वेद विषयक भ्रान्ति निवारण

Ved

लेखक - यशपाल आर्य एवं राज आर्य

वेदों के विषय में हमें कई भ्रांतियां हो जाती हैं, जिनका सत्य हमें ज्ञात नहीं होता, आज हम उन्हीं सत्य बातों को प्रमाण के आधार पर बताएंगे। आइए सत्य को ग्रहण करें और असत्य को छोड़ें, क्योंकि सत्य से बढ़ कर समस्त मानव जाति की उन्नति का कोई दूसरा कारण नहीं है। तो आइए अब हम विषय को प्रारंभ करते हैं।

वेद कितने हैं?

कुछ लोग कहते हैं कि शुरू में वेद सिर्फ एक था, जिसको महर्षि व्यास जी ने चार भागों में विभाजित करके चार वेद बनाया, यह कथन मिथ्या है क्योंकि अथर्ववेद में वेद शब्द का बहुवचन आया है, देखिए प्रमाण

यस्मिन्वेदा निहिता विश्वरूपा:।
[अथर्व ४/३५/६]

इसी प्रकार अथर्ववेद १९/९/१२ में भी वेद बहुवचन में आया है -

ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदाः सप्तऋषयोऽग्नयः।

तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु ब्रह्मा मे शर्म यच्छतु। विश्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु सर्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु॥

आदि में एक वेद मानने वाले पक्ष का निवारण करते हुए महर्षि दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के 11वें समुल्लास में लिखते हैं

Vyas ji ne ved likha


ऋषियों के प्रायः सभी ग्रंथों में हमें सर्वत्र ऋक्, यजुः, साम ही लिखा देखने को मिलता है, इससे कुछ लोगों को शंका हो सकती है कि प्राचीन काल में वेद तीन ही थे, और अथर्ववेद बाद में लिखा गया था,लेकिन ऐसा नहीं है, वहां पर शैली की दृष्टि से तीन वेदों का वर्णन प्राप्त होता है, जिसका संकेत छान्दोग्य उपनिषद् में किया है-

स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतपत्तस्यास्तप्यमानाया रसान्प्रावृहद्।

भूरित्यग्भ्यो मुवरिति यजुर्म्यः स्वरिति सामभ्यः॥

[छां.उ. ४|१७|३]

इससे संकेत मिलता है कि छन्द रश्मियां तीन प्रकार की होती हैं, 'ऋक्', 'यजुः' एवं 'साम'।

'ऋक्', 'यजुः' एवं 'साम' शैली के मंत्रों का लक्षण मीमांसा दर्शन में लिखा है-

तेषामृग् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥
[मी॰ २।१।३५]

जिन मंत्रों में पादव्यवस्था है, जो मंत्र छंदोबद्ध हैं उन्हें "ऋक्" शब्द से ग्रहण करना चाहिए।

गीतिषु सामाख्या॥
[मी॰ २।१।३६]

गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं।

शेषे यजुः शब्दः॥
[मी॰ २।१।३७]

शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये।

अब हम कुछ प्रमाण देते हैं जहां पर चारों वेदों का नाम आया है।

यजुर्वेद १७.९१ में चारों वेदों का ग्रहण होता है

Ved kitne hai

Ved kitne hai
Ved kitne hai

और यजुर्वेद ३१.७ में भी चारों वेदों का वर्णन है

Pahale kitne ved the

यहाँ कई लोग आक्षेप करते हैं कि 'छन्दांसि' पद से अथर्ववेद कैसे हो सकता है ? ऐसे लोग वाक्यार्थ-पद्धति से अनभिज्ञ होते हैं। मंत्र पर ध्यान दीजिए, उसमें तीन वाक्य हैं। पूर्वाध में एक वाक्य, उत्तरार्ध में दो वाक्य - 1. तस्माद्यज्ञात्-जज्ञिरे। 2. छन्दांसि-जज्ञिरे तस्मात्। 3. यजुस्तस्मादजायत। पहले वाक्य में ऋचाओं= ऋग्वेद और सामों= सामवेद की उस यज्ञपुरुष से उत्पत्ति बताई गई है। तीसरे में यजुर्वेद की उत्पत्ति कही गई है। दूसरे वाक्य में 'छन्दो' की उत्पत्ति बताई है। सहचार-नियम से यहाँ 'छन्द' का अर्थ अथर्वेद है। यदि वादी के कथनानुसार 'छन्दांसि' पद 'ऋचःसामानि' का विशेषण होता, क्योंकि वेद छन्दोबद्ध होते हैं तो फिर 'छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्' ऐसा स्वतंत्र वाक्य न होता। इस स्वतंत्र वाक्य में पढ़ा होने और जज्ञिरे इस क्रियापाद का कर्ता होने से यह छन्दांसि पद ऋचःसामानि का विशेषण नहीं हो सकता है। यदि छन्दांसि पद ऋचःसामानि का विशेषण होता तो ऋचःसामानि के साथ कहीं पढ़ा होता। यदि विशेषण पद नहीं तो फिर ऋचःसामानि यजु के किसी सजातीय पदार्थ का वाचक होगा। ऋच का सजातीय अथर्ववेद होता है अतः छन्द = अथर्ववेद ही होगा।

ऋग्वेद 10.21.5 में अथर्ववेद का नाम आया है-

Sabse purana ved

गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग २.१६ में भी चारों वेदों का वर्णन है

चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।

मुंडकोपनिषद् में भी चारों वेदों का वर्णन है-

तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छंदो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।

[मुं. १|१|५]

चत्वारि शृङ्गा [ऋ. ४.५८.३] के व्याख्यान में महर्षि यास्क जी ने चार वेदों का ग्रहण किया है-

चत्वारि शृङ्गेति वेदा वा एत उक्ताः
[निरुक्त १३|७]

वाल्मीकि रामायण से प्रमाण

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेद्धारिणः।

नासामवेदविदुषश्शक्यमेवं विभाषितुम्।।२८।।

[किष्किंधा कांड तृतीय सर्ग]

वस्तुतः यहां शैली की दृष्टि से वर्णन किया गया है इसलिए तीन ही नामों से चारों वेदों का ग्रहण होगा क्योंकि अथर्ववेद में इन तीनों शैली के मंत्र मिलते हैं तथापि अगर कोई हट करे तो उसके लिए हम बालकांड से अथर्ववेद का नाम दिखाना उचित समझते हैं

इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात्।

अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मन्त्रैस्सिद्धां विधानत:।।२।।

[बालकांड सर्ग १५]

अतः इन प्रमाणों से निष्कर्ष निकलता है कि मन्त्र शैली की दृष्टि से वेद तीन हैं - ऋक्, यजुः और साम 

तथा विषय की दृष्टि से चार वेद हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

अर्थात् ऋग्वेद के सभी मन्त्रों में ऋक् रश्मियां होती हैं, इसलिए ऋग्वेद का दूसरा नाम ऋक् है। यजुर्वेद के सभी मन्त्रों में यजुः रश्मियां होती हैं, इसलिए इसे यजुः। सामवेद के सभी मन्त्रों में साम रश्मियां होती हैं, इसलिए इसे साम और अथर्ववेद के सभी मन्त्रों में इन तीनों प्रकार की रश्मियां (ऋक्, यजुः, साम) होती हैं। इसलिए ऋषियों के प्रायः सभी ग्रंथों में हमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद लिखा होने के स्थान पर हमें सर्वत्र ऋक्, यजुः, साम ही लिखा देखने को मिलता है।


वेद का ज्ञान किसको मिला?

