योगेश्वर भगवान् श्री राम
लेखक - यशपाल आर्य
हम लेख को एक वेद मंत्र से शुरू करना चाहते हैं
इन्द्र॑वायूऽइ॒मे सु॒ताऽउप॒ प्रयो॑भि॒राग॑तम्। इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि वा॒यव॑ऽइन्द्रवा॒युभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनिः॑ स॒जोषो॑भ्यां त्वा॥
(यजुर्वेद 7.8)
अर्थात् वे ही लोग पूर्ण योगी और सिद्ध हो सकते हैं जो कि योगविद्याभ्यास करके ईश्वर से लेके पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को साक्षात् करने का यत्न किया करते और यम, नियम आदि साधनों से युक्त योग में रम रहे हैं और जो इन सिद्धों का सेवन करते हैं, वे भी इस योगसिद्धि को प्राप्त होते हैं, अन्य नहीं॥
भगवान श्री कृष्ण जी पर बोबदेव ने झूठे आरोप लगाए उसका महर्षि दयानंद जी ने खंडन किया और कृष्ण जी को आजीवन धर्म का पालन करने वाला आप्त अर्थात् साक्षात्कृत्धर्मा महायोगी कहा। किंतु आज कुछ लोग भगवान श्री कृष्ण और श्री राम को योगी नहीं मानते, यदि आज ऋषि दयानंद जी होते तो ऐसे लोगों का खंडन सर्वप्रथम करते। चलिए कोई बात नहीं, हमारे ऋषि दयानंद जी का दिया हुआ ज्ञान और उनके द्वारा संकेत की गई आर्ष दृष्टि से हम देखेंगे कि श्री राम जी योगी थे वा नहीं। यदि आप श्री कृष्ण जी को योगी सिद्ध करने वाले पोस्ट को पढ़ना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।
जो लोग श्री राम जी को योगी नहीं मानते वे इसपर विचार नहीं करते कि ब्रह्मा (आद्य ब्रह्मा नहीं अपितु उस काल के ब्रह्मा) और नारद जैसे महर्षि वाल्मिकी जैसे महर्षि को श्री राम की जीवनी लिखने को कहते हैं। और महर्षि दयानंद जी ने रामायण को पठन पाठन की आर्ष विधि के अंतर्गत लिखा है तो क्या ऐसे राम कोई साधारण पुरुष होंगे, अगर ऐसा होता तो चार चार ऋषि उनके जीवनी पर इतना ध्यान क्यों देते
भगवान् श्री राम जी का देवर्षि नारद जी महर्षि वाल्मीकि जी से वर्णन करते हुए उनको एक विशेषण देते हैं, समाधिमान
धर्मज्ञस्सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नश्शुचिर्वश्यस्समाधिमान्।।१२।।
वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग
जैसे जो हमेशा बुद्धि से युक्त हो उसे बुद्धिमान कहते हैं वैसे ही श्री राम जी हमेशा समाधिस्थ रहते थे। यह शब्द योगेश्वर के सदृश ही है। अर्थात भगवान श्री राम जी योगेश्वर थे।
कुछ लोग अपने हट, दुराग्रह व पूर्वाग्रह वश समाधिमान का अर्थ केवल मन पर नियंत्रण करने वाला मात्र ही समझते हैं, योगेश्वर नहीं मानते, ऐसे लोगों का यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि प्रथम तो नारद जी ने इससे पूर्व ही श्लोक 8 में वशी कह दिया-
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैश्श्रुत:।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान् वशी।।
(बालकाण्ड प्रथम सर्ग अष्टादश श्लोक)
जिसका अर्थ होता है जितेंद्रिय, तो देवर्षि नारद जी द्वारा पुनः वही बात दोहराने में क्या पुनरुक्ति दोष नहीं लगेगा? जो अब भी नहीं मानते, वे किष्किंधा कांड सर्ग 30 देखें, यहां से स्पष्ट हो जाता है कि योग वाली समाधि की ही बात हो रही है-
किमार्य कामस्य वशंगतेन किमात्मपौरुष्यपराभवेन।
अयं सदा संह्रियते समाधिः किमत्र योगेन निवर्तितेन।।१६।।
क्रियाभियोगं मनसः प्रसादं समाधियोगानुगतं च कालम्।
सहायसामर्थ्यमदीनसत्त्वः स्वकर्म हेतुं च कुरुष्व हेतुम्।।१७।।
इसी प्रकार और भी प्रमाण हैं
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः।।१४।।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञस्स्मृतिमान्प्रतिभानवान् ।
सर्वलोकप्रियस्साधुरदीनात्मा विचक्षणः।।१५।।
वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग
