वैदिक पाठ्यक्रम

इस लेख में हम पढ़ने-पढ़ाने का प्रकार लिखते हैं- प्रथम पाणिनिमुनिकृतशिक्षा जो कि सूत्ररूप है, उसकी रीति अर्थात् इस अक्षर का यह स्थान, यह प्रयत्न, यह करण है। जैसे 'प' इसका ओष्ठ स्थान, स्पृष्ट प्रयत्न और प्राण तथा जीभ की क्रिया करनी 'करण' कहाता है। इसी प्रकार यथायोग्य सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता, आचार्य सिखलावें। तदनन्तर व्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ, जैसे 'वृद्धिरादैच्' [अष्टा० अ० १। पा० १। सू० १] फिर पदच्छेद जैसे 'वृद्धिः, आत्, ऐच्', पश्चात् समास 'आच्च ऐच्च आदेच्', फिर अर्थ–'आदैचां वृद्धिसंज्ञा क्रियते' आ, ऐ, औ की वृद्धि संज्ञा है। 'त: परो यस्मात्स तपरस्तादपि परस्तपरः'। तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो, वह तपर कहाता है। इससे सिद्ध हुआ जो आकार से परे त् और त्कार से परे ऐच दोनों तपर हैं। तपर का प्रयोजन यह है कि ह्रस्व और प्लुत की वृद्धि संज्ञा न हुई।

(नोट - अष्टाध्याई पढ़ने से पूर्व संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य ले लें)

उदाहरण 'भागः' यहाँ 'भज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय के परे 'घ्, ञ्' की इत्संज्ञा, लोप, भकारस्थ अकार के स्थान में "आ" वृद्धि हुई तो 'भाज्' । पुनः 'ज्' को ग् हो, अकार के साथ मिलके 'भागः' ऐसा प्रयोग हुआ।


'अध्यायः' यहाँ अधिपूर्वक 'इङ्' धातु के ह्रस्व इकार के स्थान में 'घञ्' प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि हो, 'आय' हो, मिलके 'अध्यायः'। 'नायकः' यहाँ 'नीञ्' धातु के दीर्घ ईकार के स्थान में ‘ण्वुल्' प्रत्यय के परे 'ऐ' वृद्धि हो, 'आय' मिलके 'नायकः'।


और 'स्तावकः' यहाँ 'स्तु' धातु से ‘ण्वुल्', ह्रस्व उकार को औ' वृद्धि, 'आव्' आदेश होकर अकार में मिल गया, तो 'स्तावकः'। 'कृञ्' धातु से आगे ‘ण्वुल्' प्रत्यय, उसके ‘ण, ल्' की इत्संज्ञा होके लोप, 'वु' के स्थान में 'अक' आदेश और ऋकार के स्थान में 'आर्' वृद्धि होकर 'कारकः' सिद्ध हुआ। और जो-जो सूत्र आगे-पीछे के, प्रयोग में लगें, उनका कार्य सब बतलाता जाय और कॉपी अथवा ब्लैकबोर्ड पर दिखला-दिखला के कच्चारूप धरके, जैसे 'भज+घञ्+सु'। प्रथम धातु के अकार का लोप, पश्चात् घ्कार और ञ् का लोप होकर 'भज्+अ+सु' ऐसा रहा, फिर 'भाग्+अ+सु', 'भाग+सु फिर 'भागरूँ', फिर 'भागर्', पुनः ‘भागः'। जिस-जिस सूत्र से जोजो कार्य होना है, उस-उस को पढ़के, लिख-लिखवा के कार्य करताकराता जाय। इस प्रकार पढ़ने-पढ़ाने से बहुत दृढ़ बोध होता है।


