आत्मा साकार या निराकार

आत्मा साकार या निराकार
लेखक - यशपाल आर्य
(जिन मित्रों ने प्रमाण खोजने में सहायता की है, हम उन सभी का धन्यवाद व आभार व्यक्त करते हैं)

कुछ लोगों को भ्रम हो गया है कि आत्मा साकार होती है, आज हम इस पोस्ट में आर्ष प्रमाणों के आधार पर जानेंगे कि आत्मा साकार है या निराकार। तो आइए लेख को प्रारंभ करते हैं।

सर्वप्रथम हम पंचावयव से अपनी बात सिद्ध करते हैं-

प्रतिज्ञा - जीवात्मा निराकार है।

हेतु - रूप से रहित होने से। जो जो वस्तुएं रूप, शक्ल से युक्त होती हैं, वे साकार होती हैं।

उदाहरण - घड़ा

उपनय - घड़े के तरह आत्मा में रूप गुण नहीं है।

निगमन - अतः आत्मा निराकार है।

अब हम आर्ष प्रमाण उद्धृत करते हैं-

सत्यार्थ प्रकाश के 14वें समुल्लास में मं० ७| सि० ३०| सू० ७८| आ० २६|३४|३८ की समीक्षा में देखिए वहां पर महर्षि दयानंद जी रूह (आत्मा) को निराकार लिखते हैं

आत्मा साकार है या निराकार?
महर्षि दयानंद जी ने पूना में प्रवचन दिया था उनमें से 15 प्रवचनों का संकलन उपदेश मंजरी नाम की पुस्तक में है। इसके प्रथम उपदेश में देखिए, यहां भी आत्मा को निराकार कहा है
आत्मा के साकार निराकार विषयक पक्ष का निर्णय

उपदेश मंजरी का चतुर्थ उपदेश भी देखिए उसमें भी आत्मा को निराकार कहा है
आत्मा निराकार है या साकार
महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र-व्यवहार, भाग १ देखिए, इसके पृष्ठ २१७ पर ऋषि ने आत्मा को निराकार कहा है
Aatma Sakar ya Nirakar

आत्मा का स्वरूप
ऋषि दयानंद का पत्रव्यवहार और विज्ञापन में भी यह पत्र छपा है, देखें प्रमाण
आत्मा साकार या निराकार

आत्मा साकार या निराकार
 (पृष्ठ संख्या २२० व भाषानुवाद की पृष्ठ संख्या २३०)
अब हम ऋषि के इस पत्र का हस्तलिखित फोटो देते हैं-
ऋषि दयानंद का हस्तलिखित प्रमाण

महाभारत में कहा है-
अनादिनिधनं जन्तुमात्मयोनिं सदाव्ययम्।
अनौपम्यममूर्त च भगवानाह बुद्धिमान्॥
[महाभारत वनपर्व अध्याय 211 श्लोक 17]
यहां जीवात्मा के कुछ विशेषण दिए हैं। हम यहां हम प्रत्येक विशेषण पर विचार नहीं करेंगे अपितु यहां केवल आत्मा के एक विशेषण पर विचार करेंगे। यहां आत्मा को अमूर्त अर्थात् निराकार कहा है।
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास में देखें, प्रश्न आता है कि ईश्वर निराकार है वा साकार तो इसका उत्तर ऋषि क्या देते हैं इसे आप इस फोटो में देख सकते हैं- 
Aatma ka svaroop
अब यहां ऋषि लिखते हैं 
जो साकार होता, तो उसके आकर को बनानेवाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये।
यहां ऋषि ने स्पष्ट रूप से चेतन को निराकार कहा है। अब बताइए महानुभाव क्या आपके मत में जीवात्मा जड़ है, यादि नहीं तो निराकार सिद्ध हुई। और यह भी कहा है कि यदि आकार मानो तो उसका आकार बनाने वाला भिन्न होना चाहिए। अब बताइए महानुभाव आत्मा अविकारी होने से उसको आकार युक्त अर्थात् साकार कौन व कैसे बना सकता है? अतः यहां भी आत्मा निराकार ही सिद्ध होती है साकार नहीं।