इससे स्पष्ट है कि भगवान राम वेद, वेदांग तथा अन्य शास्त्रों के तत्त्वज्ञ थे अर्थात् उन्हें वेद, वेदांग तथा अन्य शास्त्रों का उन्हें पूर्ण ज्ञान (मनुष्य की दृष्टि से, क्योंकि परमात्मा का ज्ञान अनंत है) था, जो कि पूर्ण योगी बने संभव नहीं है।
बालकांड सर्ग 18 |
बिना योगी बने शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान होना संभव नहीं है यह यजुर्वेद ७.२८ में स्पष्ट लिखा है।
इस मंत्र से स्पष्ट है कि न्यायाधीश को भी योगी होना चाहिए और सभी मनुष्यों के लिए योग विद्या का विधान किया गया है। फिर भी कोई माने कि क्षत्रिय होगी नहीं हो सकता तो यह उसका वेद विरुद्ध और मिथ्या मत है अतः वेद विरुद्ध होने से त्याज्य है।
जब श्री राम जी सब विद्याओं के पूर्ण ज्ञानी थे तो वे निश्चय ही पूर्ण योगी होंगे जैसा यजुर्वेद ७.८ के प्रमाण से सिद्ध होता है कि जो लोग सब पदार्थों को यथावत जानते हैं वे ही पूर्ण योगी होते हैं।
प्रश्न - श्री राम जी जब स्वयं परमात्मा हैं, भगवान विष्णु के अवतार हैं। तो आपने यहां पूर्ण का अर्थ मनुष्य की दृष्टि से क्यों किया?
उत्तर - बालकांड प्रथम सर्ग के श्लोक 18 में उन्हें पराक्रम में भगवान विष्णु के तुल्य कहा है, यहां सदृश शब्द से स्पष्ट है कि वे विष्णु जी के अवतार नहीं थे, अगर अवतार होते तो तुल्य शब्द नहीं आता।
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः।
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः।।
वाल्मीकि रामायण बालकांड प्रथम सर्ग श्लोक 18
और वेद में परमात्मा को अकायम् कहा है अर्थात शरीर के बंधन से रहित, अतः श्री राम जी मनुष्य ही थे। जहां कहीं भी उन्हें परमात्मा माना गया है वह श्लोक मिलावट है क्योंकि सभी ऋषियों का कथन है कि वेद ही परम प्रमाण है।
प्रश्न - अगर वे परमात्मा नहीं हैं तो आप उन्हें भगवान क्यों कह रहे हैं?
उत्तर - भगवान शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथा मनुष्यों के लिए भी। 'भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ अर्थात् जो सकल ऐश्वर्यों से युक्त है उसे भगवान कहते हैं।
प्रश्न - श्री राम जी ब्राह्मण नहीं थे, बिना ब्राह्मण हुए सन्यासी भी नहीं हुआ जा सकता?
उत्तर - आपने कदाचित ब्राह्मण का अर्थ जन्मना ब्राह्मण किया है, वा अगर वर्ण व्यवस्था के आधार पर आपने किया तो भी आपका कथन मिथ्या है, क्योंकि आपने ब्राह्मण शब्द का अर्थ भी नहीं जाना
अब हम वेद से ब्राह्मण शब्द का अर्थ देखेंगे
ऋगवेद 1.164.45 में "ब्राह्मणाः" शब्द का अर्थ ऋषि दयानंद जी ने लिखा है "व्याकरणवेदेश्वरवेत्तारः" जिसका भाषा अर्थ "व्याकरण, वेद और ईश्वर के जाननेवाले विद्वान् जन" किया है।
ऋग्वेद 6/75/10 में "ब्राह्मणासः" शब्द आया है, "वेदेश्वरवेत्तारः" जिसका भाषा अर्थ "वेद और ईश्वर के जाननेवाले विद्वानो" किया है।
ऋग्वेद 1.3.5 में "ब्रह्माणि" शब्द का अर्थ किया है "विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्। ब्रह्म वै ब्राह्मणः। (श०ब्रा० १३.१.५.३)" जिसका भाषार्थ किया है "ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ जाना है।"
ये सब प्रमाण भगवान श्री राम में घटते हैं, इसलिए वे ब्राह्मण थे।
मीमांसा ३.१.२४ देखिए
यहां स्पष्ट है कि ब्रह्म विद्या को जानने वाले हर व्यक्ति ब्राह्मण ही है। जो ब्राह्मण इनको नहीं जानता वो ब्राह्मण नहीं और जो ब्रह्म विद्या को जानने हारा है वह क्षत्रिय ब्राह्मण तुल्य ही कहलाया जायेगा।
सन्यास मन का विषय है। जैसे आज कई लोग शरीर पर भगवा वस्त्र डाल लेते हैं, घर से भी निकल जाते हैं किंतु लोभ आदि गुण उनमें भरपूर मात्रा में होते हैं, ऐसे लोग सन्यासी नहीं हो सकते। महर्षि मनु जी भी इसी बात को मनुस्मृति ६.६६ में लिखते हैं