एक वार इसी प्रकार अष्टाध्यायी पढ़ाके धातुपाठ, अर्थ और दश लकारों के रूप तथा प्रक्रियासहित सूत्रों के उत्सर्ग अर्थात् सामान्यसूत्र जैसे —'कर्मण्यण' [अष्टा० ३।२।१] कर्म उपपद लगा हो तो सब धातुमात्र से अण् प्रत्यय हो, जैसे 'कुम्भकारः'। पश्चात् अपवाद सूत्र जैसे आतोऽनुपसर्गे कः' [अष्टा० ३।२।३] उपसर्गभिन्न कर्म उपपद लगा हो तो आकारान्त धातु से 'क' प्रत्यय होवे। अर्थात् जो बहुव्यापक जैसा कि कर्मोपपद लगा हो तो सब धातुओं से 'अण्' प्राप्त होता है, उससे विशेष अर्थात् अल्प विषय उसी पूर्व सूत्र के विषय में से आकारान्त धातु को 'क' प्रत्यय ने ग्रहण कर लिया। जैसे उत्सर्ग के विषय में अपवाद सूत्र की प्रवृत्ति होती है, वैसे अपवाद के विषय में उत्सर्ग की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे चक्रवर्ति राजा के राज्य में माण्डलिक और भूमिदारों की प्रवृत्ति होती है, वैसे माण्डलिक राजादि के राज्य में चक्रवर्ति की प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रकार पाणिनि महर्षि ने सहस्र श्लोकों के बीच में अखिल शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की विद्या प्रतिपादित कर दी है।


धातुपाठ के पश्चात् उणादिगण के पढ़ाने में सर्व सुबन्त का विषय अच्छी प्रकार पढ़ा के, पुन: दूसरी वार शङ्का, समाधान, वार्तिक, कारिका, परिभाषा की घटनापूर्वक अष्टाध्यायी की द्वितीयानुवृत्ति पढ़ावें । तदनन्तर महाभाष्य पढ़ावें । अर्थात् जो बुद्धिमान्, पुरुषार्थी, निष्कपटी, विद्यावृद्धि के चाहनेवाले नित्य प्रति पढ़ें-पढ़ावें, तो डेढ़ वर्ष में अष्टाध्यायी और डेढ़ वर्ष में महाभाष्य पढ़ के तीन वर्ष में पूर्ण वैय्याकरण होकर, वैदिक और लौकिक शब्दों का व्याकरण से बोध होकर, पुनः अन्य शास्त्रों को शीघ्र सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं किन्तु जैसा बड़ा परिश्रम व्याकरण में होता है, वैसा श्रम अन्य शास्त्रों में करना नहीं पड़ता। और जितना बोध इनके पढ़ने से तीन वर्ष में होता है, उतना बोध कुग्रन्थ सारस्वत, चन्द्रिका, कौमुदी, मनोरमादि के पढ़ने से पचास वर्षों में भी नहीं हो सकता। क्योंकि जो महाशय महर्षि लोगों ने सहजता से महान् विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किया है, वैसा इन अल्पबुद्धि मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्योंकर हो सकता है! महर्षि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहाँ तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है। और ऐसे लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक बने, वहाँ तक कठिन रचना करनी, जिसको बड़े परिश्रम से पढ़ के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना। और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।


व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छ: वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें और पढ़ावें । अन्य नास्तिककृत अमरकोशादि में अनेक वर्ष व्यर्थ न खोवें। तदनन्तर पिङ्गलाचार्यकृत छन्दोग्रन्थ जिससे वैदिक लौकिक छन्दों का परिज्ञान, नवीन रचना और श्लोक बनाने की रीति भी यथावत् सीखें। इस ग्रन्थ और श्लोकों की रचना तथा प्रस्तार को चार महीनों में सीख पढ़-पढ़ा सकते हैं। और वृत्तरत्नाकर आदि अल्पबुद्धिप्रकल्पित ग्रन्थों में अनेक वर्ष न खोवें। तत्पश्चात् मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यताप्राप्ति हो, वैसे काव्यरीति अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य, विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। इनको एक वर्ष के भीतर पढ़ लें।


तदनन्तर पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त अर्थात् जहाँ तक बन सके, वहाँ तक ऋषिकृत व्याख्यासहित अथवा उत्तम विद्वानों की सरल-व्याख्यायुक्त छः शास्त्रों को पढ़ें-पढ़ावें। परन्तु वेदान्त सूत्रों के पढ़ने के पूर्व ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेयी, तैत्तिरेयी, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दश उपनिषदों को पढ़के छ: शास्त्रों के भाष्य वृत्तिसहित सूत्रों को दो वर्ष के भीतर पढ़ावें और पढ़ लेवें।


पश्चात् छ: वर्षों के भीतर चारों ब्राह्मण अर्थात् ऐतरेय (वेद विज्ञान आलोकः), शतपथ, साम और गोपथब्राह्मणों के सहित चारों वेदों को स्वर, शब्द, अर्थ, सम्बन्ध तथा क्रियासहित पढ़ना योग्य है।


