वाणी की चार अवस्थाएं
लेखक - शिवांश आर्य
(यह लेख आचार्य अग्निव्रत जी के दिए गए ज्ञान पर आधारित है)
सृष्टि के आदि में चार ऋषि अग्नि,आदित्य वायु और अंगिरा ने ब्रह्माण्ड से वैदिक ऋचा रूपी वाणी(vibration) को ईश्वर कृपा से ग्रहण किया व उनकी ही प्रेरणा से उन ऋचाओं के अर्थों को जाना। उन्होंने समझ कर के कालांतर में आदिब्रह्मा जी को इन विद्या का उपदेश किया। ब्रह्मा जी वो पहले ऋषि हुए जिनको चारों वेदों का ज्ञान था। तत्पश्चात ब्रह्मा जी से सम्पूर्ण भूमण्डल पर वेद विद्या की परंपरा प्रारम्भ हुई।
वाणी के विषय में वेद में प्रमाण है ऋग्वेद 1/164/45
च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिण॑:।
गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या॑ वदन्ति॥
इस मंत्र में चार प्रकार की वाणी का वर्णन है और यह भी बताया है कि इन चारों को विद्वान जन ही जानते हैं।
महर्षि दयानंद जी वाणी के चार प्रकार को स्पष्ट करते हुए व्याकरण के अनुसार नाम,आख्यात,उपसर्ग और निपात ये चार भेद बतालते हैं।
महर्षि प्रवर यास्क जी ने निरुक्त 13.9 में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है। उन्होंने वाणी के प्रकार में छः प्रकार के मतों का उद्धरण किया। इनका वर्गीकरण इस प्रकार से है।
१. आर्ष मत
आर्ष मत के अनुसार वाणी के चार प्रकार ओ३म्,भू,भुवः,स्वः ये चार प्रकार की वाणी है।
महर्षि मनु भी मनुस्मृति में इसकी पुष्टि करते हैं
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवः स्वरितीति च।
(प्रजापतिः) परमात्मा ने अकारम् उकारं च मकारं ओ३म् शब्द के ‘अ’ ‘उ’ और ‘म्’ अक्षरों को (अ+ उ + म् – ओम्) (च) तथा (भूः भुवः स्वः इति) ‘भूः’ ‘भुवः’ ‘स्वः’ गायत्री मन्त्र की इन तीन व्याहृतियों को वेदत्रयात् निरदुहत् तीनों वेदों से दुहकर साररूप में निकाला।
२. वैयाकरण मत
व्याकरण के विद्वानों के अनुसार वाणी के चार प्रकार हैं नाम ,अख्यात, उपसर्ग और निपात इसी मत को ऋषि दयानंद जी ने लिखा है।
३. याज्ञिक मत
यज्ञ करने वाले लोग वाणी के चार प्रकार मंत्र, कल्प,ब्राह्मण एवं व्यवहारिकी लोक भाषा ये चार प्रकार मानते हैं।
मंत्र जो वेद संहिताओं में हैं,
कल्प श्रौत सूत्र आदि ग्रन्थों में
ब्राह्मण ऐतरेय,शतपथ आदि ग्रन्थों में
और चौथी जो लोक में मनुष्यों में प्रचलित है।
४. नैरुक्त मत
नैरुक्त लोग वाणी को मानते हैं ऋक्,यजु,साम और लोकभाषा।
शैली की दृष्टि से वेद तीन प्रकार के हैं ऋक्,यजु और साम और चौथी जो लोक में प्रचलित है।
५. आत्मवादी मत
आत्मवादी मत के अनुसार पशुओं की वाणी, वाद्ययंत्रों की वाणी, सिंह आदि मांसाहारी पशुओं की वाणी और मनुष्यों की व्यवहारिक वाणी।
६. मैत्रायणी संहिता का मत
मैत्रायणी संहिता में वाणी के चार प्रकार की बताया है भूः,भुवः,स्वः ये वाणी और पशु अर्थात् विभिन्न मरुत् एवं छंद रश्मियों के रूप में ब्रह्माण्ड में व्याप्त वाणी।
जो वाणी पृथ्वी में है वही वाणी अग्नि में है और वही वाणी रथन्तर साम में है। जो वाणी अंतरिक्ष में होती वही सूक्ष्म वायु में विद्यमान होती है। वही वाणी वामदेव में होती है। जो वाणी सूर्यादि लोकों में होती है वही उसकी किरणों में होती है और वैसी वाणी तीव्र कड़कने वाली विद्युत में होती है। अन्य वाणी पशु अर्थात् मनुष्यों की लोकभाषा होती है। इसके अतिरिक्त जो वाणी है उसे परमात्मा ने ब्राह्मणों में धारण किया है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड वाणी का संघनित रूप है।
अन्य मत
एक अन्य मत है, भूमि पर विचरण करने वाले जीव जो बोलते वो एक वाणी, उड़ने वाले पक्षी जो बोलते वो एक वाणी,छोटे-छोटे कीड़े जो बोलते वो एक वाणी और मनुष्य जो बोलते वो एक वाणी। यह चार प्रकार की वाणी इस मत के अनुसार है।
इसी मंत्र के भाष्य में आचार्य सायण ने जो वाणी का वर्गीकरण किया वो है परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी।
यह मत निरुक्त से भिन्न है। यही मत भगवान श्री कृष्ण जी महाराज ने "साम्बपंचाशिका" के तीसरे श्लोक में बतलाया है।
वाणी के इसी चार रूपों की चर्चा व्याकरण महाभाष्य के भाष्य प्रदीप में "आचार्य कय्यट नागेश भट्ट" ने भी की है इन्होंने "वाक्य पदीयम्" के कई श्लोकों को उदधृत किया है। "वाक्य पदीयम्" जो महाविद्वान भृतहरि महाराज जी ने लिखा है उसकी व्याख्या में "पण्डित क्षेमराज" जी ने की,उनकी इस व्याख्या पर टीका लिखी है "डॉक्टर शिवशंकर अवस्थी" जी ने। इस टीका में उन्होंने एक अज्ञात रचित श्लोक उदधृत किया है:-
वैखरी शब्द निष्पत्तिरर्मध्यमा श्रुतिगोचरः।
द्योतितार्थः च पश्यन्ति सूक्ष्मा वाग न पायनी।।
इसी विभाजन को "आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक" जी ने "वेद विज्ञान आलोक" ग्रन्थ में विस्तार से बताया है।
हम इन अवस्थाओं की विस्तार से चर्चा करेंगे :-
Nice
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