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ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 86, मंत्र संख्या 16 व 17 पर आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी का त्रिविध भाष्य

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प्रस्तुति - यशपाल आर्य  1.  न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३कपृत्। सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥ 2.  न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते। सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥ (ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 86 मंत्र संख्या 16 व 17) मेरी (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी की) भूमिका व इन मंत्रों की पृष्ठभूमि मेरी (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी की) दृष्टि मे वेद उन छन्दों का समूह है जो सृष्टि प्रक्रिया में कम्पन के रूप में समय-2 पर उत्पन्न होते हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द विभिन्न प्रकार के प्राण होते हैं, जिनकी उत्पत्ति के कारण ही व जिनके विकृत होने से अग्नि, वायु आदि सभी तत्वों का निर्माण होता है। सूर्य, तारे, पृथिव्यादि सभी लोक इन छन्द प्राणों के ही विकार हैं। सृष्टि प्रक्रिया में उत्पन्न विभिन्न छन्द Vibrations के रूप में इस समय भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। इन्हीं प्राणों को अग्नि आदि चार ऋषियों ने सृष्टि की आदि में सविचार समाज्ञात समाधि की अवस्था में ईश्वरीय कृपा से ग्रहण किया था और फिर ईश्वरीय कृपा से ही उनके अर्थ का भी साक्षात्

वैदिक ऋषि विषयक भ्रान्ति निवारण

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लेखक - यशपाल आर्य कुछ लोगों एक भ्रांति है कि अग्निव्रत नैष्ठिक जी वेद मंत्रों के ऊपर उल्लेखित विभिन्न ऋषियों को दो प्रकार का मान रहे हैं। एक मानव ऋषि, दूसरे सूक्ष्म प्राण ऋषि। वेद मंत्रों पर लिखे ऋषि को महर्षि दयानन्द जी केवल मानव ऋषि ही मानते हैं। महर्षि दयानन्द के द्वारा उन्हें सूक्ष्म प्राण के रूप में कहीं कहा गया नहीं मिलता। उन्हें सूक्ष्म प्राण रूप मानने की वैज्ञानिक दृष्टि महर्षि के अनुकूल कैसे है यह प्रश्न देखने में बहुत सही प्रतीत होता है किंतु गंभीरता से ऋषि के ग्रंथों को पढ़ने तथा वेद पर विचार करने पर इसका उत्तर मिल जाता है तो आइए विषय को प्रारंभ करते हैं         वेदों के ऊपर उल्लिखित ऐतिहासिक मानव ऋषि की महर्षि दयानंद जी की मान्यता तो आचार्य अग्निव्रत जी की भी है, परन्तु प्राणरूप ऋषि की मान्यता पर आपको आपत्ति है। जरा, इस पर विचारें कि कई स्थानों पर जो ऋषि मंत्र के ऊपर उल्लिखित हैं, वही ऋषि मंत्र में भी हैं। तब क्या मंत्र में उल्लिखित ऋषि ऐतिहासिक है? यदि हाँ, तो वेद में मानव इतिहास सिद्ध हुआ, जो महर्षि दयानंद जी के मन्तव्य के प्रतिकूल है और आप भी नहीं मानेंगे। तब मंत्र में उ

वाणी की चार अवस्थाएं

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लेखक - शिवांश आर्य (यह लेख आचार्य अग्निव्रत जी के दिए गए ज्ञान पर आधारित है) सृष्टि के आदि में चार ऋषि अग्नि,आदित्य वायु और अंगिरा ने ब्रह्माण्ड से वैदिक ऋचा रूपी वाणी(vibration) को ईश्वर कृपा से ग्रहण किया व उनकी ही प्रेरणा से उन ऋचाओं के अर्थों को जाना। उन्होंने समझ कर के कालांतर में आदिब्रह्मा जी को इन विद्या का उपदेश किया। ब्रह्मा जी वो पहले ऋषि हुए जिनको चारों वेदों का ज्ञान था। तत्पश्चात ब्रह्मा जी से सम्पूर्ण भूमण्डल पर वेद विद्या की परंपरा प्रारम्भ हुई। वाणी के विषय में वेद में प्रमाण है ऋग्वेद 1/164/45  च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिण॑:।  गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या॑ वदन्ति॥ इस मंत्र में चार प्रकार की वाणी का वर्णन है और यह भी बताया है कि इन चारों को विद्वान जन ही जानते हैं। महर्षि दयानंद जी वाणी के चार प्रकार को स्पष्ट करते हुए व्याकरण के अनुसार नाम,आख्यात,उपसर्ग और निपात ये चार भेद बतालते हैं। महर्षि प्रवर यास्क जी ने निरुक्त 13.9 में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है। उन्होंने वाणी के प्रकार में छः