इसमें प्रमाण

स्थाणुरयं भारहारः किलाभूधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्।

योऽर्थज़ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेत ज्ञानविधूतपाप्मा॥ - यह निरुक्त [१।१८] में मन्त्र है।

जो वेद को स्वर और पाठमात्र पढ़के अर्थ नहीं जानता, वह जैसा वृक्ष-डाली, पत्ते, फल, फूल और अन्य पशु-धान्य आदि का भार उठाता है, वैसे भारवाह अर्थात् भार का उठानेवाला है। और जो वेद को पढ़ता और उनका यथावत् अर्थ जानता है, वही सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होके देहान्त के पश्चात् ज्ञान से पापों को छोड़, पवित्र धर्माचरण के प्रताप से सर्वानन्द को प्राप्त होता है।


उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।

उतो त्वस्मै तन्वं वि सत्रे जायेव पत्ये उशती सुवासाः॥

(ऋ० १०/७१/४)

जो अविद्वान् हैं, वे सुनते हुए नहीं सुनते, देखते हुए नहीं देखते, बोलते हुए नहीं बोलते अर्थात् अविद्वान् लोग इस विद्या वाणी के रहस्य को नहीं जान सकते। किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध का जाननेवाला है, उसके लिए-जैसे सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारती, अपने पति की कामना करती हुई स्त्री अपना शरीर और स्वरूप का प्रकाश पति के सामने करती है, वैसे विद्या विद्वान् के लिए अपना स्वरूप प्रकाश करती है, अविद्वानों के लिए नहीं।


ऋचो अक्षरै परमे व्योमन्यस्मिन्दे॒वा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति॒ य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥

(ऋ० १/१६४/३९)

जिस व्यापक अविनाशी सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर में सब विद्वान् और पृथिवी, सूर्य आदि सब लोक स्थित हैं, कि जिसमें सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है, उस ब्रह्म को जो नहीं जानता, वह ऋग्वेदादि से क्या कुछ सुख को प्राप्त हो सकता है? नहीं-नहीं, किन्तु जो वेदों को पढ़के धर्मात्मा योगी होकर उस ब्रह्म को जानते हैं, वे सब परमेश्वर में स्थित होके, मुक्तिरूपी परमानन्द को प्राप्त होते हैं। इसलिए जो कुछ पढ़ना वा पढ़ाना हो, वह अर्थज्ञानसहित चाहिए। इस प्रकार सब वेदों को पढ़के, 'आयुर्वेद' अर्थात् जो चरक, सुश्रुत आदि ऋषि-मुनि-प्रणीत वैद्यक शास्त्र है, उसको अर्थ, क्रिया, शस्त्र-छेदन-भेदन, लेप, चिकित्सा, निदान, औषध, पथ्य, शारीर, देश, काल और वस्तु के गुण-ज्ञानपूर्वक ४ चार वर्ष के भीतर पढ़ें-पढ़ावें।


तदनन्तर 'धनुर्वेद' अर्थात् जो राज्यसम्बन्धी काम करना है, इसके दो भेद-एक निज राजपुरुषसम्बन्धी और दूसरा प्रजासम्बन्धी होता है। राजकार्य में सब सभा, सेना के अध्यक्ष, शस्त्रास्त्रविद्या, नाना प्रकार के व्यूहों का अभ्यास अर्थात् जिसको आजकल 'क़वायद' कहते हैं जो कि शत्रुओं से लड़ाई के समय में क्रिया करनी होती है, उनको यथावत् सीखें। और जो-जो प्रजा के पालन और वृद्धि करने का प्रकार है, उनको सीखके, न्यायपूर्वक सब प्रजा को प्रसन्न रक्खें, दुष्टों को यथायोग्य दण्ड और श्रेष्ठों के पालन का प्रकार सब प्रकार सीख लें।


इस राजविद्या को २ दो वर्ष में सीखकर 'गांधर्ववेद' कि जिसको गानविद्या कहते हैं उसमें स्वर, राग, रागिणी, समय, ताल, ग्राम, तान, वादित्र, नृत्य, गीत आदि को यथावत् सीखें, परन्तु मुख्य करके सामवेद का गान वादित्रवादनपूर्वक सीखें और नारदसंहिता आदि जो-जो आर्ष ग्रन्थ हैं, उनको पढ़ें, परन्तु इसका दुरुपयोग न करें।


