शास्त्रों की मिलावट की पहचान के उपाय एवं सावधानी

Shastro me milavat

वर्तमान में जो महर्षि दयानंद जी का जो शास्त्रीय चिंतन है वह पूर्ण (पूर्ण तो ईश्वर होता है, ईश्वर के पश्चात पूर्ण यहां पर समझना चाहिए) है, वही हमारा मार्गदर्शक है उससे बड़ा मार्गदर्शक इस समय कोई नहीं है, इस बात को हमें याद रखना चाहिए। हमें शास्त्रों की मिलावट की पहचान एवं मिलावट की पहचान करते समय निम्नलिखित सावधानियों का पालन करना चाहिए


1. जो भाग मिलावटी लगता है उसको हटा कर देखें (मन से निकाल कर देखें, न कि ग्रंथ से) कि कहीं इससे ग्रंथ का विषय, क्रम भंग तो नहीं न हो रहा है। अगर विषय, क्रम भंग हो रहा है तो इसका मतलब वह मिलावट नहीं है।

2. जिस प्रसंग को हम मिलावट मान रहे हैं, उस मिलावट का उस ग्रंथ में कोई और प्रकरण आए हों, उससे कोई संबंध तो नहीं न है।यदि है, तो हमसे समझने में भूल हो रही है, वह मिलावट नहीं है।

3. कोई शब्द जो हमें मिलावट प्रतीत हो रहा है तो, उसका हम उसी ग्रंथ में वा किसी अन्य ग्रंथ में अर्थ देखें, कोई और भी तो अर्थ नहीं न होता है, उस शब्द का।

 4. जिस प्रकरण को हम मिलावट मान रहे हैं, उसको देखें वह क्या है। कोई सामान्य विद्वान मिलावट नहीं कर सकता, मिलावट तो वही कर सकता है जो व्याकरण का बहुत बड़ा विद्वान हो, छंदों का जानकार हो। उसी छंद में मिलावट करेगा, जिस छंद में ग्रंथ लिखा हो। उसमें इतनी तो अक्ल होगी कि क्या मिलना है और क्या नहीं। जैसे ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ (२.८.१) में एक प्रकरण आता है कि प्राचीन काल में देवों ने अपने यज्ञ में मनुष्य को पशु बनाकर आलम्भन किया। किन्तु उस आलम्भित (मनुष्य पशु) से मेध अर्थात् यज्ञ के योग्य हविःभाग निकल गया और वह अश्व में प्रविष्ट हो गया। इसीलिए अश्व यज्ञ के योग्य हुआ। तब निकले हुए हविःभाग वाले इस मनुष्य को देवों ने (यज्ञ पशु बनाने के लिए) अत्यन्त तिरस्कृत कर दिया। वह (देवों के द्वारा स्वीकृत किन्तु परित्यक्त मनुष्य ही) किंपुरुष अर्थात् किन्नर हो गए। उन्होंने अश्व को आलम्भन किया। किन्तु उस आलम्भित अश्व से यज्ञ योग्य हविःभाग निकल गया और वह गाय में प्रविष्ट हो गया। इसीलिए गाय यज्ञ योग्य हुई। तब निकले हुए हविभाग वाले इस (अश्व) को देवों ने अयोग्य जानकर उसे भी तिरस्कृत कर दिया। वह (देवों से पहले स्वीकृत किन्तु बाद में परित्यक्त) गौरमृग (नीलगाय) हो गई।उन्होंने गाय का आलम्भन किया। किन्तु उस आलम्भित गौ से मेध निकल गया और वह भेड़ में प्रविष्ट हो गया। इसीलिए भेड़ मेध्य पशु हुआ। तब निकले हुए मेध वाले उस (गाय) को उन्होंने तिरस्कृत कर दिया। तब वह (गौ) गवय (बैल) हो गया। उन्होंने भेड़ का आलम्भन किया। किन्तु उस आलम्भित भेड़ से मेध निकल गया और वह बकरे में प्रविष्ट हो गया। इसीलिए बकरा मेध्य पशु हुआ। तब उस उत्क्रान्त मेध वाले (भेड़) को उन्होंने तिरस्कृत कर दिया। तब वह ऊँट हो गया। उस बकरे में यज्ञ योग्य भाग बहुत दिनों तक रहा। अतः (चिरकाल तक रहने के कारण) जो यह अज है, वह इन (पूर्वोक्त) पशुओं के मध्य अत्यन्त प्रयुक्त हुआ। मिलावट करने वाले को इतनी बुद्धि तो होगी कि गाय नीलगाय कैसे बन सकती है, भेड़ ऊंट कैसे बन सकती है, यज्ञ योग्य हविःभाग क्या है जो एक प्राणी से निकल कर दूसरे प्राणी में चला जाता है और अगर मिलावट करने वाले को बकरे की ही बलि दिलवानी होती तो वह इतना नाटक क्यों करता, सीधा सीधा लिख देता कि बकरे की बलि दो। इसका मतलतब यह प्रकरण रहस्यमय है, इसका अर्थ समझने में हमें भूल हो रही है। (इस कंडिका का वैज्ञानिक भाष्य वेद विज्ञान आलोक में आचार्य अग्निव्रत जी ने किया है)