आइए अब हम आकार शब्द के बारे में देखते हैं। आकार शब्द के लिए संस्कृत हिन्दी कोश (लेखक - वामन शिवराम आप्टे) में लिखा है कि आ+ कृ + घञ् = आकारः। अर्थात् आकार शब्द में आ उपसर्ग, कृ धातु, और घञ् प्रत्यय है। इस प्रकार से आकार शब्द बनता है। और इसके अर्थ में लिखा है - रूप, शक्ल, आकृति

इस प्रकार से आकार शब्द का अर्थ हुआ कि कोई वस्तु जिसमें रूप हो, शक्ल हो, आकृति हो, उसका नाम साकार है।

लेकिन सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में देखिए, वहां पर महर्षि दयानंद जी लिखते हैं "......चेतन में इच्छादि गुण हैं, और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं।"

ऋषि ने स्पष्ट लिखा है चेतन में रूपादि गुण नहीं हो सकते, जैसा कि हमनें ऊपर प्रमाण दिया कि रूप से युक्त वस्तु साकार है, लेकिन ऋषि चेतन में आकार गुण का अभाव मानते हैं अर्थात चेतन साकार नहीं हो सकती, अतः चेतन निराकार ही है। आत्मा भी चेतन है और चेतन होने से आत्मा निराकार है।

ऋग्वेद 1/58/1 देखिए
इस मंत्र में जीवात्मा के स्वरूप के बारे में बताया है

इस मंत्र में सहोजाः शब्द आया है, जिसका अर्थ यः सहसा बलेन प्रसिद्धः है, जिसका हिंदी में अर्थ है बल को उत्पादन करने हारा। अब ध्यान देने योग्य है कि बल निराकार में ही होता है साकार में नहीं, अब आत्मा बल को उत्पन्न करने हारा होने से निराकार है, साकार नहीं।
सत्यार्थ प्रकाश के विस्तृत व्याख्या करने वाले ग्रन्थ अर्थात् सत्यार्थ भास्कर में स्वामी विद्यानंद जी आत्मा को निराकार लिखते हैं, प्रथम भाग के पृष्ठ 847 और 848 देखिए



स्वामी वेदानंद जी अपनी पुस्तक वेदामृत के प्रथम अध्याय में ऋग्वेद 8/69/11 का प्रमाण दे कर आत्मा को निराकार सिद्ध किया है


पूर्वपक्ष - आपने जो सत्यार्थ प्रकाश का वचन उद्धृत किया वह प्रमाण नहीं है क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश के अनेक पुस्तकों में "रूह निराकार होने से..." यह पंक्ति ही गायब है अपितु वहां रूह नाम फरिश्ते का है इस प्रकार का पाठ मिलता है। यही पाठ उचित प्रतीत होता है, तथा पंडित भागवतदत्त जी आदि ने यही पाठ माना है।
सिद्धान्ती - वाह जी वाह! छल करने का अच्छा तरीका है, कदाचित आप इन्हीं तरीकों से अबतक सत्य का गला घोंटते आए हैं। डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार जी द्वारा संपादित सत्यार्थ प्रकाश देखें, वहां उन्होंने लिखा है कि "रूह निराकार होने से..." यह पंक्ति ऋषि की है किंतु रूह नाम परिश्ते वाली पंक्ति मुंशी समर्थन दास की है। अब बताइए आप ऋषि को अधिक प्रामाणिक मानते हैं या मुंशी समर्थन दास जी को? अगर ऋषि को मानते हैं तो ऐसा हट क्यों कर रहे हैं? 