अग्नेर्ऋग्वेदं वायोर्यजुर्वेदमादित्यात् सामवेदम्।
[गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग १|६]

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥

[मनु॰१.२३]

अध्यापयामास पितॄन् शिशुराङ्गिरसः कविः॥

 [मनु॰२.१५१]

तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त, अग्नेर्ऋग्वेदः,वायोर्यजुर्वेदः,सूर्यात् सामवेदः।
[शत० ११|४|८|३]

यदथर्वाङ्गिरसः स य एवं विद्वानथर्वाङ्गिरसो अहरहः स्वाध्यायमधीते।
[शत० ११।५।६।७]

श्रेष्ठो हि वेदस्तपसोऽभिजातो ब्रह्मज्ञानं हृदये संबभूव

[गो. ब्रा. १|९]

अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषि को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्राप्त हुआ।

अब कुछ लोगों को शंका हो सकती है कि यहां अधिकतर प्रमाणों में तीन नाम अग्नि, वायु और आदित्य ही देखने को क्यों मिलता है? इसका उत्तर है कि ऋषि लोग अधिकतर (शैली की दृष्टि से) तीन वेद ही लिखते हैं, तो अगर यहां चार ऋषियों का नाम कैसे लिखा जा सकता है? इसीलिए जिस प्रकार तीन वेद से ऋक्, यजुः व साम से  चार ऋक्, यजुः, साम व अथर्व चारों का ग्रहण होता है उसी प्रकार अंगिरा शब्द अग्नि आदि तीनों नामों से ग्रहण हो जाता है, इसलिए ऋषियों ने अंगिरा शब्द को अलग से नहीं लिखा।

अब अग्नि आदि तीनों नामों से अंगिरा ऋषि का ग्रहण कैसे होता है, उसको देखें-

अंगिरा अंगारों को कहते हैं अतः अग्नि से अंगिरा का ग्रहण हो गया। ऋग्वेद 5/45/8 में अंगिरा का अर्थ वायु है। शतपथ ब्राह्मण में कहा है "प्राणो वा अङ्गिरा" [श० ६|५|२|३] अर्थात् प्राणों को अंगिरा कहते हैं, और प्राण वायु का सूक्ष्म भाग  होता है, (यहां वायु का अर्थ air नहीं है) अतः अंगिरा शब्द वायु से भी ग्रहण हो जाएगा। यजुर्वेद 11/15 में वायु का अर्थ सूर्य है, और आदित्य एवं सूर्य पर्यायवाची हैं अतः आदित्य से भी अंगिरा का ग्रहण हो जाता है, इसीलिए हमें आर्ष ग्रंथों में प्रायः अग्नि, वायु, आदित्य नाम ही देखने को मिलता है। जैसे इतिहास में राम शब्द से 3 का ग्रहण होता है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जी, महर्षि परशुराम जी, योगिराज श्री कृष्ण जी के बड़े भाई बलराम जी, वैसे ही इन नामों से अंगिरा का भी ग्रहण होगा।

इन ऋषियों का यही नाम क्यों पड़ा इसका संकेत हमें आर्ष ग्रंथों में में मिलता है, जिससे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है-

सृष्टि में ऋग्वेद की उत्पत्ति अग्नि से होती है, यजुर्वेद की वायु से और सामवेद की उत्पत्ति आदित्य से होती है, अतः जिस ऋषि ने ऋग्वेद को ग्रहण किया उनका नाम अग्नि, जिन्होंने यजुर्वेद को ग्रहण किया उनका नाम वायु, जिन्होंने सामवेद को ग्रहण किया उनका नाम आदित्य [नोट - जड़ अग्नि आदि पदार्थ चेतन अग्नि आदि ऋषियों से भिन्न हैं] और जिन्होंने तीनों शैलियों (ऋक्, यजुः और साम) का वेद अर्थात् अथर्ववेद प्राप्त किया उनका नाम अंगिरा हुआ क्योंकि अथर्ववेद को अथर्वाङ्गिरस वेद कहते हैं, अथर्वाङ्गिरस का प्रमाण -

यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।

सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्।

स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।

 [अथर्ववेद १०.७.२०]

एवं वा अरे अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेततद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वाङ्गिरसः।।

[शतपथ ब्राह्मण १४|४|१०|३]

हर सृष्टि में वेद ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों के यही नाम होंगे क्योंकि ये नाम योग रूढ़ हैं।

महाराज मनु ने २२वे श्लोक मे देवताओं,प्राणियों और साध्य कोटि के विशेष विद्वानों का भेद दर्शाया हैं। चूंकि प्रसंगानुकूल यहाँ चेतन प्राणी ही अर्थ ग्रहण होगा किन्तु जो चेतन न मानकर जड़ मानते है ये उनकी जड़ बुद्धि का दिवालियापन है, क्योंकि मनु महाराज ने श्लोक 14-20 मे जब प्रक्रियासहित अग्नि वायु आदि जड़ देवता की सृष्टि बता दिया है और देखिये 21 वे श्लोक मे वेदज्ञान विषय मे प्रसंग आरम्भ हो जाता है तो पुनः 22 वे श्लोक में क्यों जड़ अग्नि आदि की रचना का वर्णन करेंगे? अर्थात् यहाँ आदि सृष्टि मे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा देवता (=विद्वान)ही ग्रहण हो रहे हैं न कि जड़ पदार्थ।

यहाँ एक मत और है - 'साध्य' शब्द से भी ग्रहण मानना कोई गलत नही ,क्योंकि यहाँ प्राणियों से पृथक, साध्यों की पृथकरूप से गणना उनकी विशिष्टता की ओर इंगित करने के लिए की है। मनुस्मृति के इस श्लोक में इस शब्द को समझने के लिए साध्यकोटि के व्यक्तियों मे जैसे अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा ऋषियों का नाम उद्धृत किया जा सकता है। ये साधक कोटि के अत्यंत विशिष्ट संस्कारी जीव थे, तभी तो अनेक मनुष्यों मे केवल इन्हीं ऋषियों को वेद ज्ञान प्राप्त करने का श्रेय मिला।