5. कुछ गणना है या भूगोल है, आज के भूगोल की दृष्टि से पहले के भूगोल में कुछ अंतर हो। जैसे लंका 100 योजन बताया है वाल्मिकी रामायण में, कोई कह दे कि मिलावट है, क्योंकि आज भारत से लंका के बीच में समुद्र 36km है। राजस्थान पत्रिका में आई खबर के अनुसार जोधपुर तक समुद्र था। विंध्याचल पर्वत तक समुद्र था। नीचे सब जल में डूबा था। मनुस्मृति में आर्यावर्त की सीमा विंध्याचल पर्वत तक बताई है। तब दूसरे लोगों ने बिना गंभीर विचार किए कह दिया इसका मतलब दक्षिण का राज्य आर्यावर्त है ही नहीं, वहां के लोग आर्य नहीं थे। (आर्य कोई जाति नहीं है, वेद को मानने वाले धर्मात्मा को आर्य कहते हैं।) तब आर्यावर्त समुद्र में थोड़ी जायेगा। अब श्री राम के समय में वहां पर समुद्र नहीं हो सकता क्योंकि गोदावरी के किनारे पंचवटी थी तो उसके आगे समुद्र हो सकता है। श्रीलंका भी आगे हो सकता है, भूगोल बदलते रहते हैं, चट्टानें इधर से उधर खिसकती रहती हैं। लोग यह नहीं सोचते, तुरंत खंडन कर देते हैं।

6. कुछ लोग यह सोचते हैं कि जिस कार्य को मैं नहीं कर सकता, वह कोई नहीं कर सकता। जो मैं नहीं कर सकता वह मिलावट है। जैसे हनुमान जी के आकाशगमन वाली बात को अधिकतर लोग प्रक्षिप्त मान लेते हैं। कुछ लोग योग दर्शन में भी मिलावट मान लेते हैं क्योंकि वे स्वयं उड़ नहीं सकते। कहीं हम अपनी अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि के कारण उनकी शक्तियों को नकारते तो नहीं न हैं? यह तो ठीक है कि असंभव संभव नहीं हो सकता, जैसे अगस्त्य ऋषि का समुद्र को पी जाना, हनुमान जी का सूर्य को मुंह में रख लेना लेकिन हमारे महापुरुषों में अनेक हाथियों के बल का जो वर्णन आता है, उसको हम कल्पना नहीं कह सकते, मिलावट नहीं कह सकते।

7. कभी कभी कुछ लोग अपनी मान्यताओं को जनता में थोपने के लिए ग्रंथ से मूल प्रक्रण को मिलावट बता कर हटा कर अपना एक मजहब बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग भी बिना विचार के ग्रंथों में प्रक्षिप्त बहुत जल्दी बता देते हैं। जैसे आज दुनिया में नाम योग, जप योग, सहज योग आदि अनेक प्रकार के योग चल रहे हैं। मजहबी लोगों ने योग दर्शन से हटा कर कितने योग बना दिए।

