वैदिक ऋषि विषयक भ्रान्ति निवारण
यह प्रश्न देखने में बहुत सही प्रतीत होता है किंतु गंभीरता से ऋषि के ग्रंथों को पढ़ने तथा वेद पर विचार करने पर इसका उत्तर मिल जाता है तो आइए विषय को प्रारंभ करते हैं
वेदों के ऊपर उल्लिखित ऐतिहासिक मानव ऋषि की महर्षि दयानंद जी की मान्यता तो आचार्य अग्निव्रत जी की भी है, परन्तु प्राणरूप ऋषि की मान्यता पर आपको आपत्ति है। जरा, इस पर विचारें कि कई स्थानों पर जो ऋषि मंत्र के ऊपर उल्लिखित हैं, वही ऋषि मंत्र में भी हैं। तब क्या मंत्र में उल्लिखित ऋषि ऐतिहासिक है? यदि हाँ, तो वेद में मानव इतिहास सिद्ध हुआ, जो महर्षि दयानंद जी के मन्तव्य के प्रतिकूल है और आप भी नहीं मानेंगे। तब मंत्र में उल्लिखित ऋषि ऐतिहासिक न होकर कोई पदार्थ विशेष हुआ, भले ही वह कुछ भी क्यों न हो। इस कारण उसका अर्थ यौगिक ही होना चाहिए। ऋग्वेद १.२४ सूक्त का एक ऋषि शुनःशेप है तथा ऋग्वेद १.२४.१२ व १३ मंत्रों में भी 'शुनःशेप' शब्द विद्यमान भी है, जिसका अर्थ महर्षि ने 'शुनो विज्ञानवत् इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः' अर्थात् अत्यन्त ज्ञान वाला विद्वान किया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 61वें व 62वें सूक्त के ऋषि नाभानेदिष्ठ हैं वहीं इसी 61वें सूक्त के 18वें मंत्र में इस ऋषि का नाम भी आया है। इसी प्रकार अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। तब इतना तो स्पष्ट है कि मन्त्रों के ऊपर लिखे ऋषिवाची शब्द जहाँ मंत्र के प्रथम साक्षात् कर्ता का रूढ़ नाम है, वहीं इनका यौगिक अर्थ भी होता है, जो ऐतिहासिक ऋषि से पृथक् है। तब दो अर्थ सिद्ध हो ही गये। अब क्योंकि इस सूक्त का महर्षि ने आधिदैविक अर्थ नहीं किया. इस कारण शुनःशेप का अर्थ आधिदैविक (वैज्ञानिक) नहीं किया। यदि आधिदैविक अर्थ करें तो ऋषि का वैज्ञानिक अर्थ भी होगा, जो आचार्य जी ने ऐतरेय ब्राह्मण के शुनःशेप आख्यान में किया है। तब आचार्य अग्निव्रत जी का मत को ऋषि दयानंद जी के विरुद्ध कैसे मान लिया? ऋषि वा ऋषिवाची शब्दों का यौगिक अर्थ अपने भाष्य में महर्षि दयानंद जी ने किया भी है और अनेकत्र ऋषि शब्द का अर्थ विभिन्न प्रकार के प्राण किया ही है। भरद्वाज, जमदग्नि, वामदेव, अत्रि, शुनःशेप, वसिष्ट, गोतम आदि अनेक ऋषियों के यौगिक अर्थ महर्षि ने किये हैं और इनमें कई अर्थ आधिदैविक भी हैं, तो अनेकत्र केवल ऋषि शब्द का आधिदैविक अर्थ किया, तब भी बुद्धि में नहीं बैठ सके, तो महर्षि का क्या दोष है?
