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हनुमान् जी लंका कैसे गए

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लेखक - यशपाल आर्य  हनुमान जी लंका उड़ कर गए या तैर कर इस विषय को जानने के लिए हमें वाल्मीकि रामायण का गंभीरता से अध्ययन करना होगा, क्योंकि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी के समकालीन महर्षि वाल्मीकि जी हुए थे वाल्मीकि रामायण के सुंदर काण्ड के प्रथम सर्ग के श्लोक संख्या 68, 69 में जो वर्णन आया है वह तैरने का है और वाल्मीकि रामायण के सुंदर काण्ड के प्रथम सर्ग के श्लोक संख्या 77, 78 में जो वर्णन आया है वह उड़ने का है  वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड प्रथम सर्ग के श्लोक 211 व 212 में श्री हनुमान् जी के लंका प्रवेश से जुड़े दो श्लोकों में ‘निपपात’ शब्द का प्रयोग किया गया है इन दोनों श्लोकों में ‘निपपात’ शब्द से यह स्पष्ट होता है कि वे आकाश मार्ग से समुद्र के किनारे स्थित पर्वत पर उतर गये। यदि वे वहाँ तैर रहे होते, तो ‘निपपात’ पद का प्रयोग नहीं होता, बल्कि वहाँ समुद्र तल से पर्वत के ऊपर चढ़ने का वर्णन होता, जबकि कहीं भी चढ़ने का वर्णन नहीं, इससे भी हनुमान् जी का उड़ना सिद्ध होता है। अर्थात् वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान् जी उड़े भी थे और तैरे भी। अब विचार करते हैं क्या कोई उड़ सकता है हनुमान् ज

जिसे बड़ी बड़ी space agencies भी नहीं बता सकीं, उसे आचार्य अग्निव्रत जी ने ऐतरेय से बताया

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लेखक - यशपाल आर्य सर्वप्रथम हम जान लें कि सूर्य की कई लेयर होती हैं, जिसे आप इस डायग्राम में देख सकते हैं इसमें सबसे अंदर वाली लेयर को core कहते हैं, इसमें nuclear fusion की क्रिया होती है। इसका घनत्व 150gm/cm³ है और इसका तापमान लगभग 15.7 करोड़ केल्विन है। Modern science को इसकी सही त्रिज्या नहीं पता है, वह सूर्य की संपूर्ण त्रिज्या का 20 से 25% मानता है The core of the Sun is considered to extend from the center to about 0.2 to 0.25 of solar radius. ( Source- Wikipedia) अब हम वैदिक विज्ञान के द्वारा सूर्य के core की त्रिज्या को सही तरह से जानेंगे हमारे वेद व आर्ष ग्रंथों में महान विज्ञान है, लेकिन महाभारत के युद्ध के कारण ऋषि मुनियों के मर जाने के कारण, यह विज्ञान धीरे धीरे विलुप्त होता गया, विज्ञान यौगिक शब्दों में है, जिसको लोग न समझ कर पशु बली जैसे पाप को वेद व वेदानुकूल आर्ष ग्रंथों में मान लिया। इस ओर सर्वप्रथम महर्षि दयानंद जी का ध्यान गया,  महर्षि दयानंद जी को जहर दे कर मार डाला गया, इस कारण उन्हें ब्राह्मण ग्रंथों के भाष्य करने का समय ही नहीं मिला। लेकिन आचार्य अग्निव्रत न