निरुक्तकार ने ऋषि शब्द के निर्वचन के प्रसंग मे आचार्य औपमन्यव मत का उल्लेख करते हुए इन तपस्वी साधकों को तपस्या मे लीन रहने की साधना के परिणामस्वरूप वेदज्ञान की प्राप्ति का कथन किया है। उससे इनके साध्यकोटि के व्यक्ति होने की बात और पुष्ट हो जाती है। तथा -

ऋषि: दर्शानात। स्तोमान ददर्श इति औपमन्यव:। तद्यदेनांस्तपस्यामानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत ऋषयो अभवंस्तदृषीणामृषित्वमिति विज्ञायते।

[नि० २|३|१२]

अर्थात् वेदमंत्रो का अर्थ दर्शन करने से ऋषि होता है, ऐसा औपमन्यव का मत है। प्रारंभिक अग्नि आदि ऋषियों को तपस्या करते हुए अपौरुषेय वेदो का साक्षात्कार हुआ, अतः वे ऋषि प्रसिद्ध हुए।

अजान्ह वै पृश्नींस्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयंभू अभ्यानर्षत्तदृषयो अभवन्।
 [तै० आ० २.८]

अगले ही श्लोक मे महाराज मनु ने भी इनका उल्लेख किया है। इस साध्य कोटि मे अन्य अनेक व्यक्तियों को भी माना जाता है इसमें कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

साध्याः देवाः, साधनात्
(निरुक्त १२.४०)

साध्याः नाम देवाः (=विद्वांसः)आसन्
 [ताण्ड्य ब्राह्मण ८.३.५]

इस प्रकार 'साध्य' का अर्थ 'साधक कोटि के विद्वान विशेष ही है। साध्य कोटि के विद्वानो का वर्णन और सृष्टि के प्रारम्भ मे साध्य कोटि के व्यक्तियों के उत्पन्न होने का उल्लेख वेद के पुरुष सूक्त मे भी आता है-

यत्र पूर्व साध्याः सन्ति देवाः
[यजु. ३१.१६]

तं य॒ज्ञं ब॒र्हिषि॒ प्रौक्ष॒न् पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः। तेन॑ दे॒वाऽअ॑यजन्त सा॒ध्याऽऋष॑यश्च॒ ये॥
[यजु. ३१.९]

सायण भी लिखते हैं-

Acharya sayan

जीवविशेषैरग्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वात्

आचार्य सायण तो अग्नि आदि ऋषियों को जीव-विशेष लिख रहे हैं, अब बताएं ये ब्रह्मा पर वेद प्रकाश मानते हैं या अग्नि, वायु आदि ऋषियों पर?

अब कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं कि अग्नि आदि ने ब्रह्मा जी से वेद पढ़े, तो इसका उत्तर भी सायण देते हैं, वे लिखते हैं कि वेद का निर्माता ईश्वर है। इसमें तो ब्रह्मा जी का नाम भी नहीं आया

ईश्वरस्याग्न्यादिप्रेरकत्वेन निर्मातृत्वं द्रष्टव्यम्॥
[ऋ० भा० उपक्र० वहीं]

यहाँ पर सायण तो अग्नि आदि का प्रेरक होने से ईश्वर को वेद का निर्माता ठहराते हैं।

गोपथब्राह्मण में भी ऐसा ही लिखा है

अग्नेऋग्वेदं वायोर्यजुर्वेदमादित्यात् सामवेदम्।

अग्नि से ऋग्वेद पैदा हुआ, वायु से यजुर्वेद और आदित्य से सामवेद पैदा हुआ। इस प्रमाण से स्पष्ट शब्दों में सिद्ध हो जाता है कि अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों पर वेद उतरे।

गोपथब्राह्मण में जो क्रम ब्रह्म=परमात्मा से लेकर अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा तक प्रतिपादन किया गया है उसमें कहीं ब्रह्मा का नाम तक नहीं। अङ्गिरा को तो स्पष्ट शब्दों में ऋषि लिखा है, जबकि अथर्व का प्रकाश अङ्गिरा नामक ऋषि द्वारा है, तो फिर किस प्रकार कहा जा सकता है कि अग्नि आदि ऋषि नहीं हैं? वेदों का प्रकाश सिवाय चेतन के अन्य द्वारा हो ही नहीं सकता। भौतिक अग्नि, वायु, आदित्य तो अचेतन हैं। हाँ, अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा के लिए देवता शब्द भी आ सकता है, क्योंकि देवता विद्वान् का नाम है और भौतिक अग्नि, वायु और सूर्य को भी दिव्य गुणवाला होने से देवता कह सकते हैं।


क्या वेदों को ब्रह्मा जी ने लिखा?

कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि वेद को ब्रह्मा जी ने लिखा, उनकी यह बात मिथ्या है, क्योंकि हमने ऊपर कई प्रमाण दे कर सिद्ध कर चुके हैं कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ।

पूर्वपक्ष - मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खंड के प्रथम व द्वितीय मंत्र में कहा है कि ब्रह्मा ने वेद का प्रकाश किया।

सिद्धांती - एक बार जरा स्वयं वह वचन देख लीजिए -

ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्ता।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह॥१॥

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा अथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्या।

स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥

अर्थात् ब्रह्मवेत्ता विद्वानों में प्रसिद्ध ब्रह्मविद्या के उपदेश द्वारा सबका उत्पादक, संसार का रक्षक ब्रह्मा नामक ऋषि उत्पन्न हुआ। उसने अथर्वा नामक अपने बड़े पुत्र को सब विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या का उपदेश किया॥१॥

पहले अथर्वा को जिस विद्या का ब्रह्मा ने उपदेश किया, अथर्वा ने अङ्गिरा ऋषि के लिए उस ब्रह्मविद्या को कहा, उसने भारद्वाज गोत्रवाले सत्यवाह को और सत्यवहा ने अङ्गिरा ऋषि को पर और अपर विद्या का उपदेश किया॥२॥

यहां तो पुराणों के ब्रह्मा जी का वर्णन भी नहीं है।

बताइए, इसमें चारों वेदों के प्रादुर्भाव का वर्णन कहाँ है ?

कुछ लोगों को श्वेताश्वेतरोपनिषद् का यह वचन देख कर यह भ्रम हो जाता है कि वेद का उपदेश परमात्मा ने ब्रह्मा जी के हृदय में किया तो अग्नि आदि नाम क्यों हैं?

यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै॥ [श्वेताश्वतर उप० ६। १८]

उत्तर - ब्रह्मा के आत्मा में अग्नि आदि के द्वारा स्थापित कराया। देखो, 'मनुस्मृति' में क्या लिखा है

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। 

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥

[मनु॰ १। २३]

जिस परमात्मा ने 'आदि-सृष्टि' में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा से 'ऋग्', 'यजुः', 'साम' और 'अथर्ववेद' का ग्रहण किया।

कुल्लुक भट्ट ने भी मनुस्मृति १/२३ के भाष्य में ऐसा ही अर्थ किया है कि ब्रह्मा ने अग्नि आदि ऋषियों से वेद ज्ञान प्राप्त किया।

Kulluk bhatt

वेदात् ब्रह्मा भवति॥ [गायत्र्युपनिषद्]

"गायत्र्युपनिषद् से भी यही पाया जाता है कि वेद से ब्रह्मा बनता है, अर्थात् वेदाध्ययन से ब्रह्मा कहलाता है।

मुंशी इंद्रमणि जी इन ऋषियों को जड़ देवता कहते हैं, इसपर दर्शनानंद जी उन्हें उत्तर देते हैं, वह प्रकरण नीचे दिया गया है

मुंशी का आक्षेप -अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता० इत्यादि। इससे जड़ देवता सिद्ध होते है ।

स्वामी दर्शनानन्द जी लिखते हैं - इस लेख ने तो विदित कर दिया कि सचमुच मुंशीजी की राय को हठ ने अपना घर बना लिया था, क्योंकि उन्होंने, वेदों में जो प्रमाण जड़ वसु देवताओं के लिए था, उसे बिना प्रसंग के उपस्थित कर दिया। सायणाचार्य तो अपने भाष्य में अग्नि, वायु, और आदित्य को जीवविशेष बतला रहे हैं, परन्तु मुंशीजी उसके आशय को न समझकर चन्द्रमा और सूर्य को जो जड़ पदार्थ हैं, उन्हें जीव-विशेष बता रहे हैं।

पृष्ठ २५ पर मुंशीजी ने यही मन्त्र उद्धृत करके स्पष्ट लिखा है कि ब्रह्माजी ने अग्नि, वायु, सूर्य आदि को उत्पन्न किया। क्या ही अच्छा होता कि मुंशीजी इस लेख को लिखने से पहले इस श्रुति के अर्थों को गुरु से पढ़ लेते

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद् वायुर्वायोरग्निरग्नेरापः, अभ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नमन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः ॥

प्यारे मित्रों! चूँकि ब्रह्मा पुरुष है इसलिए वह अग्नि आदि वसु देवताओं से पीछे उत्पन्न हुआ। मुंशीजी को इतना भी विचार न आया कि श्रुति के अनुकूल जल, अग्नि के पश्चात् पैदा हुआ और आपके ब्रह्माजी पुराणों के अनुसार कमल से पैदा हुए तब उन्हें चारों ओर जल ही जल दृष्टि में आया। भला सोचिए, ब्रह्मा से पहले जल और जल से पहले अग्नि था या नहीं? महाशय मुंशीजी साहब ! शतपथ में अग्नि, वायु, आदित्य से वेदोत्पत्ति सिद्ध है और इसे मनु ने भी माना है। 

ब्रह्मा को वेदरचयिता कहने वालों को महर्षि दयानंद जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं

चतुर्मुखेन ब्रह्मणा वेदा निरमायिषतेत्यैतिह्यम्? मैवं वाच्यम्। ऐतिह्यस्य शब्दप्रमाणान्तर्भावात्। ‘आप्तोपदेशः शब्दः’ न्या॰सू॰२.२.७) अस्यैवोपरि ‘आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा, यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा, साक्षात् करणमर्थस्याऽऽप्तिस्तया प्रवर्त्तत इत्याप्तः’ (न्या॰सू॰१.१.७) इति न्यायभाष्ये वात्स्यायनोक्तेः। अतः सत्यस्यैवैतिह्यत्वेन ग्रहणं नानृतस्य। यत्सत्यप्रमाणमाप्तोपदिष्टमैतिह्यं तद् ग्राह्यं, नातो विपरीतमिति, अनृतस्य प्रमत्तगीतत्वात्।

प्रश्न—चार मुख के ब्रह्माजी ने वेदों को रचा, ऐसे इतिहास को हम लोग सुनते हैं।

उत्तर—ऐसा मत कहो, क्योंकि इतिहास को शब्दप्रमाण के भीतर गिना है। (आप्तो॰) अर्थात् सत्यवादी विद्वानों का जो उपदेश है, उसको शब्दप्रमाण में गिनते हैं, ऐसा न्यायदर्शन में गौतमाचार्य ने लिखा है, तथा शब्दप्रमाण से जो युक्त है वही इतिहास मानने के योग्य है, अन्य नहीं। इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने आप्त का लक्षण कहा है कि—जो साक्षात् सब पदार्थविद्याओं का जाननेवाला, कपट आदि दोषों से रहित धर्मात्मा है, कि जो सदा सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यकारी है, जिसको पूर्णविद्या से आत्मा में जिस प्रकार का ज्ञान है, उसके कहने की इच्छा की प्रेरणा से सब मनुष्यों पर कृपादृष्टि से सब सुख होने के लिये सत्य उपदेश का करनेवाला है, और जो पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त सब पदार्थों का यथावत् साक्षात् करना और उसीके अनुसार वर्त्तना इसी का नाम ‘आप्ति’ है, इस आप्ति से जो युक्त हो, उसको ‘आप्त’ कहते हैं।’ उसीके उपदेश का प्रमाण होता है, इससे विपरीत मनुष्य का नहीं, क्योंकि सत्य वृत्तान्त का नाम इतिहास है, अनृत का नहीं। सत्यप्रमाणयुक्त जो इतिहास है, वही सब मनुष्यों को ग्रहण करने के योग्य है, इससे विपरीत इतिहास का ग्रहण करना किसी को योग्य नहीं, क्योंकि प्रमादी पुरुष के मिथ्या कहने का इतिहास में ग्रहण ही नहीं होता।


जो लोग अग्नि आदि ऋषियों को जड़ कहते हैं, उसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानंद जी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखते हैं

उत्तर—ऐसा मत कहो, वे सृष्टि के आदि में मनुष्यदेहधारी हुए थे, क्योंकि जड़ में ज्ञान के कार्य का असम्भव है, और जहाँ-जहाँ [अर्थ] असम्भव होता है, वहाँ-वहाँ लक्षणा होती है। जैसे किसी सत्यवादी विद्वान् पुरुष ने किसी से कहा कि ‘खेतों में मञ्चान पुकारते हैं’ इस वाक्य में लक्षणा से यह अर्थ होता है कि मञ्चान के ऊपर मनुष्य पुकार रहे हैं, इसी प्रकार से यहाँ भी जानना कि विद्या के प्रकाश होने का सम्भव मनुष्यों में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसमें ‘तेभ्यः०’ इत्यादि शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण लिखा है। उन चार मनुष्यों के ज्ञान के बीच में वेदों का प्रकाश करके उनसे ब्रह्मादि के बीच में वेदों का प्रकाश कराया था।

इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश भी कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है। क्योंकि न्याय उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाय। अब जानना चाहिये कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्वपुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।