सन्यासी का लक्षण बताते हुए महर्षि दयानन्द जी ही लिखते हैं
जो इन लक्षणों से युक्त होता है वही मोक्ष का अधिकारी होता है, अन्य नहीं। इससे यह नहीं सिद्ध होता कि सन्यास शरीर का विषय है, केसरिया वस्त्र डालने, दण्ड कमण्डलु धारण करने मात्र से कोई सन्यासी होता है अपितु यह सिद्ध होता है कि ये लक्षण अपने जीवन में धारण करने से व्यक्ति सन्यासी कहलाता है।
अब इस बात को हम एक उदाहरण द्वारा समझते हैं
जैसे शुरू शुरू में हार्मोनियम बजाने में बहुत बहुत सावधानी रखनी होती है, जरा सा ध्यान भटकने पर वह पूरा संगीत बिगड़ सकता है, लेकिन जैसे जैसे वह उसमें निपुण और अभ्यासी हो जाता है फिर वह बिना देखे ही उसे बजाने लगता है। और यहाँ तक कि अँधेरे मे भी बजाने में उसे कोई परेशानी नहीं होती।
वैसे ही सन्यासी और योगाभ्यासी को शुरू शुरू मे कई बातों को अनिवार्य रूप से धारण करने होते हैं, किन्तु वे नियम अति वैराग्यवान पूर्ण योगी व्यक्ति पर लागू नहीं होते।
पूर्वपक्ष - ऋषि ने वर्णाश्रम प्रकरण में केवल ब्राह्मण को ही सन्यासी बनने के लिए कहा है, जबकि यहां आप ब्राह्मण का यौगिक अर्थ ले रहे हैं जो आपकी मनमानी मात्र है, जबकि राम जी वर्णव्यवस्था के अनुसार तो क्षत्रिय थे क्योंकि उनका मुख्य कार्य युद्ध करना था, वनवास काल में भी वे शस्त्र धारण करते थे।
सिद्धांती - आपके इस कथन से पता चलता है कि जन्मना वर्ण व्यवस्था से कभी बाहर नहीं आ सकते हैं। वर्ण शब्द का अर्थ भी जान लिए होते तो ऐसा कुतर्क न करते। यदि आपका यह कथन सत्य होता तो ऋषि व्यवहारभानु और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में क्षत्रिय का मोक्ष होना क्योंकर लिखते? (इन प्रमाणों को आगे हमने दिया है) अतः जो हमने सन्यासी और ब्राह्मण का अर्थ लिया है वही मान्य है किन्तु आपके कुतर्क का वेद विरुद्ध आदि सत्य शास्त्रों विरुद्ध होने से अमान्य है।
जो लोग दंड देने वालों को योगी नहीं मानते, उनके लिए हम यजुर्वेद ४.२९ का प्रमाण देना उचित समझते हैं
यहां स्पष्ट है कि मनुष्य शत्रुओं का नाश करते हुए भी राग, द्वेष से रहित रहे
यजुर्वेद ८/२३ में भी मे ऋषि दयानंद जी लिखते है - राजा निरपराधी को पीड़ा न दें और दुष्टों को दण्ड दिए बिना न छोड़े।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि राजा के योगी होने में कोई समस्या नहीं है।
फिर भी कुछ लोग हट करते हैं कि राजा योगी नहीं हो सकता, उनके लिए हम वेद का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं जिसके भाष्यकार महर्षि दयानंद जी हैं
यजुर्वेद १७.७२ |
यहां स्पष्ट रूप से योगी को राजा बनने के लिए कहा गया है।
अब हम यजुर्वेद का एक और प्रमाण देते हैं, यह भाष्य महर्षि दयानंद जी ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (ईश्वर स्तुति प्रार्थना याचना समर्पण विषय) में किया है
यहां स्पष्ट रूप से ईश्वर का क्षत्रिय वर्ण के लोगों को क्षत्रिय वर्णस्थ होते हुए भी ब्राह्मण होने का आदेश है।
दुष्टों पर क्रोध करना मन्यु कहलाता हैं, यजुर्वेद १९.९ में कहा है
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि
इसका अर्थ करते हुए महर्षि दयानंद जी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखते हैं -
हे परमेश्वर! त्वं मन्युर्दुष्टान्प्रति क्रोधकृदसि, मय्यपि स्वसत्तया दुष्टान्प्रति मन्युं धेहि।
जिसका भाषा अर्थ इस प्रकार है-
हे दुष्टों पर क्रोध करनेहारे! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये
अब बताइए महानुभाव! क्या ईश्वर दुष्टों पर क्रोध करता है, दुष्टों को दंड देता है तो आपके अनुसार ईश्वर भी गलत करता है? क्या आप ईश्वर के आदेश से बड़ा खुद का आदेश बताने का दुःसाहस करते हैं?