8. जिन शब्दों के आधार पर हम अर्थ कर रहे हैं, वह रूढ़ अर्थ कर रहे हैं वा यौगिक। प्रकरण के अनुसार ही हमें रूढ़ वा यौगिक अर्थ करना होगा।

9. किसी बात को वेद विरुद्ध या सृष्टि विरुद्ध वही बोल सकता है जिसने वेद और सृष्टि को जान लिया हो। जैसे जिसने कभी हवाई जहाज कभी न देखा हो, न सुना हो, उससे कोई कहे कि एक बस हवा में उड़ती है तो वह कहेगा कि यह तो सृष्टि विरुद्ध है। जिसमें तर्क और ऊहा न हो वह वैज्ञानिक/ऋषि नहीं बन सकता। महर्षि यास्क जी ने तर्क को ऋषि व ऊहा को ब्रह्म कहा है। जिसके पास तर्क और ऊहा न हो वह नहीं बता सकता कि क्या सृष्टि विरुद्ध है। इसी प्रकार वेद किरुद्ध भी वही बता सकता है जिसके पास तर्क और ऊहा दोनों हों।

10. महाभारत के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में राजर्षि भोज द्वारा लिखित ‘‘संजीवनी’’ नामक ग्रन्थ के हवाले से कहा है ‘‘व्यास जी ने महाभारत में कुल चार हजार चार सौ श्लोक ही लिखे थे। पुनः उनके शिष्यों ने पाँच हजार छः सौ श्लोक मिलाकर दश हजार श्लोकों का ‘‘भारत’’ नामक ग्रन्थ बनाया। महाराज विक्रमादित्य के समय में बीस हजार श्लोेक, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिताजी के समय में पच्चीस और अब मेरी आधी उम्र में तीस हजार श्लोक का महाभारत पुस्तक मिलता है, जो ऐसे ही बढ़ता चला, तो महाभारत का पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायेगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे, तो आर्यावर्तीय लोग भ्रमजाल में पड़के वैदिक धर्म विहीन हो के भ्रष्ट हो जायेंगे।’’ यह मिलावट राजा भोज के पश्चात् भी निरन्तर जारी रही और आज गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत ग्रन्थ में एक लाख दो सौ सत्रह श्लोक हैं। अब जो बातें महाभारत में व्यास जी शिष्य वैशंपायन जी ने मिलाया होगा वह तो गलत नहीं हो सकती क्योंकि जो बात उन्होंने जाना और ध्यान आया कि व्यास जी यह भी कहते थे, वह उन्होंने लिख दिया। लेकिन उसमें हमेशा अनेक लोगों श्लोक मिलाना गलत है। उसमें मिलावट को वही निकाल सकता है जो तर्क और ऊहा से युक्त हो और इतिहास में मिलावट निकालना सरल कार्य नहीं है। क्योंकि उसमें ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसा हुआ ही नहीं, बस यह बताया जा सकता है कि ऐसा संभव है और ऐसा संभव नहीं है।

11. जो हमें प्रक्षिप्त (मिलावट) भी लगे उसे ग्रंथ से हमें निकालना नहीं चाहिए, क्योंकि जो एक व्यक्ति को जो मिलावट लगा उसने उस ग्रंथ से निकाल दिया, तो वह उस ग्रंथ से समाप्त हो गया। हो सकता है कि उससे भी बड़ा कोई विद्वान आ कर उसका भाष्य कर दे। जो मिलावट प्रतीत हों, उसके सामने मिलावट लिख कर उसे ग्रंथ में रहने दें किंतु उसे ग्रंथ से निकलें न।

12. समय के साथ मापन में भी परिवर्तन हो जाता है। जैसे अंग्रेजी भाषा में 1 अरब को बिलियन कहते हैं जबकि ब्रिटेन और फ्रांस में सन् 1948 से पूर्व 10 खरब संख्या को एक बिलियन कहा जाता था। 10 खरब कहते हैं 1 ट्रिलियन को, जबकि 1948 से पूर्व ट्रिलियन को मिलियन मिलियन अर्थात 10 खरब कहते थे।

किसी भी प्रकरण को मिलावट बोलने से पूर्व हमें इन सावधानियों का ध्यान रखना चाहिए।

(आचार्य अग्निव्रत जी की वीडियो से साभार)

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