चारों ऋषियों ने वेद के ज्ञान को कैसे प्राप्त किया

Ved kisko mile

Ved kisko mile

ऋषि दयानंद जी प्रमाणों के आधार पर यह बताते हैं कि अग्नि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद और अंगिरा को अथर्ववेद का ज्ञान निराकार परमात्मा ने दिया फिर उन ऋषियों ने वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी को दिया। अब कुछ लोगों को लगता होगा कि ऋषियों के आत्मा में बिना शरीर के ज्ञान देना संभव नहीं है, यह असंभव बात है तो इसका उत्तर देते हुए स्वामी विद्यानंद जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के व्याख्या ग्रंथ अर्थात् भूमिका भास्कर के वेदोत्पत्ति विषय में लिखते हैं

भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है। वाणी से शब्दोच्चारण की आवश्यकता अपने से भिन्न व्यक्ति को बोध कराने के लिए होती है अर्थात् जब उपदेश्य और उपदेष्टा में दूरी हो तो भाव संक्रमण के लिए वर्णोच्चारण की अपेक्षा होती है, परन्तु जब अपने से ही बात करनी होती है, अर्थात् जब हम चुपचाप बैठकर किसी विषय का चिन्तन करते हैं तो उस समय के संकल्प-विकल्प अथवा प्रश्नोत्तर की श्रृंखला में कण्ठ-तालु-जिह्वा आदि के व्यापार के बिना ही हमारे मन में सूक्ष्मरूप में भाषा बोली जा रही होती है। वह मन-ही-मन बोली जा रही सूक्ष्म भाषा हमारे द्वारा बोली जानेवाली स्थूल भाषा के संस्कारों की स्मृतिरूप होती है। सृष्टि के आदि में जब ऋषियों को परमात्मा वेद का ज्ञान देता है तो अन्तर्यामी होने के कारण वहाँ विद्यमान होता हुआ उनकी आत्मा में वेद और उसकी भाषा के संस्कार डालकर उन्हें उद्बुद्ध कर देता है । तब अर्थों को जानते हुए उस शब्दराशि को वे ऐसे ही उच्चारण करने लगते हैं जैसे कोई व्यक्ति पूर्वाभ्यस्त वाक्यों को निद्रा से जागकर उच्चारण करता है। यह समस्त प्रक्रिया जीवात्मा के मस्तिष्कगत हृदयप्रदेश में होती है। वहीं पर स्थित परमेश्वर से जीवात्मा को यह प्रेरणा प्राप्त होती है, अतः शब्दों के उच्चारण द्वारा उपदेश की आवश्यकता नहीं पड़ती।

एक आत्मा के द्वारा दूसरी आत्मा में भाषा तथा भावों का इस प्रकार संक्रमण किया जाना कोई अलौकिक प्रक्रिया (process) नहीं है । मैस्मेरिज्म (Mesmerism) एक अत्यन्त निम्नस्तर की सिद्धि है। ध्यान की एकाग्रता द्वारा किसी व्यक्ति को प्रभावित करनेवाली इस विद्या को जाननेवाला अपनी संकल्पशक्ति से दूसरे व्यक्ति को मैस्मेरिज्म द्वारा अपने वश में करके उससे जो चाहे करा सकता है । इस प्रक्रिया द्वारा मैस्मेरिज्म करनेवाला दूसरे व्यक्ति मन में अपनी भाषा को संक्रमित कर देता है । इस प्रकार जो भाषा प्रयोजक जानता है उस भाषा को वह उससे सर्वथा अनभिज्ञ व्यक्ति से बुलवा सकता है। कालिज के अनपढ़ चपरासी से अंगरेज़ी और जर्मन भाषा में धाराप्रवाह भाषण कराते और ब्लैकबोर्ड पर बी० ए० स्तर के गणित के प्रश्न हल कराते देखा गया है। जब एक सामान्य जन अभ्यास के द्वारा मनोबल से अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत् करके अपने विशिष्ट सामर्थ्य से अपने से भिन्न व्यक्ति के मन में अपनी भाषा और भावों को संक्रमित कर सकता है और प्रभावित व्यक्ति प्रयोजक अथवा संक्रान्ता की इच्छानुसार व्यवहार करने को विवश हो जाता है तो जीवात्मा में स्थित सर्वान्तर्यामी तथा सर्वशक्तिमान् परमात्मा के द्वारा तो ज्ञान का संक्रमण होना अनायास ही सर्वथा सम्भव है। फिर, सर्ग के आदि में जिन ऋषियों की आत्मा में वह ज्ञान का संक्रमण करता है, वे तो विशिष्ट आत्मा होती हैं, मानो वेद को प्रकट करने के लिए ही माध्यम के रूप में उनका प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार अपना ज्ञान देने के लिए सर्वान्तर्यामी परमेश्वर को मुख, जिह्वा आदि अवयवों की आवश्यकता नहीं पड़ती। 

समय अभाव के कारण और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मेरी बताई विधि से शास्त्रों का अध्ययन करने पर लोग इसे विस्तार पूर्वक जान लेंगे, जिसे वैदिक वैज्ञानिक आचार्य अग्निव्रत जी ने अपने कठोर तप, ईश्वर की कृपा, ऋषि दयानंद जी की शैली का अनुकरण, आर्ष ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर इस प्रक्रिया को वैज्ञानिक तरीके से विस्तार पूर्वक बताया, जो इस प्रकार है