अथर्ववेद १२.१.१ में राजा के ६ गुण बताए गए हैं
स॒त्यं बृ॒हदृ॒तमु॒ग्रं दी॒क्षा तपो॒ ब्रह्म॑ य॒ज्ञः पृ॑थि॒वीं धा॑रयन्ति।
सा नो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य॒ पत्न्यु॒रुं लो॒कं पृ॑थि॒वी नः॑ कृणोतु॥
उनमें से एक गुण है ब्रह्म और ब्रह्म के तीन अर्थ होते हैं वीर्य, वेद और ईश्वर अर्थात् राजा ब्रह्मचारी होना चाहिए, वेदज्ञ होना चाहिए, ईश्वर साक्षात्कार किया हुआ होना चाहिए।
इस मंत्र के इसी शब्द का भाव ले कर महर्षि मनु जी ने मनुस्मृति में भी कहा है कि राजा ब्राह्मणों के तुल्य विद्वान होना चाहिए
इसी प्रकार यजुर्वेद ५/२२ में राजा ईश्वर के सदृश दुष्टों को दंड देने के लिए कहा गया है
तो क्या आपके अनुसार ईश्वर भी योगी नहीं हुआ, उससे बड़े तो योगी लोग हो गए, अगर ऐसा है तो वह ईश्वर नहीं है। जब राजा को ईश्वर के सदृश दुष्टों दंड देने के लिए कहा है तो आप क्षत्रिय का योगी होने का निषेध क्यों कर सकते हैं, अगर ऐसा करेंगे तो आपके अनुसार ईश्वर भी सामान्य व्यक्तियों जैसा अविद्या में फंसा रहेगा, जो आपको भी नहीं स्वीकार है।
अब हम वाल्मीकि रामायण से कुछ और प्रमाण देना चाहेंगे, जिनसे मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम निर्विवाद रूप से योगेश्वर सिद्ध होते हैं
अयोध्याकांड प्रथम सर्ग |
अयोध्याकांड सर्ग 18 |
किसी से उसका संपूर्ण राज्य भी ले लिया जाए और उसे वन भेजने की तैयारी किया जाए तो भी उसे कोई तनिक भी दुख न हो, ऐसे लक्षण एक महायोगी में ही घट सकते हैं।
अयोध्याकांड सर्ग 21 |
अयोध्याकांड सर्ग 54 |
जिसका इतना सम्मान महर्षि भरद्वाज जैसे ऋषि कर रहे हैं, और जिनके दर्शन के लिए भरद्वाज जैसे महर्षि भी उत्सुक रहते हों, वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकते अपितु महायोगी योगेश्वर आप्त पुरुष थे।
अयोध्याकांड सर्ग ७८ |
अयोध्याकांड सर्ग ११७ |
पूर्वपक्षी - क्षत्रियों को तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता, अतः उनका मोक्ष भी संभव नहीं।
जयपुर राज्य से एक भक्त ने महर्षि दयानन्द को एक पत्र लिखकर यह सूचना दी कि यहाँ जयपुर (हिन्दू राजा के राज्य में) के गली-बाजारों में ईसाई पादरी अपने मत का प्रचार करते हुये श्री राम तथा श्री कृष्ण महाराज की बहुत निन्दा करते हैं। उस भक्त की भावना तो स्पष्ट ही थी। वह ईसाई पादरियों के दुष्प्रचार को रोकने के लिये ऋषि जी को जयपुर आने के लिये गुहार लगा रहा था। उस सज्जन के पत्र में यह समाचार पाकर प्यारे ऋषि का मन बहुत आहत हुआ। ऋषि जी ने ऐसे ही किसी प्रसंग में एक बार यहाँ तक कहा था कि सब कुछ सहा जा सकता है, परन्तु श्री राम-कृष्ण आदि महापुरुषों का अपमान नहीं सहा जा सकता।
Uttam vishleshan🙏
ReplyDeleteJabardst lekh,aise hi aur bhi shubhkamnaye aapko 🙏
ReplyDeleteAisi jaankari dene ke liye dhanyavaad
ReplyDeleteAkand bramchari , purna zitendriya bhagwan maryadapurshotam ramji ki jai
ReplyDeleteआपका ब्लॉग नास्तिकों के लिए एक मुंह तोड़ जवाब है।
ReplyDelete😊😊अतिउत्तम🙏❤️
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