अर्थवेद कि जिसको शिल्पविद्या कहते हैं उसको पदार्थ गुणविज्ञान-क्रियाकौशल, नानाविध पदार्थों का निर्माण, पृथिवी से लेके आकाशपर्यन्त की विद्या को यथावत् सीखके, अर्थ अर्थात् जो ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला है, उस विद्या को सीख के, दो वर्ष में ज्योतिषशास्त्र सूर्यसिद्धान्तादि जिसमें बीजगणित, अङ्क, भूगोल, खगोल और भूगर्भविद्या है, उसको यथावत् सीखें।


तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र, जन्मपत्र, राशि, मुहूर्त आदि के फल के विधायक ग्रन्थ हैं, उनको झूठ समझके कभी न पढें और न पढ़ावें।


ऐसा प्रयत्न पढ़ने और पढ़ानेवाले करें कि जिससे बीस वा इक्कीस वर्ष के भीतर समग्र विद्या, उत्तम शिक्षा प्राप्त होके मनुष्य लोग कृतकृत्य होकर सदा आनन्द में रहैं। जितनी विद्या इस रीति से बीस वा इक्कीस वर्षों में हो सकती है, उतनी अन्य प्रकार से शतवर्ष में भी नहीं हो सकती।


ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढ़ना चाहिए कि वे बड़े विद्वान्, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं।


पूर्वमीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या, वैशेषिक पर गोतममुनिकृत प्रशस्तपादभाष्य, गोतममुनिकृत न्यायसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, पतञ्जलिमुनिकृत सूत्र पर व्यासमुनिकृत भाष्य, कपिलमुनिकृत सांख्यसूत्र पर भागुरिमुनिकृत भाष्य, व्यासमुनिकृत वेदान्तसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य अथवा बौधायनमुनिकृत भाष्य वृत्तिसहित पढ़ें-पढ़ावें। इत्यादि सूत्रों को कल्प अङ्ग में भी गिनना चाहिए।


जैसे ऋग्, यजुः, साम और अथर्व चारों वेद ईश्वरकृत हैं, वैसे ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ चारों ब्राह्मण; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु-निरुक्त, छन्द और ज्योतिष छ: वेदों के अङ्ग, मीमांसादि छ: शास्त्र वेदों के उपाङ्ग; आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थवेद ये चार वेदों के उपवेद इत्यादि सब ऋषि-मुनि के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो-जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो, उस-उस को छोड़ देना, क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रांत, स्वत:प्रमाण अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परत:प्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है।


अब जो परित्याग के योग्य ग्रन्थ हैं उनका परिगणन संक्षेप से किया जाता है अर्थात् जो-जो नीचे ग्रन्थ लिखेंगे, वह-वह जालग्रन्थ समझना चाहिए। व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वत, चन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमादि। कोश में अमरकोशादि। छन्दोग्रन्थों में वृत्तरत्नाकरादि। शिक्षा में अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा' इत्यादि। ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त्तचिन्तामणि आदि। काव्य में नायिकाभेद कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीयादि। मीमांसा में धर्मसिन्धु, व्रतार्कादि। वैशेषिक में तर्कसंग्रहादि। न्याय में जागदीशी आदि। योग में हठप्रदीपिकादि।सांख्य में सांख्यतत्त्वकौमुद्यादि। वेदान्त में योगवासिष्ठ, पञ्चदश्यादि। वैद्यक में शार्ङ्गधरादि। स्मृतियों में एक मनुस्मृति इसमें भी प्रक्षिप्त श्लोकों को छोड़, अन्य सब स्मृति, सब तन्त्र ग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषारामायण, रुक्मिणीमङ्गलादि और सर्वभाषाग्रन्थ।

(सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास के पठनपाठनविधि: के आधार पर साभार)



इन सभी ग्रंथों को पढ़ने से पूर्व एक बार निष्पक्ष हो कर बोलो किधर जाओगे और सत्यार्थ प्रकाश अवश्य पढ़ें, ताकि सत्य असत्य का निर्णय करने में समर्थ हो सकें।

Comments

  1. नमस्ते जी, यह शेयर नहीं हो रहा है लिख कर आ रहा है कि आपत्तिजनक सामग्री है इसमे

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