सृष्टि की प्रथम पीढ़ी के अग्नि आदि चार ऋषियों की समाधिस्थ विशेषकर सविचार सम्प्रज्ञात अवस्था में जो छान्दस तरंगें इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त थीं, वे परमात्मा द्वारा ऋषियों के अन्तः करण में भी प्राप्त हुई। जैसे इस समय रेडियो तरंगों के रूप में विभिन्न संदेश इस आकाश में विद्यमान हैं, परन्तु कोई व्यक्ति मोबाइल, फोन, टी.वी., रेडियो, नेट आदि के माध्यम से ही ग्रहण कर सकता है। मानवोत्पत्ति के समय अग्नि आदि चार महर्षियों के पास कोई दिव्य टैक्नोलॉजी नहीं थी कि जिससे उन्होंने सर्वत्र व्याप्त उन छन्दों को प्राप्त किया। जिस प्रकार आकाशस्थ रेडियो तरंगों के व्याप्त होते हुए भी हर व्यक्ति उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता बल्कि विशेष मोबाइल आदि उपकरण का धारक ही विशेष तरंगों को प्राप्त कर सकता है, इससे उन तरंगों की आकाश में विद्यमानता वा व्याप्तता में बाधा नहीं आती, उसी प्रकार पूर्व में केवल उन चार ऋषियों के आत्मा में ब्रह्माण्डव्यापी छन्दों का प्रकाश होने से अथवा अन्य किसी के आत्मा में उनका प्रकाश न हो पाने से उस छन्दों की सर्वत्र व्याप्तता में बाधा नहीं आती। जब वे तरंगें ऋषियों को प्राप्त हुयीं, तब तरंगों के प्राप्त होने पर अगली प्रक्रिया होती है. उसका अर्थ जानना। जैसे किसी रेडियो तरंग के तीन प्रभाव होते हैं। इनके द्वारा जड़ व चेतन पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है यथा- रेडियो तरंगों द्वारा मास्तिष्क कैंसर की आशंका, पक्षियों पर दुष्प्रभाव आदि उसी प्रकार जड़ जगत् पर भी रेडियो तरंगों का प्रभाव होता ही है। रेडियो तरंगें विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का सबसे दुर्बल रूप है। जब इन्हें मोबाइल, टी. वी.. आदि किसी यन्त्र के द्वारा ध्वनि तरंगों में बदला जाता है, तब उस ध्वनि तरंग के भी प्रभाव होते हैं। केवल शब्द ऊर्जा का भी जड़ व चेतन पर प्रभाव होता है। यदि व्यक्ति बहरा है. तब भी उसके शरीर पर भी ध्वनि का कुछ न कुछ प्रभाव होता ही है। यदि बहरा नहीं है, तो उसके शब्द, कान पुनः मस्तिष्क में जाकर कुछ अन्य प्रभाव करते हैं। जब व्यक्ति उन शब्दों के अर्थ व भाव को जानता है, तो उस पर अतिरिक्त प्रभाव व फल होता है और यही अन्तिम फल है। इस प्रकार एक ही रेडियो तरंग के पृथक-पृथक स्तर पर पृथक-२ प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। उसी प्रकार उन छन्दों के उन ऋषियों के आत्मा में प्रकाश होने का अर्थ उन्होंने उन दिव्य ध्वनियों को सुना और सुनकर के परमात्मा के सहाय से उनके अर्थों को भी जाना। उनके पास उन ध्वनियों (छन्दों) को जानने का और कोई उपाय नहीं था, केवल ईश्वर ही का आश्रय था। वे छन्द ब्रह्माण्ड में भी परमात्मा ने उत्पन्न किये और उन ऋषियों के बाहर भी ब्रह्माण्ड पर जड़ होने से उनका ध्वन्यात्मक व वायव्य - आग्नेय प्रभाव ही रहा, जबकि ऋषियों पर उनका अर्थ व भाव का प्रभाव हुआ। उस अर्थ व भाव को उन्होंने आगे ब्रह्माजी को प्रदान किया अर्थात् वेदोपदेश किया और ब्रह्माजी से विद्या परम्परा आगे चल पड़ी।

अग्नि आदि चारों ऋषियों ने वेद ज्ञान को कैसे प्राप्त किया, इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन हमें ऋग्वेद के १०वें मंडल के ७१वें सूक्त से मंत्र संख्या१,२ और ३ में भी प्राप्त होता है

बृह॑स्पते प्रथ॒मं वा॒चो अग्रं॒ यत्प्रैर॑त नाम॒धेयं॒ दधा॑नाः।

यदे॑षां॒ श्रेष्ठं॒ यद॑रि॒प्रमासी॑त्प्रे॒णा तदे॑षां॒ निहि॑तं॒ गुहा॒विः॥१॥

सक्तु॑मिव॒ तित॑उना पु॒नन्तो॒ यत्र॒ धीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मक्र॑त।

अत्रा॒ सखा॑यः स॒ख्यानि॑ जानते भ॒द्रैषां॑ ल॒क्ष्मीर्निहि॒ताधि॑ वा॒चि॥२॥

य॒ज्ञेन॑ वा॒चः प॑द॒वीय॑माय॒न्तामन्व॑विन्द॒न्नृषि॑षु॒ प्रवि॑ष्टाम्।

तामा॒भृत्या॒ व्य॑दधुः पुरु॒त्रा तां स॒प्त रे॒भा अ॒भि सं न॑वन्ते॥३॥

बृहस्पति अर्थात् विशाल ब्रह्माण्ड के पालक व रक्षक परमात्मा की प्राथमिक व विस्तृत वेद वाणी पदार्थमात्र तथा उनके व्यवहारों को धारण करती है। वे ही ऋचाएं बाधक पदार्थों से मुक्त शुद्धावस्था में ऋषियों के गुहा रूप हृदय में प्रकट होती हैं।।१।।

वे ऋचाएं जब आकाश में व्याप्त रहती हैं, तब वे ऋषि चालनी में सत्तू के समान अपने योगारूढ़ मन के द्वारा छानकर पवित्र करते हुए उन ऋचाओं को अपने अन्दर धारण करते हैं।।२।।

वे ऋचाएं यज्ञ रूपी परमात्मा के सहाय से क्रमशः उन ऋषियों में प्रविष्ट होती हैं। इसके पूर्व वे ऋचाएं अन्तरिक्षस्थ ऋषि रूप प्राण रश्मियों के अन्दर छन्दरूप में विद्यमान रहती हैं।।३।।

देखिये यहाँ तीसरे मन्त्र मे "ऋषिषु प्रविष्टाम" पद बहुवचन मे इससे सिद्ध है की 4 ऋषियों का ग्रहण होगा न की ब्रह्मा जी का, इन तीनो मंत्रो से 4 ऋषियों मे ही वेद का प्रकाश हुआ ये निर्विवादरूपेण सिद्ध हो रहा है, किन्तु यहाँ अग्नि आदि गुणवाचक नाम "संज्ञा" मात्र है, ऐतिहासिक वा व्यक्तिवाचक नहीं। क्योंकि वेद नित्य है और प्रत्येक सृष्टि रचना के समय 4 ऋषियों के नाम यही रहेंगे, व्यक्ति बदल जायेंगे किन्तु नाम नहीं क्योंकि ये नाम योगरूढ़ हैं।

इन मंत्रों से स्पष्ट होता है कि आकाश में अनेक ऋचाएं आदि छन्दरूपी प्राण रश्मियों के रूप में उत्पन्न होकर विद्यमान रहती हैं, तब अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषि समाधि अवस्था में परमात्मा की कृपा से उन अन्तरिक्षस्थ ऋचाओं में से मानव जीवन हेतु आवश्यक ऋचाओं को समाहित चित्त द्वारा छान-२ कर अपने चित्त में संगृहीत करते हैं। वे ऋचाएं ही क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का रूप होती हैं। ये चारों ऋषि न केवल उन ऋचाओं का संग्रह करते हैं, अपितु परमात्मा की कृपा से वे ऋषि उन ऋचाओं अर्थात् वाणियों के अर्थ को भी समझ लेते हैं। वे चारों ऋषि इस ज्ञान को महर्षि आद्य ब्रह्मा को प्रदान करते हैं। इस प्रकार संसार में आगे ज्ञान का प्रवाह चलता रहता है।

