जन्म लेता है. न वृद्धि को प्राप्त करता है, न पुराना हाता ह और न नष्ट होता है।
(९) मूल- इस सृष्टि में जो भी जड़ पदार्थ विद्यमान था, है वा होगा, उस सबकी उत्पत्ति का मूल उपादान कारण यही जड़ पदार्थ है।
(१०) प्रधान- यह सूक्ष्मतम पदार्थ सम्पूर्ण जड़ पदार्थ का अच्छी प्रकार धारण व पोषण करने वाला है। यह बात पृथक् है कि ईश्वर तत्व इस पदार्थ को भी धारण करता है।
(११) योनि- यह पदार्थ जहाँ सबकी उत्पत्ति का कारण है, वहीं यह पदार्थ सबका निवास व उत्पत्ति स्थान भी है। सम्पूर्ण सृष्टि इसी पदार्थ से बनी एवं इसी में उत्पन्न भी होती है।
(१२) अव्यय- यह पदार्थ कभी क्षीण वा न्यून नहीं होता अर्थात् यह पदार्थ सृष्टि एवं प्रलय सभी अवस्था में सदैव संरक्षित रहता है।
(१३) तम- यह पदार्थ ऐसे अन्धकार रूप में विद्यमान होता है, वैसा अन्धकार अन्य किसी भी अवस्था में नहीं हो सकता।
(१४) व्यक्त- यहाँ अव्यक्त प्रकृति का व्यक्त विशेषण हमारी दृष्टि में यह संकेत दे रहा है कि सत्व, रजस् एव तमस् इन तीनों गुणों में से सत्व व रजस का तो कोई लक्षण महाप्रलय में विद्यमान नहीं होता किन्तु तमस् गुण का एक लक्षण अंधकार अवश्य व्यक्त रहता है। सर्वत्र अव्यक्त कही जाने वाली प्रकृति का यहाँ व्यक्त विशेषण इसी कारण बतलाया गया प्रतीत होता है। इसके साथ ही इसका आशय यह भी है कि वह अव्यक्त प्रकृति ही व्यक्त जगत् के रूप में प्रकट होती है।
(१५) शिवधाम- शेतेऽसौ शिवः (उ.को.१.१५३) से संकेत मिलता है कि यह सूक्ष्मतम पदार्थ सोया हुआ सा होता है। यह पदार्थ प्रत्येक जड़ पदार्थ का धाम है अर्थात् सभी पदार्थ इसी में रहते हैं।
(१६) रजोयोनि- सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ से लेकर प्रलय के प्रारम्भ होने तक प्रत्येक रजोगणी प्रवृत्ति इसी कारण रूप पदार्थ में ही उत्पन्न होती है। इससे बाहर कोई उत्पत्ति आदि क्रियाएं कभी नहीं हो सकती।
(१७) सनातन- यह पदार्थ सनातन है अर्थात् इसका कभी अभाव नहीं हो सकता। न यह कभी उत्पन्न हो सकता है और न कभी नष्ट हो सकता है।
(१८) विकार- यह पदार्थ ही विकार को प्राप्त करके सृष्टि में नाना पदार्थों के रूप में प्रकट होता रहता है। इस पदार्थ के अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ अर्थात् ईश्वर व जीवात्मा नामक दोनों चेतन पदार्थों में कभी विकृति नहीं आ सकती, इस कारण ये दोनों पदार्थ किसी भी पदार्थ के उपादान कारण नहीं हो सकते।
(१९) प्रलय- इस सृष्टि में जो भी पदार्थ नष्ट होने योग्य है, वह नष्ट होकर अपने कारणरूप प्रकृति पदार्थ में ही लीन हो जाता है। महर्षि कपिलमुनि ने इसे ही नाश कहते हुए कहा है- "नाशः कारणलय‌" सां.द.१.८६ (१२१)
(२०) प्रभव- इसका तात्पर्य है कि इस सृष्टि में जो भी पदार्थ उत्पन्न हुआ है, होता है वा आगे होगा, वह इसी पदार्थ से उत्पन्न होगा। जीवात्मा चेतन होते हुए भी इसके बिना भोग व मोक्ष दोनों में से किसी को भी प्राप्त नहीं कर सकता।
(२१) अप्यय- इस पदार्थ में ही सृष्टि के सभी उत्पन्न पदार्थ विनाश के समय मिल जाते हैं, इसके साथ सृष्टि काल में भी इसमें ही समाहित रहकर परस्पर मिले हुए रहते हैं।
(२२) अनुद्रिक्त- इस अवस्था में स्पष्टतादि किन्हीं लक्षणों की विद्यमानता नहीं होती।
(२३) अनून- यह पदार्थ कभी भी अभाव को प्राप्त नहीं होता।
(२४) अकम्प- इस अवस्था में कोई कम्पन विद्यमान नहीं होता और न हो सकता।
(२५) अचल- इस अवस्था में कभी कोई गति नहीं होती।
(२६) ध्रुव- यह पदार्थ पूर्ण स्थिर ही होता है।
(२७) सत्+असत्- यह पदार्थ सदैव सत्तावान होते हुए भी प्रलयकाल में अर्थात् प्रकृति रूप में सदैव अविद्यमान के समान होता है।
(२८) सर्व- यह पदार्थ सृष्टिनिर्माणार्थ पूर्ण ही होता है अर्थात इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपादान पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती।
(२६) त्रिगुण- यह पदार्थ सत्व-रजस्-तमस् गुणों की साम्यावस्था के रूप में होता है।
(३०) प्रकृति- यह पदार्थ की स्वाभाविक अवस्था होती है, जिसे हम ऊपर दिए गए लक्षणों के द्वारा दर्शा चुके हैं।

महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश में वेद व मनुस्मृति का प्रमाण देकर लिखते हैं-
तम॑ आसी॒त्तम॑सा गूळ्हमग्रे॑॥१॥
ऋग्वेद [म० १० । सू० १२९ । मं० ३] का वचन है।
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥२॥
मनु० [१ । ५] ॥
यह सब जगत् सृष्टि के पहिले प्रलय में अन्धकार से आवृत्त आच्छादित था और प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है । उस समय न किसी के जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था, और न होगा, किन्तु वर्त्तमान में जाना जाता है और प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त जानने के योग्य होता और यथावत् उपलब्ध है॥१-२॥
(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

भगवान् कपिल कहते हैं
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः।
(सांख्य दर्शन १.६१)
अर्थात् सत्व, रजस् व तमस् तीन गुणों के साम्यावस्था का नाम प्रकृति है।
नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत्। 
किमाव॑रीव॒: कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भ॒: किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम्॥
(ऋगवेद १०.१२९.१)
भाष्य -
(नासदासी०) यदा कार्यं जगन्नोत्पन्नमासीत्तदाऽसत् सृष्टेः प्राक् शून्यमाकाशमपि नासीत्। कुतः? तद्व्यवहारस्य वर्त्तमानाभावात् (नो सदासीत्तदानीं) तस्मिन्काले सत् प्रकृत्यात्मकमव्यक्तं, सत्संज्ञकं यज्जगत्कारणं, तदपि नो आसीन्नावर्त्तत। ( नासीद्र०) परमाणवोऽपि नासन् (नो व्योमा परो यत्) व्योमाकाशमपरं यस्मिन् विराडाख्ये सोऽपि नो आसीत्। किन्तु परब्रह्मणः सामर्थ्याख्यमतीव सूक्ष्मं सर्वस्यास्य परमकारणसंज्ञकमेव तदानीं समवर्त्तत। (किमावरीवः०) यत्प्रातः कुहकस्यावर्षाकाले धूमाकारेण वृष्टं किञ्चिज्जलं वर्त्तमानं भवति, यथा नैतज्जलेन पृथिव्यावरणं भवति, नदीप्रवाहादिकं च चलति, अत एवोक्तं तज्जलं गहनं गभीरं किं भवति ? नेत्याह । किंत्वावरीवः, आवरकमाच्छादकं भवति। नैव कदाचित् तस्यातीवाल्पत्वात्, तथैव सर्वं जगत् तत्सा- मर्थ्यादुत्पद्यास्ति तच्छर्मणि शुद्धे ब्रह्मणि । किं गहनं गभीरमधिकं भवति? नेत्याह। अतस्तद्ब्रह्मणः कदाचिन्नैवावरकं भवति। कुतः? जगतः किञ्चिन्मात्रत्वाद् ब्रह्मणोऽनन्तत्वाच्च।।
भाषा भाष्य - (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण अर्थात् जगत् बनाने की सामग्री विराजमान थी। उस समय असत् शून्य नाम आकाश अर्थात् जो नेत्रों से देखने में नहीं आता, सो भी नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (नो सदासीत्तदानीं ) उस काल में (सत्) अर्थात् सतोगुण रजोगुण और तमोगुण मिला के जो प्रधान कहलाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्यो० ) विराट् अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है सो भी नहीं था। (किमा० ) जो यह वर्त्तमान जगत् है, वह भी अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढाक सकता, और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता, और न वह कभी गहरा वा उथला हो सकता है। इससे क्या जाना जाता है। कि परमेश्वर अनन्त है और जो यह उसका बनाया जगत् है, सो ईश्वर की अपेक्षा से कुछ भी नहीं है।

वैदिक सृष्टि विस्तृत जानने हेतु हेतु वेद विज्ञान अवश्य पढ़ें व इस लेख को पढ़ने के पश्चात् अगर आपको कुछ नई जानकारी मिली हो तो इसे जन जन तक अवश्य पहुंचाएं।

संदर्भित व सहायक ग्रंथ -
  • वेद विज्ञान आलोक
  • महाभारत
  • सत्यार्थ प्रकाश
  • ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका

Comments

  1. सादर नमस्ते महर्षी दयानन्द जी के सिपाही,🙏🙏🙏🚩
    आपके द्वारा लिखा गई जानकारी बहुत उपयोगी है , आपका बहुत बहुत धन्यवाद जी

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  2. बहुत अच्छा 🙏🙏🙏

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  3. जय आर्यावृत्त 🙏🚩

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