पूर्वपक्ष - कोई भी वस्तु साकार है या निराकार यह जानने से पहले निराकार की परिभाषा जानना जरूरी है।
आर्यसमाज के अनेक विद्वान निराकार की परिभाषा अपने मन से देकर, सिंद्धान्तों को तोड़ने मरोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
जबकि हम सभी के लिए ऋषि दयानन्द ने प्रथम समुल्लास में निराकार की सटीक व्याख्या लिख दी है । अतः उसी पर सभी को एक मत होना है। 
प्रथम समुल्लास में निराकार की परिभाषा देखिए , बिंदु 67 को परिभाषित करते हुए ऋषि लिखते है जिसका कोई आकार नही और जो कभी शरीर धारण न करता हो वह निराकार कहलाता है।
यहां और शब्द प्रयोग किया गया अर्थात दोनो गुण निराकार के होते हैं।
क्या आत्मा शरीर धारण नही करता ?? 
नि:सन्देह करता है तो परिभाषा के अनुसार आत्मा निराकार नहीं है।
सिद्धान्ती - आपने यहां पर ऋषि के पूरे बात को नहीं दिखाया। यदि आप दिखाते तो आपका खण्डन हो जाता, इसलिए आप अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ऋषि की बात को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं तथा बात को तोड़ने मरोड़ने का दोष हम पर लगा रहे हैं। ऋषि का पूरा कथन इस प्रकार है
(डुकृञ् करणे) इस धातु से निर् और आङ्पूर्वक ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात् स निराकारः’=जिसका आकार कोई भी नहीं और जो न कभी शरीर धारण करता है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है।
यहां पर ऋषि परमात्मा के लिए लिख रहे हैं न कि आत्मा के लिए। ऋषि संस्कृत में निराकार की परिभाषा लिखते हैं कि निगर्त आकारात्स निराकारः। ऋषि द्वारा संस्कृत में बताई निराकार की परिभाषा का हिंदी अर्थ है कि जिसका आकार नहीं है वह निराकार है। अब बताइए ऋषि द्वारा बताई निराकार की परिभाषा में ऐसा कहां आ गया कि शरीर न धारण करने वाले को निराकार कहते हैं? वस्तुतः आपको हिंदी देखने से भ्रम उत्पन्न हो गया है, इससे जान पड़ता है कि आपकी बुद्धि शास्त्र ज्ञान को समझने हेतु परिपक्व नहीं हुई है। अस्तु! चलिए आपके आक्षेप का उत्तर दे ही देते हैं- 
ऋषि ने यह निराकार शब्द यहां ईश्वर के लिए प्रयुक्त किया है इसलिए हिंदी में लिखा है कि जिसका कोई आकार नहीं है और जो कभी शरीर धारण नहीं करता। जबकि संस्कृत में निराकार का अर्थ आकार का अभाव किया है ऋषि ने। अब बताइए आपका वेद विरुद्ध मत कहां सिद्ध हो रहा है?
अगर फिर भी आप ऋषि के वाक्य को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करना चाह रहे हैं तो बताएं
ऋषि सत्यार्थ प्रकाश में इन्द्र शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं
(इदि परमैश्वर्ये) इस धातु से ‘रन्’ प्रत्यय करने से ‘इन्द्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः’=जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इससे उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है। 
तथा ऋषि ने ऋग्वेद १.२२.१९ के भाष्य में इंद्र शब्द को आत्मा के लिए भी प्रयुक्त किया है।
तो क्या आप आत्मा को सकल ऐश्वर्यों से युक्त मानते हैं? यदि हां तो क्या ससीम वस्तु असीम ऐश्वर्यों को प्राप्त कर सकता है? आपका उत्तर है नहीं।
जैसे सत्यार्थ प्रकाश के इस वचन में जो इन्द्र नाम परमेश्वर के लिए आया है उसे जीवात्मा पर घटाना बुद्धिमानी नहीं है, उसी प्रकार निराकार का अर्थ जो परमात्मा के लिए आया है उसे आपके द्वारा जबरदस्ती आत्मा के लिए प्रयुक्त करना बुद्धिमानी नहीं है।