कुछ और भ्रान्ति फैलाते हैं कि पुराणों के अनुसार महर्षि ब्रह्मा के बाद अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद प्राप्त हुआ यदि ऐसे प्रमाणों के आधार पर ही सनातन धर्म का जीवन निर्भर है तो आज नहीं तो कल अवश्य ही इसका 'राम नाम सत्य' होने मे कोई संदेह ही नहीं है। इससे तो उलटे वेदो के नित्य ज्ञान पर ही दोष मढ़ रहे है एवं दूसरा परमात्मा पर भी दोष आएगा कि क्या परमात्मा समय समय पर अपना ज्ञान भेजता रहता है, क्या उसके पास सर्वकालिक ज्ञान नहीं है और तीसरा की स्वयं ब्रह्मा पर ही दोष आ रहा है की उनमे ईश्वर ने एक वेद प्रदान ही नहीं किया तो वे उस वेद के ज्ञाता न होने से चतुर्वेदी ही न हुए। भला यह तो बताइये कि प्रमाण को लिखते समय क्या आपने अथर्व वेद का पुस्तक उठाकर देख भी लिया था वा बिना देखे हि ये गप्प चेप दिया। इसका खंडन स्वयं (अथर्ववेद कांड १०। प्र. पा.२३।अनु४। मं २०) से ही प्राप्त हो जाता है।

यस्मा॒दृचो॑ अ॒पात॑क्ष॒न्यजु॒र्यस्मा॑द॒पाक॑षन्।

सामा॑नि॒ यस्य॒ लोमा॑न्यथर्वाङ्गि॒रसो॒ मुखं॑ स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः॥

(अथर्व० कां० १० | प्रपा० २३ | अनु०४ | मं० २०)

(यस्मादृचो०) यस्मात्सर्वशक्तिमतः ऋचः ऋग्वेदः (अपातक्षन्) अपातक्षत् उत्पन्नोऽस्ति, यस्मात् परब्रह्मणः (यजुः) यजुर्वेदः (अपाकषन्) प्रादुर्भूतोऽस्ति, तथैव यस्मात्सामानि सामवेदः (आङ्गिरसः) अथर्ववेदश्चोत्पन्नौ स्तः, एवमेव यस्येश्वरस्याङ्गिरसोऽथर्ववेदो मुखं मुखवन्मुख्योऽस्ति, सामानि लोमानीव सन्ति, यजुर्यस्य हृदयमृचः प्राणश्चेति रूपकालङ्कारः। यस्माच्चत्वारो वेदा उत्पन्नाः स कतमः स्विद्देवोऽस्ति तं त्वं ब्रूहीति प्रश्न: ? अस्योत्तरम्-(स्कम्भं तं०) तं स्कम्भं सर्वजगद्धारकं परमेश्वरं त्वं जानीहीति, तस्मात्स्कम्भात्सर्वाधारात्परमेश्वरात् पृथक् कश्चिदप्यन्यो देवो वेदकर्ता नैवास्तीति मन्तव्यम्॥

(यस्मादृचो अपा०) जो सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद, (यजुः) यजुर्वेद, (सामानि) सामवेद, (आङ्गिरसः) अथर्ववेद, ये चारों उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालङ्कार से वेदों की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है कि अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमों के समान, यजुर्वेद हृदय के समान और ऋग्वेद प्राण की नाईं है। (ब्रूहि कतमः स्विदेव सः) कि चारों वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन सा देव हैं, उसको तुम मुझसे कहो? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि-(स्कम्भं तं०) जो सब जगत् का धारणकर्ता परमेश्वर है उसका नाम स्कम्भ है, उसी को तुम वेदों का कर्ता जानो, और यह भी जानो कि उसको छोड़ के मनुष्यों को उपासना करने के योग्य दूसरा कोई इष्टदेव नहीं है। क्योंकि ऐसा अभागा कौन मनुष्य है जो वेदों के कर्ता सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को छोड़ के दूसरे को परमेश्वर मान के उपासना करे॥

इस मन्त्र मे लिखा है की परमात्मा से ऋषियों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुआ।

और (यजुर्वेद अध्याय ४०। मन्त्र ८) मे कहा है की प्रजा के कल्याणर्थ सृष्टि के आदि मे परमात्मा सब सत्य विद्याओ (अर्थात् चारों वेदों का एकसाथ) का उपदेश करता है। इससे निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया की पौराणिकों की बातें वेद विरुद्ध और गप्प हैं।

यहाँ भी प्रमाणों मे कहीं भी ब्रह्मा को वेद प्राप्त होने की बात नहीं आयी फिर कैसे ब्रह्मा जी को सर्वप्रथम वेद प्राप्त होने की बात करते हो? और आदि सृष्टि मे 4 वेदो के एक साथ मिलने की सिद्धि हो रही है।

पूर्वपक्ष ने अर्वाचीन टीकाकारों (जिन्होंने अल्प बुद्धि होने का प्रदर्शन करते हुए मनु स्मृति मे पशु मांस इत्यादि वेद विरुद्ध बातों का विधान कर दिया) को प्रामाणिक मानकर तथा उन्हें ऋषियों से ज्यादा महत्व देकर आर्षग्रंथो से मुँह फेर लिया है और इन्होंने ये कहकर सनातन धर्म का दिवाला निकालकर छल कपट धोका तथा असत्य भाषण का प्रदर्शन किया है। इसलिए हमें ऋषियों के मत को ही वेदार्थ विषय मे आप्त प्रमाण मानना चाहिये।

यदि इन्हें देवता कहा जाए तो भी ये ऋषि लोग जड़ सिद्ध नहीं होते क्योंकि

विद्वांसो ही देवः। (शतपथ 3.7.6.10)

अर्थात् विद्वान् मनुष्यों को देव कहते हैं।

मातृ देवो भवः।

पितृ देवो भवः।

आचार्य देवो भवः।

अतिथि देवो भवः। (तैत्तिरीयोपनिषद् प्रपाठक 7.11)

क्या कहीं इन 4 ऋषियों के लिए वेदोत्पति विषय मे जड़ देवता का वर्णन आया है?? तो दिखा दीजिये अन्यथा सत्य को स्वीकार कीजिए।

तो इससे सिद्ध है की अग्नि आदि 4 ऋषियों के लिए वेदो को प्राप्त करनेवाला विद्वान अर्थ मे चेतन देवता से ही 'देवता' पद आया है,और निरुक्त से मन्त्र द्रष्टा को ऋषि ही मानना उचित है। अतः हमारी बात सिद्ध हुई।