क्या आप मनुस्मृति के इस प्रसिद्ध श्लोक
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥
को भी नहीं समझते, जो पुकार-2 कर आप जैसों को जगा रहा है कि सृष्टि में सभी मनुष्यों ने सभी नाम वेदों में से देख कर रखे अर्थात् जो वैदिक पद यौगिक थे उन्हें रूढ़ रूप में अपने नाम के रूप में ग्रहण कर लिया। इसी को दृष्टिगत रखकर पं. भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कॉलर अपने निरुक्त भाष्य १.४ में पृष्ठ 19-20 पर लिखते हैं-
घोर पुत्र प्रगाथ ऋषि की यह ऋचा है। ऋग्वेद ८.६२.११ का प्रसंग, अंगिरा के आठ पुत्रों में से घोर एक है। अंगिरा आग्नेय परमाणुओं का योग विशेष है। उसका पुत्र घोर और तत्पुत्र प्रगाथ भी आग्नेय परमाणुओं के योग के उत्तरोत्तर रूप हैं। उस प्रगाथ रूप और इन्द्र के संयोग से जो साफल्य सृष्टि निर्माण समय हुआ, उसी का कथन इस ऋचा में है। यह प्रगाथ भी मध्यम स्थानी है। लोक में भी अंगिरा, घोर और प्रगाथ नाम वेद से लेकर (वेदशब्देभ्य एवादौ मनुः १.२१) ऋषि परिवार में रखे गये।
पण्डित जी अन्यत्र भी लिखते हैं-
ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामुभुधीरं उशना काव्येन (ऋ. ९/८७/३) का ऋषि बन कर किसी व्यक्ति ने अपना नाम उशन काव्य रखा।
(वैदिक वाङ्मय का इतिहास vol. 1 Pg. 143, अपौरुषेय ऋग्वेद)
इस प्रकार ये यौगिक अर्थ वाले ऋषि प्राण ही उस-2 छन्द (मंत्र) के उपादान कारण होते हैं। आप यह मानते हैं कि महर्षि ने जो बात जहाँ जितनी बतायी, हमें उतनी ही ग्राहय है। यदि अन्यत्र किसी स्थान पर उसी पद के दूसरे अनेक अर्थ हों, तो भी उनसे इसका कोई सम्बंध नहीं, यह स्थूल बुद्धि का ही परिचायक है। महर्षि ने वेद भाष्य में कहाँ-2 से कैसे-2 प्रमाण व अर्थों को ग्रहण किया है? ऋग्वेद १.१.१ में ही कितने प्रमाण दिये, कहाँ-2 से कैसे-2 अर्थ किये? क्या आप कभी सोच सकेंगे? आपके अनुसार तो यदि 'अग्नि पद हजार बार आया हो तो उसके हजार अर्थ ही होने चाहिए क्योंकि कहीं का अर्थ अन्यत्र लग ही नहीं सकता। तब तो किसी भी पद का अर्थ कोई नहीं कर पायेगा क्योंकि उसका अर्थ किसी कोष में देखें, तो यह देखना होगा कि वह अर्थ कहाँ से लिया? किस प्रसंग से लिया और जहाँ से लिया, वहाँ भी वही अर्थ क्यों व किसने किया? यह कौन बतायेगा? सारे शब्दकोष व्यर्थ हो जायेंगे। हाँ, अर्थ में मनमानी तो नहीं हो सकती परन्तु किसी भी अर्थ से मंत्र के पूर्वापर प्रकरण में संगति में कोई बाधा नहीं है बल्कि और भी सुन्दर संगति लगती है, तो वह अर्थ आचार्य अग्निव्रत जी को ग्राहय है, अन्यथा नहीं। यही अर्थ करने का एक कसौटी है। ऋषि नामों को अर्थ में प्रयोग करते हुए प्रख्यात आर्य विद्वान् पं. शिवशंकर जी काव्यतीर्थ ने इन्द्र व इन्द्राणी के संवाद के रूप में इन मंत्रों का ग्रहण किया है। यदि ऋषि केवल ऐतिहासिक ही माने जायें तो उनके संवाद के रूप में मंत्रों की उत्पत्ति होना सिद्ध होगा फिर वेद अपौरुषेय न होकर पौरुषेय हो जायेंगे। शायद पं. जी को यह दृष्टि आचार्य सायण से मिली है। आचार्य सायण भी ऐसा ही कह रहे हैं। यदि वे ऋषि यौगिक अर्थ में हैं, तब मंत्र के ऊपर उल्लिखित ऋषि पं. जी की दृष्टि में दो प्रकार के सिद्ध हुए।
अब हम शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देते हैं, जिसमें प्राणों को ऋषि कहा है
प्राणा ऋषयः (श०ब्रा०७.२.१.५)
प्राणा वा ऋषयो। (ऐ० ब्रा० ९.३)