पूर्वपक्ष- आपके दिए हुए सातवें समुल्लास के प्रमाण में कहा है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से निराकार है। अब यहां अर्थापत्ति से यह सिद्ध होता है कि एकदेशी होने से जीवात्मा साकार है। अतः आपको इससे आत्मा को निराकार सिद्ध करना उचित नहीं अपितु इससे तो आत्मा साकार सिद्ध होती है।
सिद्धान्ती - वाह! ऋषि का नाम लेकर असत्य का प्रचार करना तो कोई आपसे सीखे। हमने जो हेतु रखा उसका खण्डन करने में असफल रहे इसलिए हमारे हेतु पर कुछ टिप्पणी नहीं किया क्योंकि आपको भी पता है कि इस हेतु का खंडन नहीं हो सकता इसलिए अपने असत्य पक्ष की सिद्धि हेतु ऋषि के वाक्य को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं। जैसे कोई कहे कि जल द्रव होने से धरती पर पर्वत से नीचे की ओर आता है अब आप जैसे कोई कुतर्की कहे कि आपके इस वाक्य के अर्थापत्ति से यह सिद्ध होता है कि पत्थर ठोस होने से नीचे से ऊपर पर्वत की चोटी पर पहुंचती है। जैसे यह अर्थापत्ति नहीं अपितु अर्थापत्ति का आभास मात्र है वैसे ही आपका कथन भी है महानुभाव। अब आपके इस मिथ्या कथन का निवारण भी कर देते हैं। जो आपने कहा कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से निराकार है अतः एकदेशी जीवात्मा साकार होगी इस उचित नहीं क्योंकि यहां यह हेतु केवल ईश्वर के निराकार होने के कारण से दिया गया है न कि जीव के। दृष्टांत शत प्रतिशत साध्य के तुल्य नहीं होता और आप उसे शत प्रतिशत साध्य से मिलान  का प्रयास कर रहे हैं।

पूर्वपक्ष - मुंडकोपनिषद् 3/1/9 में आत्मा को अणु कहा है।
 
एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पंचधा संविवेश।।
अर्थात् यह आत्मा अणु अर्थात् सूक्ष्म/छोटा है। इससे आत्मा साकार सिद्ध होती है।
सिद्धान्ती - यहां पर परिमाण गुण को बताया है न कि आकार गुण को।
महर्षि कणाद जी ने इन दोनों गुणों को अलग-अलग बताया है-
संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्मच रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणि।।
[वैशेषिक दर्शन चतुर्थ अध्याय प्रथम आह्निक एकादश सूत्र]
यदि आकार और परिमाण एक होते तो इस सूत्र में दोनों को भिन्न भिन्न लिखने की क्या आवश्यकता होती, एक शब्द से ही कार्य हो जाता किन्तु यहां रूप और परिमाण दोनों शब्द आने से यह सिद्ध होता है कि ये दोनों भिन्न भिन्न हैं एक नहीं।
अगर आप यहां अपने मत को सिद्ध करने के लिए अणु का अर्थ आकार के रूप में करते हैं तो क्या आपने अनुसार ईश्वर भी साकार है क्योंकि कठोपनिषद् २.२० में ईश्वर के लिए कहा है
अणोरणीयान् महतो महीयान्
जैसे  यहां अणु और महत् केे द्वारा ईश्वर का परिमाण गुण को बताया है न कि आकार गुण को, वैसे ही मुण्डकोपनिषद् में आत्मा का परिमाण गुण बताया गया है न कि आकार गुण को। ऐसे ही अन्य स्थानों पर उपनिषदों में आत्मा का परिमाण गुण ही बताया है न कि आकार गुण को। क्योंकि वेद परम प्रमाण हैं, वेद परम प्रमाण हैं, वेद विरुद्ध बात जहां भी हो वह असत्य होती है। अतः यहां परिमाण गुण मानना ही तर्कसंगत है।
आइए सत्य को ग्रहण करें और असत्य को छोड़ें, निराकार आत्मा को निराकार ही जाने व मानें क्योंकि सत्य से बढ़ कर मानव जाति के उन्नति का अन्य कोई कारण नहीं है।

।। ओ३म् शांति ।।

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