ऋषि यास्क ने स्पष्ट लिखा हैं आदिम ऋषि साक्षात्कृतधर्मा थे- (निरुक्त १.१९) अर्थात आदिम ऋषियों ने परमात्मा द्वारा उनके उनके ह्रदयों में प्रकाशित किये गए मन्त्रों और उनके अर्थों का दर्शन, साक्षात्कार किया और फिर आने वाले ऋषियों ने तप और स्वाध्याय द्वारा मन्त्रों के अर्थों का दर्शन किया। ऋषि की परिभाषा करते हुए यास्क लिखते हैं की ऋषि का अर्थ होता हैं द्रष्टा, देखने वाला, क्योंकि स्वयंभू वेद तपस्या करते हुए इन ऋषियों पर प्रकट हुआ था, यह ऋषि का ऋषित्व हैं –( निरुक्त २.११)

अब कहीं से कुछ उठाकर कही से कुछ करके जड़ देवता सिद्ध करेंगे तो सत्य बदलने वाला नही है, सारांश में कहूं तो आपने दो प्रकरणों के कुछ का कुछ बनाकर "आधा तीतर आधा बटेर" बना डाला और "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा" कर दिया है। विषय बहुत सरल है किन्तु जान बूझकर जटिल बनाकार गलत मत स्थापित करने का असफल प्रयास चल रहा है।

वहीं महर्षि याज्ञवाल्क्य जी शतपथ ब्राह्मण में लिखते हैं 

एवं वा अरे अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेततद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वाङ्गिरसः।।

अर्थात् इससे स्पष्ट है कि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ने श्वास प्रश्वास की तरह ग्रहण किया और अन्यों मे प्रचारित किया। यहाँ भी वेदो की प्राप्ति ब्रह्मा जैसा कुछ नहीं आया है।


वेदों का नाम वेद और श्रुति क्यों है

इसका उत्तर महर्षि दयानंद जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में देते हैं

प्रश्न—वेद और श्रुति ये दो नाम ऋग्वेदादि संहिताओं के क्यों हुए हैं?

अर्थवशात्। विद ज्ञाने, विद सत्तायाम्, विद्लृ लाभे, विद विचारणे, एतेभ्यो ‘हलश्च’ इति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्यये कृते वेदशब्दः साध्यते। तथा श्रु श्रवणे, इत्यस्माद्धातोः करणकारके ‘क्तिन्’ प्रत्यये कृते श्रुतिशब्दो व्युत्पाद्यते। विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते ‘वेदाः’।

उत्तर—अर्थभेद से। क्योंकि एक ‘विद’ धातु ज्ञानार्थ है, दूसरा ‘विद’ सत्तार्थ है, तीसरे ‘विद्लृ’ का लाभ अर्थ है, चौथे ‘विद’ का अर्थ विचार है। इन चार धातुओं से से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से ‘वेद’ शब्द सिद्ध होता है। तथा ‘श्रु’ धातु श्रवण अर्थ में है, इससे करणकारक में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के होने से ‘श्रुति’ शब्द सिद्ध होता है। जिनके पढ़ने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान् होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक्संहितादि का ‘वेद’ नाम है।

तथाऽऽदिसृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्तेऽनया सा ‘श्रुतिः’। न कस्यचिद्देहधारिणः सकाशात्कदाचित्कोऽपि वेदानां रचनं दृष्टवान्। कुतः? निरवयवेश्वरात् तेषां प्रादुर्भावात्। अग्निवाय्वादित्याङ्गिरसस्तु निमित्तीभूता। वेदप्रकाशार्थमीश्वरेण कृता इति विज्ञेयम्। तेषां ज्ञानेन वेदानामनुत्पत्तेः। वेदेषु शब्दार्थसम्बन्धाः परमेश्वरादेव प्रादुर्भूताः तस्य पूर्णविद्यावत्त्वात्। अतः किं सिद्धम्? अग्निवायुरव्यङ्गिरो मनुष्यदेहधारिजीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेदः प्रकाशीकृत इति बोध्यम्।

वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं, इससे वेदों का ‘श्रुति’ नाम पड़ा है। क्योंकि किसी देहधारी ने वेदों के बनानेवाले को साक्षात् कभी नहीं देखा, इस कारण से जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं, और उनको सुनते-सुनाते ही आज पर्यन्त सब लोग चले आते हैं। तथा अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा इन चारों मनुष्यों को जैसे वादित्र को कोई बजावे वा काठ की पुतली को चेष्टा करावे, इसी प्रकार ईश्वर ने उनको निमित्तमात्र किया था, क्योंकि उनके ज्ञान से वेदों की उत्पत्ति नहीं हुई। किन्तु इससे यह जानना कि वेदों में जितने शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, वे सब ईश्वर ने अपने ही ज्ञान से उनके द्वारा प्रकट किये हैं।

अंत में यही कहेंगे पाठकों से, जिनको समाधि प्राप्त थी, जो पूर्ण वैराग्यवान, पक्षपातरहित, जिनका भाष्य प्राचीन ऋषियों के अनुकूल, जिनका लक्ष्य केवल ईश्वर है। ये सब लक्षण जिनमें विद्यमान होते हैं वे हैं -"ऋषिवर देव दयानन्द सरस्वती जी"। कुछ लोग स्वयं को ऋषि दयानन्द से ज्यादा बड़े विद्वान समझते हैं और अध्ययन तो कुछ है नहीं! भ्रान्ति स्वयं पाल रखे हैं और दोष मन्त्र द्रष्टा ऋषि पर लगा देते है, ऐसे मूढ़बुद्धियों से दूर रहें। आशा है उन्हें इस लेख द्वारा यथोचित उत्तर प्राप्त हो चुका है। हमारा मत है ऋषि दयानन्द का भाष्य पूर्ण प्रामाणिक है, शेष पाठक पढ़कर पता लगा लेंगे।

नमस्ते जी धन्यवाद।

॥ओ३म् शान्तिः॥


संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ

  • वेद किसपर उतरे (गंगा प्रसाद जी उपाध्याय)
  • अथर्ववेद की प्राचीनता (शिवपूजन सिंह कुशवाहा जी)
  • मीमांसा दर्शन
  • यजुर्वेद भाष्य (महर्षि दयानंद जी सरस्वती)
  • छांदोग्य उपनिषद्
  • सत्यार्थ प्रकाश (महर्षि दयानंद जी सरस्वती)
  • ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका
  • वेद विज्ञान आलोक की नमूना कॉपी
  • निरुक्त
  • तैत्तिरीयोपनिषद्
  •  मनुस्मृति (कुल्लुक भट्ट भाष्य)
  • वेद वाणी पत्रिका
  • भूमिका भास्कर (स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती)
  • वेदविज्ञानभाष्यमण्डनम् आर्यसत्यजिद्भ्रमभञ्जनम् (आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक)
  • ताण्ड्य ब्राह्मण
  • अथर्ववेद
  • गोपथ ब्राह्मण
  • मनुस्मृति
  • वाल्मीकि रामायण
  • वेदों का यथार्थ स्वरूप
  • ऋग्वेद भाष्य (आचार्य सायण)


Comments

  1. बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी दी गई है धन्यवाद

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