जो लोग कहते हैं कि ऋषि दयानंद जी ने ऋषि को सूक्ष्म प्राण नहीं माना है, उन लोगों ने न तो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़ा और न ही ऋषि का वेद भाष्य पढ़ा, अगर पढ़े होते तो ऐसी शंका कदापि न करते, चलिए कोई बात नहीं ऐसे लोगों के लिए हम ऋषि दयानंद जी का भी प्रमाण देते हैं, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में यहां महर्षि दयानंद जी ऋषि का अर्थ प्राण स्वयं ही नहीं लिखते अपितु ऐतरेय का प्रमाण दे कर लिखते हैं
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका [वेदविषयविचारः] |
यहां स्पष्ट है कि ऋषि दयानंद जी ने प्राचीन प्राण ऋषि रश्मियों को तथा नवीन प्राण उनसे उत्पन्न वेद मंत्रों को ही कहा है अन्य को नहीं। क्योंकि इसी अध्याय में ऋषि ने बताया है कि ऋषि नाम मंत्र, प्राण और तर्क का भी है।
ऋग्वेद १.१.२ के भाष्य में भी ऋषि दयानंद जी ने ऋषि का अर्थ प्राण भी किया है।
अब ऋषि दयानंद ने ऋषि के जो अर्थ किए हैं उनमें से भी कुछ प्रमाण देखें -
सप्त, ऋषयः = प्राणादयः पञ्च देवदत्तधनञ्जयौ च (यजुर्वेद १७.७९)
ऋषिः = रूपप्रापकः (यजुर्वेद १३.५६)
प्राणों के रश्मि होने का प्रमाण
प्राणा कम्पनात्। (ब्रह्मसूत्र 1/3/39)
प्राणा रश्मयः (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/2/5/2)
अब हम कुछ आर्ष ग्रंथों का प्रमाण देना चाहते हैं, जहां पर ऋषि नामों का प्राणों के रूप में व्युत्पत्ति की गई है
ऐतरेय आरण्यक २.२.१ के अनुसार गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, प्रगाथ आदि नाम प्राणों के हैं।
शतपथ ८.१.१.६ में कहा है प्राणो वै वसिष्ठऋषि।
शतपथ ८.१.१.९ में कहा है मनो वै भरद्वाजऋषि।
शतपथ ६.१.२.२८ में कहा है प्राणो वा अङ्गिराः।
शतपथ ८.१.२.९ में कहा है वाग् वै विश्वकर्मा ऋषिः।
कौषीतकि ब्राह्मण १०.५ में कहा है वाग् वै विश्वामित्रः।
छांदोग्य उपनिषद् में लिखा है-
अथ खल्वाशीः समृद्धिरुपसरणानीत्युपासीत येन साम्ना स्तोष्यन् स्यात्तत्सामोपधावेत्।।
यस्यामृचि तामृचं यदार्षेयं तमृषिं यां देवतामभिष्टोष्यन् स्यात्तां देवतामुपधावेत्।।
येन च्छन्दसा स्तोष्यन् स्यात्तच्छन्द उपधावेद्येन स्तोमेन स्तोष्यमाणः स्यात् तं स्तोममुपधावेत्।।
[प्रपाठक १, खण्ड ३, प्रवाक ८,९,१०]
जरा विचारें यदि ऋषि केवल ऐतिहासिक पुरुष मात्र होते तो उनका विचार करना आवश्यक नहीं होता। यदि आवश्यक नहीं होता तो यहां उनके ध्यान हेतु विधान क्यों?
इस प्रकार ऋषि दयानंद जी के ग्रंथों को न समझ कर वेदों के स्वरूप को यथार्थ में न समझने से अनेक भ्रान्तियां व समस्यायें जन्म ले सकती हैं।
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संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ
1. ऋग्वेद भाष्य - भाष्यकार महर्षि दयानंद सरस्वती जी
2. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका - लेखक महर्षि दयानंद सरस्वती जी
3. वेदविज्ञानभाष्यमण्डनम् आर्यसत्यजिद्भ्रमभञ्जनम् - लेखक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी
4. कौषितकी ब्राह्मण
5. शतपथ ब्राह्मण
6. ऐतरेय आरण्यक
7. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग 1
एक शांका है
ReplyDeleteऋषि मंत्र द्रष्टा है, परंपरा से उसके नाम रखे गए है तो क्या उसी परंपरा से साथ-साथ सभी पदार्थो को भी उनका नाम देने की परंपरा थी?
नहीं जी, ऐतिहासिक मानव ऋषियों ने पदार्थ रूपी ऋषियों के आधार पर अपना नाम रख लिया, पदार्थ रूपी ऋषियों के नाम सदा से थे उसी नाम को देख कर उन ऋषियों ने अपना वह वह नाम रख लिया।
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